Tuesday, June 21, 2022

संस्कृत की प्रथम विज्ञान कथा - अन्तरिक्षयोधाः

कृति - अन्तरिक्षयोधाः

लेखक - डॉ. ऋषिराज जानी

सम्पादक - प्रो. डॉ. गिरीशचन्द्र पन्त

विधा - विज्ञानकथा

प्रकाशक - परिमल पब्लिकेशंस, दिल्ली

प्रकाशन वर्ष - 2022

पृष्ठ संख्या - 255

अंकित मूल्य - 400/-



        विज्ञानकथा काल्पनिक साहित्य की वह विधा है जिसमें कथाकार विज्ञान के द्वारा मानवीय जीवन में हो रहे वर्तमान परिवर्तनों को देखकर एवं भविष्य के सम्भावित परिवर्तनों की कल्पना करके मानवजीवन पर पडने वाले उनके प्रभावों को अपनी कथा में चित्रित करता है। कथाकार साहित्य के करघे पर विज्ञान व कथा का ताना-बाना बुनता है। जिस तरह शास्त्रकाव्यों में काव्यत्व के साथ-साथ शास्त्रों के सिद्धान्त गूंथे हुए होते हैं वैसे ही विज्ञानकथा में कथा-तत्त्व के साथ-साथ विज्ञान के सिद्धान्त निहित होते हैं। मेरी शेली की रचना ‘द फ्रन्केनस्टआईन’ (1818) प्रथम विज्ञानकथा मानी जाती है। हिन्दी मे अम्बिकादत्त व्यास रचित आश्चर्यवृतान्त (1884) को हिन्दी का प्रथम विज्ञान गल्प कहा गया है किन्तु कुछ आलोचक केशव प्रसाद सिंह की ‘चन्द्रलोक की यात्रा’ (1900) को प्रथम विज्ञानकथा के रूप में देखते हैं।

    संस्कृत में विज्ञानकथा की अवतारणा का श्रेय डॉ. ऋषिराज जानी को जाता है जिन्होंने अन्तरिक्षयोधाः नामक उपन्यास के द्वारा संस्कृत भाषा में प्रभावकारी विज्ञानकथा की रचना की है। यद्यपि इससे पूर्व संस्कृत में दो रचनाएं मिलती हैं जो विज्ञानकथा पर ही आधारित है किन्तु वे दोनों ही कृतियां अन्य भाषाओं से संस्कृत में अनूदित हैं। एकविंशति शताब्दी-द्वाविंशति शताब्दी रूपक है जो हिन्दी मूल में भगवान दास फडिया की रचना है और इसका संस्कृत में अनुवाद प्रेमशंकर शास्त्री ने किया है। इसमें 2060 काल के भविष्य की कथा है जिसमें मनुष्य शुक्र ग्रह पर पहुंच जाता है। एक पात्र को बाद में पता चलता है कि जिससे वह प्रेम कर बैठा था दर असल वह स्त्री न होकर एक रोबॉट है। मृत्युः चन्द्रमसः आडियामूल में डॉ. गोकुलानन्द महापात्र की रचना है जिसका डॉ. पराम्बा श्रीयोगमाया ने संस्कृत में अनुवाद किया है। अतः मौलिक रचना के आधार पर अन्तरिक्षयोधाः को ही संस्कृत की प्रथम विज्ञानकथा कहा जायेगा।



                         उपन्यासकार डॉ. ऋषिराज जानी ने प्रास्ताविक में विज्ञानकथा का स्वरूप भी विस्तार से स्पष्ट किया है। उनके अनुसार विज्ञानकथा science fiction ऐसी कथा है जिसमें वैज्ञानिक सिद्धान्तों एवं शोधरहस्यों का निरूपण कथारस के साथ निरूपित किया जाता है। डॉ. जानी ने विज्ञानकथा के दो रूप बतलाये हैं- दृढविज्ञानकथा एवं शिथिलविज्ञानकथा। दृढविज्ञानकथा में कथाकार विज्ञान के सिद्धान्तों के साथ छेड-छाड नहीं करता अपितु वह यह प्रयास करता है कि उसकी अपनी कल्पनाओं से विज्ञान के सिद्धान्त दूषित न हों। शिथिलविज्ञानकथा में कथाकार विज्ञान का आश्रय केवल मनोरंजन के लिये लेता है अतः वह अपनी कल्पनाओं द्वारा विज्ञान के सिद्धान्तों में परिवर्तन कर लेता है। इस दृष्टि से डॉ. ऋषिराज जानी की यह कृति दृढविज्ञानकथा के अन्तर्गत आती है। डॉ.जानी ने कथानक के परिप्रेक्ष्य में अन्य दृष्टि से विज्ञानकथा के आठ भेद और बतलाये हैं- अन्तरिक्षनाट्यकथा, अतिप्राकृतकथा इत्यादि। अन्तरिक्षयोधाः अन्तरिक्षनाट्यकथा है क्योंकि इसमें सुदूर अन्तरिक्ष की यात्रा, ग्रहों पर आवागमन, अज्ञातसंकट, उनका प्रतिकार आदि वर्णित किये गये हैं।

                  अन्तरिक्षयोधाः उपन्यास को सात खण्डों में विभक्त किया गया है-

प्रथम खण्ड- (अशक्यमभियानम्)




       इसमें वर्णित कथा भविष्य के किसी कालखण्ड की है जो 2250 ई. से 2475 ई. के मध्य का है। कथा भारतीय अनुसंधान संस्थान के मुख्यालय से प्रारम्भ होती है, जहां संस्थान के मुख्यालय अध्यक्ष डॉ. विक्रम से ज्ञात होता है कि हमारे सौरमण्डल के सुदूर ग्रह यम Pluto की कक्षा में स्थापित कृत्रिम उपग्रह की प्रयोगशाला में स्थित प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. श्रीनिवास व उनकी टीम के सदस्य कहीं लापता हो गये हैं। उनकी सुरक्षा के लिये एक खोजी दल अन्तरिक्ष में भेजा जाता है, जिसमें अपने-अपने क्षेत्र में अनुभवी चार सदस्य हैं। दल का नेतृत्व राकेश करता है, साथ ही टीम में सुनीता, रवीश और कल्पना है। इन सब के नाम आपको हमारे अन्तरिक्ष यात्रियों का स्मरण करवाते हैं। टीम में एक अन्य अनोखा साथी है बोधायन, जो कि एक रोबॉट है। बोधायन प्राचीन भारतवर्ष के प्रसिद्ध रेखागणितज्ञ रहे हैं। उपन्यासकार ने उनके यान का नाम रखा है भरद्वाजयान, जो कि अनेकों वर्षों पूर्व विमानशास्त्र पर लिखे गये यन्त्रसर्वस्वम् नामक ग्रन्थ के रचयिता हैं। ग्रन्थकार ने इन सब के नामों से सम्बद्ध व्यक्तित्वों का परिचय भी दिया है, जो पाठकों की जानकारी में वृद्धि करता है। ये सब अपने अभियान के लिये प्रस्थान करते हैं।

द्वितीय खण्ड- (सूर्यस्य महाताण्डवम्)



                 अन्तरिक्ष यात्रा के दौरान टीम के सदस्य आने वाले ग्रहों यथा बुध, शुक्र, मंगल आदि के बारे में रोचक जानकारियां देते हैं। सूरज पर आने वाली आंधी से उनका अभियान बाधित भी होता है। वह किस तरह इससे बच कर निकलते हैं, यह पठनीय है।

तृतीय खण्ड- (महामृत्योर्मुखे)




        इस खण्ड बृहस्पति ग्रह के 79 चन्द्रमाओं की जानकारी दी गई है। साथ ही नये तारे कैसे जन्म लेते हैं, यह जानकारी लेखक के वैज्ञानिक ज्ञान का परिचय देती है। अभियान की टीम को ज्ञात होता है कि लापता वैज्ञानिकों के दल का किसी ने अपहरण किया है और सम्भवतः वे परग्रहनिवासी एलियन्स भी हो सकते हैं। यहां उल्कापात से आये संकट से टीम का सामना होता है।



चतुर्थ खण्ड - (सप्तर्षिसंस्थानम्)



