Sunday, October 22, 2023

संस्कृत में नवीन ग़ज़ल संग्रह प्रतिप्रवाहम्

कृति - प्रतिप्रवाहम्



कृतिकार - महराजदीन पाण्डेय ‘विभाष’

विधा - गजल संग्रह

संस्करण - प्रथम संस्करण 2022

प्रकाशक - रचनाकार पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली

पृष्ठ संख्या - 112

अंकित मूल्य - 300/-

    अर्वाचीन संस्कृत साहित्य में जो विधा इधर खूब फली - फूली है, वह है ग़ज़लविधा। उर्दू-फारसी की परम्परा से निकली यह विधा हिन्दी आदि भारतीय भाषाओं के साथ संस्कृृत में भी अत्यन्त लोकप्रिय हुई है। महराजदीन पाण्डेय ‘विभाष’ आधुनिक संस्कृत साहित्य में अपनी रचनाओं से सर्वादृत हैं। ‘मौनवेधः’ और ‘काक्षेण वीक्षितम्’ इन दो संस्कृत ग़ज़ल संग्रह के उपरान्त प्रतिप्रवाहम् नाम से कवि विभाष का तृतीय ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत संग्रह को चार भागों में बांटा गया है।

1. ग़ज़लम् - इस भाग में कवि विभाष रचित 16 संस्कृत ग़ज़ल हिन्दी अनुवाद के साथ संकलित की गई हैं। इन ग़ज़लों  का छन्दशास्त्रीय परिचय  स्वयं ग़ज़लकार ने संग्रह के अन्त में दे दिया है। कवि विभाष अपनी ग़ज़लों में विभिन्न भावबोधों के समावेश के लिए जाने जाते हैं। व्यंग्यार्थ का पुट इन ग़ज़लों की सम्प्रेषणीयता को बढ़ा देता है। साथ ही समकालीन बोध भी इनकी ग़ज़लों में देखने को मिलता है। चुनाव के मौसम का बखूबी वर्णन करते हुए महराजदीन पाण्डेय कहते हैं-

                निर्वाचनस्य रंगे नटितेन तेन मुषितम्।

                कस्यापि तेन रुदितं कस्यापि तेन हसितम्।।

       निर्वाचन के रंगमंच पर उसने अपने अभिनय से किसी की हंसी चुरा ली  तो किसी का रोना। नेता को चुनावी रंगमंच का अभिनेता बताकर ग़ज़लकार ने चुनावी वायदों की हकीकत बयान कर दी है। 

        संस्कृत में एक सुभाषितांश प्रचलित है- गतस्य शोचनं नास्ति, जिसे हिन्दी में कहते हैं - बीती ताहि बिसार दे। इसी भाव को गतं गतं तत (गया सो गया) इस रदीफ के माध्यम से नवीन कथ्य के साथ प्रस्तुत किया गया है-

               हृदये हृते न बन्धो विलपेद् गतं गतं तत्।

               वंशो न को नु वंशीं ध्वनयेद् गतं गतं तत्।।

               जीवेन महार्घेण क्रीणीत को नु मोक्षम्

               आक्रीय तं न भूयो कृश्येद् गतं गतं तत्।।

   मन की चोरी हो जाने पर रोना नहीं, गया सो गया

   बांस नही तो बांसुरी कौन बजाये,  गया सो गया

   मंहगे जीवन के बदले कौन ले मोक्ष भला

   पर जब सौदा कर ही लिया तो गया सो गया



        कोराना काल की विभिषिका को कई कवियों ने  अपने काव्यों में अभिव्यक्ति दी है। विभाष अपनी एक ग़ज़ल में कोराना के भय से पीडित होते हुए सब को अपनी रक्षा करने का आह्वान कर रहे हैं ताकि हम स्मृति शेष न रह जाएं-

                 स्वं रक्ष रक्षणीयास्त्वामाश्रिताः कियन्तः।

                 नेचेदरुन्तुदाः स्युर्दिवसाः स्मृताः कियन्तः।।

वे उस समय की सोशल डिस्टेंसिंग सामाजिक दूरी से भी आहत हैं-

                 एकत इहावमर्शे नहि गुण्ठनेऽस्ति मानः,

                 परतो मुखा इहापदि पटमुद्रिताः कियन्तः।।

                 विरहोऽसहो यदीयस्तद् दूरताऽद्य पथ्यम्,

                 धातस्त्वयापि कीला हृदि कीलिताः कियन्तः।।

      यहां पटमुद्रित शब्द का प्रयोग मास्क के अर्थ में किया गया है। 

                   विभाष की ग़ज़लों में कई बार भाव उसी भूमि पर आ जाते हैं, जहां से उर्दू फारसी की रूमानीयत भरी ग़ज़लें प्रस्फुटित होती रहती हैं -

          अभिभाषितुं किमपीहितं मुखतोऽन्यदेव तु निःसृतम्।

          प्रतिवारमेवमभूद् यदपि पूर्वं न किन्नु सुनिश्चितम्।।

          स उपैति चेत् किमुपालभेऽहमितिस्थितो विमृशन् चिरम्

          तदुपागमे स्मरितुं क्षमे न किमावयोः समुदीरितम्।।

          प्रेमी के सामने आने पर जो सोचा गया था, वह बोला न जा सका, यही भाव इन दो शेरों में प्रकट हुआ है। किन्तु कवि विभाष के कथ्य में पुनः पुनः साम्प्रतिक राजनीति को उलाहना, दबे-कुचले लोगों की दशा, किसानों की व्यथा आदि प्रवेश कर ही जाते हैं, यथा-

