Sunday, November 3, 2024

संस्कृत में नुक्कड़ नाटक : प्रेक्षणसप्तकम्

कृति _ प्रेक्षणकसप्तकम्

रचयिता _ राधावल्लभ त्रिपाठी

विधा _ प्रेक्षणक (नुक्कड़नाटक)

प्रकाशक_ प्रतिभा प्रकाशन दिल्ली

संस्करण _ 1997 प्रथम संस्करण

पृष्ठ संख्या_ 131

अंकित मूल्य _ मूल्य अंकित नहीं



              लोक-नाट्य-परम्परा शास्त्राधारित परम्परा को सर्वजन सुलभ बनाने के लिए विकसित हुई है। प्रेक्षणक विधा भी इसी लोक-नाट्य-परम्परा का ही एक रूप है। वस्तुतः प्रेक्षणक को वर्तमान के नुक्कड़ नाटकों (स्ट्रीट प्ले) का ही एक प्राचीन रूप कहा जा सकता है जो संक्षिप्त दृश्य-संयोजन के माध्यम से एक अंक में निबद्ध होकर कहीं गली, चतुष्पथ (चौराहा)तथा एकत्रित सामाजिकों के मध्य खेला जा सके। कभी मदिरालय या मेला आदि में इन प्रेक्षणकों का प्रयोग कवि अपने कथ्य को प्रस्तुत करने के लिए करता था। डॉ. राधावल्लभ त्रिपाठी इस संदर्भ में अपने विचार व्यक्त करते हैं-

"प्रेक्षणकं नाम नाट्यशास्त्रपरम्परायां रूपकस्यावान्तरभेदेषु उपरूपकेषु वा पठितं दृश्यकाव्यम् । तल्लक्षणं भोजस्य शृङ्गारप्रकाशे रामचन्द्रगुणचन्द्रयोर्नाट्यदर्पण इत्थं प्राप्यते"-

रथ्या-समाज-चत्वर-सुरालयादौ प्रवर्त्यते बहुभिः ।

पात्रविशेषैर्यत् तत् प्रेक्षणकं कामदहनादि ।।

"प्रेक्षणकं रथ्यासु-समाजेषु (मेलायां लोकोत्सवेषु वा) चत्वरेषु सुरालयेष्वपि वा अभिनेतुं शक्यते ।'

            दक्षिण भारत (आन्ध्र) में प्रचलित "वीथीनाट्य" से भी प्रेक्षणक की साम्यता है। तमिलनाडु में इसे "तेरुकुत्तु" कहा जाता है। कर्नाटक के "यक्षगान" केरल के "कूटियाट्टम्" और श्रीलंका के "नाडुकूटु" से भी इसका कुछ सादृश्य है। इन प्रेक्षणकों के अभिनय के लिए रंगमंच की आवश्यकता नहीं होती। दर्शकों के मध्य कतिपय पात्रों द्वारा कम समय में किसी खुले स्थान पर अभिनीत होकर मनोरंजन का पुट लिये हुए ये प्रेक्षणक अपने उद्देश्य में सहज ही सफलता प्राप्त कर लेते हैं।



             आधुनिक संस्कृत-नाट्य-साहित्य में भी इस प्राचीन परम्परा के माध्यम से नवीन समस्याओं के सम्प्रेषण के स्तुत्य प्रयास किये जा रहे हैं। "प्रेक्षणससकम्" डॉ. राधावल्लभ त्रिपाठी के सम-सामयिक व युगानुरूप विषयों पर लिखे गये सात प्रेक्षणकों का संग्रह है। इनमें से कतिपय प्रेक्षणक यथा "धीवरशाकुन्तलम् " "सोमप्रभम्"" तथा "मेघसन्देशम् दूर्वा नामक संस्कृत पत्रिका के विभिन्न अंकों में प्रकाशित किये गये हैं। "मुक्ति", "मशकधानी", "गणेशपूजनम्" तथा "प्रतीक्षा" को सम्मिलित करके ये ७ प्रेक्षणक प्रतिभा प्रकाशन, दिल्ली से पुस्तकाकार ग्रहण कर चुके हैं। आधुनिक युग की ज्वलन्त समस्याओं एवं सामाजिक विसंगतियों को प्रतिविम्बित करने हेतु डॉ. त्रिपाठी ने नाट्य के विशाल-फलक पर प्रेक्षणक विधा में इस कृति की रचना की है।