                 इस खण्ड में शनि ग्रह के उपग्रह टाइटन पर स्थापित सप्तर्षिसंस्थान नामक प्रयोगशाला का वर्णन है जहां सात रोबॉट इस प्रयोगशाला को संचालित कर रहे हैं। सप्तर्षि हमारी भारतीय परम्परा में बहुत महत्त्व रखते हैं। रोबॉट के नाम प्राचीन भारतीय वैज्ञानिकों के नाम पर रखे गये हैं, यथा- आर्यभट,  ब्रह्मगुप्त, चरक, सुश्रुत आदि। आर्यभट्ट आदि यन्त्रमानवों तथा प्राचीन वैज्ञानिकों का परिचय भी ग्रन्थकार कथा के साथ-साथ करवाते चलते हैं।

पंचम खण्ड - (ग्रेमूला- एका विचित्रा सृष्टिः)



               अभियान दल लापता वैज्ञानिकों को खाजता हुआ, विविध संकटों का समना करता हुआ अज्ञात ग्रह ग्रेमूला पर पहुंच जाते हैं। वहां उनकी मुलाकात परग्रह वासियों से भी होती है, जो हरी चमडी वाले हैं। यहां वे पृथ्वी से लुप्त प्राचीन जातियों के प्राणियों को देखते हैं। किन्तु तब उनके आश्चर्य की कोई सीमा नहीं होती जब उन्हें पता चलता है कि वे परग्रहवासी जिस भाषा को बोल रहे है वह उनकी पहचानी हुई भाषा है। ग्रेमूला ग्रह की स्वामिनी धु्रवस्वामिनी इन्हें ग्रेमूलाग्रह का इतिहास बतलाती है साथ ही यह भी कि उन्होंने उन वैज्ञानिकों का अपहरण क्यों किया।

षष्ठ खण्ड - (नालन्दायाः प्रभ्रष्टानि चिह्नानि)



                     उपन्यास की कथा ग्रेमूला ग्रह से चलती हुई प्राचीन भारतीय इतिहास से जुड जाती है, जहां नालन्दा के जीर्ण-शर्ण किन्तु भव्य पन्ने बिखरे पडे हैं।

विभूतिपाद एवं अविमुक्तपाद नामक दो नवीन पात्र कथा में और उत्सुकता जाग्रत कर देते हैं। यहां भरद्वाज मुनि द्वारा अपने ग्रन्थ में बताये हुए रुक्मविमान, शकुन्तविमान, त्रिपुरयान आदि का भी परिचय दिया गया है।

सप्तम खण्ड - (ब्रह्माण्डस्य पर्यन्तः अर्थात् गृहम्)



                       इस खण्ड में ग्रेमूला ग्रह पर आयोजित कौमुदीमहोत्सव पाठकों का मन मोह लेता है। अन्तरिक्ष से पृथिवी को देखते हुए पात्रों के द्वारा अथर्ववेद के विभिन्न मंत्र बोले जाते हैं। अभियान दल किस तरह वैज्ञानिकों को बचाता है, ग्रेमूला वासियों का क्या होता है, उनका भारत से क्या नाता है, यह सब देखना रोमांचकारी है।

                 उपन्यास में विभिन्न भाषाओं के नवीन शब्दों के लिये नये संस्कृत शब्द भी प्रयुक्त किये गये हैं ,यथा-

योधविमानचालकः - Fighter-Pilot

यन्त्रमानवः - Robot

नियन्त्रणयन्त्रप्रणाली - Control Panel

दूरेक्षकयन्त्रम् - Telescope

पारशब्दः - Password

डयनसरणी - Flying mode



                वस्तुतः यह विज्ञानकथा हमें ऐसी भावभूमि पर ले जाती है जहां हमें प्रतीत होता है कि हम समय के एक ऐसे पुल पर वर्तमान में खडे हैं जहां हमारा भव्य अतीत हमसे पीछे छूट चुका है और अज्ञात भविष्य सामने है, किन्तु समय का पुल भूतकाल को भविष्य से जोड रहा है। हमारे आचार्यों ने जो कहा है कि लेखक का एक कदम परम्परा पर हो तो दूसरा आधुनिकता पर, वह कथन इस उपन्यास में खरा उतरता दिखलाई देता है। इस उपन्यास का हिन्दी अनुवाद प्रो. डॉ. गिरीशचन्द्र पन्त ने किया है, जिसे मूलकथा के साथ ही प्रस्तुत किया गया है। संस्कृत में विज्ञानकथा का यह अवतरण स्वागतयोग्य है और यह आधुनिक संस्कृत के भविष्य का शुभ संकेत है।

https://www.ibpbooks.com/antariksahyodhah-sanskrit-upanyas/p/54524


Sunday, June 19, 2022

वीरभद्ररचनावली

कृति - वीरभद्ररचनावली (प्रथमो भागः)

लेखक - वीरभद्रमिश्र

सम्पादक - महराजदीन पाण्डेय

प्रधानसम्पादक - प्रो. परमेश्वर नारायण शास्त्री

प्रकाशक - राष्टिय संस्कृत संस्थान , नई दिल्ली

प्रकाशन वर्ष -2017

पृष्ठ संख्या - 42 +362

अंकित मूल्य - 270रु/-



           डॉ. वीरभद्र मिश्र आधुनिक संस्कृत साहित्य में सुपरिचित लेखक हैं। आप संस्कृत भाषा के अनन्य साधक तो रहे ही साथ ही आपने संस्कृत भाषा के प्रचार में भी महत्त्वपूर्ण अवदान दिया है। डॉ. वीरभद्र मिश्र का परिवार संस्कृतमय रहा है। डॉ. मिश्र बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। आपके द्वारा 1977 से 2000 ई. तक सर्वगन्धा नामक पत्रिका का सम्पादन किया गया जो रचना व आलोचना की पत्रिका रही है| सर्वगन्धा के प्रत्येक अंक में सम्पादक की कविता रहती थी। महराजदीन पाण्डेय, जो कि स्वयं आधुनिक संस्कृत साहित्यकार के रूप में जाने जाते हैं, ने बहुत परिश्रम से डॉ. वीरभद्र मिश्र की रचनाओं को संकलित कर वीरभद्र-रचनावली के नाम से दो भागों में प्रकाशित करवाया है।



              वीरभद्र-रचनावली का प्रथम भाग आठ खण्डों में विभक्त है। जिनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-

खण्ड - 1:-

              इस खण्ड को पुनः तीन भागों में बांटा गया है। कविता - प्रथम भाग में वीरभद्र मिश्र रचित 116 कविताएं हैं। कवि क्रान्ति के लिये गीत गाते हैं-

पुनरपि लब्धः श्वासो जागृहि वीता रात्रिः काली

क्रान्तिर्नवा कृता जनताभिः प्राप्ता नवा प्रणाली

स्वाधीनता-विरहिते तन्त्रे नहि भारत-विश्वासः

                              पुनरपि लब्धः श्वासः।।

         कवि की रचनाओं में व्यंग्य का प्रयोग बखूबी किया गया है। वर्तमान राजनीति पर व्यंग्य करते हुए कवि कहते हैं कि आज जो दण्डनीय है वह कल मन्त्री पद का उत्तराधिकारी भी हो सकता है, राजनीति का इन्द्रजाल है ही ऐसा-

अद्य यः सर्वाधिशासी

श्वः स कारागारवासी

योऽद्य घुष्टः दण्डनीयः

श्वः स मन्त्रीपदविलासी

जयी मुक्तः सर्वदोषाद् जिते लिम्पति दोषजालम्

                     राजनीतेरिन्द्रजालम्।।

          गेहे गेहे डैडी मम्मी, हे गर्दभः! तुभ्यं नमः, स स एव पतिर्मे, नो त्रपेथाः इत्यादि रचनाएं हास्य-व्यंग्य से भरपूर हैं। कवि ने जातिप्रथा पर भी करारा व्यंग्य करते हुए एक मात्र जाति मानव जाति को कहा है-

