Thursday, January 20, 2022

कोरोना काल की संस्कृत कविता _ कोरोनाकोपशतकम्

कृति - कोरोनाकोपशतकम्



प्रणेता- डॉ. बालकृष्णशर्मा

प्रकाशक- अमन प्रकाशन, सागर (म.प्र.)

आईएसबीएन- 978-93-80296-64-7

पृष्ठ संख्या- 128

अंकित मूल्य- 180रू.

संस्करण- प्रथम, 2020

कवि सम्पर्क- मो.- 09329682142, ईमेल- b.k.041973@gmail.com



कवि परिचय

        भारतवर्ष की पवित्र भूमि ने अनेक कवियों, मनीषियों को जन्म दिया है। महर्षि वाल्मीकि से प्रारम्भ हुई कवियों की उज्ज्वल परम्परा सतत विकासमान है। इसी परम्परा के सातत्य में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं- कवि डॉ. बालकृष्ण शर्मा। डॉ. शर्मा का जन्म 01.04.1962 को उ.प्र. के बस्ती जिले के गौरा पाण्डेय नामक ग्राम में हुआ। उन्होंने आचार्य नरेन्द्रदेव  किसान स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बभनान जिला गोण्डा (उ.प्र.) से बी.ए., एम.ए. (संस्कृत) परीक्षाएं उत्तीर्ण कीं। तत्पश्चात् श्रीराजगोपाल संस्कृत महाविद्यालय, अयोध्या से 1985 में साहित्याचार्य तथा सम्पूर्णानन्द संस्कृत महाविद्यालय, वाराणसी से 1996 में पं. वायुनन्दन पाण्डेय जी के निर्देशन में ‘ध्वनिसिद्धान्तालोके संस्कृतमुक्तककाव्यदर्शनम्’ विषय पर पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की हैं। काशी में किये शास्त्रीय अध्ययन से प्राप्त वैदूष्य उनके अध्यापन में एवं काव्य रचनाओं में उभरकर सामने आता है। उन्होंने विभिन्न शास्त्रों का अध्ययन पारंगत आचार्यों की सन्निधि में प्राप्त किया है। कवि डॉ. बालकृष्ण शर्मा वर्तमान में शासकीय संस्कृत महाविद्यालय लश्कर, ग्वालियर में सह प्राध्यापक हैं। उन्हें प्राप्त प्रमुख सम्मानों में महामहिम राज्यपाल द्वारा प्रदत्त म.प्र. संस्कृत बोर्ड का ’वागर्थ सम्मान’ (2007) प्रमुख है। मौलिक संस्कृत काव्य रचनाओं के अतिरिक्त उनके द्वारा सम्पादित, सहसंपादित और संशोधित ग्रन्थ एवं पाठ्य पुस्तकें प्रकाशित हैं। उनका शोधकार्य गुणवत्तापूर्ण एवं उच्चस्तरीय है। 50 से अधिक शोधपत्र सागरिका, नाट्यम् आदि प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। उन पर कविभारती की कृपा छात्र जीवन में ही हो गयी थी फलस्वरूप उन्होंने स्फुट पद्य रचनाएं करना आरम्भ कर दिया था। शनैः शनैः प्रवर्धमान वाणी की साधना के फलस्वरूप उन्होंने मातृभूमि के प्रति प्रेमभावना से ओतप्रोत अपनी पहली पूर्ण काव्यकृति भारताभिज्ञानशतकम् के रूप में संस्कृत जगत् को समर्पित की। प्रकाशित मुक्तकाव्य/गीतिकाव्य/खण्डकाव्य- भावपञ्चासिकाकाव्यम् (तूणकछन्द, दूर्वा पत्रिका, उज्जैन, जनवरी-मार्च 2007 में प्रकाशित), गिराभरणकाव्यम् (शिखरिणी छन्द, पद्यबन्धा पत्रिका स्पन्द-9, अप्रैल 2016), वामाभरणकाव्यम्/ नारीवैभवम् (वसन्ततिलका छन्द) और कोरोनाकोपशतकम् (शार्दूलविक्रीडित छन्द, शतककाव्य, कोरोनामहाव्याधि पर) हैं। डॉ. बालकृष्ण शर्मा की स्फुट रचनाएं प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में समय-समय पर प्रकाशित होकर सहृदयों द्वारा सराही गयी हैं। निरन्तर प्रकाशित हो रहीं इन रचनाओं ने कवि को कविगोष्ठियों में सम्मान प्राप्त कराया है। अब तक ये कई बार बड़े मंचों पर संस्कृत काव्यपाठ कर चुके हैं। इनकी 50 से अधिक मौलिक संस्कृत कविताएं हैं  जो राष्ट्रभक्ति, महाकवि कालिदास, भवभूति, प्रकृति, प्रशस्ति इत्यादि विषयों पर केन्द्रित हैं।