            जगतीयमग्रतोऽग्रे यातीति याति सततम्

            शंकेऽसि वासि नो वा कृष्टः कृषिश्रितस्त्वम्।।

       कवि किसान को पुकारता हुआ कह रहा है कि दुनिया बहुत आगे निकल चुकी है और खेती पर आश्रित तुम वहीं के वहीं रह गये हो। 

               विभाष उर्दू-फारसी ग़ज़ल परम्परा के अध्येता रहे हैं। वे उर्दू शायर निदा फाजली के एक शेर के आधार पर अपना शेर रचते हुए उनका स्मरण करते हैं-

        न देहि कर्णौ बुधोपदेशे कदापि मुग्धोऽपि भवे रसाय

        द्वयोर्द्वयोश्च न चत्वारि नाम वदामि सर्वत्र संचयः स्यात्।।

दो और दो जोड हमेशा चार कहां होता है

सोच समझ वालों को थोडी नादानी दे मौला।। (निदा फाजली)

ये गजले कहीं छोटी बहर में हैं तो कहीं बडी बहर में। तखल्लुस (उपनाम) ‘विभाष’ का प्रयोग कवि बहुत कुशलता के साथ करते हैं-

                        अत्र कुत्राप्यरिर्विभाषो मे

                        आह्वयन्ती पुनः श्रुतिः का वा।।

    महराजदीन पाण्डेय अपनी ग़ज़ल यात्रा में तीन बार तखल्लुस को बदल चुके हैं। वे पहले ‘महाराजो वात्स्यायनः’ नाम से लिखते रहे, फिर ‘ऐहिक’ उपनाम धरा और वर्तमान में ‘विभाष’ तखल्लुस से लिख रहे हैं। कवि ने इन ग़ज़लों का नामकरण नहीं किया है, जैसा कि प्रायः संस्कृत के ग़ज़लकार कर रहे हैं। इसका कारण बतलाते हुए वे लिखते हैं कि यह परम्परा विरुद्ध है। भिन्नाशयों के अनेक शेरों में से कोई आपकी दृष्टि से अधिक महत्त्व का हो सकता है तो दूसरे की दृृष्टि में कोई दूसरा शेर। इसलिए ग़ज़ल का कोई शीर्षक न देने का चलन है, जो माना ही जाना चाहिए।


2. गीतम् - इस भाग में चार संस्कृत गीत हिन्दी अनुवाद के साथ संकलित हैं।  कवि कहीं अर्थ को ही परम पुरूषार्थ मानते हुए चार्वाक मत का अनुसरण करते दिखते हैं तो कहीं आरक्षण की व्यवस्था पर सवाल खडा करते हैं। यहां किसी गीत में वे सहिष्णुता को कोस रहे हैं तो कहीं वे नंगी तलवार वाले मूर्तिभंजकों से हमें सावधान करते दिखते हैं-

                   इमे मूर्तिमर्दाःक्व नग्नासिहस्ताः

                   क्व मूर्त्तो जगत्प्राणिमोदोऽप्रमेयः।

                   यदैतस्तदैतोऽधुना नैति कश्चित्

                   स्वयं रक्षितुं कोऽपि यत्नो विधेयः।।

      यदि महराजदीन पाण्डेय की काव्ययात्रा को सिलसिलेवार ध्यान से पढा जाये तो आप पाएंगे कि इधर उनकी कविता का स्वर शनैः शनैः बदल रहा है।


3. मुक्तकम् - इस भाग में 37 मुक्तक संकलित हैं। कवि गांव के वातावरण के साथ जुडा हुआ है। उसका यह जुडाव गाहे बगाहे उनकी कविता में चला आता है-

                  अन्तेऽमू राजिकाराजयः पीताः

                  मध्ये चातसिबाह्वोश्चणकाः प्रीताः

                  पुरतः कलायलतिकास्पृड्भिर्वातैः

                  विद्मो न कुत्र वा वयं क्षणं नीताः।।

      सीमान्त पर राई (सरसों) की पंक्तियां, बीच में अलसी की बांहों में प्रसन्न चने और मटर की लताओं का स्पर्श करके बहने वाले वायु के साथ मैं नहीं समझ पाया कि क्षणभर के लिए कहां चला गया। इस भाग में से कुछ मुक्तक कितआ या कता में आते हैं, जो उर्दू शायरी में प्रसिद्ध है। 


4.वृत्तगन्धि वृत्तम् - इस भाग में तित्वरी जिजीविषा शीर्षक से 10 मुक्तछन्दोबद्ध कविताएं संकलित हैं। यथा-

प्रतिधारं दोर्भ्यां मनुष्यस्तरति 

द्वैधे क्षिपति जीवितम्

किंचैतस्य जिजीविषापि चित्रम्

विषमेऽपि नो नश्यति

अन्वाच्योत्थायोपविश्य सोढ्वा प्रतिघातमुद्वेजनम्

लोकस्यास्य विसंष्ठुलोपलतले

स्थातुं जुहोति स्वताम्।।



   महराजदीन पाण्डेय की कविताएं एक और रूमानियत से भरी हुई हैं तो दूसरी और वे कविता की लोकधर्मी परम्परा का निर्वाह भी करते चलते हैं। विधाओं की विविधता उनके काव्य का एक अन्य उज्ज्वल पक्ष है।