जातिं पृच्छति वेदविहीनः

वेदो ब्रह्म तदीयो ज्ञाता योसौ स स्याद् यदा ब्राह्मणः

वेदविरोधी ब्राह्मणपुत्रो राक्षसपदभाग् यथा रावणः

वेदविहीनः शूद्रः सर्वो नहि वर्णी, स तु वर्णविहीनः। जातिं.......................,

एका जातिः मानवजातिः न तु विप्रक्षत्रादिः जातिः

स तु वर्णः, वरणात् वृत्तिमान्, वर्णात्पृथक्प्रसिद्धा जातिः

शूद्रो वेदं पठन् ब्राह्मणः, विप्रोऽपठन्, शूद्रको दीनः। जातिं.......................,

    नैव शिरो हार्यम् कविता में कवि ने दलितजनों के उत्थान की बात कही है।

ताजमहल पर लिखी मार्मिक कविता बतलाती है कि ऊंचे ताजमहल के नीचे कितनी दमित इच्छाएं दबी हुई हैं।

                   कविता - द्वितीय भाग में वीरभद्र मिश्र रचित 18 कविताएं हैं। एति वसन्तः कविता में वसन्त के आगमन का गीत गाया गया है तो आगता होली! कविता में होली के आगमन की प्रसन्नता दृष्टिगोचर होती है। होलिका गीतिका ‘बुरा न मानो होली है’ की तर्ज पर लिखी गई रचना है, जिसमें राजनेताओं के नाम लेकर हास्य-व्यंग्य की सृष्टि की गई है। सिता राका हिन्दी सिनेमा के गीत ‘सुहानी चांद रातें’ की लय पर निबद्ध गीत है।

                        कविता - तृतीय भाग में वीरभद्र मिश्र रचित 34 कविताएं हैं। ये सभी कविताएं बालसाहित्य की अनुपम उदाहरण हैं। लालनी कविता शिशुस्वापगीति है। खन्तम् मन्तम् गीत उल्लेखनीय गीत है। एक जांघ पर शिशु को लेटाकर शरीर को झूले के समान हिलाते हुए लोकगीत गाया जाता है। कवि ने संस्कृत में उसकी अनुरूप गीत रचा है। खन्तम् मन्तम् निरर्थक ध्वनि है जो झूलाने की बोधक है-

खन्तं मन्तं................पणकं लब्धम्

तद् गंगायै मया प्रदत्तम्

तया गंगया रजः प्रदत्तम्

मया भर्जकं प्रति तद् दत्तम्

             बाललीला, चल मम घोटक!, दुग्धं पिब रे, चन्द्र मातुल!,दोलागीतम् आदि सभी बालगीत सरल संस्कृत में रचे गये हैं।



खण्ड - 2:- (युगधर्मः) 

               प्रस्तुत खण्ड में डॉ. वीरभद्र मिश्र विरचित युगधर्मः नामक महाकाव्य दिया गया है। इसमें पांच सर्ग हैं। इसका नायक धीरोदत्त है। पंचम सर्ग में पारम्परिक छन्दों के साथ दोहा, चौपाई आदि का भी प्रयोग किया गया है।


खण्ड - 3:- (लघुवंशम्)

            इस खण्ड मे डॉ. वीरभद्र मिश्र विरचित लघुवंशम् नामक महाकाव्य संकलित है, जो कालिदास के रघुवंश महाकाव्य की शैली में लिखा गया विडम्बन काव्य है। इस महाकाव्य के तीन सर्ग हैं। प्रथम सर्ग में 95 श्लोक तथा द्वितीय सर्ग में 75 श्लोक हैं। तृतीय सर्ग केवल 18 श्लोक तक ही उपलब्ध है। इस महाकाव्य में खलनायक प्रतिनिधि लघु का वर्णन किया गया है। महाकाव्य के कई श्लोक रघुवंश के श्लोकों की शैली के ही हैं-

मधु-मक्षिकवद् युक्तौ मधुमाक्षिक-सिद्धये।

नेतृणां पितरौ वन्दे मिथ्यास्वार्थौ निरन्तरम्।।

क्व कूटप्रभवो वंशः क्व संस्कृतगता मतिः।

पुपूषुर्दूषितां जाडयात् काव्येनास्मि जाह्नवीम्।।


खण्ड - 4:- (रूपकम्) 

                 प्रस्तुत खण्ड में कवि वीरभद्र मिश्र रचित 14 रूपक संकलित हैं। सभी रूपक एकांकी हैं। पूजायां सत्यमहिमा, अहं संस्कृतसेवकः, वेतालकथा, पादुकाशासनम् आदि समस्त रूपक अभिनेय हैं। इनका मंचन संस्कृत कार्यक्रमों में किया जाना चाहिए ताकि जनसामान्य की रूचि भी संस्कृत के प्रति बढे।

खण्ड - 5:- (अस्तव्यस्तपुराणम्) 

                   यह पुराणों में प्रसिद्ध गल्पविधान पर रचा गया काव्य है। वर्तमान समय को आधार बनाकर लिखी गई यह कृति पठनीय है। एक उदाहरण द्रष्टव्य है-

सूत उवाच- कलियुगे वस्तुतः पुराणमार्गः फलप्रदः। ते एव राजानो भविष्यन्ति ये निर्वाचनकाले असंभवाद् अपि असम्भवाः प्रतिज्ञाः करिष्यन्ति। समाजस्य यः अप्रबुद्धो वर्गः तं लोभयिष्यन्ति, यस्मिन् क्षेत्रे यस्मिन् वर्गे च गमिष्यन्ति तं तं पुराणरीत्या प्रशंसयिष्यन्ति, यथा हि हिन्दीक्षेत्रे वक्तव्यं- हिन्दी देशस्य राष्ट्र भाषा सा स्वस्थानं प्रापयिष्यते। अहिन्दीक्षेत्रे वक्तव्यं हिन्दी कस्यापि उपरि बलान्न आरोपयिष्यते। इति परस्परं विरुद्धं वचो निर्भयं निर्लज्जं वक्तव्यं, तेनैव सिद्धिः इति।



खण्ड - 6:- (धृतराष्ट्रोपनिषद्)

                 उत्तरप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह त्याग देकर जब केन्द्र में चले गये थे, तब की राजनीति को आधार बनाकर कवि ने इस की रचना की। तत्कालीन राजनीति पर व्यंग्यपरक यह रचना पाठकों के मनोरंजन के साथ-साथ राजनीति का चरित्र उद्घाटित करती चलती है। यह गीता की कहनशैली में रचा गई है, यथा-

धृतराष्ट्रो उवाच -

कुतस्त्वां कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्।

अनेतृजुष्टं नीतिघ्नं सत्ताशास्त्रविगर्हितम्।।

न त्वेवाहं सती साध्वी, न त्वं नेमे विराधिनः।

न चैव न भविष्यामो भ्रष्टा वयमितः परम्।।


खण्ड - 7:- (अनुनयः) 

              इस खंड में एक विरही नायक की अभिव्यक्ति है| 


खण्ड - 8:- (भद्रकोषः) 



                      प्रस्तुत खण्ड में आधुनिक शब्दावली के लिए नवीन संस्कृत शब्द दिए गए हैं| यथासंभव उनके लिए प्रयुक्त अंग्रेजी शब्द भी दिए गए हैं| इस तरह के कोष अर्वाचीन साहित्य के लिए बहुत आवश्यक हैं| भारती पत्रिका में लम्बे समय तक देवर्षि कलानाथ शास्त्री जी ने अंग्रेजी, हिंदी और संस्कृत तीन भाषाओं में शब्द दिए थे| यदि कोई शोधार्थी अर्वाचीन साहित्य में प्रयुक्त नवीन शब्दों को संकलित कर सके और वह प्रकाशन में आए तो यह एक बहुत बड़ा कार्य होगा|