1 सोमप्रभम्

                               "सोमप्रभम्" की विमला की विवशतायें वर्तमान की वधुओं की आम विवशतायें हैं। यह प्रेक्षणक "यौतुक प्रथा" (दहेज प्रथा) को केन्द्र में रखकर रचा गया है। विमला नौकरी करने वाली एक ऐसी विवाहिता महिला है, जिसका पति दूसरे शहर में नौकरी करता है। विमला अपने विवाह में अल्प दहेज लेकर आई है, ऊपर से उसकी प्रथम सन्तति कन्या है, जिसका नाम सोमप्रभा है। यही कारण है कि विमला के सास- ससुर उसे पीड़ित करते रहते हैं, किन्तु विमला एक आदर्श भारतीय वधू के समान सब कुछ मौन रूप से सहन करती रहती है। सोम प्रभा भी अपनी माँ की विवशता से परिचित है, वह कहती है- "अहं पुत्री जाता इति हेतोः सा कुप्यति। नैव किम् ?' किन्तु वह पाँच वर्षीय कन्या अपनी माँ की सहायता नहीं कर पाती। सहसा एक दिन छोटी-सी बात को लेकर सास-ससुर व विमला में विवाद बढ़ जाता है। सास उसे बुरा-भला कहती है और पूरा दहेज न लाने का ताना मारती है- "कस्मिन् मुहूर्ते अनया पिशाच्या पदक्षेपो विहितोऽस्माकं गृहे। सर्वानस्मानियं खादिष्यति।..... तव पिता ..... अवशिष्टस्य यौतुकराशेरिदानीं यावदपि यः पूर्ति न करोति न दर्शयति च स्वकलुषितं मुखमपि अधुना'। सास-ससुर उसे पाकशाला में ले जाकर मारने का प्रयत्न करते हैं।



 इस दारुण स्थिति में कवि की आर्त्त-वाणी नेपथ्य से गूंज उठती है-

क्षणे क्षणे प्रवर्धते धनाय हिंस्त्रता खरै- 

र्विलोप्यतेऽतिनिर्दयं च जन्तुभिर्मनुष्यता।

विभाजितं जगद्द्विधा, निहन्यते च घातकै- 

रतीव दैन्यमागतास्ति साधुता मनुष्यता ।।"



        सोमप्रभा चुपके से अपनी माँ की दयनीय स्थिति को देखकर समीप के थाने से पुलिस (आरक्षकों) को बुलाकर लाती है। इस प्रकार विमला की प्राण रक्षा होती है और उसके दहेज लोभी सास-ससुर पकड़े जाते हैं। इस प्रेक्षक के सुखान्त में कवि की आशावाहिनी दृष्टि प्रतिबिम्बित होती है।


2   मेघसन्देशम्

                        पर्यावरण की बिगड़‌ती स्थिति वर्तमान की प्रमुख समस्या है। "मेघसन्देशम्" का बाल-पात्र सौरभ अपने शहर में वर्षा न होने से चिन्तित है। बाल सुलभतावश यह मेघ को पत्र प्रेषित कर उसे बुलाने का उपक्रम करता है-



एहि रे! एहि रे!!

कृष्णमेघ समुपेहि रे!

मम नगरं समुपेहि रे! 

देहि रे, देहि रे!! 

अलमये जलं देहि रे! 

त्वामाह्वयतीह धरेयं विकला 

प्रतीक्षते त्वां जनता सकला 

गर्ज गर्ज वर्ष वर्ष 

रसं निधेहि रे! 

एहि रे! एहि रे।। 

कृष्णमेघ समुपेहि रे!

         सौरभ पत्रमञ्जूषा (लैटर-बॉक्स) में पत्र डालना चाहता है, पर वह मेघ का पता नहीं जानता। सौरभ की बहन लता उस पत्र को यह कहकर नीम के पेड़ पर रख देती है कि नीम अपनी शाखा रूपी बाहों से मेघ को यह सन्देश पहुंचा देगा। कुछ समय पश्चात् गर्जता घुमड़ता मेघ पहाड़ों पर उतरता हुआ बस्ती में आ जाता है। सौरभ के प्राध्यापक पिता को इस घटना से आश्चर्य होता है और उनकी इस धारणा को भी झटका लगता है- "मेघस्तु सन्देशं न शृणोति, नापि नयति।


3 धीवरशाकुन्तलम्

                "धीवरशाकुन्तलम्" में कालिदास रचित" अभिज्ञानशाकुन्तलम्" नामक नाटक के षष्ठाङ्क के विष्कम्भक के कथानक को पल्लवित कर सम-सामयिक बनाया गया है। आधुनिक समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार व उत्कोच-प्रवृत्ति की ओर इसमें संकेत किया गया है। शकुन्तला की खोई हुई अंगूठी धीवर (मछुआरे) को प्राप्त हो जाती है। वह उसे बेचने के लिए हस्तिनापुर लाता है। वर्तमान के वणिक् एवं आरक्षक (पुलिस) कालिदास के समय से अधिक भ्रष्ट व पतित हो गये हैं। वणिक् उस अंगूठी को नकली बताते हुए हड़पना चाहता है। वाद-विवाद के मध्य सैनिक पहुँच जाते हैं। राजा दुष्यन्त अंगूठी पाकर धीवर के लिए पुरस्कार भेजते हैं। "अभिज्ञानशाकुन्तलम्" के सिपाही तो पुरस्कार की राशि में से आधा भाग ले ही लेते हैं, किन्तु "धीवरशाकुन्तलम्" के वर्तमान सिपाही तो धीवर को मार-पीटकर समस्त धन हड़प लेते हैं, क्योंकि उनका मानना है- "राजपुरुषाणां कृते सर्वस्मिन् धने भागांशो भवत्येव"



