कृति _ प्रेक्षणकसप्तकम्
रचयिता _ राधावल्लभ त्रिपाठी
विधा _ प्रेक्षणक (नुक्कड़नाटक)
प्रकाशक_ प्रतिभा प्रकाशन दिल्ली
संस्करण _ 1997 प्रथम संस्करण
पृष्ठ संख्या_ 131
अंकित मूल्य _ मूल्य अंकित नहीं
लोक-नाट्य-परम्परा शास्त्राधारित परम्परा को सर्वजन सुलभ बनाने के लिए विकसित हुई है। प्रेक्षणक विधा भी इसी लोक-नाट्य-परम्परा का ही एक रूप है। वस्तुतः प्रेक्षणक को वर्तमान के नुक्कड़ नाटकों (स्ट्रीट प्ले) का ही एक प्राचीन रूप कहा जा सकता है जो संक्षिप्त दृश्य-संयोजन के माध्यम से एक अंक में निबद्ध होकर कहीं गली, चतुष्पथ (चौराहा)तथा एकत्रित सामाजिकों के मध्य खेला जा सके। कभी मदिरालय या मेला आदि में इन प्रेक्षणकों का प्रयोग कवि अपने कथ्य को प्रस्तुत करने के लिए करता था। डॉ. राधावल्लभ त्रिपाठी इस संदर्भ में अपने विचार व्यक्त करते हैं-
"प्रेक्षणकं नाम नाट्यशास्त्रपरम्परायां रूपकस्यावान्तरभेदेषु उपरूपकेषु वा पठितं दृश्यकाव्यम् । तल्लक्षणं भोजस्य शृङ्गारप्रकाशे रामचन्द्रगुणचन्द्रयोर्नाट्यदर्पण इत्थं प्राप्यते"-
रथ्या-समाज-चत्वर-सुरालयादौ प्रवर्त्यते बहुभिः ।
पात्रविशेषैर्यत् तत् प्रेक्षणकं कामदहनादि ।।
"प्रेक्षणकं रथ्यासु-समाजेषु (मेलायां लोकोत्सवेषु वा) चत्वरेषु सुरालयेष्वपि वा अभिनेतुं शक्यते ।'
दक्षिण भारत (आन्ध्र) में प्रचलित "वीथीनाट्य" से भी प्रेक्षणक की साम्यता है। तमिलनाडु में इसे "तेरुकुत्तु" कहा जाता है। कर्नाटक के "यक्षगान" केरल के "कूटियाट्टम्" और श्रीलंका के "नाडुकूटु" से भी इसका कुछ सादृश्य है। इन प्रेक्षणकों के अभिनय के लिए रंगमंच की आवश्यकता नहीं होती। दर्शकों के मध्य कतिपय पात्रों द्वारा कम समय में किसी खुले स्थान पर अभिनीत होकर मनोरंजन का पुट लिये हुए ये प्रेक्षणक अपने उद्देश्य में सहज ही सफलता प्राप्त कर लेते हैं।
आधुनिक संस्कृत-नाट्य-साहित्य में भी इस प्राचीन परम्परा के माध्यम से नवीन समस्याओं के सम्प्रेषण के स्तुत्य प्रयास किये जा रहे हैं। "प्रेक्षणससकम्" डॉ. राधावल्लभ त्रिपाठी के सम-सामयिक व युगानुरूप विषयों पर लिखे गये सात प्रेक्षणकों का संग्रह है। इनमें से कतिपय प्रेक्षणक यथा "धीवरशाकुन्तलम् " "सोमप्रभम्"" तथा "मेघसन्देशम् दूर्वा नामक संस्कृत पत्रिका के विभिन्न अंकों में प्रकाशित किये गये हैं। "मुक्ति", "मशकधानी", "गणेशपूजनम्" तथा "प्रतीक्षा" को सम्मिलित करके ये ७ प्रेक्षणक प्रतिभा प्रकाशन, दिल्ली से पुस्तकाकार ग्रहण कर चुके हैं। आधुनिक युग की ज्वलन्त समस्याओं एवं सामाजिक विसंगतियों को प्रतिविम्बित करने हेतु डॉ. त्रिपाठी ने नाट्य के विशाल-फलक पर प्रेक्षणक विधा में इस कृति की रचना की है।