Wednesday, June 15, 2022

संस्कृत में बाल उपन्यास - मानवी

कृति - मानवी

विधा - बालोपन्यास

लेखक - राधावल्लभ त्रिपाठी

प्रकाशक - शिवालिक प्रकाशन, दरियागंज, नईदिल्ली

प्रकाशन वर्ष - 2021

पृष्ठ संख्या - 229

अंकित मूल्य - 495/-



    संस्कृत में प्राचीन बाल साहित्य प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। अर्वाचीन समय में भी बाल साहित्य लिखा व पढा जा रहा है। आचार्य वासुदेव द्विवेदी शास्त्री का बालसाहित्य के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान है। शास्त्री जी द्वारा लिखे गये बाल साहित्य का संकलन करके हाल ही में उत्तरप्रदेश संस्कृत संस्थान, लखनऊ से आचार्य वासुदेवद्विवेदिशास्त्रिग्रन्थावालिः प्रसन्नभारती के प्रथम भाग में प्रकाशित किया गया है। प्रो. अभिराज राजेन्द्र मिश्र ने मोगली की कथा के समान अपने जनपद की एक कथा को कान्तारकथा में गूंथा है। हर्षदेव माधव ने बाल साहित्य के क्षेत्र में पिपीलिका विपणीं गच्छति, बुभुक्षितः काकः तथा त्रीणि मित्राणि के माध्यम से ख्याति प्राप्त की है। डॉ. सम्पदानन्द मिश्र तो बाल साहित्य के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। आपको शनैः शनैः के लिये साहित्य अकादेमी से बाल साहित्य पुरस्कार प्राप्त हुआ है। युवा लेखकों में ऋषिराज जानी विशेष रूप से उल्लेखनीय है। ऋषिराज के चमत्कारिकः चलदूरभाषः को भी साहित्य अकोदमी द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार प्राप्त है। 

       


                      प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी रचित मानवी नामक रचना संस्कृत बाल साहित्य को नई दिशा देने वाली है। यह उपन्यास शैली में लिखी गई रचना है, अतः इसे बालोपन्यास कहा गया है। संस्कृतेतर भाषाओं में जिस प्रकार की रचनाएं बाल पाठकों के लिये देखने को मिलती हैं, मानवी उसी तरह की कृति है। यह एक काल्पनिक उपन्यास है किन्तु अपने समय के यथार्थ को यह बखूबी व्यक्त करता है।

                            उपन्यास का प्रारम्भ सलीम अली नामक वैज्ञानिक से होता है (लेखक ने स्पष्ट कर दिया है कि यह एक काल्पनिक चरित्र है, जिसका कोई भी सम्बन्ध प्रसिद्ध पक्षी वैज्ञानिक पद्मश्री सलीम अली से नहीं है)। अखबार से वैज्ञानिक को पता लगता है कि बुन्देलखण्ड में नर्मदा नदी के किनारे भोपाल के पास नन्दनपुर नामक गांव में दुर्लभ प्रजाति के राजहंस प्रवासी के रूप में आये हैं। सलीम अली वहां राजहंसों को देखने जाते हैं। उन राजहंसों में से एक हंसिनी अपने यूथ के प्रस्थान कर जाने पर भी वहीं रह जाती है क्योंकि वह गांव के एक बच्चे रघु के साथ बहुत घुल-मिल गई थी। हंसिनी का नाम मानवी है। वह सचमुच मानवी ही है। मानवोचित गुण उसमें हैं, वह मनुष्यों की बोली में भी बोलती है। यूथ से बिछडी हुई मानवी उसी गांव में रघु के पास रह जाती है और उसकी सहायता भी करती है। बोलने वाली हंसिनी का समाचार सर्कस कम्पनी चलाने वाले कलानाथ को मिलता है। यहीं से कहानी में नया मोड आता है। गांव से प्रारम्भ हुई कथा रूस देश में जाकर खत्म होती है। मानवी 5 साल तक रघु के साथ रहती है। वे दोनों इस दौरान अनेक घटनाओं का सामना करते हैं। मनुष्यों की लोलपुता के बीच में यह दिखलाया गया है कि किस प्राकर एक हंसिनी और मनुष्य का निश्छल प्रेम हो सकता है। यह प्रकृति और मनुष्य के जुडाव की गाथा है। 



       उपन्यासकार ने पात्रों को उनके पूरे व्यक्तित्व के साथ उकेरा है। घटना दर घटना उपन्यास के पात्रों का चरित्र - चित्रण पाठक के सामने आता जाता है। चाहे वह वैज्ञानिक सलीम अली हों, बालक से किशोर बना रघु हो, सर्कस कम्पनी का मालिक कलानाथ हो या रघु की माता सुहागिनी देवी हो। उपन्यासकार ने पात्रों के परस्पर संवादों से उपन्यास को आद्यन्त रोचक व जीवन्त बनाये रखा है। ये संवाद न केवल पात्रों के चरित्र को प्रकट करते हैं अपितु कथा को आगे भी बढाने में सहायक होते हैं। जैसे रघु व उसकी माता का यह संवाद-


                माता तस्य शिरः हस्ते संवाहयन्ती अवदत् - अरे किमर्थं रोदिषि? गंगी तु श्वो यावत् आगमिष्यति, सा स्ववत्सकं गोलुं विहाय क्वापि गन्तुं न शक्नुयात्। तस्या विहग्याः का मात्रा! एकस्य पक्षिणः कृते रोदिषि! सा विहगी वर्तते..................उड्डीय गता। तस्या अस्माकं मानवानां च कः संगः?

- सा विहगी नास्ति........सा मम मानवी।- इत्युक्त्वा रघुः पुनरपि अरुदत्।

- आयास्यति सा, यदि तव तस्यां तथा स्नेहः, तर्हि सा आगच्छेत्...............

                उपन्यासकार ने नर्मदा के किनारे के गांव के वातावरण को आधार बनाकर उपन्यास को रचा है। कथा जैसे-जैसे आगे बढती जाती है, वैसे-वैसे उनके घटने का स्थान भी बदलता है। गांव से निकलकर कथा विदिशा शहर में जाती है और फिर उसमें भरतपुर का विख्यात घना पक्षी अभयारण्य भी मिलता है- भरतपुरीयः पक्षीविहारो भव्यः। इदानीम् एतत् स्थलं पक्षीविहार इति नाम्ना न ज्ञायते, इदं केवलादेवराष्टियमुद्यानम् इति ख्यातिं गतम्। अत्र केवलं पक्षिणो न सन्ति, अन्ये वन्यजन्तवोऽपि सन्ति। कथा का समापन रुस देश में किया गया है। 



          उपन्यास की भाषा सरल-तरल एवं भावमयी है। लेखक ने नये शब्द भी प्रयोग किये हैं, यथा - उड्डयनी (फ्लाइट), शय्यावाक्यम् (तकियाकलाम), शरकष (सर्कस), पिष्टल (पिस्तोल), गोमयगैसचुल्लिका (गोबरगैसचूल्हा), पारपत्रम् (पासपोर्ट) इत्यादि। कुछ स्थानों पर शब्दों को ज्यों का त्यों ले लिया गया है, जैसा कि वे आम बोलचाल  की भाषा में प्रयुक्त होते हैं- फार्महाउस्, मोटरसायकिलम्,  ट्रेक्टरः, शरकषकम्पन्याम्, ट्रकेन, होटलम्, पार्किंगस्थले। प्रो. त्रिपाठी ने मुहावरों , कहावतों एवं लोक में प्रचलित वाक्यों का भी संस्कृतीकरण करके प्रयोग किया है, यथा-


अयम् इतो गतस्तत आगतः

क्षते क्षारमिव 

इतो भ्रष्टा ततो नष्टा

एते किंचित् ददति तत् मम लवणाय शाकाय वा जायते

त्वया सह विवाहं तु मम अंगुष्ठम् अपि न कुर्यात्

प्रथमं त्वं स्वमुखं कस्मिंश्चित् प्रणालके प्रक्षाल्य आयाहि

चन्द्रमाः कया दिशा उदितः


            प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी ने उपन्यास में एक ओर तो मानव व प्रकृति का सम्बन्ध जोडा है, वहीं  दूसरी ओर वे अपने समय की सच्चाईयों से भी हमें रूबरू करवाते चलते हैं। बढते हुए तापमान का वर्णन करते हुए जलवायु परिवर्तन को उसका कारण बतलाते हुए लिखते हैं-  

     जुलाईमासः समागतप्रायः। दिल्लीनगरी वह्निज्वालाभिरिव भास्करस्य अतितरां तीक्ष्णैः दाहकैः रश्मिभिरवलीढा। तापमानं पंचचत्वारिंशदंशमितं जातम्। राजस्थाने चुरूनगरे तापमानं पंचाशदंशपर्यन्तम् आरूढम्। मुम्बय्यामपि भीष्मो ग्रीष्मः प्रवर्तते। कोलकातायास्तु कथैव का। चेन्नयामपि तापमानं उपरि अंचितम्। वैशिक्या उष्णताया परिणामा इमे इदानीं प्रत्यक्षीभवन्ति।

