कृति - ’टुडे’स्मृतिः
संकलयिता - कविराज जगन्नाथ झा शास्त्री
विधा - हांस्य-व्यंग्य काव्य
प्रकाशक - श्री वैद्यनाथ झा शास्त्री, नेपालराज संस्कृत महाविद्यालय, मटिहानी, जिला दरभंगा
संस्करण - प्रथम, 1957
अंकित मूल्य - 25 नये पैसे
संस्कृत में हास्य - व्यंग्य परक काव्यों की परम्परा प्राचीनकाल से ही रही है। हास्य और व्यंग्य जब मिश्रित होकर काव्य को पोषित करते हैं तो एक तरफ तो वह पाठक/श्रोता के मुख पर हास्य ले आते हैं तो दूसरी ओर वह व्यंग्य के माध्यम से सामाजिक विडम्बनाओं को भी सरलतया उकेर देते हैं। ऐसी ही एक रचना है-’टुडे’स्मृतिः। इस रचना के संकलयिता के रूप में कविराज जगन्नाथ झा शास्त्री का नाम दिया गया है, अतः यह कहना मुश्किल है कि यह मूलतः किसकी रचना है, यद्यपि कुछ स्थानों पर इस के रचनाकार के रूप में कविराज जगन्नाथ झा शास्त्री का ही नाम लिया गया है। इसमें निबद्ध पद्यों के साथ भी रचनाकार का संकेत न होने से यह पुष्ट होता है कि जगन्नाथ झा शास्त्री ही इसके लेखक हैं।
जगन्नाथ झा शास्त्री का जन्म मिथिला के ग्राम शाहपुर, पो. लोहट जिला दरभंगा में हुआ। ये बाल्काल से ही विविध क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करते रहे। विडम्बना यह हुई कि कविराज जगन्नाथ झा शास्त्री मात्र बीस वर्ष की अल्पायु में ही दिवंगत हो गये। इनके द्वारा संकलित पद्यों को इनकी मृत्यु के उपरान्त नेपालराज संस्कृत महाविद्यालय, मटिहानी, जिला दरभंगा ने पुस्तकाकार में प्रकाशित करवाया। इस कृति में मात्र 10 पृष्ठ हैं, उनमें भी पद्य मात्र 6 पृष्ठों में निबद्ध हैं, जिनकी संख्या मात्र 44 हैं। कवि ने अंग्रेजी के शब्दों को प्रचलन के आधार पर ज्यों का त्यों संस्कृत में देवनागरी लिपि में ग्रहण कर लिया है। यह कुछ को अटपटा लग सकता है किन्तु यह शैली इस कृति के अनुकल है क्योंकि कवि को आधुनिक हास्य-व्यंग्य का वातावरण निर्मित करना है। इसमें तीन अध्याय हैं-
1 सामान्यधर्म्मनिरूपणम्-
यह काव्य प्राचीन शास्त्रों की शैली की तरह रचा गया है, जहां कुछ जिज्ञासाएं लेकर कुछ व्यक्ति किसी विद्वान् के पास जाते हैं और उनसे प्रश्न करते हैं। काव्य के प्रारम्भ में प्रस्तावना में कहते हैं कि महर्षि फैशनाचार्य्य के पास कुछ जैण्टलमैन जाकर टुडेधर्म (आधुनिक धर्म) के विषय में पूछते हैं-
एकदा ‘चेयरा’ऽऽसीनं ‘टुडे‘ धर्म्मविदांरम्।
महर्षिं ‘फैशनाचार्य्यं’ ‘जैण्टलमैनाः’ समभ्ययुः।।
तब फैशनाचार्य्य कहते हैं-
‘फैशनाचार्य्य’ उवाच-
शृणुताऽवहिताः सौम्याः ! ‘टुडे’ धर्म्मान् कलिप्रियान्।