Sunday, April 9, 2023

जानन्तु ते - संस्कृत गजल में नवीन प्रयोग

कृति - जानन्तु ते



रचयिता - डॉ. हर्षदेव माधव

सम्पादक - डॉ. प्रवीण पण्ड्या

विधा - संस्कृत गजल

प्रकाशक - संस्कृति प्रकाशन, अहमदाबाद

संस्करण - प्रथम, 2003

पृष्ठ संख्या - 99

अंकित मूल्य - 100/-

     साहित्य में गजलविधा खूब फली - फूली है। विभिन्न भाषाओं में अभिव्यक्ति को मुखर करती यह विधा पसन्द की जाती रही है। उर्दू और हिन्दी में तो गजल एवं गजलकारों को अच्छा -खासा मुकाम हासिल है। इधर केवल गजल के प्रशंसक ही नहीं अपितु नेता भी अपनी बात को दमदार तरीके से रखने के लिए गजल के शेरों का प्रयोग करते दिखलाई देते हैं। संस्कृत में जो विधाएं आयातित हैं, उनमें गजल सर्वाधिक पसन्द की जाती रही है। भट्ट मथुरानाथ शास्त्री, बच्चूलाल अवस्थी, जगन्नाथ पाठक, अभिराज राजेन्द्र मिश्र, राधावल्लभ त्रिपाठी, पुष्पा दीक्षित, हर्षदेव माधव, महराजदीन पाण्डेय, लक्ष्मीनारायण पाण्डेय जैसे वरिष्ठ गजलकारों ने जहां संस्कृत गजल की विकास यात्रा को नवीन आयाम दिए वहीं आज रामविनय सिंह, प्रवीण पण्ड्या, बलराम शुक्ल, कौशल तिवारी, राजकुमार मिश्र, ऋषिराज जानी आदि नई पीढी के गजलकार भी सक्रिय हैं। 



        भट्ट मथुरानाथ शास्त्री के पश्चात्  यदि संस्कृत साहित्य में सर्वाधिक नवीन प्रयोग किसी ने किये हैं तो निःसन्देह वह डॉ. हर्षदेव माधव हैं। संस्कृत गजल को नवीन रूपों में ढालती उनकी कृति ‘जानन्तु ते’ हाल ही में प्रकाशित होकर आई है। कवि माधव कविता के साथ-साथ  काव्यसंग्रहों के नामकरण में भी अपनी अद्भुत प्रतिभा दिखलाते हैं। प्रयोगधर्मी कवि भवभूति की काव्यपंक्तियों के अंशों के माध्यम से कई बार डॉ. हर्षदेव माधव ने अपने काव्यों का नामकरण किया है, जो इनके काव्यसंकलनों के मिजाज पर खरा उतरता है। भवभूति ‘‘जानन्तु ते किमपि तान् प्रति नैष यत्नः’’ के माध्यम से अपने उन समकालीनों पर कटाक्ष करते हैं जो उनकी कविता को उस समय समझ नहीं पा रहे थे तो कवि माधव भी अपने ऐसे ही समकालीनों को अपने काव्यसंकलन के माध्यम से उत्तर देते हुए संग्रह का नाम रखते हैं - जानन्तु ते। 

             यह कवि माधव की प्रत्यग्र 55 संस्कृत गजलों का संकलन है। सभी गजलें अपने आप में अनूठी हैं। वे गजल का संविधानक तो अपनाते हैं लेकिन साथ ही अपने कथ्य को कहने के लिये संस्कृत के पारम्परिक छंदों का भी आश्रय लेते हैं। आपकी गजलें वसन्ततिलका, उपजाति, अनुष्टुप्, स्रग्धरा, वंशस्थ, शार्दूलविक्रीडित, द्रुतविलंबित, मालिनी, शिखरिणी,मन्दाक्रान्ता जैसे लोकप्रिय संस्कृत छन्दों में तो उतरती ही हैं, साथ ही विद्युन्माला, मणिमाला, पंक्ति, प्रहर्षिणी, भ्रमरविलसिता, प्रबोधिका मदलेखा, मत्तमयूर जैसे अल्प प्रचलित छन्दों के प्रवाह में भी गजल डुबकी लगा लेती हैं। यहां छोटी बहर की तो गजल हैं ही जैसे कि शशिवदना छन्द के अनुसरण में यह गजल -

अचलशिवोऽहम्

चपलशिवोऽहम्।।

पुनरथ माया-

शबलशिवोऽहम्।।

     तो सवैया छन्द की लय में बडी बहर की गजलें भी यहां मिलती हैं। कवि माधव हर बार अपनी नई राह पकडते हैं। वे तयशुदा रास्तों पर कभी नहीं चलते। शववाहकों पर उनकी शान्त रस से सिक्त मार्मिक गजल कवि के जीवनदर्शन को अभिव्यक्ति देती है-

रिक्ता कृत्वा गृहं सर्वं गच्छन्ति शववाहकाः।

रामनाम्नः कदम्बेन चलन्ति शववाहकाः।।

गृहस्वामी गतो दूरं विहाय धनसम्पदः,

मृत्तिकां तु शरीरस्य वहन्ति शववाहकाः।।

     कवि अपनी गजलों में समसामयिक समाज को परखता है, उसका बखान करता है, पुराने समय से आज के समय की तुलना भी वह करता है-

