कृति - विदग्धा लोकयात्रेयम्
लेखक - डॉ. लक्ष्मीनारायण पाण्डेय
विधा - संस्कृतगजलसंकलन
प्रकाशन वर्ष - 2022
प्रकाशक - सत्यम् पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली
संस्करण - प्रथम
पृष्ठ संख्या - 208
अंकित मूल्य - 795/-
अर्वाचीन संस्कृत साहित्य में भट्ट मथुरानाथ शास्त्री, जो कि ‘मंजुनाथ’ तखल्लुस से भी जाने जाते हैं, ने गजलगीतियों को उतारा। तब से 21 वीं सदी के तृतीय दशक के आरम्भ तक अनेक संस्कृत कवियों ने इस विधा में अपने कहन को अभिव्यक्ति दी है। मध्यप्रदेश निवासी डॉ0 लक्ष्मीनारायण पाण्डेय को हम फेसबुक आदि सोशल मीडिया के माध्यम से पढते रहे हैं। अब उनकी संस्कृत गजलों का संकलन 2022 के जाते - जाते छप कर आया है। यह स्वयं कवि की लोकयात्रा को तो प्रतिबिम्बित करता ही है, साथ ही संस्कृत गजल की लोकयात्रा के भी नये पडावों को अभिव्यक्त करता है। प्रस्तुत संकलन में कवि की 101 संस्कृत गजलों को निबद्ध किया गया है।
संकलन के आरम्भ में शिव को समर्पित मंगलाचरण के लिये भी कवि प्रकृतानुसार गजलविधा का ही आश्रय लेता है-
नास्ति यस्यादिर्न चान्तः तन्नुमः।
भस्मना महितं महान्तं तन्नुमः।।
अष्टधाप्रकृतेः स्वरूपं शाश्वतम्,
पार्वतीकान्तं सुकान्तं तन्नुमः।।
कहीं कवि अन्योक्ति का आश्रय लेता हुआ कहता है कि मैं उस की गाथा लिख रहा हूं, जिसे अपनों ने ही लूट लिया-
पद्मानि लुण्ठितानि यस्य द्विरेफचौरैर्
गाथामहं लिखामि तस्य सरोवरस्य।।
तो कहीं इसी दीर्घ गजल में वे उन कवियों की भी खबर लेते दिखाई देते हैं, जिनकी दृष्टि सुन्दर शरीरों पर तो जाती है लेकिन उन्हें भूखे लोगो की पीड़ा दिखाई नहीं देती-
देहेषु चिक्कणेषु दृष्टिस्तथा कवीनां
केनापि लिख्यते किं पीडा बुभुक्षितस्य।।
देश के शासक को व्यंग्य की शैली में कवि क्या खूब तरीके से देश के हालात बयां कर रहा है-
देशे सकलं रुचिरं राजन्।
प्रायो वहते रुधिरं राजन्।।
रागो द्वेषो दलनं छलनं
सञ्जातं खलु सुकरं राजन्।।
संस्कृत कवियों में ऐसा साहस कम ही मिल पाता है। प्रायः कवि तो शासक की प्रशंसा करने में ही अपनी लेखनी को खपाएं रखते हैं और उन पर शतककाव्य, महाकाव्य रचते रहते हैं। लेकिन इसमें उनकी विवशता भी सम्भवतः कारण होती है, क्योंकि वे शासन को खुश करके ही तो अपने लिये पुरस्कार और अवसर जुटा पाते हैं।
गजल में किसी शायर के रदीफ का प्रयोग कभी - कभी दूसरे शायर से मिल जाता है, लेकिन उनका अंदाजे बयां अलग होता है। शनैः शनैः रदीफ का प्रयोग संस्कृत के प्रसिद्ध गजलकार अभिराज राजेन्द्र मिश्र जी के साथ अन्य कवियों ने भी किया है। कवि पाण्डेय भी इस रदीफ का प्रयोग करते हुए कहते हैं-