‘एवोल्यूशनथ्यूर्यां’ ये नित्यं ‘गिर्गिट’रूपिणः।।
(एवोल्यूशनथ्यूर्या-मानव विकास का सिद्धान्त)
धर्म का आधुनिक लक्षण कुछ यूं प्रस्तुत करते हैं-
‘लेडी’ ‘फ्रैण्ड्स’‘समाचाराः’ ‘स्वस्य च प्रियमात्मनः’।
एतच्चतुर्विधं प्राहुः ‘टुडे’ धर्म्मस्य लक्षणम्।।
2 दिनचर्य्यानिरूपणम्-
आधुनिक प्रातः स्मरण का निरूपण करते हुए कहते हैं-
करारविन्देन ‘सिगार’वृन्दं
मुखारविन्दे विनिवेशयन्तम्।
‘स्पृंगदार’ सच्-‘चेयर’ केशयानं
‘गौरं’ महः ‘सर्विस’दं नमामि।।
मॉर्डन स्नानविधि का वर्णन करते हैं कि ठण्ड में वीकली स्नान किया जा सकता है और ग्रीष्मकाल में यथारुचि-
साप्ताहिकं शीतकाले ग्रीष्मकाले यथारुचि।
नग्नः ‘टीनटबे’ कुर्य्यात् स्नानं ‘सोप’समन्वितम्।।
3 भक्ष्याऽभक्ष्यनिर्णय-
आधुनिक भोजन शैली किस प्रकार की होनी चाहिए-
यदुत्त्थानयितुं शक्यं क्षेप्तुं निर्गलितुं तथा।
तत्सर्व्वं ‘नेचुरल’भक्ष्यमभक्ष्यं त्वितरन्मतम्।।
‘टेबुलं- पुरतो धृत्वा ‘चेयर’स्थगुदः पुमान्।
‘सूटिडो’‘बूटिडो’ऽश्नियात् ‘छुरिका-कण्टका’ऽन्वितः।।
‘बराण्डी’‘बिस्सकीं’ ‘पेगं’ मध्ये मध्ये पिबेन्मुहुः।
कुक्कुटाण्डञ्च फलवद् ग्राह्यं सर्व्वेषु कर्म्मसु।।
सही भी है क्योंकि आज भक्ष्य-अभक्ष्य का अन्तर ही समाप्त हो गया है। काव्य के अन्त में आधुनिक शिक्षा पद्धति पर भी करारा व्यंग्य किया गया है-
चातुर्य्यं चाकरीमात्रे कौशलं ‘बूटपालिशे’।
भाले लिखति चैतावत् शिक्षा पाश्चात्यचालिता।।
आज का विद्यार्थी पाश्चात्य शिक्षा को तो ग्रहण कर लेता है किन्तु अपने देश के इतिहास, संस्कृति के बारे में उसका ज्ञान कोरा ही रहता है-
एम.ए.पर्य्यन्तमुत्तीर्ण इतिहासे प्रतिष्ठितः।
छात्रो वक्तुं न शक्नोति भीष्मः कस्य सुतोऽभवत्।।
आंगलानान्तु को राजा कियद्वारं व्यमूत्रयत्।
इति सर्व्वं विजानाति न जानाति स्वकं गृहम्।।
संकलयिता - कविराज जगन्नाथ झा शास्त्री
विधा - हांस्य-व्यंग्य काव्य
प्रकाशक - श्री वैद्यनाथ झा शास्त्री, नेपालराज संस्कृत महाविद्यालय, मटिहानी, जिला दरभंगा
संस्करण - प्रथम, 1957
अंकित मूल्य - 25 नये पैसे
संस्कृत में हास्य - व्यंग्य परक काव्यों की परम्परा प्राचीनकाल से ही रही है। हास्य और व्यंग्य जब मिश्रित होकर काव्य को पोषित करते हैं तो एक तरफ तो वह पाठक/श्रोता के मुख पर हास्य ले आते हैं तो दूसरी ओर वह व्यंग्य के माध्यम से सामाजिक विडम्बनाओं को भी सरलतया उकेर देते हैं। ऐसी ही एक रचना है-’टुडे’स्मृतिः। इस रचना के संकलयिता के रूप में कविराज जगन्नाथ झा शास्त्री का नाम दिया गया है, अतः यह कहना मुश्किल है कि यह मूलतः किसकी रचना है, यद्यपि कुछ स्थानों पर इस के रचनाकार के रूप में कविराज जगन्नाथ झा शास्त्री का ही नाम लिया गया है। इसमें निबद्ध पद्यों के साथ भी रचनाकार का संकेत न होने से यह पुष्ट होता है कि जगन्नाथ झा शास्त्री ही इसके लेखक हैं।