क्व नु सुरमुनिसेव्या सा पवित्रा धरित्री

क्व च मलिनतरेयं रंकदीना धरित्री ।।

क्व नु पुलकितगात्री शस्यरम्या धरित्री

क्व च मनुजबुभुक्षा-खिन्नचित्ता धरित्री ।।



आध्यात्मिक गजल -  कवि माधव संस्कृत में आध्यात्मिक गजल लिखने वाले प्रथम गजलकार हैं। संकलन की कतिपय गजल इस श्रेणी में आती हैं। दर्शन में हंस प्रतीक है आत्मा का, उस प्रतीक को लेकर कवि माधव ने आध्यात्मिक गजल का ताना-बाना बुना है-

स्वान्तः क्लेशैर्दूयते नैव हंसः।

भावाभावैर्दूष्यते नैव हंसः।।

मुक्ताकाशे स्वैरयात्राऽस्ति मुक्त्यै

कारागारै रुध्यते नैव हंसः।।

      सामने आकाश मुक्त है और यात्रा मुक्ति की है लेकिन वह यात्रा स्वैच्छिक है और जब यात्रा स्वैच्छिक हो तो भला गहन समुद्र में डूबने का भय किसे होगा, सुविधाजनक यात्रा पर चलने वाले मंजिल पर पहुंचने का आस्वादन नहीं ले पाते या कि सच्चा आनन्द यात्रा का ही है, गन्तव्य का नहीं -

अब्धौ भीतिर्मज्जनस्यापि नास्ति,

नौकार्भिवा नीयते नैव हंसः।।

   आत्मन्!, दीपः, घटः, वृन्दावनम् आदि शीर्षकों से युक्त गजलें भी आध्यात्मिक गजलों की श्रेणी में आती हैं। 


मर्शिया गजल-  मर्सिया मूल रूप से एक अरबी शब्द है जो रिसा से बना है। मर्सिया काव्य में किसी के अभाव में विलाप किया जाता है। संस्कृत गजल के क्षेत्र में कवि हर्षदेव माधव प्रथम ऐसे गजलकार हो गये हैं, जिन्होंने मर्सिया शैली का प्रयोग गजल में किया है। मर्शियागझलगीतिः में कवि किसी व्यक्ति विशेष के अभाव में मर्सिया नहीं लिख रहा है अपितु वह स्वप्न, उत्सव आदि के अभाव में मर्सिया लिखता है-

अद्य मे सूर्यो गतश्चन्द्रो गतः।

अद्य मे रात्रिर्गता स्वप्नो गतः।।

जीवितं जीर्णं वनं मे संवृतम्,

उत्सवो यातो निजानन्दो गतः।।

पादपे छिन्ने कथं जीवेल्ल्ता,

जीवनाधारो हि मे श्वासो गतः।।


निरोष्ठ्यवर्णा गजलगीति -      शिवविभूतियोग शीर्षक से युक्त गजल में कवि माधव ने दण्डी कवि के समान ओष्ठ्य वर्णों का प्रयोग नहीं किया है। दण्डी रचित दशकुमारचरित में प्रिया के द्वारा किये गये दन्तक्षत के कारण मन्त्रगुप्त ओष्ठ्य वर्णों का प्रयोग नहीं कर पाता । स्रग्विणी छन्द में प्रस्तुत गजल भी निरोष्ठ्य वर्णों से युक्त है-

श्रीधरे शंकरः।

शंकरे शंकरः।।

अष्टधा दर्शने,

सुन्दरे शंकरः।।

खेचरे केचरे

गोचरे शंकरः।।


शकारस्य गजलगीति -    शूद्रक रचित मृच्छकटिकम् में शकार नामक पात्र विचित्र प्रकार का प्रतिनायक है। वह अपने कथनों में स वर्ण के स्थान पर श वर्ण का प्रयोग करता है अतः उसका नाम ही शकार रख दिया गया है। प्रयोगधर्मी कवि हर्षदेव माधव शकार की उक्तियों को लेकर गजल तो रचते ही हैं, साथ ही सम्पूर्ण गजल में स वर्ण के स्थान पर श वर्ण का ही प्रयोग करते हैं-

धावशि याशि च शभयं श्वशिषि च कुत्र. गमिष्यशि वशन्तशेणे!।

मुक्तमयूरी त्वं यमराजं श्वयं वरिष्यशि वशन्तशेणे!।।

श्वा इव हरिणीं त्वां च कपोतीं बिडाल इव गृह्णामि शवेगम्,

अबले! हरामि शीघ्रमवशिके किं नु करिष्यशि वशन्तशेणे!।।

    शकार पात्र की एक और विशेषता है कि वह प्राचीन कथाओं के पात्रों को असंगत रूप से जोड देता है। कवि ने अपनी गजल में इसका भी बखूबी प्रयोग किया है-