     हमारी विकृत जीवनशैली ने पहाडों को भी नहीं छोडा है। हम प्रकृति को नष्ट कर देने पर आमादा हैं, बिना यह जाने कि एक दिन यही मानव जाति को लील लेगा-

  हिमालयः परिवर्तितः। तत्र जनाः आरोहन्ति, नाना वस्तूनि प्रक्षिपन्ति। क्वचिद् दुर्गन्धः, क्वचित् खाद्यवस्तूनि। हिमं द्रवितम्। तेन क्लेशः। 



      उपन्यास में एक स्थान पर  सर्कस के जोकर के माध्यम से उपन्यासकार कहते हैं-

ये खेलासु विदूषकाः भवन्ति, ते सज्जना एव भवन्ति......ये च सज्जना इव दृश्यन्ते संसारे, ते विदूषका भवन्ति।



            उपन्यास का विभाजन 23 खण्डों में किया गया है। मूल संस्कृत के साथ ही हिन्दी अनुवाद भी दिया गया है। यह उपन्यास न केवल बालपाठकों के लिये है अपितु हर आयुवर्ग द्वारा पठनीय है। 




Monday, June 13, 2022

कवि की पहचान _ अभिज्ञानम्

कृति - अभिज्ञानम्

कवि - डॉ. राजकुमार मिश्र ‘कुमार’

विधा - ग़ज़लकाव्य

प्रकाशक - सत्यम् पब्लिशिंग हाऊस, नई दिल्ली

प्रकाशन वर्ष - 2020

पृष्ठ संख्या -147

अंकित मूल्य - 400/-



           साहित्य में ग़ज़लविधा अत्यन्त लोकप्रिय रही है। उर्दू ग़ज़ल किस का मन नही मोह लेती। मीर, गालिब के शेर आज तक उद्धृत किये जाते हैं। हिन्दी ग़ज़ल में दुष्यन्त की ग़ज़ल अपने समय को बखूबी व्यक्त करती हैं। संस्कृत में भी ग़ज़ल विधा प्रसिद्धि पा रही है। कई कवि सम्मेलनों में ग़ज़ल को सुना व सराहा जा रहा है। भट्ट मथुरानाथ शास्त्री से प्रवर्तित ग़ज़लविधा में वर्तमान में कई हस्ताक्षर हैं। कवि हर्षदेव माधव ने शास्त्री जी से लेकर वर्तमान युवा कवियों सहित संस्कृत ग़ज़लकारों की प्रतिनिधि ग़ज़लों का संकलन तैयार किया है, जो द्राक्षावल्ली के नाम से साहित्य अकादेमी, दिल्ली से प्रकाशित है। 



                      युवा ग़ज़लकारों में डॉ. राजकुमार मिश्र प्रमुख हैं, जो ‘कुमार’ तखल्लुस (उपनाम) का प्रयोग भी करते हैं। कवि को साहित्य अकादेमी द्वारा युवा पुरस्कार एवं बाल साहित्य पुरस्कार से सम्मानित किया गया है| कवि राजकुमार मिश्र की ग़ज़लों का संकलन अभिज्ञानम् नाम से प्रकाशित हुआ है। इस में 60 ग़ज़लें हैं और साथ ही इनका हिन्दी अनुवाद भी दिया गया है। 

                        अपनी ग़ज़लयात्रा को कवि संग्रह की प्रथम ग़ज़ल के मतले में इस प्रकार अभिव्यक्त करता है-

गीतं तु तन्न गेयं यस्मिन् समा न मात्रा

तस्यापि जीवनं किं हीनोऽस्ति यः स्वमात्रा।।

इसी ग़ज़ल के अन्य शेर में कवि विदेश में धन कमाने में व्यस्त उन कुपुत्रों का वर्णन करता है, जिनके माता-पिता अपने सूने पडे घरों में अकेले मर-खप जाते हैं-

व्यस्ता धनार्जनार्थं पुत्रास्समे विदेशे

एकाकिनो रुदन्तस्ताताश्च जीर्णगात्राः।।

  कवि संस्कृत कवि सम्मेलनों की दुर्दशा से भी व्यथित है। जब वह यह देखता है कि जिन्होंने कभी जीवन में सरस्वती की उपासना नहीं की किन्तु धनमात्र के लिये वे कविता बनाकर पढ रहें हैं तो कवि आहत मन से कह उठता है-

न कदापि वागुपसेविता यैर्जीवने ते निस्त्रपाः

सहसा धनाय सतां पुरः कवनोद्यता दृष्टा मया।।

    इस संकलन की तालकम् ग़ज़ल सुन्दर बन पडी है। हम सब घरों में ताले का प्रयोग करते हैं। किन्तु ताले की इस संस्कृति ने तब जन्म लिया जब हमारा आपसी विश्वास प्रायः खत्म सा हो गया-

चिन्तये केन पूर्वं गृहे स्वे कदा

वैरकालुष्यदं योजितं तालकम्।।

तस्य तावन्त एवाऽरयो निन्दकाः

लम्बते यस्य यावद् गृहे तालकम्।।



    कवि ने व्यंग्य का अपनी ग़ज़लों में बहुत अच्छा प्रयोग किया है, यथा-

इदं राष्ट्रमद्यास्ति भो बोधितं यत्

वयं जानकीं नैव तस्माद् हरामः।।

यहां देश में नारी की दुर्दशा का वर्णन तो है ही साथ में कवि विदेशी जनों को सम्बोधित करते हुए भारतीयों पर भी व्यंग्य करता है कि हमारी नारियों को विदेशी लोगों द्वारा हरने की जरुरत ही नहीं है, हम स्वयं इस कार्य में दक्ष हो चुके हैं। 

        युवा कवि की ग़ज़लगीतियों में प्रणय के स्वर भी हैं। वह कहीं प्रेम में कुपित प्रिया के मुख का स्मरण करता है तो कहीं प्रिया से कहता है कि प्रेम को अन्य लोगों से छुपाना चाहिए।

          रदीफों का प्रयोग ग़ज़लसंग्रह में पठनीय है। कवि ने पारम्परिक प्रतीकों व मिथकों को नई अर्थवत्ता के साथ प्रस्तुत किया है। प्रायः संग्रह की ग़ज़लें गैर मुसल्सल हैं क्योंकि इनके शेर के भाव स्वतन्त्र रूप से प्रकट हो रहे हैं। संस्कृत ग़ज़ल के क्षेत्र में यह संकलन स्वागतयोग्य है।


Thursday, June 9, 2022

आधुनिक काल के संस्कृत साहित्य का इतिहास

कृति -संस्कृत साहित्य का समग्र इतिहास - चतुर्थ खण्ड

(आधुनिक काल - 1801 ई. से 2017 ई. तक)

लेखक - प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी

विधा - साहित्य के इतिहास का ग्रन्थ

प्रकाशक - न्यू भारतीय बुक कॉरपोरेशन, दरियागंज, दिल्ली

प्रकाशन वर्ष - 2018

पृष्ठ संख्या - 2321 (चारो खण्ड)

अंकित मूल्य - 10000/- (चारो खण्ड)



             संस्कृत साहित्य के इतिहास के ग्रंथ बहुत से लिखे गये हैं किन्तु प्रायः उनमें पं. जगन्नाथ तक के साहित्य का ही परिचय उपलब्ध होता है। कुछ एक ग्रंथ हैं जो संस्कृत के आधुनिक साहित्य का भी परिचय देते हैं। उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान से प्रकाशित संस्कृत वांग्मय के बृहत् इतिहास का सप्तम खण्ड आधुनिक संस्कृत साहित्य का परिचय विस्तार से देता है। उसमें प्रायः अलग-अलग विधा के लिये लेखक भी अलग-अलग हैं। इस ग्रंथ के प्रधान सम्पादक श्री बलदेव उपाध्याय हैं। देवर्षि कलानाथ शास्त्री, केशवराव मुसलगांवरकर आदि ने भी आधुनिक संस्कृत साहित्य के परिचय हेतु ग्रंथ लिखे हैं। किन्तु इन ग्रंथों की अपनी सीमाएं हैं। 