पुस्तक परिचय-  

                 चीन देश के वुहान नगर में वर्ष 2019 के अन्त में कोरोना नामक कीटाणु का प्रकोप प्रारंभ हुआ। यह कीटाणु अल्प समय में ही पूरे विश्व में फैल गया। यह इतना घातक था कि इसे विश्व स्वास्थ्य संगठन ने वैश्विक महामारी घोषित कर दिया। भारत में भी इसके दुष्प्रभाव को देखते हुए सरकारी और निजी स्तर पर कई उपाय अपनाये गये। प्रधानमंत्री ने मार्च 2020 में देशव्यापी लॉकडाउन घोषित कर दिया। यह लॉकडाउन क्रमशः कई चरणों में मई तक बढ़ता गया। इस भीषण महामारी में लॉकडाउन के चरण तीन तक के परिदृश्य का कवि डॉ. बालकृष्णशर्मा ने कवि दृष्टि से जो साक्षात्कार किया उसे ‘कोरोनाकोपशतकम्’ में निबद्ध किया है। कोरोनामहाव्याधि पर केन्द्रित इस शतककाव्य में 102 पद्य शार्दूलविक्रीडित छन्द में निबद्ध हैं। अन्तिम दो पद्यों में कवि का परिचय है। संस्कृत की परम्परागत पृष्ठभूमि पर समकालीन विषयों या समस्याओं को बेहतर तरीके से प्रस्तुत किया जा सकता है और उनके समाधान की दुष्प्रभाव रहित तथा प्रकृतिहितैषी विधियाँ बतायी जा सकती हैं। इसी की एक प्रतिनिधि रचना है- ‘कोरोनाकोपशतकम्’। कोरोना जैसी आधुनिक महामारी की प्रभावशाली प्रस्तुति कवि के कौशल की और संस्कृत भाषा के अभिव्यक्ति सामर्थ्य की परिचायक है (द्रष्टव्य पद्य क्र. 64)। एक करुण दृश्य द्रष्टव्य है-

तातः पश्यति निर्निमेषनयनः कश्चिज्जराजर्जरः

कोरोनोपरतं विदीर्णहृदयः सन्तानमेकाकिनम्।

काष्ठीभूतवपुर्विवर्णवदनो निद्रादरिद्रीकृतः

आक्रोशन् च विधिं पुनः पुनरयं शोकाकुलो व्याकुलः।।

 (पद्य 40)

अर्थात् यह वृद्धावस्था ग्रस्त, टूटे हृदय वाला, चेष्टा रहित शरीर वाला, सूखे मुख वाला, उड़ी नींद वाला, परेशान एवं शोकमग्न, निरन्तर जागरण करता हुआ कोई पिता बार-बार अपने भाग्य को कोसता हुआ कोराना विषाणु के संक्रमण से मरे हुए इकलौते पुत्र को ठगा सा देख रहा है।

                       इस काव्य में पद्य के साथ उसका अन्वय, संस्कृत टीका, हिन्दी अनुवाद और काव्यसौन्दर्य भी स्वयं कवि ने दिया है। इससे हिन्दी जगत् के लिए भी यह कृति उपकारी हो गयी है। प्रत्येक पद्य मुक्तक भी है और सभी पद्य एक निश्चित विषय ‘कोरोना’ पर केन्द्रित होने से सामूहिकता में भी हैं। प्रत्येक पद्य की अपनी अद्वितीय विशेषता है। रुचिकर अर्थालंकारों और प्रवाह में आये हुए शब्दालंकारों से अलंकृत यह काव्य साहित्य के पारखियों को आकृष्ट करने में समर्थ है। इसमें पौराणिक सन्दर्भों का भरपूर प्रयोग किया गया है और वे पौराणिक सन्दर्भ विषय की अभिव्यक्ति में सटीक बैठे हैं। ‘कोरोना’ के लिए ‘रक्तबीज’ की उपमा अनुपम है। कोरोना के निवारण हेतु विभिन्न देवों से प्रार्थना करना, जैन आचार ‘एकान्तवास’ की संस्तुति करना कवि के लोकोपकारी भाव तथा धार्मिक उदारता को प्रकट करता है। कोरोना के कारण उपजे विभिन्न भयावह दृश्यों, परिस्थितियों और विसंगतियों के बावजूद कवि में आशावाद की ज्योति निरन्तर जलती दिखायी पड़ती है। कोरोना से भी गतिशीलता की सीख का निरूपण अदम्य जीवटता का दर्शन है। कोरोना की उत्पत्ति, फैलने के कारण, बचाव के उपायों को भी भलीभाँति निरूपित किया गया है। आयुर्वेद, ज्योतिष आदि शास्त्रों के उल्लेख भी प्रसंगवशात् आये हैं। कवि भारतीय शास्त्रीय सिद्धांतों पर अडिग हैं। उन्होंने भारतीयता के आधार पर सुस्थिर होकर वैश्विक परिप्रेक्ष्य को देखा है। कई भारतीय मान्यताओं को कोरोना से बचाव में उपयोग में लाया जा रहा है। कवि उनको रेखांकित करते समय उन भारतीय मान्यताओं की प्रशंसा करना नहीं भूले हैं। कोरोना काल में दूरदर्शन पर प्रसारित किये गये धारावाहिकों रामायण, महाभारत, श्रीकृष्णा आदि का उल्लेख कवि ने किया है। साथ ही सोशल मीडिया फेसबुक आदि संचार माध्यमों की जनजागृति लाने के लिए प्रशंसा की है। संस्कृत कवि सुधारवादी आधुनिकता के समर्थक हैं। कहीं कवि प्रसिद्ध कवियों के अध्ययनजन्य संस्कारों से प्रभावित प्रतीत होते हैं। जैसे- ‘रम्ये सैकतलीनहंसमिथुने पुण्ये नदीसंगमे . . .’ (पद्य 57) पर महाकवि कालिदास के ‘कार्या सैकतलीनहंसमिथुना स्रोतोवहा मालिनी’(अभिज्ञानशाकुन्तलम् 6.17) की छाया है। ‘धर्मो रक्षति रक्षितः’ जैसी प्रचलित सूक्तियों का प्रयोग विषय को स्पष्ट करने के लिए किया गया है (पद्य 30)।