अश्निह्यत् कुन्त्यां कंशो वा रामो द्रौपद्यामश्निह्यत्,

श्निह्याम्येवं मधुरान् शब्दान् त्वमपि वदिष्यशि वसन्तशेणे!।। 



स्त्रीपुरुषोक्तिगजल (दीर्घगजल) -    कवि माधव ने गजलसंग्रह के अन्त में एक दीर्घ गजल को प्रस्तुत किया है। इस दीर्घ गजल में 33 शेर माधव जी द्वारा रचे गये हैं। इस गजल की दीर्घता तब और बढ जाती है, जब इसमें 7 कवि उसी शैली में अपने द्वारा रचे गये शेरों को जोडते हैं। यह संस्कृत गजल के क्षेत्र के साथ-साथ साहित्य में भी अभिनव प्रयोग है। इस गजल की एक और विशेषता यह है कि इसमें स्त्री और पुरुष दोनों की उक्तियों को परिवर्तनशील रदीफ-काफिए के साथ प्रयुक्त किया गया है, इस तरह यह स्त्री और पुरुष दोनों पर समान रूप  से घटित होती है। भुजंगप्रयात छन्द में लिखी गई यह गजल कई मायनों में अद्भुत बन पडी है-

मृजामो वयं किं लिखन्तः/लिखन्त्यः।

सदा विस्मरामस्स्मरन्तः/स्मरन्त्यः।।

गृहं नास्ति, गन्तव्यदेशः सुदूरे,

स्वयात्रां त्यजामश्चलन्तः/चलन्त्यः।।



     प्रस्तुत संकलन में कई अप्रचलित या अल्पप्रचलित धातुओं का भी प्रयोग किया गया है। प्रयोगशील इस गजल संकलन का आधुनिक संस्कृत साहित्य में सर्वथा स्वागत किया जाना चाहिए।

Saturday, February 18, 2023

काव्य यात्रा _ विदग्धा लोकयात्रेयम्

कृति - विदग्धा लोकयात्रेयम्


लेखक - डॉ. लक्ष्मीनारायण पाण्डेय

विधा - संस्कृतगजलसंकलन

प्रकाशन वर्ष - 2022

प्रकाशक - सत्यम् पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली

संस्करण - प्रथम

पृष्ठ संख्या - 208

अंकित मूल्य - 795/-

                अर्वाचीन संस्कृत  साहित्य में भट्ट मथुरानाथ शास्त्री, जो कि ‘मंजुनाथ’ तखल्लुस से भी जाने जाते हैं, ने गजलगीतियों को उतारा। तब से 21 वीं सदी के तृतीय दशक के आरम्भ तक अनेक संस्कृत कवियों ने इस विधा में अपने कहन को अभिव्यक्ति दी है। मध्यप्रदेश निवासी डॉ0 लक्ष्मीनारायण पाण्डेय को हम फेसबुक आदि सोशल मीडिया के माध्यम से पढते रहे हैं। अब उनकी संस्कृत गजलों का संकलन 2022 के जाते - जाते छप कर आया है। यह स्वयं कवि की लोकयात्रा को तो प्रतिबिम्बित करता ही है, साथ ही संस्कृत गजल की लोकयात्रा के भी नये पडावों को अभिव्यक्त करता है। प्रस्तुत संकलन में कवि की 101 संस्कृत गजलों को निबद्ध किया गया है। 



              संकलन के आरम्भ में शिव को समर्पित मंगलाचरण के लिये भी कवि प्रकृतानुसार गजलविधा का ही आश्रय लेता है-

                नास्ति यस्यादिर्न चान्तः तन्नुमः।

भस्मना महितं महान्तं  तन्नुमः।।

                 अष्टधाप्रकृतेः स्वरूपं शाश्वतम्,

                  पार्वतीकान्तं सुकान्तं तन्नुमः।।



   कहीं कवि अन्योक्ति का आश्रय लेता हुआ कहता है कि मैं उस की गाथा लिख रहा हूं, जिसे अपनों ने ही लूट लिया-

               पद्मानि लुण्ठितानि यस्य द्विरेफचौरैर्

                गाथामहं लिखामि तस्य सरोवरस्य।।

       तो कहीं इसी दीर्घ गजल में वे उन कवियों की भी खबर लेते दिखाई देते हैं, जिनकी दृष्टि सुन्दर शरीरों पर तो जाती है लेकिन उन्हें भूखे लोगो की पीड़ा दिखाई नहीं देती-

               देहेषु चिक्कणेषु दृष्टिस्तथा कवीनां

             केनापि लिख्यते किं पीडा बुभुक्षितस्य।।

      देश के शासक को व्यंग्य की शैली में कवि क्या खूब तरीके से देश के हालात बयां कर रहा है-

                        देशे सकलं रुचिरं राजन्।

                       प्रायो वहते रुधिरं राजन्।।

                          रागो द्वेषो दलनं छलनं

                    सञ्जातं खलु सुकरं राजन्।।

             संस्कृत कवियों में ऐसा साहस कम ही मिल पाता है। प्रायः कवि तो शासक की प्रशंसा करने में ही अपनी लेखनी को खपाएं रखते हैं और उन पर शतककाव्य, महाकाव्य रचते रहते हैं। लेकिन इसमें उनकी विवशता भी सम्भवतः कारण होती है, क्योंकि वे शासन को खुश करके ही तो अपने लिये पुरस्कार और अवसर जुटा पाते हैं। 

                गजल में किसी शायर के रदीफ का प्रयोग कभी - कभी दूसरे शायर से मिल जाता है, लेकिन उनका अंदाजे बयां अलग होता है। शनैः शनैः रदीफ का प्रयोग संस्कृत के प्रसिद्ध गजलकार अभिराज राजेन्द्र मिश्र जी के साथ  अन्य कवियों ने भी किया है। कवि पाण्डेय भी इस रदीफ का प्रयोग करते हुए कहते हैं-