1 सोमप्रभम् _
"सोमप्रभम्" की विमला की विवशतायें वर्तमान की वधुओं की आम विवशतायें हैं। यह प्रेक्षणक "यौतुक प्रथा" (दहेज प्रथा) को केन्द्र में रखकर रचा गया है। विमला नौकरी करने वाली एक ऐसी विवाहिता महिला है, जिसका पति दूसरे शहर में नौकरी करता है। विमला अपने विवाह में अल्प दहेज लेकर आई है, ऊपर से उसकी प्रथम सन्तति कन्या है, जिसका नाम सोमप्रभा है। यही कारण है कि विमला के सास- ससुर उसे पीड़ित करते रहते हैं, किन्तु विमला एक आदर्श भारतीय वधू के समान सब कुछ मौन रूप से सहन करती रहती है। सोम प्रभा भी अपनी माँ की विवशता से परिचित है, वह कहती है- "अहं पुत्री जाता इति हेतोः सा कुप्यति। नैव किम् ?' किन्तु वह पाँच वर्षीय कन्या अपनी माँ की सहायता नहीं कर पाती। सहसा एक दिन छोटी-सी बात को लेकर सास-ससुर व विमला में विवाद बढ़ जाता है। सास उसे बुरा-भला कहती है और पूरा दहेज न लाने का ताना मारती है- "कस्मिन् मुहूर्ते अनया पिशाच्या पदक्षेपो विहितोऽस्माकं गृहे। सर्वानस्मानियं खादिष्यति।..... तव पिता ..... अवशिष्टस्य यौतुकराशेरिदानीं यावदपि यः पूर्ति न करोति न दर्शयति च स्वकलुषितं मुखमपि अधुना'। सास-ससुर उसे पाकशाला में ले जाकर मारने का प्रयत्न करते हैं।
इस दारुण स्थिति में कवि की आर्त्त-वाणी नेपथ्य से गूंज उठती है-
क्षणे क्षणे प्रवर्धते धनाय हिंस्त्रता खरै-
र्विलोप्यतेऽतिनिर्दयं च जन्तुभिर्मनुष्यता।
विभाजितं जगद्द्विधा, निहन्यते च घातकै-
रतीव दैन्यमागतास्ति साधुता मनुष्यता ।।"
सोमप्रभा चुपके से अपनी माँ की दयनीय स्थिति को देखकर समीप के थाने से पुलिस (आरक्षकों) को बुलाकर लाती है। इस प्रकार विमला की प्राण रक्षा होती है और उसके दहेज लोभी सास-ससुर पकड़े जाते हैं। इस प्रेक्षक के सुखान्त में कवि की आशावाहिनी दृष्टि प्रतिबिम्बित होती है।
2 मेघसन्देशम् _
पर्यावरण की बिगड़ती स्थिति वर्तमान की प्रमुख समस्या है। "मेघसन्देशम्" का बाल-पात्र सौरभ अपने शहर में वर्षा न होने से चिन्तित है। बाल सुलभतावश यह मेघ को पत्र प्रेषित कर उसे बुलाने का उपक्रम करता है-
एहि रे! एहि रे!!
कृष्णमेघ समुपेहि रे!
मम नगरं समुपेहि रे!
देहि रे, देहि रे!!
अलमये जलं देहि रे!
त्वामाह्वयतीह धरेयं विकला
प्रतीक्षते त्वां जनता सकला
गर्ज गर्ज वर्ष वर्ष
रसं निधेहि रे!
एहि रे! एहि रे।।
कृष्णमेघ समुपेहि रे!