जगन्नाथ झा शास्त्री का जन्म मिथिला के ग्राम शाहपुर, पो. लोहट जिला दरभंगा में हुआ। ये बाल्काल से ही विविध क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करते रहे। विडम्बना यह हुई कि कविराज जगन्नाथ झा शास्त्री मात्र बीस वर्ष की अल्पायु में ही दिवंगत हो गये। इनके द्वारा संकलित पद्यों को इनकी मृत्यु के उपरान्त नेपालराज संस्कृत महाविद्यालय, मटिहानी, जिला दरभंगा ने पुस्तकाकार में प्रकाशित करवाया। इस कृति में मात्र 10 पृष्ठ हैं, उनमें भी पद्य मात्र 6 पृष्ठों में निबद्ध हैं, जिनकी संख्या मात्र 44 हैं। कवि ने अंग्रेजी के शब्दों को प्रचलन के आधार पर ज्यों का त्यों संस्कृत में देवनागरी लिपि में ग्रहण कर लिया है। यह कुछ को अटपटा लग सकता है किन्तु यह शैली इस कृति के अनुकल है क्योंकि कवि को आधुनिक हास्य-व्यंग्य का वातावरण निर्मित करना है। इसमें तीन अध्याय हैं-
1 सामान्यधर्म्मनिरूपणम्-
यह काव्य प्राचीन शास्त्रों की शैली की तरह रचा गया है, जहां कुछ जिज्ञासाएं लेकर कुछ व्यक्ति किसी विद्वान् के पास जाते हैं और उनसे प्रश्न करते हैं। काव्य के प्रारम्भ में प्रस्तावना में कहते हैं कि महर्षि फैशनाचार्य्य के पास कुछ जैण्टलमैन जाकर टुडेधर्म (आधुनिक धर्म) के विषय में पूछते हैं-
एकदा ‘चेयरा’ऽऽसीनं ‘टुडे‘ धर्म्मविदांरम्।
महर्षिं ‘फैशनाचार्य्यं’ ‘जैण्टलमैनाः’ समभ्ययुः।।
तब फैशनाचार्य्य कहते हैं-
‘फैशनाचार्य्य’ उवाच-
शृणुताऽवहिताः सौम्याः ! ‘टुडे’ धर्म्मान् कलिप्रियान्।
‘एवोल्यूशनथ्यूर्यां’ ये नित्यं ‘गिर्गिट’रूपिणः।।
(एवोल्यूशनथ्यूर्या-मानव विकास का सिद्धान्त)
धर्म का आधुनिक लक्षण कुछ यूं प्रस्तुत करते हैं-
‘लेडी’ ‘फ्रैण्ड्स’‘समाचाराः’ ‘स्वस्य च प्रियमात्मनः’।
एतच्चतुर्विधं प्राहुः ‘टुडे’ धर्म्मस्य लक्षणम्।।
2 दिनचर्य्यानिरूपणम्-
आधुनिक प्रातः स्मरण का निरूपण करते हुए कहते हैं-
करारविन्देन ‘सिगार’वृन्दं
मुखारविन्दे विनिवेशयन्तम्।
‘स्पृंगदार’ सच्-‘चेयर’ केशयानं
‘गौरं’ महः ‘सर्विस’दं नमामि।।
मॉर्डन स्नानविधि का वर्णन करते हैं कि ठण्ड में वीकली स्नान किया जा सकता है और ग्रीष्मकाल में यथारुचि-
साप्ताहिकं शीतकाले ग्रीष्मकाले यथारुचि।
नग्नः ‘टीनटबे’ कुर्य्यात् स्नानं ‘सोप’समन्वितम्।।