                            एक ओर कवि कोरोना निवारण योद्धाओं चिकित्सक आदि को महिमामण्डित करते हैं वहीं दूसरी ओर कोरोना निवारण में असहयोग करने वाले, कोरोना फैलाने वाले असामाजिक तत्त्वों की कड़े शब्दों में निन्दा करते हुए उन्हें राक्षस तक कह देते हैं। कवि ने उनके लिए संस्कृत में प्रचलित गाली ‘दासीपुत्र’ का प्रयोग किया है। नये शब्दों का निर्माण कर सकने की संस्कृत की सामर्थ्य का कवि ने उपयोग किया है। जैसे- लॉकडाउन के लिए संरोध/निरोध शब्द का प्रयोग। कोरोना काल में मानव मन में उठे झंझावातों को काव्य में महसूस किया जा सकता है। कवि कहीं कोरोना को शेषनाग के विष का अंश कहते हैं, कहीं तो कहीं दुर्वासा का शाप तो कहीं ज्ञानी, यायावर, सामाजिक और साम्यवादी कहते हैं। कोरोना से मृत्यु के समय निर्मित होने वाली विवशता का वर्णन पाठक व श्रोता की आँखों को नम कर देने वाला है। मृतकों की अधिकता बताने के लिए कवि महाभारत के युद्ध का उदाहरण देते हैं जहाँ चहुँ ओर शव थे। यह कवि की क्रान्तदर्शिता ही है कि कवि द्वारा संकेतित भाव ‘कोरोना से बचते हुए जीना सीखना होगा’ (पद्य 99) को काव्यरचना के बहुत दिनों बाद अनलॉक की प्रक्रिया में प्रधानमंत्री ने व्यक्त किया था। काव्य का सौ वाँ पद्य संस्कृत नाटकों के भरतवाक्य की तरह लोकमंगल की भावना से ओतप्रोत है। 

             कवि डॉ. बालकृष्ण शर्मा सनातन धर्म में सुदृढ़ आस्था रखने वाले आस्तिक जन हैं। उनमें परम्परा के संस्कार गहरे समाये हुए हैं। परम्परा पर सुदृढ स्थिर रहकर भी आधुनिकता को देखा, परखा, समझा और व्यक्त किया जा सकता है, इसका निदर्शन है यह काव्य- कोरोनाकोपशतकम्। संस्कृत शास्त्रों के गंभीर अध्येता होने पर भी भाषा कहीं बोझिल नहीं हुई है। काव्य में प्रायः असमस्तपदा पदावली का प्रयोग हुआ है। प्रसाद गुण है। इस काव्य में मुख्य रूप से करुण रस है। यह काव्य संस्कृत की प्राचीन परंपरा का वर्तमान प्रतिनिधि है।

        संस्कृत की परंपरागतशैली में आधुनिक विषय पर रचित यह काव्य ‘कोरोना काल’ का काव्यमय दस्तावेज है। ‘उदयनकथा’ की तरह वर्षों बाद भी लोग इस भयावह काल का सजीव प्रत्यक्ष कर सकेंगे। यह काव्य की विलक्षणता ही है कि महामारी का वर्णन भी सहृदयों को रुचिकर लगेगा। यह ‘कोरोनाकोपशतकम्’ काव्य आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी के ‘अभिमतम्’, प्रो. मनुलता शर्मा के ‘मङ्गलाशंसन’, प्रो. आनन्द प्रकाश त्रिपाठी के ‘मेरी दृष्टि में’, डॉ. नौनिहाल गौतम की ‘भूमिका’ और स्वयं कवि के ‘आत्मनिवेदन’ की पूर्वपीठिका के साथ ही काव्य की विषयवस्तु को अभिव्यक्त करने वाले कवर-पृष्ठ से सुसज्जित है। यह संस्कृत में कोरोना पर रचित काव्यों में सर्वप्रथम प्रकाशित होने वाला ग्रन्थ है।।




-डॉ. नौनिहाल गौतम संस्कृत विभाग डॉ. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर 

98261 51335


Sunday, January 16, 2022

संस्कृत कविता की नई बानगी _ गगनवर्णानां गूहगवेषा

कृति - गगनवर्णानां गूहगवेषा



कवि - डॉ. हर्षदेव माधव

विधा - संस्कृत हाइकु काव्य

संस्करण - प्रथम, 2021

प्रकाशक - संस्कृति प्रकाशन, अहमदाबाद

पृष्ठ संख्या - 157

अंकित मूल्य - 125 रू. 