          प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी ने आधुनिक संस्कृत साहित्य के क्षेत्र में बहुत कार्य किया है और उनकी कई पुस्तकें इस पर आधारित हैं। आपने आधुनिक संस्कृत साहित्य संदर्भ सूची का प्रकाशन करवाया जिसके संशोधित संस्करण में 2001 तक प्रकाशित 5040 कृतियों की सूची दी गई है। प्रो. त्रिपाठी जी के ग्रंथ बीसवीं सदी का संस्कृत साहित्य भी एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है जो बीसवीं शताब्दी के काव्यों का बखूबी परिचय देता है। हाल ही में प्रो. त्रिपाठी जी ने एक महत् कार्य प्रकाशित करवाया है, जिसमें वैदिक काल से लेकर 2017 तक संस्कृत में लिखे गये संस्कृत साहित्य का विशद विवरण, समीक्षण तथा आकलन प्रस्तुत किया गया है।  इस ग्रंथ के चार भाग हैं। यह ग्रंथ 2321 पृष्ठों में संस्कृत के समग्र साहित्य को समेटने का सफल प्रयास करता है। कदाचित् किसी अन्य साहित्य के इतिहास ग्रंथ में इस प्रकार की सामग्री संकलित नहीं है। 




          इस ग्रंथ का चतुर्थ भाग आधुनिक संस्कृत साहित्य पर केन्द्रित है। आपने संस्कृत का आधुनिक काल 1801 ई. से माना है। अतः प्रस्तुत ग्रंथ में 1801 ई. से 2017 ई. तक के साहित्य का परिचय उपलब्ध होता है। प्रो. त्रिपाठी जी ने इस ग्रंथ का विभाजन 6 अध्यायों व पांच परिशिष्टों में किया है-




1. आधुनिक संस्कृत साहित्य - प्रमुख प्रवृत्तियां - 

                           इस अध्याय में 19 वीं सदी के साथ संस्कृत साहित्य के आधुनिक काल का आरंभ माना गया है। साथ ही अन्यों के द्वारा माने गये आधुनिक संस्कृत साहित्य के कालविभाजन और युगविभाजन का भी उल्लेख किया गया है। साथ ही प्रमुख प्रवृत्तियों यथा समाज चेतना, यथार्थबोध, व्यक्तिवाद का उदय, विडम्बन शैली आदि का भी संक्षिप्त परिचय उपलब्ध होता है। 

2. महाकाव्य तथा अन्य प्रबंधकाव्य - 

               इस अध्याय के 100 से अधिक पृष्ठों में लेखक ने दो सदियों के महत्त्वपूर्ण महाकाव्यों का परिचय दिया है। यहां अल्पज्ञात या अज्ञात महाकाव्यों की समीक्षा इस अध्याय को विशेष बना देती है। 

3. नाट्यसाहित्य

                       प्रस्तुत अध्याय में आधुनिक काल के संस्कृत नाट्यसाहित्य की समीक्षा की गई है। इसमें ध्वनिनाट्य (रेडियो रूपक), नुक्कडनाटक, संगीतिका, एकांकी आदि का भी उल्लेख है। 

4.गद्यकाव्य, उपन्यास तथा कथानिका - 

                       इस अध्याय में आधुनिक काल के गद्यकाव्य की विधाओं में सर्वाधिक प्रचलित एवं प्रसिद्ध दो विधाओं उपन्यास एवं कथानिका (कहानी) पर विस्तार से चर्चा की गई है। 125 से अधिक वर्षों में संस्कृत में अनेक संस्कृत उपन्यास लिखे गये हैं। इस विधा पर पृथक् रूप से एक सम्पूर्ण ग्रंथ की अपेक्षा है। कथानिका, जिसे वर्तमान के साहित्य की कहानी कह सकते हें, इधर संस्कृत में अत्यन्त लोकप्रिय हुई है। केशवचन्द्र दाश, डॉ. विश्वास, प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी, अभिराज राजेन्द्र मिश्र, बनमाली बिश्वाल, नारायण दाश आदि की कहानियां  इस विधा को पल्लवित कर रही हैं। 

5.मुक्तक काव्य तथा विविध लघुकाव्य - 

                 प्रस्तुत अध्याय में नागार्जुन, नरोत्तम शास्त्री, जानकीवल्लभ शास्त्री, वीरेन्द्र कुमार भट्टाचार्य, गोविन्दचन्द्र पांडे आदि के मुक्तक काव्यों की चर्चा विशेष रूप से उल्लेखनीय है। संदेशकाव्य, व्यंग्य तथा विडंबन काव्य, शोकगीति रागकाव्य, चित्रकाव्य आदि का पृथक् रूप् से यहां उल्लेख किया गयाहै। 

6. चंपू, निबंध, जीवनी तथा विविध गद्यसाहित्य -

      निबंधकार हृषीकेश भट्टाचार्य व रामावतार शर्मा का उल्लेख विशेष रूप से पठनीय है। जीवनी, यात्रासाहित्य, आत्मकथा, पत्रसाहित्य पर भी यहां चर्चा की गई है। 

     ग्रंथ में 9 परिशिष्टों के माध्यम से अनूदित साहित्य, आचार्यपरम्परा, संस्कृत पत्रकारिता, अभिलेखीय साहित्य सहित विदेशों में संस्कृतसाहित्यसर्जना पर महत्त्वपूर्ण जानकारियां दी गई हैं। 600 से अधिक पृष्ठो में प्रो. त्रिपाठी जी ने जो सामग्री प्रस्तुत की है, वह अनूठी है, संग्रह करने योग्य है एवं शोधकर्ताओं व जिज्ञासुओं के लिये अत्यन्त उपादेय है।









Sunday, June 5, 2022

परिवर्तनकाव्यम् _ परिवर्तन का दस्तावेज

कृति - परिवर्तनकाव्यम्

लेखक - डॉ. हेमचन्द्र बेलवाल हिमांशु

विधा - शतककाव्य

प्रकाशक - भूमिका प्रकाशन, अल्मोडा, उत्तराखण्ड

प्रकाशन वर्ष - 2015

पृष्ठ संख्या - 83

अंकित मूल्य - 50/-



       संस्कृत कविता में वर्तमान में दो धाराएं चल रही हैं। एक धारा में जहां पारम्परिक विषयों पर कविता लिखी जा रही है वहीं दूसरी धारा में कवि अपने आस-पास के वातावरण में घटित घटनाओं को केन्द्र में रखकर उन्हें अपनी कविता का विषय बना रहा है। संस्कृत युवा कवि डॉ. हेमचन्द्र बेलवाल अपने परिवर्तनकाव्य से दूसरी धारा के कवि प्रतीत होते हैं। सम्प्रति डॉ. बेलवाल उत्तराखण्ड के दुर्गम क्षेत्र में निवास करते हुए विद्यालय में संस्कृत अध्यापक के रूप में अपनी सेवाएं दे रहे हैं। डॉ. बेलवाल के दो काव्यसंग्रह प्रकाशित हुए हैं- देवभूमिग्रामशतकम् एवं परिवर्तनकाव्यम्। देवभूमिग्रामशतकम् में जहां कवि ने अपने समय के गांवों का चित्रण किया है वहीं परिवर्तनशतक काव्यसंग्रह में संकलित तीन शतकों के द्वारा अपने समय को व्यंग्यात्मक शैली के पुट के साथ प्रस्तुत कर रहे हैं। इन तीन शतकों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-



परिवर्तनशतकम् - इस शतक में 100 श्लोक हैं, जो वसन्ततिलका छन्द में निबद्ध हैं। परिवर्तन संसार का नियम बताया गया है किन्तु यह परिवर्तन जब परिवार, समाज व देश में नकारात्मक रूप से दृष्टिगोचर होता है तो कवि आहत होकर उसे अपने काव्य में अभिव्यक्त करता है। कवि की दृष्टि कभी टीवी के द्वारा फैल रहे सांस्कृतिक प्रदूषण पर जाती है तो कभी वह स्त्रियों द्वारा अपनाई जा रही फूहडता पर भी चिन्ता व्यक्त करता है-