                    पीडा नवैव जायतेऽधुना शनैः शनैः।

                   दाहस्तथैव भासतेऽधुना शनैः शनैः।।

                   संवर्द्धिता विषाक्तवल्लरी वनक कुतो

                   मन्माधवः कषायतेऽधुना शनैः शनैः।।

कवि कहीं कहता है कि आश्चर्य कि बात यह है कि जिसने कभी नदी में डुबकी नहीं लगाई, वह तट पर खडा होकर नदी की कथा लिख रहा है-

                         आश्चर्यमेतदेव ये सर्वदा तटस्था

                  दूरादहो लिखन्ति नद्याः कथामिदानीम्।।

        आजकल हो भी यही रहा है। अनुभूत सत्य के स्थान पर केवल कल्पना मात्र से लिखा गया कथ्य लेखन को लम्बे समय तक जीवित नहीं रख सकता है। और यह भी सही है कि जब सूर्य के वंशज दिखलाई नहीं पडेंगे तो कवि खद्योतसम हो ही जाने हैं-

                  जाने न निर्गताः क्व सूर्यस्य वंशजास्ते,

                 खद्योत एष ब्रूते दीप्तेः कथामिदानीम्।।

 कवि की छोटे - छोटे बन्ध की गजल भी अनेक स्थानों पर गहरे भाव बोध लिये हुए दिखती है-

                       आकण्ठं यस्तृप्तो जातः।

                     सोऽयं मूको बधिरो जातः।।

      जो परम तत्त्व से सन्तुष्ट हो जाता है, वह फिर मूक बधिर सा हो ही जाता है। समुद्र सी गम्भीरता, आकाश सी शून्यता उसमें प्रविष्ट हो जाती है। 

           कहीं - कहीं काफिया गजल में लुप्त मिलता है, जो कि गजल के संविधानक के अनुरूप नहीं कहा जा सकता, क्योंकि  गजल में काफिया केन्द्र बिन्दु माना जाता है। जैसे कि इस गजल में काफिया की स्थिति नहीं बन रही है-

             अनन्ततामयेऽखिले भवे विचित्रतामिता।

         यथास्य कल्पना तथा विभाति कामरूपता।।

                अयन्तु दृष्टिविभ्रमःकुतश्च किं समीप्सितं

            त्वया चित्ता कदर्थना मया चितातिरम्यता।।

         यहां अन्तिम ‘ता’ छोटा रदीफ है, उसके पहले काफिया नदारद है। रदीफ का शाब्दिक अर्थ होता है, जो घोडे पर मुख्य सवार के पीछे बैठता है। यहां मुख्य सवार ही नहीं है, इससे जिसे पीछे बैठना चाहिए, वह मुख्य जान पडता है।

    कहीं पर कवि की कहन शैली चमत्कृत करती है, यथा-

                      पद्मपत्रे लिखित्वा प्रतीक्षाकथां

                       सालसा शर्वरी निर्गता वर्तते।।

         तो कहीं कवि नवीन विषयों पर भी गजल रचते हैं, यथा निर्धन बालक छोटु पर लिखी गई यह गजल-

            प्रातः सायं यतस्ततः किं गच्छति छोटुरयम्,

              द्वारं-द्वारं विनोपानहा गच्छति छोटुरयम्।।

               बाल्यं किं तन्नो जानाति किं क्रीडनकं वा,

           स्कन्धे जीर्णस्यूतं धृत्वा विचरति छोटुरयम्।।



     संस्कृत गजल क्षेत्र में यह संकलन सर्वथा स्वागत योग्य है।कवि की, काव्य की यह यात्रा चलती रहें। स्वयं कवि के शब्दों में-

               असारेऽपारसंसारे चलन्ती लोकयात्रेयम्।

             तमिस्रातीर्णगन्तव्ये नयन्ती लोकयात्रेयम्।।

                कदारब्धा न जानेऽहं तथारब्धा कुतश्चैषा,

           कदा पूर्णा भविष्यत्यन्तहीना लोकयात्रेयम्।।



Tuesday, January 3, 2023

रूपक साहित्य में युगबोध का उत्तम निदर्शन : उज्जयिनीवीरम्

कृति - उज्जयिनीवीरम्

कृतिकार - डॉ. प्रवीण पण्ड्या

संपादक _ dr नौनिहाल गौतम

विधा - संस्कृतरूपकसंग्रह

प्रकाशक -रचना प्रकाशन, जयपुर

प्रकाशन वर्ष - 2022

संस्करण - प्रथम

पृष्ठ संख्या - 64

अंकित मूल्य - 100/-

              संस्कृत में गद्य, पद्य के साथ दृश्यकाव्य प्रारम्भ से लिखे जाते रहे हैं। समय-समय पर दृश्यकाव्य में शैली, विधा आदि की दृष्टि से कई प्रयोग किये गये। अर्वाचीन संस्कृत साहित्य में लिखे जा रहे दृश्यकाव्यों में भी नैक परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं। इधर एकांकी नाटकों के लेखन में वृद्धि हुई है। नाट्य की शैली भी बदली है। एक ओर जहां पारसी थियेटर के आगमन से भारतीय नाटकों के प्रस्तुतिकरण में बदलाव आया वहीं अन्य भाषा के नाटकों के प्रभाव से भी भारतीय नाटक अछूते नहीं रहे। यह आदान-प्रदान की प्रक्रिया ही किसी भाषा के साहित्य को जीवन्त व लोकप्रिय बनाये रखती है।