          डॉ. हर्षदेव माधव अर्वाचीन संस्कृत साहित्य में सर्वाधिक प्रयोगधर्मी कवि के रूप में जाने जाते हैं। आपने जहां एक ओर नवीन से नवीन विषयों पर कविताएं लिखी हैं, वहीं दूसरी ओर नई विधाओं को भी इस पुरातन भाषा में उतारा है। ऐसी ही एक विधा है हाइकुकाव्य। संक्षिप्तीकरण की यह विधा पूरे विश्व में प्रसिद्ध है। जापान से पूरे विश्व में फैलने वाली हाइकुविधा संस्कृत मेें भी अपनी अर्थसौरभ से सहृदय पाठकों को महका रही है। हाइकु काव्य में महज तीन पंक्तियों के 17 अक्षरों में कवि वह बात कह सकता है, जो सम्भवतः महाकाव्य में भी कहने में चूक जाए। यहां सपाट बयानबाजी काम नहीं आती। यह तो वक्रपन्थ है, जो प्रतीयमानार्थ से लबरेज होता है। आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी अगर कवि हर्षदेव माधव को हाइकुसम्राट् कहते हैं तो वह उचित ही है। 



            हजारों की संख्या में संस्कृत में हाइकु रचने वाले कवि कवि हर्षदेव माधव सतत् अपनी सर्जना में रत रहते हैं। कोरोना काल में कवि माधव ने सोशल मिडिया के सशक्त माध्यम फेसबुक पर कई हाइकु प्रस्तुत किये। इन हाइकु काव्यों को सहृदयों द्वारा बहुत सराहा गया।  इन से प्रेरणा पाकर अन्य कवियों ने भी संस्कृत हाइकु में लिखने का प्रयास किया। फेसबुक पर कवि द्वारा लिखे गये इन हाइकु काव्यों का कई पाठकों ने अपनी-अपनी भाषाओं में स्वतः ही अनुवाद भी किया, यथा- ओडिया, मराठी, राजस्थानी, अंग्रेजी, गुजराती, तेलगु, अवधी, नेपाली, गढवाली, सिन्धी, बंगाली आदि। कवि ने इस कोरोना काल में लिखे गये इन हाइकुकाव्यों का संकलन कर उपर्युक्त अनुवादों के साथ प्रकाशित करवाया है। अनुवादों से हाइकुकाव्यों की सम्प्रेषणता में वृद्धि हुई है।



    कोरोना काल में श्रमिकों के पलायन पर कवि हर्षदेव माधव कहते हैं -


आत्मनिर्भरा

जाताः श्रमिका गन्तुं

गृहं च मृत्युम्।।


आत्म निर्भर हो गए हैं मजदूर

घर और मौत

दोनों के लिए।।



       गौरतलब है कि जब मजदूरों को यातायात के साधन नहीं मिले तो वे पैदल ही अपने बलबूते पर घर के लिए निकल पडे थे। इस जद्दोजहद में कई श्रमिक अपने प्राणों से हाथ धो बैठे। यह हाइकु श्रमिकों की वेदना को बखूबी उकेरता है। हाइकु के ढांचे के अनुरूप यह व्यंजनागर्भित है। यहां च शब्द के प्रयोग से दोनों अर्थ साध्य हैं। संस्कृत भाषा की संश्लिष्टता इसे हाइकु काव्य के शिल्प के अनुकूल बनाती है। 

                 निम्न हाइकु के आधार पर इस संकलन का नामकरण किया गया है-


गूहगवेषां

क्रीडन्ति सान्ध्यकाले

गगनवर्णाः।।



प्रकृति चित्रण का अद्भुत काव्य है यह हाइकु। शाम के समय आकाश के रंग पल-पल बदलते हैं। कवि कहता हैं कि मानों ऐसा लग रहा है कि आकाश के ये रंग आंख मिचौली खेल रहे हों। कवि हर्षदेव माधव अपनी कविताओं में प्रतीकों का अद्भुत प्रयोग करते हैं। कवि के कई प्रतीक पूरी तरह से या तो अछूते होते हैं या वे नई अर्थवत्ता लेकर कवि माधव की कविताओं में प्रविष्ट होते हैं। एक हाइकु देखिए-


अक्ष्णोः प्रविष्टाः

कृषककन्यकाया

वृत्तेश्शलभाः।।


दाखिल हो गई हैं

किसान कन्या की आंखों में

बाड पर बैठी  तितलियां।।

        


 यहां तितलियां पहले प्यार की, युवावस्था की प्रतीक बन कर आती हैं। कितने कवि हैं जो प्रकृति के इन अंगो-उपांगों को अपनी कविताओं में इस तरह प्रतीक बनाकर प्रस्तुत कर पाते हैं? 



   प्रस्तुत संकलन में कवि ने हाइकु कविताओं को चित्रों के साथ भी प्रस्तुत किया है। संस्कृत कविता की नई बानगी देखने के लिये इन हाइकु काव्यों को पढा जाना चाहिए। यह देखना कितना दिलचस्प है कि विदेश से आई एक विधा किस तरह हमारी सबसे प्राचीन भाषा में केवल खप ही नहीं गई है अपितु एक नये रूप में अपने पूरे समय को भी प्रतिबिम्बित कर रही है।



Sunday, January 2, 2022

भावों और विचारों का अद्भुत प्रवाह : गोविंद चंद्र पांडेय कृत भागीरथी

कृति - भागीरथी

विधा - कवितासंग्रह

रचयिता - गोविन्द चन्द्र पाण्डेय

संस्करण - प्रथम

प्रकाशन वर्ष - 2002

प्रकाशक - राका प्रकाशन, प्रयागराज

पृष्ठ संख्या - 223

अंकित मूल्य - 200 रु.