सौरभ पत्रमञ्जूषा (लैटर-बॉक्स) में पत्र डालना चाहता है, पर वह मेघ का पता नहीं जानता। सौरभ की बहन लता उस पत्र को यह कहकर नीम के पेड़ पर रख देती है कि नीम अपनी शाखा रूपी बाहों से मेघ को यह सन्देश पहुंचा देगा। कुछ समय पश्चात् गर्जता घुमड़ता मेघ पहाड़ों पर उतरता हुआ बस्ती में आ जाता है। सौरभ के प्राध्यापक पिता को इस घटना से आश्चर्य होता है और उनकी इस धारणा को भी झटका लगता है- "मेघस्तु सन्देशं न शृणोति, नापि नयति।
3 धीवरशाकुन्तलम् _
"धीवरशाकुन्तलम्" में कालिदास रचित" अभिज्ञानशाकुन्तलम्" नामक नाटक के षष्ठाङ्क के विष्कम्भक के कथानक को पल्लवित कर सम-सामयिक बनाया गया है। आधुनिक समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार व उत्कोच-प्रवृत्ति की ओर इसमें संकेत किया गया है। शकुन्तला की खोई हुई अंगूठी धीवर (मछुआरे) को प्राप्त हो जाती है। वह उसे बेचने के लिए हस्तिनापुर लाता है। वर्तमान के वणिक् एवं आरक्षक (पुलिस) कालिदास के समय से अधिक भ्रष्ट व पतित हो गये हैं। वणिक् उस अंगूठी को नकली बताते हुए हड़पना चाहता है। वाद-विवाद के मध्य सैनिक पहुँच जाते हैं। राजा दुष्यन्त अंगूठी पाकर धीवर के लिए पुरस्कार भेजते हैं। "अभिज्ञानशाकुन्तलम्" के सिपाही तो पुरस्कार की राशि में से आधा भाग ले ही लेते हैं, किन्तु "धीवरशाकुन्तलम्" के वर्तमान सिपाही तो धीवर को मार-पीटकर समस्त धन हड़प लेते हैं, क्योंकि उनका मानना है- "राजपुरुषाणां कृते सर्वस्मिन् धने भागांशो भवत्येव"
4 मुक्ति: _
"मुक्ति" एक प्रतीकात्मक प्रहसन और हास्य से युक्त प्रेक्षणक है। यह प्रेक्षणक हमें मनोरञ्जक ढंग से यह सन्देश देने का प्रयास करता है कि मनुष्य की मुक्ति अपने दायित्व पूरे करने में ही है। आलस्य से युक्त सूत्रधार मञ्ज्ञ पर जंजीरों से जकड़ा हुआ है। नटी उसकी अकर्मण्यता पर उपालम्भ देती है। जब सूत्रधार अपने दायित्वों के प्रति सजग होता है तो एक-एक करके उसकी सब श्रृंखलाएँ खुल जाती है। प्रेक्षणक के अन्य पात्र वर्तमान विसंगतियों पर तीक्ष्ण कटाक्ष करते हैं, यथा भिक्षुक नामक पात्र, जो भगवान् के नाम पर, समाजवाद के नाम पर, प्रजातन्त्र के नाम पर, यहाँ तक कि राम मन्दिर के नाम पर भी भीख माँग लेता है "दातः । भगवनाम्ना कि़चिद् देहि। समाजवादनाम्ना देहि। प्रजातन्त्रनाम्ना देहि। राममन्दिरनाम्ना देहि। उन्मुक्तापणनाम्ना देहि।
या फिर "विघ्नराज" नामक नेता, जो मध्यावधि चुनावों के कारण समय से पूर्व ही मत माँगने आया है। सूत्रधार भी आमजन के समान भारतीय नेताओं को पाँच वर्ष पूर्व अपने बीच में पाकर आश्चर्यचकित हो जाता है- "कुतोऽयमाकस्मिकः स्नेहानुबन्ध:, कथं च अप्रत्याशितमिदमागमनम् ? पूर्वं तु पञ्चवर्षेषु सकृदेव श्रीमतां दर्शनप्राप्यत।' कवि की पीड़ा है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भी हमारी परतन्त्रता की भावना नष्ट नहीं हो पाई है-