आच्छादिता समुचितैर्वसनैः कुलीना

धिॾ्॰ निन्द्यते परिचितैरपि गेहलक्ष्मीः।

अंगप्रदर्शनरता बत काचिदन्या

सम्मानिता भवति भव्यसभासु हन्त।।


कवि पर्यावरण की विकृत स्थिति से चिंतित है| नगर हो या गांव सब जगह पर्यावरण प्रदूषण अपने पैर पसार रहा है_

वृद्धिं न यान्ति तरवो नगरस्थितास्ते 

ग्रामास्थिताश्च किमथाऽत्र निजस्वभावात्

सर्वं प्रदूषणमिदं करुते विनष्टं 

तद् भौतिकस्य भवतु प्रकृते स्तथा‌ंगम् 


कवि विद्यालय में शिक्षक के रूप में कार्यरत हैं। वे शिक्षानीति निर्धारकों को उलाहना देते हुए कहते हैं-

पाठ्यक्रमो विरचितो विबुधैरिदानीं

वैदेशिकीमनुकरोति स, पद्धतिं भोः।

देशे विदेशजनिता बत नीतिरेषा

तक्रादपीच्छति भृशं नवनीतमाप्तुम्।।

              संस्कृत लेखन के क्षेत्र में यह आवश्यक है कि विभिन्न क्षेत्रों के व्यक्ति अपने अनुभवों को अभिव्यक्त करें। प्राचीन संस्कृत साहित्य में हम ऐसे अनेक उदाहरण देख सकते हैं जिनमें शिक्षक से लेकर राजा, हलवाहा, जुलाहा इत्यादि भी अपनी अभिव्यक्ति कविता में कर रहे हैं। सुभाषितसंग्रहों एवं विविध मुक्तकों में इन्हें खोजा जा सकता है।

नवसृष्टिशतकम्- भुजंगप्रयात छन्द में निबद्ध इस शतक में कवि ने 100 श्लोक रचे हैं। यहां कवि वक्ता है जो विधाता को सम्बोधित करता हुआ मुख्य रूप से आतंकवाद से पीडित नवसृष्टि का चित्रण कर रहा है -

हता हा समे वै तदातंकनाम्ना

हता वे तदातंकवादप्रवृत्त्या।

हताश्चाद्य सर्वे वयं भारतीयाः

तदर्थं विधातः प्रपश्यैकवारम्।।

वानरराज्यशतकम् - 100 श्लोको के इस काव्य में कवि द्वारा उत्तराखण्ड के गांवों में बन्दरों के बढते हुए आतंक को विषय बनाया है। कृषक के साथ - साथ आम जन जीवन भी वानरों से त्रस्त है-

पलायिता ग्रामजना अनेके

ग्रामादिदानीं नगरं सुखाय।

सुखार्थिनामाढ्यनॄणां च तेषां

गेहेऽधुना वानरराज्यमस्ति।।

    प्रस्तुत काव्यसंग्रह पर कवि को साहित्य अकादेमी का युवापुरस्कार प्राप्त हुआ है। तीन शतकों के माध्यम से कवि ने अपने कालखण्ड में व्याप्त समस्याओं को तो उकेरा ही है साथ ही सबके मंगल की भी कामना की है। संग्रह में मूल संस्कृत के साथ उनका हिन्दी अनुवाद भी दिया गया है।




Wednesday, June 1, 2022

महाभारत की कथा का पुनराख्यान - बर्बरीकम् नाटक

कृति - बर्बरीकम्

विधा - नाटक

लेखक - डॉ. जोगेन्द्र कुमार

प्रकाशक - समदर्शी प्रकाशन, मेरठ, उत्तरप्रदेश

प्रकाशन वर्ष - 2020

पृष्ठ संख्या -86

अंकित मूल्य -150/-



    आष महाकाव्य महाभारत परवर्ती लेखकों के लिये सदैव उपजीव्य रहा है। महाभारत की कथाओं की अन्तर्यात्रा पर प्रायः हर लेखक किसी न किसी तरह जाता ही है। महाभारत की कथाओं में इतने पात्र हैं कि उन्हें आधार बनाकर दीर्घकाल तक कई काव्य रचे जाते रहेंगे। युवा कवि डॉ. जोगेन्द्र कुमार ने भी महाभारत की कथा को आधार बनाकर नाटक की रचना की है।

           भिवानी (हरियाणा) निवासी डॉ. जोगेन्द्र कुमार के दो काव्यसंग्रह सत्यांशुः और जीवनसौरभम् प्रकाशित हो चुके हैं। इस बार उन्होंने महाभारत के युद्ध के एक महत्त्वपूर्ण पात्र बर्बरीक को लेकर अपने नाटक की रचना की है। भीम के पौत्र एवं घटोत्कच के पुत्र बर्बरीक महावीर एवं दानवीर के रूप में विख्यात हैं। बर्बरीक को वर्तमान में खाटू श्याम जी के रूप में पूजा जाता है। इनका मन्दिर राजस्थान के सीकर जिले में खाटू नाम के स्थान पर स्थित है। प्रस्तुत नाटक में बर्बरीक के खाटू श्याम के रूप में पूजे जाने की कथा का ही अन्वेषण किया गया है। मूल कथा महाभारत में उपलब्ध होती ही, साथ ही स्कन्दपुराण के माहेश्वरखण्ड के अन्तर्गत द्वितीय उपखण्ड कौमारिक खण्ड के 59 वें अध्याय से 66 वें अध्याय पर्यन्त भी बर्बरीक की कथा विस्तार से उपलब्ध होती है।



      नाटक का विभाजन पांच अंकों में किया गया है। अंकानुसार कथा इस प्रकार है।

प्रथम अंक -नाटक का आरम्भ शिव स्तुति के साथ किया गया है, जिसमें सूत्रधार कहता है-

गंगायाः खलु यस्य पावनजलं नित्यं शिरे शोभते

कण्ठे यस्य विचित्रलम्बितवरं माल्यं ह्यहीनां तथा।

यो नित्यं खलु नग्नकायसहितः कैलासवास्यस्ति वै

चेशोऽसौ सततं प्रसन्नबहुलो रक्षेत् सदा वः शिवः।।

    प्रस्तावना के पश्चात् भीम पुत्र घटोत्कच पाण्डवों से मिलने इन्द्रप्रस्थ आते हैं। इसी अंक में घटोत्कच का विवाह मुर राक्षस की पुत्री मौर्वी से हो जाता है।

द्वितीय अंक - इस अंक में घटोत्कच एवं मौर्वी के पुत्र बर्बरीक के जन्म तथा उसकी शिक्षा का वर्णन किया गया है। शिशु के बडे घुंघराले बालों के के कारण उसका नाम बर्बरीक (बर्बर आकार के बालों के कारण) रखा जाता है-

अयं हि बालो बहुसुन्दरश्च तेजोऽस्ति नूनं वदने स्मितञ्च।

केशाश्च दीर्घाः खलु बर्बराश्च नामास्य तस्मात् खलु बर्बरीकः।।

 वासुदेव श्रीकृष्ण बर्बरीक से मिलते हैं और प्रसन्न होकर उनका एक और नाम सुहृदय रखते हैं। साथ ही उन्हें संगम तीर्थ में देवी आराधना की सलाह देते हैं।

तृतीय अंक - बर्बरीक गुप्तक्षेत्र में देवी आराधना में लीन हो जाते हैं। यहां वह कई राक्षसों का वध भी करते हैं। सिद्धाम्बिका देवी बर्बरीक को तीन दिव्य बाण प्रदान करती हैं।

चतुर्थ अंक - अज्ञातवास के दौरान पाण्डवों की मुलाकात बर्बरीक से होती है।

पंचम अंक - अन्तिम अंक में कुरूक्षेत्र में युद्ध मैदान का दृश्य है। बर्बरीक युद्ध लडने के लिये आता है। किन्तु जब कृष्ण को लगता है कि बर्बरीक के कारण स्वयं पाण्डवों की भी हानि हो सकती है तो वे बर्बरीक से उसकी बलि मांगते हैं। बर्बरीक अपना शीश दान कर देते हैं। कृष्ण प्रसन्न होकर अपना श्याम नाम उन्हें दे देते हैं। भरत वाक्य के साथ नाटक समाप्त हो जाता है।