   आचार्य गोविन्द चन्द्र पाण्डेय सुप्रतिष्ठित लेखक, कवि, इतिहासकार, दार्शनिक आदि कई रूपों में सुविख्यात हैं। हिन्दी और संस्कृत में आचार्य पाण्डेय की कविताएं सहृदय सामाजिकों के साथ समालोचकों में भी पर्याप्त रूप से चर्चित रही हैं। आचार्य पाण्डेय कृत भागीरथी काव्यसंग्रह का प्रकाशन 2002 में हुआ है। यह काव्यसंकलन कई मायनों में अनूठा है। यहां दर्शन काव्य के साथ चहलकदमी करते दृष्टिगोचर होता है। यद्यपि दार्शनिक भाव काव्य में सर्वत्र अनुस्यूत हैं तथापि वे कहीं भी काव्य के आस्वादन में बोझिल नहीं जान पडते हैं। विषय-वैविध्य इस काव्य की अपर विशेषता है। कवि ने मुक्तछन्द में कविताओं का स्वयं ही हिन्दी अनुवाद कर दिया है, जो  पृथक् रूप से एक मौलिक हिन्दी काव्य के समान ही आनन्द प्रदान करता है। कवि ने इस काव्यसंग्रह को सात भागों में विभक्त किया है, जिनमें 163 विभिन्न शिर्षकों से युक्त कविताएं निबद्ध हैं। 



1. लोकः - इस भाग में 13 कविताएं संकलित हैं जो हमारे समक्ष लोक के विविध दृश्यों को प्रस्तुत करती हैं, यथा- नाट्यायितम्, खलपूः,लूता, कंकालः इत्यादि। नाट्यायितम कविता में कवि संसार को अद्भुत रस के युक्त ऐसा नाटक बतलाता है, जिसमें नार-नारी नट-नटी तो हैं ही, साथ ही वे स्वयं ही प्रेक्षक (दर्शक) भी हैं-

 

प्रत्याकारमधायि रूपसुषमा शब्देषु चानुस्वनो

वृत्तान्तेषु कथाप्रसंगविधिं कौतूहलं गुम्फितम्।

नानोपाधिजनेषु नेतृचरितं प्रत्यात्मवैचित्र्यभाक्

संलक्ष्यः प्रतिभावमद्भुतरसो लोको नु नाट्यायितम्।।


रूप रूप मे निरालेपन की शोभा अन्तर्निहित है

शब्दों में अनन्त गूंज

घटनाओं से कहानियों के सूत्रों में 

अनोखे कौतूहल गुंथे।

अलग-अलग मुखौटा पहने नर-नारियों में 

नायक-नायिकाएं छिपी हैं, विलक्षण स्वभाव की

सभी भावों में दीखता अद्भुत-रस

संसार ऐसा नाटक है जिसमें नट ही प्रेक्षक है। (अनुवाद स्वयं कवि द्वारा)


      लूता कविता में कवि ने लूता (मकडी) को सम्बोधित करते हुए वेदान्त के दर्शन के साथ स्पिनोजा के राजनीतिक विचारों को भी गूंथा है-



उक्ता ब्रह्मसरूपिणी विसृजसि स्वात्मानमात्मेच्छया

नानाजालवितानशिल्पनिपुणा मायाप्रतिस्पर्धिनी।

संख्याता वधदण्डकूटचतुरा प्राज्ञैर्जिगीषूपमा

लूते! तत्त्वनिरूपणादिव भयं त्वत्तो जनः प्राप्नुते।।


ब्रह्म की तुलना तुम से की गयी है

तुम अपने आप का स्वेच्छा से सृजन करती हो

नीति-कोविदों ने जिगीषुओं को तुम्हारे सदृश बताया है।

वध, दण्ड और कूटनीति में चतुर मकडी!

तुम से लोग वैसे ही डरते हैं, जैसे यथार्य से।। (अनुवाद स्वयं कवि द्वारा)


               यहां उक्ता पद से वेदान्तियों का प्रसंग लिया गया है तो प्राज्ञैः पद से स्पिनोजा का संकेत है। ध्यातव्य है कि वेदान्त दर्शन में ब्रह्म को लूता के समान बताया है, जो मकडी के जाले के समान ही सृष्टि की उत्पत्ति, निर्माण व संहार करता है। 

2. कालः - इस भाग में 20 कविताएं संकलित हैं, यथा कालः, इतिहासः, गिरिजास्मृतिः, वासना, अजन्ता, महेशस्मृतिः, नीरोपमम् इत्यादि। आयुः कविता में बौद्धदर्शन में प्रचलित सर्वास्तित्ववाद के अन्तर्गत आने वाले अप्रतिसंख्यानिरोध का प्रयोग किया गया है। कवि ने जब अजन्ता में गुफाचित्रों को देखा तो उस समय मन में आये प्रश्न को अजन्ता कविता में कुछ यूं निबद्ध किया-



राजसुता  शयनीये कृच्छश्वासा मलिननयनकान्तिः।

स्वजनानुपेक्षमाणा कस्मिन्नेषाहितप्राणा।।


राजकन्या बिस्तर पर लेटी है

रुंध रही उसकी सांस

आंखें मुरझायी काली-सफेद।

स्वजनों की उपेक्षा करती हुई 

उसने कहां रखे अपने प्राण।। (अनुवाद स्वयं कवि द्वारा)




3. वसन्तानलः - इस भाग में 37 कविताएं संकलित हैं, जो विविध ऋतु-वर्णन व प्रकृति-चित्रण पर आधारित है। किन्तु ये वर्णन सामान्य कथन न होकर अपने आप में विशिष्ट हैं। कोकिल कविता में कवि वसन्तदूती कोयल को शहर से भाग जाने के लिये कहते हैं क्योंकि वर्तमान भौतिकतावादी समाज में नये संचारसाधनों के कारण विरह शहर से निर्वासित हो गया है-



