कृति - सीताभ्युदयम्
विधा - नाटक
लेखक - रामजी उपाध्याय
प्रकाशक - भारतीय संस्कृति संस्थान, महामनापुरी, वाराणसी
संस्करण - प्रथम, 1968
पृष्ठ संख्या - 16+30+38
अंकित मूल्य -
रामायण हमारे साहित्य में महत्त्वपूर्ण उपजीव्य काव्य के रूप में प्रतिष्ठित है। अर्वाचीन संस्कृत साहित्य में रामायण के आधार पर कई काव्य लिखे गये हैं। इनमें से कई काव्यों में सीता को केन्द्र में रखकर भी काव्य रचे गये हैं, यथा रेवाप्रसाद द्विवेदी कृत उत्तरसीताचरितम्, अभिराज राजेन्द्र मिश्र कृत जानकीजीवनम्। प्रो. रामजी उपाध्याय रचित सीताभ्युदयम् सीताचरितपरक काव्यों में महत्त्वपूर्ण है। यह एक नाटक है, जिसके छः अंकों में सीता की कथा को नई दृष्टि से प्रस्तुत किया गया है। नाटक की प्रस्तावना में ही जब मारिष से सूत्रधार कहता है कि आज काशी के राम नामक कवि के सीताभ्युदय नाटक का अभिनय करना है तो मारिष कहता है कि उसे इस नाट्य के अभिनय में कोई रूचि नहीं है क्योंकि परवर्ती कवि रामायण की उन घिसी-पिटी प्रक्षिप्त कथाओं को भी अपनी कथावस्तु में संजो देते हैं, जो सहृदयों को चुभती है। इस कारण ऐसे काव्यों में नाट्योचित सरसता दिखाई नहीं देती। तब सूत्रधार कहता है कि इस नाटक में कवि ने औचित्य-निष्ठ वक्रोक्ति के द्वारा सभी प्रक्षिप्त कथांशों का संशोधन कर दिया है, नये-नये कथांशों को जोडा है और अनर्गल कथांशों को तिलांजलि देकर कथावस्तु में सरसता निष्पन्न की है- सीताभ्युदय औचित्यानुबद्धवक्रोक्तिधिया तादृशां प्रक्षिप्तांशानां परिमार्जनं सुकृतम्। तदर्थमभिनवकथांशानामागमादेशविधिना सौष्ठवं सन्निहितम्।
इस नाटक में एक नई शैली अपनाई गई है, ग्रन्थ के आरम्भ में ही नाटक से पूर्व सोलह पृष्ठों में गद्य में सीता का वक्तव्य आत्मकथा के रूप में दिया गया है। इस आत्मकथा के द्वारा पाठकों को इस कथा की अभिनवता का साक्षात् पूर्व में ही हो जाता है। अंकानुसार इस नाटक की कथावस्तु संक्षिप्त रूप में इस प्रकार है-
प्रथमांक - नाटक की कथा राम के राज्याभिषेक के पश्चात् आरम्भ होती है। यहां ब्रह्मा एवं ब्रह्मर्षि वसिष्ठ के मध्य वार्तालाप दिया गया है। ऋषि वसिष्ठ ब्रह्मा से कहते हैं कि आपने राम के जीवन में कष्ट ही कष्ट लिखे हैं-आजन्म कष्टं कष्टं महाकष्टं ललाटे भवता लिखितं रामस्य। तब ब्रह्मा कहते हैं कि ये सब लोकहित के लिये ही हो रहा है। यही पर ज्ञात होता है कि भृगु ऋषि द्वारा विष्णु को दिये गये शाप के कारण अभी राम को सीता का और वियोग सहन करना है। यही ब्रह्मा स्पष्ट करते हैं कि आसन्नप्रसवा सीता को युगल पुत्र की मंगलमयी प्रसूति वाल्मीकि ऋषि के आश्रम में होगी, ऐसी व्यवस्था उन्होंने कर दी है।
द्वितीयांक - वसिष्ठ ऋषि के आश्रम में राम एवं सीमा का प्रवेश होता है। वसिष्ठ ऋषि राम को बताते है कि उन्हें जुडवां पुत्र की प्राप्ति होने वाली है लेकिन उनका जन्म अभुक्तमूल में होने से 12 वर्ष तक उनका मुख-दर्शन परिवार के सभी लोगों के लिये अनिष्टकारी सिद्ध होगा, अतः इन वर्षों में गंगा व तमसा के संगम पर स्थित वाल्मीकि के ऋषि के आश्रम में रहना चाहिए। राम व सीता लोकहित को देखते हुए इसके लिए सहर्ष तैयार हो जाते हैं-