स्वातन्त्र्येऽपि समागते विदलितो नो पारतन्त्र्यात्मको।
भावो भास्वति सत्यपि प्रभवति कलेशाय गाढं तमः ।।
5 मशकधानी _
"मशकधानी" (मच्छरदानी) भी हास्य-व्यंग्यपूर्ण प्रतीकात्मक प्रेक्षणक है। सूत्रधार जैसे ही नाटक की प्रस्तावना करने लगता है, वैसे ही उसको मच्छर काटने लगते हैं और वह परेशान हो जाता है।
वहाँ पर चार व्यक्ति अपने श्रेष्ठी हेतु मशकधानी लेकर प्रवेश करते हैं। श्रेष्ठी शुद्रक रचित "मृच्छकटिकम्" के राजश्यालक के समान अशुद्ध भाषा का प्रयोग करता है। श्रेष्ठी की असावधानी से मशकधानी में मच्छर घुस आते हैं। परेशान श्रेष्ठी सूत्रधार से विवाद करते हुए मंच से प्रस्थान कर जाता है और भरत वाक्य के साथ ही प्रेक्षणक समाप्त हो जाता है। सूत्रधार के कर्णपटल पर मच्छर को गुनगुनाहट पर कवि द्वारा "उत्तररामचरितम्" के पद्य की पूर्वार्द्धपंक्तियों का अनुकरण द्रष्टव्य है-
किमपि किमपि मन्दं मन्दमासत्तियोगाद्-
अविरलितकपोलं जल्पतीवाक्रमेण ।
क इह मम नु कर्णे तन्तुनादं वितन्वन्
रणति च परमधूर्तः कोऽपि कर्णे जपोऽयम् ।।
कवि मच्छर के व्याज से ऐश्वर्य में लिप्त श्रेष्ठी-गण व सामन्तों पर साहित्यिक- कटाक्ष करता है- "ननु मशकोऽयम्। यथा ऐश्वर्यमदावलिताः श्रेष्ठिनः सामन्ता वा श्रमिकाणां दरिद्राणां तथाऽयं रक्तमस्माकं चूषति"
सूत्रधार मच्छरों को गालियाँ देना चाहता है किन्तु उसे संस्कृत भाषा की यह कमी लगती है कि इसमें अन्य भाषाओं के समान बढ़िया-बढ़िया गालियाँ नहीं है- "धत्। इयमेव संस्कृतभाषायाः न्यूनता। अत्र प्रचुराः गालयो न सन्ति। अन्याः भाषा: अवलोक्यन्तां तावत् । शतशः सहस्रशः गालिभिस्ता भाषाः समृद्धाः सन्ति। कथं प्रगतिशीलाः सन्ति ताः भाषाः ""
6 गणेशपूजनम्_
"गणेशपूजनम्" प्रेक्षणक द्वारा कवि ने विभिन्न उत्सवों के आयोजकों द्वारा जनता के धन को हड़पे जाने का चित्रण किया है। बुलाकीराम भी गणेशोत्सव समिति का ऐसा ही आयोजक सचिव है, जो बलात् चन्दा वसूल कर उसका हिसाब भी नहीं देता है, किन्तु एक बार गणेश की प्रतिमा इस स्थिति से विचलित होकर बुलाकीराम को सजा देती है तब बुलाकीराम चन्दे का हिसाब देने व समिति का चुनाव लोकतांत्रिक तरीके से करवाने हेतु तैयार हो जाता है। आज की परिस्थितियों में, जबकि आम व्यक्ति भ्रष्टाचार, अत्याचार आदि को चुपचाप सहन करते हुए कोई प्रतीकार नहीं कर रहा है, तब ईश्वर की प्रतिमाओं से ही किञ्चित् परिवर्तन की आशा की जा सकती है। इस प्रेक्षणक में वर्णित घटनाओं, यथा