                 अर्वाचीन संस्कृत नाट्य साहित्य में डॉ. प्रवीण पण्ड्या का प्रवेश सुखद कहा जा सकता है। इसके पूर्व डॉ. पण्ड्या संस्कृत कविता, अनुवाद एवं समीक्षा के क्षेत्र में अपनी प्रतिभा प्रदर्शित कर चुके हैं। डॉ. पण्ड्या कृत उज्जयिनीवीरम् तीन रूपकों का संकलन है, जिनके शीर्षक इस प्रकार हैं- बलिदानम्, का ममाभिज्ञा का च तव सत्ता तथा उज्जयिनीवीरम्। ये तीनों रूपक एकांकी विधा में लिखे गये हैं।


बलिदानम् -

     राजा बलि और वामन अवतार की कथा पर आधृत यह एकांकी रूपक हमें दान की महत्ता की शिक्षा तो देता ही है, साथ ही  अहंकार की सारहीनता भी बतलाता है। इसे 9 दृश्यों में समेटा गया है।। मंगलाचरण के पश्चात् एकांकी का प्रारम्भ सूत्रधार  एवं नटी के वार्तालाप से होता है। प्रस्तावना के श्लोक से भावी कथानक की सूचना भी प्राप्त हो जाती है -


साक्षाद्विष्णुर्गृहद्वारे जगत्पतिश्च याचकः।

विजयते बलिर्विश्वे सुदानवीरपुंगवः।।


संसार के स्वामी विष्णु स्वयं

खडे हैं याचक बन

जिनके द्वार,

दानवीरों में श्रेष्ठ वे

बलि हो रहे हैं विजयी।।


              प्रस्तावना के पश्चात् दैत्यराज विरोचन और शुक्राचार्य के वार्तालाप से ज्ञात होता है कि विरोचन के यहां बलि ने जन्म लिया है। रूपक में बलि की बाल्यावस्था का सुन्दर चित्रण किया गया है। बाल सुलभ उच्चारण के कारण र् वर्ण का लत्व किया गया है, यथा-


कियत् सुन्दलं गीतमिदम्

मनोहलं खलु


    बलि की दानशलता के लक्षण बचपन से ही दिखाई देने लगते हैं। कालानुसार बलि राजा बन जाते हैं। यज्ञ के दौरान विष्णु वामन अवतार लेकर आते हैं और बलि से तीन पैर भूमि मांगते हैं। दानशील बलि शुक्राचार्य के द्वारा रोकने पर भी दान देने को उद्यत होते हैं। वे वामन अवतार विष्णु से कहते हैं कि एक पग में स्वर्गलोक तथा दूसरे में सम्पूर्ण मृत्युलोक ले लेवें तथा तीसरा पग स्वयं उसके ऊपर अर्थात बलि के सर पर रखें क्योंकि उसी के द्वारा अहंकार रूपी अपराध किया गया था-

    येन शिरसाऽहंकारभूतेन कृतोऽपराधः, तदुपरि तृतीयः पादः स्थाप्यताम्।



          रूपककार ने कहीं पात्रों के माध्यम से भारतभूमि की महत्ता का गान किया है- ‘‘अस्यां भूम्यां त्यागसुरभेः परागकणा विकीर्णा वर्तन्ते। धूलिकणेष्वपि दानभावना वर्ततेऽत्र। ’’ तो कहीं दान के अहंकार को निकृष्ट बताते हुए (दानस्यापि निकृष्टोऽहंकारः) कहा गया है कि अहंकार होता तो सूक्ष्म है किन्तु गड्ढे में गिरा देता है- ‘‘सूक्ष्मोऽप्यहंकारो गर्ते पातयति’’। यहां लोकरंजन को शासन का मूल माना है-


नश्यन्तु केवलं दुष्टाः, जना जीवन्तु निर्भयाः।

चिन्ता राजजनानां न यद्भाव्यं तद्भवेत्खलु।।


               एक स्थान पर शुक्राचार्य के कथन में ‘‘श्रुतं स्यात् - स्वतः प्रमाणं परतः प्रमाणं, किरांगना यत्र गिरो गिरन्ति’’ यह उक्ति खटकती है क्योंकि यह उक्ति आदि शंकराचार्य और मण्डनमिश्र विवाद से जुडी हुई है जो बहुत काल बाद के हैं। साथ ही एक पात्र महामात्य के कथन में ‘‘हा राम!’’, यह प्रयोग भी अटपटा लगता है क्योंकि एक तो वामन अवतार सम्भवतः राम अवतार के पूर्व के हैं, दूसरा यह कि दैत्य होकर महामात्य राम का नाम क्यों लेंगे?