4 मुक्ति: _

              "मुक्ति" एक प्रतीकात्मक प्रहसन और हास्य से युक्त प्रेक्षणक है। यह प्रेक्षणक हमें मनोरञ्जक ढंग से यह सन्देश देने का प्रयास करता है कि मनुष्य की मुक्ति अपने दायित्व पूरे करने में ही है। आलस्य से युक्त सूत्रधार मञ्ज्ञ पर जंजीरों से जकड़ा हुआ है। नटी उसकी अकर्मण्यता पर उपालम्भ देती है। जब सूत्रधार अपने दायित्वों के प्रति सजग होता है तो एक-एक करके उसकी सब श्रृंखलाएँ खुल जाती है। प्रेक्षणक के अन्य पात्र वर्तमान विसंगतियों पर तीक्ष्ण कटाक्ष करते हैं, यथा भिक्षुक नामक पात्र, जो भगवान् के नाम पर, समाजवाद के नाम पर, प्रजातन्त्र के नाम पर, यहाँ तक कि राम मन्दिर के नाम पर भी भीख माँग लेता है "दातः । भगवनाम्ना कि़चिद् देहि। समाजवादनाम्ना देहि। प्रजातन्त्रनाम्ना देहि। राममन्दिरनाम्ना देहि। उन्मुक्तापणनाम्ना देहि। 

          या फिर "विघ्नराज" नामक नेता, जो मध्यावधि चुनावों के कारण समय से पूर्व ही मत माँगने आया है। सूत्रधार भी आमजन के समान भारतीय नेताओं को पाँच वर्ष पूर्व अपने बीच में पाकर आश्चर्यचकित हो जाता है- "कुतोऽयमाकस्मिकः स्नेहानुबन्ध:, कथं च अप्रत्याशितमिदमागमनम् ? पूर्वं तु पञ्चवर्षेषु सकृदेव श्रीमतां दर्शनप्राप्यत।' कवि की पीड़ा है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भी हमारी परतन्त्रता की भावना नष्ट नहीं हो पाई है-

स्वातन्त्र्येऽपि समागते विदलितो नो पारतन्त्र्यात्मको।

भावो भास्वति सत्यपि प्रभवति कलेशाय गाढं तमः ।।


5 मशकधानी _

                      "मशकधानी" (मच्छरदानी) भी हास्य-व्यंग्यपूर्ण प्रतीकात्मक प्रेक्षणक है। सूत्रधार जैसे ही नाटक की प्रस्तावना करने लगता है, वैसे ही उसको मच्छर काटने लगते हैं और वह परेशान हो जाता है।


 वहाँ पर चार व्यक्ति अपने श्रेष्ठी हेतु मशकधानी लेकर प्रवेश करते हैं। श्रेष्ठी शुद्रक रचित "मृच्छकटिकम्" के राजश्यालक के समान अशुद्ध भाषा का प्रयोग करता है। श्रेष्ठी की असावधानी से मशकधानी में मच्छर घुस आते हैं। परेशान श्रेष्ठी सूत्रधार से विवाद करते हुए मंच से प्रस्थान कर जाता है और भरत वाक्य के साथ ही प्रेक्षणक समाप्त हो जाता है। सूत्रधार के कर्णपटल पर मच्छर को गुनगुनाहट पर कवि द्वारा "उत्तररामचरितम्" के पद्य की पूर्वार्द्धपंक्तियों का अनुकरण द्रष्टव्य है-

किमपि किमपि मन्दं मन्दमासत्तियोगाद्-

अविरलितकपोलं जल्पतीवाक्रमेण ।

क इह मम नु कर्णे तन्तुनादं वितन्वन् 

रणति च परमधूर्तः कोऽपि कर्णे जपोऽयम् ।।

                          कवि मच्छर के व्याज से ऐश्वर्य में लिप्त श्रेष्ठी-गण व सामन्तों पर साहित्यिक- कटाक्ष करता है- "ननु मशकोऽयम्। यथा ऐश्वर्यमदावलिताः श्रेष्ठिनः सामन्ता वा श्रमिकाणां दरिद्राणां तथाऽयं रक्तमस्माकं चूषति"