गणेश पूजन के दिन एक अभील विडियो फिल्म दिखलाना, भ्रष्टाचार व घोटालों में लिप्त श्रेष्ठों द्वारा चन्दा दिये जाने पर उसे "महाज्ञानी", "महादानी", "पुण्यात्मा" बतलाना और गणेश बन्दना से पूर्व ही श्रेष्ठी-वन्दना करना आदि के द्वारा हमारे आधुनिक समाज में व्याप्त स्वार्थलोलुपताओं, विसंगतियों, विद्रूपताओं व असमानताओं का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत किया गया है।
7 प्रतीक्षा_
"प्रतीक्षा" नामक प्रेक्षणक वर्तमान के उस मध्यवर्गीय पिता की त्रासदी को प्रस्तुत करता है, जिसकी पुत्री नौकरी करती है और घर में देर से लौटती है। सेवानिवृत्त भवेश अपनी पुत्री कल्पना की प्रतीक्षा कर रहा है। पड़ोसिन भाटिया के साथ भवेश की पत्नी भामा के वार्तालाप से नगर में व्याप्त हिंसा और अतिचारों की सूचना प्राप्त होती है। बिजली के बन्द हो जाने, सहसा वर्षा होने, अंधकार बिर आने एवं टेलीफोन के बन्द होने जाने की पृष्ठभूमि से आतंक व घबराहट का वातावरण निर्मित हो जाता है। अन्ततः कल्पना लौट आती है। पिता भवेश अपनी पुत्री पर किये गये अविश्वास के लिए पश्चाताप व्यक्त करते हैं। मनुष्य अपनी कामवासना के कारण इतना पतित हो चुका है कि मासूम कन्यायें भी सुरक्षित नहीं है- "अष्टादशवर्षीयां तरूणीं ग्रामादागतां नगरे अज्ञाताः केचन तस्करा बलादपनीतवन्तः. विंशवर्षदेशीयो यौवनोन्मत्तः कश्चिन...प्रतिवेशिनः कन्यां षड्वर्षदेशीयाम्... घोरः कालः। किं क्रियते।
कविवर डॉ. राधावल्लभ त्रिपाठी के भरतवाक्य प्रायः प्रेक्षणक के पात्रों के नाम भी आत्मसात् किये हुए हैं, यथा-
दुर्जनैर्जलप्तं नान्यथा कल्प्यताम्।
कल्पना स्यात् सदा मंगलाकृता ।।
स्यात् प्रकाशोऽक्षयो जीवने झंकृता ।
भारती भामती चास्तु सौख्यप्रदा।।
इन प्रेक्षणकों में से "धीवरशाकुन्तलम्", "मशकधानी", "सोमप्रभम्", "मुक्ति" की अनेक प्रस्तुतियाँ सागर, पूना प्रभृति नगरों में हो चुकी हैं और ये अखिल भारतीय नाट्य स्पर्धाओं (मध्यप्रदेश संस्कृत अकादमी द्वारा आयोजित) में पुरस्कृत भी हुई हैं। इन प्रेक्षणकों का हिन्दी अनुवाद भी स्वयं कवि ने ही कर दिया है, जिससे इन रचनाओं में सर्वजन-संवेद्यता आ गई है।
कवि ने अपने कथ्य को सर्वजनसुलभ बनाने हेतु परम्परा में से अभिनव का सर्जन करते हुए प्रेक्षणक विधा का चयन किया है। इन प्रेक्षणकों के द्वारा कविवर डॉ. राधावल्लभ त्रिपाठी की युगीन जागरुकता भी प्रमाणित होती है। वस्तुतः संस्कृत- साहित्य की आधुनिकता उसके युग-दायित्व के प्रति सावधानता से ही हो सकती है। डॉ. जगन्नाथ पाठक कहते हैं-
कविता तद् वक्तव्यं येन तमो यातु नाशमिह किञ्चित्।
नालङ्कारैर्न गुणैः कवित्वमिह सार्थकं भवति ।।