अपसर वसन्तदूत्याः

क इवावसरोऽधुनास्ति नगरेषु।

निर्वासित इव विरहो

बहुतरसंचारसेवाभिः।।


भाग जा अब वसन्तदूती,

शहर में तुम्हारे लिए अब अवकाश नहीं।

निर्वासित कर दिया विरह को

नये संचारसाधनों ने।। (अनुवाद स्वयं कवि द्वारा)


       यहां कोकिल के लिये प्रयुक्त वसन्तदूती शब्द साभिप्राय है। 


4. भागीरथी - इस भाग के आधार पर ही संग्रह का नामकरण किया गया है। इस भाग में कुल 11 कविताएं हैं। भागीरथी कविता शान्त रस से ओतप्रोत है-



याता नः पितरः प्रवाह-पतितास्त्वं निर्विकारं स्थिता

यास्यामो जलवीचिफेनसदृशाः शान्तं चिरं स्थास्यसि।

दग्धेष्वेव कृपाकरी त्वमथवा स्वर्गावतीर्णा धराम्

उत्संगे तव विश्रमाहितधियो मुक्तिं प्रतीक्षामहे।।


प्रवाह में गिरे हमारे पितर जा चुके हैं

तुम वैसे ही निर्विकार बनी हुई हो,

हम लोग भी चले जायेंगे 

लहरों में फेन के समान 

तुम चिरकाल तक शान्त बनी रहोगी।

अथवा, स्वर्ग से पृथ्वी पर उतरी हुई

तुम चिता में दग्ध लोगों पर ही कृपा करती हो,

तुम्हारी गोद में विश्राम की इच्छा से 

हम मुक्ति की प्रतीक्षा करते हैं।।  (अनुवाद स्वयं कवि द्वारा)


         यहां कवि एक ऋषि के समान प्रतीत होते हैं, जिनसे ऋचाएं प्रकट हो रही हैं।  इस भाग की समुद्रमन्थनम्, शब्दसागरः, त्रिपथगा आदि कविताएं पठनीय, मननीय हैं। 


5. शतदलम् - इस भाग मे 36 कविताएं संकलित हैं, यथा चम्पकः, गन्धः, अरविन्दम्, कर्णिकारः, वृन्दावनम् आदि। कवि ने इस भाग में कतिपय कविताओं के माध्यम से काश्मीर को प्रदर्शित किया है। कवि कहीं वितस्ता कविता में वितस्ता (झेलम)  नदी का मनोहारी चित्र खिंचते हैं तो कहीं शारदादेशे कविता में काश्मीर की नारियों की उपमा शरद् में ज्योत्स्ना की हंसी से देते हैं। कवि मुक्तकण्ठ से मुगलों की प्रशंसा उनके सत्कार्यों के लिये करते हैं। चश्माशाही श्रीनगर में मुगलबागों में से एक बाग है, जो वहां स्थित झरने के मिनरल वाटर जैसे पानी के लिये अतिप्रसिद्ध है। कवि इस चश्माशाही के लिये मनोहारी उत्प्रेक्षा से युक्त वचन कहते हैं-


मुक्तापिष्टं द्रुतमिव, दिवः कौमुदी वा भुवीयम्,

आकाशं वा तरलितमिदं स्वच्छनीरूपभासम्।

शुभ्रं पर्युच्छलति सलिलं निर्झरेऽस्मिन्नजस्रं,

मन्ये कीर्तिर्वहति मुखरा मोगलीयाधुनापि ।।


जैसे मोती पिघल कर बहते हों

या द्युलोक से चांदनी पृथ्वी पर उतरी हो,

या आकाश तरल हो गया हो

बिना रूप के पारदर्शी।

चमकता हुआ पानी सब ओर उछलता

अविराम इस झरने का,

मुझे लगता है आज भी मुगलों की कीर्ति 

मुखरित बही जा रही है।। (अनुवाद स्वयं कवि द्वारा)


       किन्तु ऐसा नहीं है कि कवि ने यहां काश्मीर के सुरम्य चित्र ही प्रस्तुत किये हो। कवि की दृष्टि वहां की वादियों में फैली हिंसा को भी देखती है-


कश्मीरान्वयमव्रजाम शिशिरे शान्ता यदोपत्यका

प्राप्ताः श्रीनगरोपकण्ठविपणिं मांसापणांश्चोभतः।

काचश्यानहिमाधिवेष्टनमयी रक्तातपिण्डावली

तत्रालम्ब्यत या विडम्बनमयी जाताऽद्य हिंस्रे युगे।।


जब हम कश्मीर गये

जाडों के दिन थे

जब हमने श्रीनगर में प्रवेश किया

हमने बाजार में खून और बरफ से जमे हुए

मांस के लोथडे लटके देखे दोनों ओर।

आज के हिंसा के युग में

उनकी स्मृति मानवशवों की

विडम्बना करती है।। (अनुवाद स्वयं कवि द्वारा)