3 भक्ष्याऽभक्ष्यनिर्णय-
आधुनिक भोजन शैली किस प्रकार की होनी चाहिए-
यदुत्त्थानयितुं शक्यं क्षेप्तुं निर्गलितुं तथा।
तत्सर्व्वं ‘नेचुरल’भक्ष्यमभक्ष्यं त्वितरन्मतम्।।
‘टेबुलं- पुरतो धृत्वा ‘चेयर’स्थगुदः पुमान्।
‘सूटिडो’‘बूटिडो’ऽश्नियात् ‘छुरिका-कण्टका’ऽन्वितः।।
‘बराण्डी’‘बिस्सकीं’ ‘पेगं’ मध्ये मध्ये पिबेन्मुहुः।
कुक्कुटाण्डञ्च फलवद् ग्राह्यं सर्व्वेषु कर्म्मसु।।
सही भी है क्योंकि आज भक्ष्य-अभक्ष्य का अन्तर ही समाप्त हो गया है। काव्य के अन्त में आधुनिक शिक्षा पद्धति पर भी करारा व्यंग्य किया गया है-
चातुर्य्यं चाकरीमात्रे कौशलं ‘बूटपालिशे’।
भाले लिखति चैतावत् शिक्षा पाश्चात्यचालिता।।
आज का विद्यार्थी पाश्चात्य शिक्षा को तो ग्रहण कर लेता है किन्तु अपने देश के इतिहास, संस्कृति के बारे में उसका ज्ञान कोरा ही रहता है-
एम.ए.पर्य्यन्तमुत्तीर्ण इतिहासे प्रतिष्ठितः।
छात्रो वक्तुं न शक्नोति भीष्मः कस्य सुतोऽभवत्।।
आंगलानान्तु को राजा कियद्वारं व्यमूत्रयत्।
इति सर्व्वं विजानाति न जानाति स्वकं गृहम्।।
बहुत बढिया डॉ.कौशल तिवारी जी..आप हमें ब्लोग के माध्यम से संस्कृत के कवि और उनकी रचनाओं का परिचय व समीक्षा विद्वान् समीक्षकों के माध्यम से उपलब्ध करवा रहे हैं,ये बडा ही कठिन कार्य है जिसको आप अनवरत कर रहे हैं। साथ ही स्वयं भी कुछ रचनाओं की समीक्ष कर रहे हैं।
ReplyDeleteजैसे आज आपने 'कविराज जगन्नाथ झा शास्त्री' की कृति ’टुडे’स्मृतिः का परिचय और समीक्षा प्रस्तुत की। इसके माध्यम से हम एक ऐसे व्यक्तित्व से परिचित हुए जो 20 वर्ष की अल्पायु में ही आंग्लभाषा के शब्दों को संस्कृत में देवनागरी लिपि में प्रयुक्त करके नवाचार करते हुए हास्य-व्यंग्य-पूर्ण एक लघु कलेवर से युक्त कृति की रचना करता है। पुस्तक तो सबको मिल नहीं सकती लेकिन आपने उसकी एक झलक सबको दिखाई और हमें उसके कुछ पद्यों को पढने का अवसर मिला। ज्येष्ठ भ्राता कौशल जी को पुनः आभार..😊
ललित नामा जी बहुत बहुत शुक्रिया
Deleteवास्तव में तुम्हारा परिश्रम व संस्कृत के प्रति निष्ठा प्रशंसनीय है.
ReplyDeleteबहुत शुक्रिया
Deleteबहुत सुन्दर कालसापेक्ष रचना।संस्कृत को मृतभाषा आदि आदि कहने वालों को संस्कृत के ऐसे ग्रन्थरत्नों को एक बार देखना चाहिए कि कैसे संस्कृत का विद्वान् काल को हस्तामलकवत् करके युगधर्म और व्यवस्था पर करारा प्रहार करता है।
ReplyDeleteअगर यह पुस्तक पूरी पढ़ना सकें तो
आभार इस पुस्तक को मैं भेज देता हूँ आपके लिए
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