पीडा नवैव जायतेऽधुना शनैः शनैः।
दाहस्तथैव भासतेऽधुना शनैः शनैः।।
संवर्द्धिता विषाक्तवल्लरी वनक कुतो
मन्माधवः कषायतेऽधुना शनैः शनैः।।
कवि कहीं कहता है कि आश्चर्य कि बात यह है कि जिसने कभी नदी में डुबकी नहीं लगाई, वह तट पर खडा होकर नदी की कथा लिख रहा है-
आश्चर्यमेतदेव ये सर्वदा तटस्था
दूरादहो लिखन्ति नद्याः कथामिदानीम्।।
आजकल हो भी यही रहा है। अनुभूत सत्य के स्थान पर केवल कल्पना मात्र से लिखा गया कथ्य लेखन को लम्बे समय तक जीवित नहीं रख सकता है। और यह भी सही है कि जब सूर्य के वंशज दिखलाई नहीं पडेंगे तो कवि खद्योतसम हो ही जाने हैं-
जाने न निर्गताः क्व सूर्यस्य वंशजास्ते,
खद्योत एष ब्रूते दीप्तेः कथामिदानीम्।।
कवि की छोटे - छोटे बन्ध की गजल भी अनेक स्थानों पर गहरे भाव बोध लिये हुए दिखती है-
आकण्ठं यस्तृप्तो जातः।
सोऽयं मूको बधिरो जातः।।
जो परम तत्त्व से सन्तुष्ट हो जाता है, वह फिर मूक बधिर सा हो ही जाता है। समुद्र सी गम्भीरता, आकाश सी शून्यता उसमें प्रविष्ट हो जाती है।
कहीं - कहीं काफिया गजल में लुप्त मिलता है, जो कि गजल के संविधानक के अनुरूप नहीं कहा जा सकता, क्योंकि गजल में काफिया केन्द्र बिन्दु माना जाता है। जैसे कि इस गजल में काफिया की स्थिति नहीं बन रही है-
अनन्ततामयेऽखिले भवे विचित्रतामिता।
यथास्य कल्पना तथा विभाति कामरूपता।।
अयन्तु दृष्टिविभ्रमःकुतश्च किं समीप्सितं
त्वया चित्ता कदर्थना मया चितातिरम्यता।।
यहां अन्तिम ‘ता’ छोटा रदीफ है, उसके पहले काफिया नदारद है। रदीफ का शाब्दिक अर्थ होता है, जो घोडे पर मुख्य सवार के पीछे बैठता है। यहां मुख्य सवार ही नहीं है, इससे जिसे पीछे बैठना चाहिए, वह मुख्य जान पडता है।
कहीं पर कवि की कहन शैली चमत्कृत करती है, यथा-
पद्मपत्रे लिखित्वा प्रतीक्षाकथां
सालसा शर्वरी निर्गता वर्तते।।
तो कहीं कवि नवीन विषयों पर भी गजल रचते हैं, यथा निर्धन बालक छोटु पर लिखी गई यह गजल-
प्रातः सायं यतस्ततः किं गच्छति छोटुरयम्,
द्वारं-द्वारं विनोपानहा गच्छति छोटुरयम्।।
बाल्यं किं तन्नो जानाति किं क्रीडनकं वा,
स्कन्धे जीर्णस्यूतं धृत्वा विचरति छोटुरयम्।।
संस्कृत गजल क्षेत्र में यह संकलन सर्वथा स्वागत योग्य है।कवि की, काव्य की यह यात्रा चलती रहें। स्वयं कवि के शब्दों में-
असारेऽपारसंसारे चलन्ती लोकयात्रेयम्।
तमिस्रातीर्णगन्तव्ये नयन्ती लोकयात्रेयम्।।
कदारब्धा न जानेऽहं तथारब्धा कुतश्चैषा,
कदा पूर्णा भविष्यत्यन्तहीना लोकयात्रेयम्।।