6. दक्षिणापथे जयसिंहः - इस भाग में 1 5 कविताएं निबद्ध हैं। यहां कवि ने पर्यटन एवं विविध क्षेत्रों से सम्बद्ध भावों को प्रकट किया है। एक कविता में चीन की विशाल दीवार का वर्णन है तो एक कविता में तीन श्लोकों के माध्यम सें हिमाचल में स्थित धर्मशाला नगर में कवि द्वारा की गई यात्रा व प्रवास का मनोरम वर्णन है। तीन श्लोकों में कवि ने कालीदास की प्रशस्ति तथा चार श्लोकों में वाल्मीकि की प्रशस्ति भी लिखी है। दक्षिणापथे जयसिंहः नामक कविता में मिर्जाराजा जयसिंह द्वारा दक्षिणापथ अभियान के दौरान फोग नामक कांटेदार पौधे को देखकर स्वदेश स्मरण का वर्णन  कवि द्वारा किया गया है किन्तु राजस्थानी किंवदन्तियों में इस घटना को बीकानेर के राजा रायसिंह के छोटे भाई और पीथल के नाम से प्रसिद्ध पृथ्वीराज से सम्बद्ध माना जाता है, जो अकबर के राजदरबार में सम्मानित थे।  बुहारनपुर प्रवास के दौरान फोग देखकर उन्हें देश की याद आ जाती है-


तूं सैं देसी रुंखडो, म्हे परदेशी लोग

म्हानै अकबर तेडिया तूं यूं आयो फोग


7. प्रत्यग्बिम्बाः - इस भाग में कुल 31 कविताएं संकलित हैं। क्रिसमसदिवस में सैनिकों द्वारा वैरभाव भूलकर शत्रुओं के साथ ईसा मसीह के जन्मोत्सव को मनाने का वर्णन है तो बोधिसत्त्व कविता मेे भगवान् बुद्ध की करुणा का चित्रण किया गया है। काचगवाक्षः कविता में बुढापे को कांच की खिडकी के समान बतलाया गया है, जिससे तटस्थ होकर द्वन्द्व संघर्षों को देखा जाता है-


निस्त्रिंशति हिमवातः प्रहरति दोधूयमानतरुराजौ।

वार्धककाचगवाक्षाद् ईक्षे द्वन्द्वान्यनुद्विग्नः।।


बर्फीली हवा

छुरी सी चल रही है

झपटती थरथर कांपते वृक्षों पर।

बुढापा जैसे कांच की खिडकी है

उससे देखता हूं द्वन्द्व संघर्षों को

अनुद्विग्न।। (अनुवाद स्वयं कवि द्वारा)



               प्रस्तुत कृति में अनुप्रास, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि अलंकार सहज भाव से मिलते हैं| उक्त कृति को सरस्वती सम्मान व कबीर सम्मान से सम्मानित किया गया है। प्रो. सत्यप्रकाश मिश्र ने इस कृति के विषय में सत्य ही कहा है- भागीरथी संस्कृत और हिन्दी दो भाषाओं में लिखा गया भारतीय परम्परा का ज्ञानकाण्ड और भावकाण्ड है। संस्कृत और हिन्दी दोनों में ही चिन्तनशीलता जिस रूप में अनुस्यूत है वह चकित ही नहीं करती है अपितु ठहरकर सोचने को बाध्य करती है।

Saturday, January 1, 2022

पश्यन्ती (75 समकालीन कवियों की संस्कृत कविताएं)

कृति - पश्यन्ती (75 समकालीन कवियों की संस्कृत कविताएं)

प्रधान सम्पादक - दयानिधि मिश्र

सम्पादक - बलराम शुक्ल, गायत्री प्रसाद पाण्डेय

संस्करण - प्रथम संस्करण

प्रकाशन - 2021

प्रकाशक - राका प्रकाशन, प्रयागराज

पृष्ठ संख्या - 138

अंकित मूल्य - 130





            समकालीन संस्कृत साहित्य में सतत् रचनाएं लिखी और पढी जा रही हैं। कई पत्र-पत्रिकाएं अबाधित रूप से प्रकाशित हो रही हैं। संस्कृत साहित्यकारों को विविध स्तरों पर उनके कृतित्व के लिए पुरस्कृत भी किया जा रहा है। आलोचकों का तो यहां तक मानना है कि संस्कृत में जितनी मात्रा में इस सदी में साहित्य लिखा गया है, उतनी मात्रा में गत सदियों में कभी नहीं लिखा गया। समकालीन संस्कृत रचनाकारों की प्रतिनिधि रचनाओं के विभिन्न संकलन भी  इधर प्रकाशित हुए हैं। ऐसा ही एक संकलन 2021 वर्ष के अन्त में सामने आया है, जो 75 कवियों की प्रतिनिधि रचनाओं को अपने में समाहित किये हुए है। यह संकलन दयानिधि मिश्र के प्रधान सम्पादकत्व तथा युवा कवि बलराम शुक्ल तथा गायत्री प्रसाद पाण्डेय के सम्पादकत्व में आया है। संकलन का प्रकाशन विद्याश्री न्यास के लिये राका प्रकाशन, प्रयागराज से हुआ है।



         संकलन के प्रारम्भ में बलराम शुक्ल की भूमिका है, जो समकालीन संस्कृत के परिदृश्य को समझने में सहायता करती है। यहां 75 कवियों को अकारादि क्रम ये दिया गया है। कई प्रसिद्ध कविेयों के साथ अल्पज्ञात, अल्पपरिचित कवियों को पढना आश्वस्त करता है। वरिष्ठ कवियों के साथ-साथ कई युवा कवियों को भी इसमें स्थान प्राप्त हुआ है, जो इनके लिये उत्साहवर्धक होगा। यहां कहीं पारम्परिक छन्दों मेें काव्य निबद्ध है तो कहीं नवीन प्रयोगों से प्रभावित मुक्तच्छन्द का काव्य भी सहजता से भावों को प्रकट कर रहा है। स्तुति, प्रशस्ति, प्रकृतिचित्रण, शृंगार आदि के साथ नवीन भावों पर भी कविताएं इस संकलन को विशिष्ट बनाती है।