का ममाभिज्ञा का च तव सत्ता -

                यह एकांकी रूपक पाश्चात्य मोनो एक्टिंग नाटक की शैली में है। प्राचीन रूपक भेद भाण से भी इसका कुछ-कुछ साम्य कहा जा सकता है। इसमें केवल एक पात्र ही दर्शकों के समक्ष आकर सम्पूर्ण नाट्य का अभिनय करता है। यह पात्र ग्रामीण और शहरी वेषभूषा के मिश्रित रूप को धारण कर चश्मा लगाकर आता है।


                  इस पात्र के कथनों के माध्यम से रूपक आगे बढता है। यह एकांकी मुख्य रूप से मतदान और उससे जुडी विडम्बनाओं को व्यंग्यात्मक शैली में हमारे समक्ष प्रस्तुत करता है। मतदान के समय किस तरह शराब आदि के द्वारा मतदाताओं को खरीदा जाता है, इसकी खबर लेता हुआ पात्र कहता है-

‘‘सुरायाः  कूपिका आगमिष्यन्ति। यतिष्यन्ते (शनैः) युष्मान् क्रेतुम्। एका कूपिका एको वोटः। दीव्यन्ति भासमानानि गान्धिमुद्रांकितानि नाणकानि आगमिष्यन्ति। (शनैः) वोटं च क्रेष्यन्ति।’’



           आगे पात्र प्रश्न उठाता है कि मत किसे दें, जाति को या नीति को-

दानम् आहोस्विद् विक्रयणं विधेयं मतस्य? जातये मतं देयम् उताहो नीतये? मतं मूकेभ्यो देयं किंवा त्वद्धिताय मुखरेभ्यः ?

         फिर इसका उत्तर इस प्रकार देता है-

‘‘यस्त्वां मतं याचते, परं न हि त्वां पाययति मैरेयं, तस्मै मतं देयम्। यस्त्वां मतं याचते, परं न हि त्वां यवागूं खादयति, तस्मै मतं देयम्। यस्त्वां मतं याचते, परं न हि तुभ्यं धनं दत्तो, तस्मै मतं देयम्।’’

          जब मत का केवल दान होगा, उसको बेचा नहीं जायेगा तभी तो सहीं अर्थों में चुनाव होगा-

‘‘दानं करिष्यति चेद् विजेष्यति। विक्रयं विधास्यति चेत्त्वं पराजयं प्राप्स्यति, ते जयं लप्स्यन्ते।’’

     यह एकांकी इस संकलन का श्रेष्ठ रूपक है, जो समसामयिक तो है ही, साथ ही न केवल वर्तमान समाज की समस्याओं को प्रस्तुत करता है अपितु उनका समाधान भी खोजता है। इस रूपक में अर्वाचीन संस्कृत कवि यथा- पं. श्रीराम दवे, अभिराज राजेन्द्र मिश्र, और हिन्दी कवि रघुवीर सहाय आदि की कविताओं का भी प्रयोग किया गया है|

उज्जयिनीवीरम्-



               यह एकांकी नई शैली में लिखा गया है। परिवर्तित होते दृश्यों के साथ यह एकांकी जीवन से जुडे नये-नये प्रश्न उठाता है और उनके समाधान खोजने का प्रयत्न भी करता है। नाट्य की प्रस्तावना में नटी कवि प्रवीण पण्ड्या  के लिये सच कहती है- ‘‘अहो, महान् प्रपंची कविरयम्। तन्नाट्यकृतित्वे मनो यावद् रमते, भूयस्ततो बिभेति’’। नाट्य का प्रारम्भ वीरम और धरम नामक दो मित्रों के अभिनय से होता है। वीरम की  देह में उज्जयिनी के वीर आते हैं। जो भारतीय ग्रामीण संस्कृतियों से जुडे हुए हैं, वे इस तथ्य को समझ सकते हैं कि किस तरह देवताओं के थानकों (देवताओं के स्थान) पर  देव भोपा आदि के शरीर में आते हैं और श्रद्धालुओं की समस्याएं सुनते हैं, उनका समाधान करते हैं। वीरम और धरम की कथा सुनाने वाला पात्र स्वयं इसकी कथा से कैसे जुड जाता है, यह देखने योग्य होता है। यह एकांकी वर्तमान भौतिकता प्रधान युग की विसंगतियों, विडम्बनाओं का मुक्त चित्रण तो करता ही है, साथ ही यह भगवद्गीता के माध्यम से उनका समाधान भी तलाशता है।

               हमारे आस-पास  के लोगों में किस किस तरह से हिंसा की भावना छुपी हुई हो सकती है, उसके लिये कहते हैं- ‘‘अरण्यस्य हिंस्रजीवनां हिंस्रता न न गुप्ता, परमत्र तु सा कतिभिः कतिभिरावरणैरावृता केनापि ऊहितमपि न शक्या।’’ कामभावना पर विचार करते हुए कहा गया है- ‘‘कामस्तावदयं कः पदार्थः कामः स्यात्, परं पशुतामप्यतिशयानः स मानवस्य मानवताख्यं स्वरूपमपि हन्ति। व्यभिचारः क्षम्यः, परं बलात्कारस्य पशुता?.........कामाग्निर्देहस्य सत्यमस्ति, परं जीवनस्य नैकान्तिकं प्राप्तव्यमस्ति।’’  


     इस संग्रह का संपादन dr नौनिहाल गौतम ने किया है| dr सरोज कौशल ने विस्तृत पुरोवाक में आधुनिक संस्कृत नाट्य परंपरा पर महत्त्वपूर्ण जानकारी दी है|  रूपक संग्रह में दिए गए नाट्य निर्देश Dr पंड्या को एक सफल नाटककार बनाते हैं| यह रूपक संग्रह स्वागत योग्य है और भविष्य के प्रति आश्वस्त करता है|