        महाभारत के एक महत्त्वपूर्ण पात्र को लकर लिखे गये इस नाटक में अभिनेयता भी है और संवाद सरल भाषा में निबद्ध है। आवश्यकता इस बात की है कि ऐसे नाटकों को विश्वविद्यालयों एवं अकादेमी के कार्यक्रमों में अभिनीत किया जाए।




स्मृतियों की जुगाली - स्मृतीनां जर्जरितानि पृष्ठानि

कृति - स्मृतीनां जर्जरितानि पृष्ठानि

लेखक - डॉ. हर्षदेव माधव

सम्पादक - डॉ. नारायण दाश

विधा- स्मृतिकथा (गद्यकाव्य)

प्रकाशक - कथा भारती, कलकत्ता

प्रकाशन वर्ष - 2018

पृष्ठ संख्या -96

अंकित मूल्य - 200/-




          गद्य को कवियों के लिये निकष कहा गया है, यह भी एक कारण है कि प्रायः कवि गद्य-लेखन में संलग्न होते हैं। आधुनिक संस्कृत साहित्य के गद्य का स्वरूप अन्य भाषायी साहित्य के प्रभाव व नये-नये प्रयोगों के चलते परिवर्तित हो रहा है। जहां गद्यकारों की भाषा-शैली बदली है वहीं नई-नई विधाओं में रचनाएं भी संस्कृत पाठकों को पढने हेतु उपलब्ध हो रही हैं। ऐसी ही एक विधा है स्मृतिकथा। व्यक्ति को स्मृतियां आजीवन प्रभावित करती हैं। व्यक्तित्व निर्माण में स्मृतियों का बहुत बडा योगदान होता है। दरअसल व्यक्ति और स्मृति परस्पर पूरक होते हैं।  स्मृतियों की जुगाली करते रहना बहुत आवश्यक है। स्मृतियां नकारात्मक भी हो सकती हैं और सकारात्मक भी। स्मृतियां दृःखद भी हो सकती हैं और सुखद भी। इन स्मृतियों को जब एक कवि गद्य के सांचे में ढाल कर कथाओं के रूप में प्रस्तुत करता हैं तो पाठक के लिये वे सर्वथा ग्राह्य ही होती हैं। स्मृतियों को जब एक सिलसिलेवार ढंग से लम्बी कथा के रूप में लिखा जाता है तो वह आत्मकथा का रूप ले लेती हैं। जब किसी व्यक्ति विशेष या घटना विशेष से जुडी स्मृति को पृथक् पृथक् कथा के रूप में प्रस्तुत किया जाये तो उसे ही स्मृतिकथा की संज्ञा दी जाती है। लेखक के द्वारा भोगी गई ये कथाएं साधारणीकरण प्रक्रिया से गुजर कर काव्यप्रयोजनों को सिद्ध करती हैं। 



                 डॉ. हर्षदेव माधव निर्विवादित रूप से आधुनिक संस्कृत साहित्य के सबसे अधिक प्रयोगधर्मी कवि हैं। गद्य, पद्य, नाट्य आदि सभी काव्यभेदों में सिद्धहस्त कवि डॉ. हर्षदेव माधव ने अपने जीवन काल की स्मृतियों को कथाओं के रूप में स्मृतीनां जर्जरितानि पृष्ठानि नामक कथासंग्रह में लेखनबद्ध किया है।  32 कथाओं के माध्यम से कथाकार ने अपने जीवन की कई स्मृतियों को पाठकों के लिये तो प्रस्तुत किया ही है साथ ही उन स्मृतियों को स्वयं कवि ने भी जी लिया है। कभी भोज को 32 पुत्तलिकाओं ने विक्रमादित्य की 32 कथाएं सुनाई थीं| इस संग्रह में स्वयं कथाकार अपनी 32 स्मृतियों की कथा हमें सुना रहे हैं| इन स्मृतियों की जुगाली करते करते कथाकार इन स्मृतियों के तर्पण की बात भी कह देता है क्योंकि इनमें से कई स्मृतियों से ही पीडित भी हैं - ‘‘मेरी स्मृतियों में मैंने अपने रंग भरे हैं। इन स्मृतियों ने मेरे हृदय को जलाया है, आज मैं स्मृतियों को सरस्वती के प्रवाह में बहाकर तर्पण कर रहा हूं।’’ 



                             इन स्मृतिकथाओं में प्रथम कथा का शीर्षक सविता है। सविता कथाकार की पडौसी युवती है, जिसे उसकी लालची मां और ताऊ विवाह के पश्चात् भी उसके सुसराल में नहीं भेजना चाहते। सविता कथाकार को अपने मन की बात भी कहती है और एक दिन उसे यह भी बतलाती है कि वह वहां से भागकर सुसराल जाने वाली है। सविता के पिता का पात्र कथा के अन्त में अपनी छाप छोड जाता है। क्रूरहृदयः कविः कथा में ऐसे कवि की कथा है जो प्रारम्भ में अपने व्यक्तित्व से कथाकार को प्रभावित करता है किन्तु बाद में उसके कृत्यों से कथाकार सोचने को विवश हो जाता है- इदानीमपि यदा यदा अहं स्मरामि तदा तदा विह्वलो भवामि। सरस्वतीकृपावशात् स कवित्वं लब्धवान् किन्तु आसुरीसम्पद्वशात् स क्रूरहृदयोऽभवत्। अहं तस्य हृदयस्य मालिन्यस्य रहस्यं न जाने। एकः कविरासीत् किन्तु क्रूरहृदयः। कवेरनुग्रहः कथा में कथाकार ने महाविद्यालय में अपनी नियुक्ति की कथा प्रस्तुत की है। प्रस्तुत कथा यह तो बतलाती ही है कि किस प्रकार प्रतिभाशाली व्यक्ति के लिये नये द्वार खुलते जाते हैं साथ ही यह भी बतलाती है कि कविहृदय ही कवि का मूल्यांकन सही तरीके से कर पाता है। मंछाडाकिनी कथा हमें यह सोचने को विवश कर देती है कि हम मनुष्यों ने इस दौर में अपने स्वार्थों के चलते क्या क्या खोया है, कि हम किस प्रकार एक अच्छी भली युवती को डाकिनी बना देते हैं- दुःखिनी विधवा स्वनिराधारस्थितौ डाकिनी जाता। वयं तस्याः क्रोधकारणानि ज्ञातुं न शक्नुमः। अद्यापि तस्या मलिनशाटीयुक्तं दर्शनम्, तस्याः हताशामयानि कटुवचनानि स्मृतिपथमायान्ति। कदाचित् कालप्रवाहाद् वियुक्तो मनुष्य आनन्दरहितं निराधारं जीवनं भारवद् वहति.............इदमपि निष्ठुरं सत्यमस्ति। संग्रह की अन्य कथाएं भी प्रभावित करती हैं। यहां स्थित पात्र ऐसे प्रतीत होते हैं जैसे वे हमारे आसपास के वातावरण के ही हों, जैसे बर्फ बेचने वाले आमनचाचा या फिर रावण का पात्र निभाने वाले बच्चूलाल या कि पानी पिलाने वाली भागीरथी।



                         कथाकार संग्रह के आरम्भ में स्मृतियों को शाप जैसा बतलाते हुए कहते हैं कि स्मृतियां शाप हैं लेकिन शैतान मन उनके बिना नहीं रह सकता। सम्भवतः कथाकार की कई कटुस्मृतियां इस कथन के पीछे की कारण रहीं हैं। अस्तु, संस्कृत में इस प्रकार की कथाओं का मुक्तहृदय से स्वागत किया जाना चाहिए। हम वेदों में निबद्ध कथाओं से होते हुए दीर्घ दीर्घ वाक्यों व कल्पनाओं तथा यथार्थ से निबद्ध कथाओं के बाद आज अल्प सामासिक शैली से युक्त, सरल पदावली वाली, विविध स्वरूपों वाली कथाओं तक पहुंचे हैं। आगे हमें और भी मार्गों पर चलना है।