         अभिराज राजेन्द्र मिश्र सुरवागमृता सुखदा वरदा कविता के माध्यम से स्पष्ट उद्घोषणा करते हैं कि संस्कृत न मरी थी, न मर रही है और न ही मरेगी-

 

न मृता, म्रियते न मरिष्यति वा

सुरवागमृता सुखदा वरदा

द्विषतां नियतिं रचयिष्यति वा।।


कवि अमरनाथ पाण्डेय मुक्तछन्द में निबद्ध मदीया कविता के विषय में कहते हैं-


पीडाधिः संरम्भेषु

क्षणं चेतनाया ये उल्लासाः

तेषु प्रेरणामन्विष्यति

स्खलन्ती पदे पदे

सुतरां दीना

याचमाना कणं कणम्

प्रतिवेशे विदेशे

क्वचिद् ह्रीणा

क्वचिद् सगर्वा

तथापि प्रिया कल्याणी

रहसि संगता

कविता मदीया।।


  आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी की  होलिकागजलम् एक मार्मिक गजल है-


रक्तरंगे त्वया रंजिता चोलिका।

ऐषमः कीदृशी मानिता होलिका।।

अत्र दग्धा गृहा दह्यते देहली,

तत्र साधो त्वया राधिता होलिका।।


     महराजदीन पाण्डेय की गजल आज के समय की विडम्बनाओं का दस्तावेज बन जाती है-


निर्वाचनस्य रंगे नटितेन तेन मुषितम्।

कस्यापि तेन रुदितं कस्यापि तेन हसितम्।।

नाट्ये न शान्तरस इति यत्प्रयोक्तमस्ति तन्न

किं किं न प्रेक्षणीयं धर्मस्थले विलसितम्।।


     प्रो. रमाकान्त शुक्ल रचित भारतस्य जनता समीक्षते राष्ट्रीय भावनाओं से युक्त ऐसी कविता है जो यह बतलाती है कि भारत की जनता बहुत सावधान है और वह सब कुछ जानती है-


को विरागमुपयाति शासनात् कोऽतिरागमुपयाति चासने।

धूर्त उच्चपदवीं कथं गतो भारतस्य जनता समीक्षते।।


प्रयोगधर्मी कवि हर्षदेव माधव की तीन कविताएं संकलित हैं, जो कोरानाकाल की वीभिषिका को बहुत मार्मिक तरीके से प्रस्तुत करती हैं-


हे अलकनन्दे

अत्र स्पर्शानां भाषा

विस्मृता हस्तैः।

श्वासेषु सुगन्धपरिचयो नास्ति,

ओष्ठपुटानि

शब्दस्पन्दनरहितानि वेपन्ते।

दूरता व्याप्तास्ति

प्रतिमनुष्यम्।


 

               राजकुमार मिश्र, अरविन्द तिवारी आदि की गजलें भी भावों से परिपूर्ण हैं। ऋषिराज पाठक की कविताएं संगीत की लय से युक्त हैं। कौशल तिवारी की 2 कविताएं दलित विमर्श परक रचनाएं हैं। सतीश कपूर विरचित चेतो ममाकर्षति तेऽनुरागे कविता 50 श्लोकों में निबद्ध है। यह अंश श्रीभुवनभास्करस्तवकाव्य से लिया गया है। बलराम शुक्ल की त्रिचक्रिकाचालककाव्यम् रिक्शा चालकों की दशा को दिखलाती है। युवा कवि परमानन्द झा की आलोकविधुरा दीपशिखा तथा सिंहशावका वयम् कविताएं पठनीय हैं। प्रवीण पण्ड्या की कविताएं गहन भावों से युक्त मुक्तछन्द की वे कविताएं हैं, जिन पर अभी बहुत कुछ लिखा जाना शेष है।




             सुहास महेश, सूर्य हेब्बार की कविताओं में संस्कृत साहित्य के भविष्य की आहट सुनाई देती है। इस संकलन में महिला कवियों की कविताएं आश्वस्त करती हैं, महिलाओं की साहित्य सर्जना के प्रति।



 पुष्षा दीक्षित, उमारानी त्रिपाठी, कमला पाण्डेय, मनुलता शर्मा आदि वरिष्ठ महिला कवियों के साथ चन्द्रकान्ता राय, योगिता दिलीप छत्रे, वीणा उदयन,श्रुति कानिटकर, सुहासिनी जैसे अल्पज्ञात किन्तु प्रतिभाशाली नाम उनकी कविताओं के कारण विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।


 

         प्रत्येक संकलन की अपनी सीमाएं होती हैं, जिसके कारण उसमें बहुत कुछ छूट सकता है, यथा इस संकलन में कवि बनमाली बिश्वाल, नारायण दाश तथा युवा कवियों में ऋषिराज जानी, युवराज भट्टराई व महिला कवियों में पराम्बा श्रीयोगमाया का न होना आदि। किन्तु प्रत्येक संकलन चूंकि उसके संकलनकर्ता की चयनप्रक्रिया और परिस्थितियों पर निर्भर करता है अतः ऐसा होना स्वाभाविक ही है। कुल मिलाकर यह संकलन इस तथ्य को सिद्ध करता है कि संस्कृत न केवल जीवन्त भाषा है अपितु उसमें आज के समय का साहित्य भी लिखा व पढा जा रहा है।