सीता - (सोल्लासम्) रम्याः संकल्पा मां महामुनिशरणे गंगाधिष्ठितप्रदेशे त्वरयन्ति। इदानीं तु नित्यं पुष्पहारादिना पूजापरायणा मातुर्गंगाया उत्संगे निषीदन्तीमात्मानं कल्पयामि।
तृतीयांक - इस अंक का स्थान वाल्मीकि ऋषि का आश्रम है, जहां राम सीता के साथ जाते हैं। यही वाल्मीकि राम से कहते हैं कि वे राम के चरित को आधार बनाकर काव्य लिख रहे हैं, जिसमें अब सीता भी रामचरित के प्रकरणों को बतलाकर उनकी सहायता करेगी। राम लोकल्याण एवं देवताओं की के कार्यों को सिद्ध करने के लिये सीता को वाल्मीकि ऋषि के आश्रम में छोडकर लौट जाते हैं- अपरं च चावयोश्चारुचर्येण किं वैकैकेन देवानां बहूनि कार्याणि साध्यानीति स्वजीवनसाफल्यं संविज्ञातमेव। ब्रह्मादिदेवानां नियोगे नास्ति मादृशां विकल्पावसरः।
चतुर्थांक - वाल्मीकि ऋषि के आश्रम में सीता सभी प्राणियों का ध्यान रखती हुई अपने पुत्रों का पालन कर रही है। उन्हें पुत्र-पालन के साथ इस बात की भी चिन्ता रहती है कि क्यारियां सींची गई या नही, पशु-पक्षियों के लिये जलकुण्ड भरे गये या नहीं, चीटियों के लिये अन्नकण बिखेरे गये या नहीं- अनुपमे, किमाश्रमकुमारिकाभिः पुष्प-लता-क्षुपाणां केदारिका अभिषिक्ताः? किं वा पशु-पक्षिणां प्रपाः पूरिताः? उताहो पिपीलिकाभ्योऽन्नकणा वितीर्णाः?
इसी अंक में सीता इच्छा प्रकट करती है कि अब वे पाताल लोक में जाकर माता पृथिवी से मिलना चाहती हैं, क्योंकि अब इस लोक में उनका कार्य पूर्ण हो चुका है।
पंचमांक - इस अंक का स्थान वरुण लोक है, जहां वरुण देव पृथिवी देवी के साथ वार्तालाप कर रहे हैं। माता पृथिवी भी सीता की प्रतीक्षा कर रही है। नारद सूचना देते हैं कि सीता का मातृभूमि में लौट आने का समय हो गया है।
षष्ठांंक - ब्रह्मा और वरुण देव की इच्छा जानकर राम स्वयं सीता को पाताललोक जाने की अनुमति दे देते हैं- अहं तु सीतापतिः स्वीय प्रभारूपेण सीतैव वारुणे लोके जगदखिलं राममयं विधास्ये। एतदर्थं सीतायास्तत्र पाताले प्रयाणं वरुणप्रस्तावानुवर्तनेनानुमोदयामि। अन्त में राम भरत वाक्य कहते हैं-
मानवा भूतिमन्तः स्युः सौहार्दं स्यात् परस्परम्।
पराभ्युदययोगस्तु प्रकृतिः सर्वदेहिनाम्।।
यह नाटक सीता विषयक प्रक्षेपकों का समाधान बडे सुन्दर और नाटकीय तरीकों से कर देता है, जिससे वे समस्त घटनाएं, जो उनके घटने के तरीकों से अनुचित सी जान पडती थी, वे सब लोककल्याण के लिये होती हुई प्रतीत होती हैं और राम एवं सीता का वह उदात्त चरित और अधिक उभर कर सामने आता है, जिसका एकमात्र उद्देश्य लोकमंगल है |
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteअत्यन्त आभार
DeleteShobhanam
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद
Deleteसुन्दर लेखन कौशल
ReplyDeleteशोभनम्
ReplyDeleteउत्तमा समीक्षा
ReplyDeleteVery nice
ReplyDeleteDr.Bhupendra Kumar Rathor
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