             सूत्रधार मच्छरों को गालियाँ देना चाहता है किन्तु उसे संस्कृत भाषा की यह कमी लगती है कि इसमें अन्य भाषाओं के समान बढ़िया-बढ़िया गालियाँ नहीं है- "धत्। इयमेव संस्कृतभाषायाः न्यूनता। अत्र प्रचुराः गालयो न सन्ति। अन्याः भाषा: अवलोक्यन्तां तावत् । शतशः सहस्रशः गालिभिस्ता भाषाः समृद्धाः सन्ति। कथं प्रगतिशीलाः सन्ति ताः भाषाः ""


6 गणेशपूजनम्_ 

                     "गणेशपूजनम्" प्रेक्षणक द्वारा कवि ने विभिन्न उत्सवों के आयोजकों द्वारा जनता के धन को हड़पे जाने का चित्रण किया है। बुलाकीराम भी गणेशोत्सव समिति का ऐसा ही आयोजक सचिव है, जो बलात् चन्दा वसूल कर उसका हिसाब भी नहीं देता है, किन्तु एक बार गणेश की प्रतिमा इस स्थिति से विचलित होकर बुलाकीराम को सजा देती है तब बुलाकीराम चन्दे का हिसाब देने व समिति का चुनाव लोकतांत्रिक तरीके से करवाने हेतु तैयार हो जाता है। आज की परिस्थितियों में, जबकि आम व्यक्ति भ्रष्टाचार, अत्याचार आदि को चुपचाप सहन करते हुए कोई प्रतीकार नहीं कर रहा है, तब ईश्वर की प्रतिमाओं से ही किञ्चित् परिवर्तन की आशा की जा सकती है। इस प्रेक्षणक में वर्णित घटनाओं, यथा गणेश पूजन के दिन एक अभील विडियो फिल्म दिखलाना, भ्रष्टाचार व घोटालों में लिप्त श्रेष्ठों द्वारा चन्दा दिये जाने पर उसे "महाज्ञानी", "महादानी", "पुण्यात्मा" बतलाना और गणेश बन्दना से पूर्व ही श्रेष्ठी-वन्दना करना आदि के द्वारा हमारे आधुनिक समाज में व्याप्त स्वार्थलोलुपताओं, विसंगतियों, विद्रूपताओं व असमानताओं का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत किया गया है।



7 प्रतीक्षा_ 

                 "प्रतीक्षा" नामक प्रेक्षणक वर्तमान के उस मध्यवर्गीय पिता की त्रासदी को प्रस्तुत करता है, जिसकी पुत्री नौकरी करती है और घर में देर से लौटती है। सेवानिवृत्त भवेश अपनी पुत्री कल्पना की प्रतीक्षा कर रहा है। पड़ोसिन भाटिया के साथ भवेश की पत्नी भामा के वार्तालाप से नगर में व्याप्त हिंसा और अतिचारों की सूचना प्राप्त होती है। बिजली के बन्द हो जाने, सहसा वर्षा होने, अंधकार बिर आने एवं टेलीफोन के बन्द होने जाने की पृष्ठभूमि से आतंक व घबराहट का वातावरण निर्मित हो जाता है। अन्ततः कल्पना लौट आती है। पिता भवेश अपनी पुत्री पर किये गये अविश्वास के लिए पश्चाताप व्यक्त करते हैं। मनुष्य अपनी कामवासना के कारण इतना पतित हो चुका है कि मासूम कन्यायें भी सुरक्षित नहीं है- "अष्टादशवर्षीयां तरूणीं ग्रामादागतां नगरे अज्ञाताः केचन तस्करा बलादपनीतवन्तः. विंशवर्षदेशीयो यौवनोन्मत्तः कश्चिन...प्रतिवेशिनः कन्यां षड्वर्षदेशीयाम्... घोरः कालः। किं क्रियते। 

                        कविवर डॉ. राधावल्लभ त्रिपाठी के भरतवाक्य प्रायः प्रेक्षणक के पात्रों के नाम भी आत्मसात् किये हुए हैं, यथा-

दुर्जनैर्जलप्तं नान्यथा कल्प्यताम्। 

कल्पना स्यात् सदा मंगलाकृता ।। 

स्यात् प्रकाशोऽक्षयो जीवने झंकृता । 

भारती भामती चास्तु सौख्यप्रदा।। 


इन प्रेक्षणकों में से "धीवरशाकुन्तलम्", "मशकधानी", "सोमप्रभम्", "मुक्ति" की अनेक प्रस्तुतियाँ सागर, पूना प्रभृति नगरों में हो चुकी हैं और ये अखिल भारतीय नाट्य स्पर्धाओं (मध्यप्रदेश संस्कृत अकादमी द्वारा आयोजित) में पुरस्कृत भी हुई हैं। इन प्रेक्षणकों का हिन्दी अनुवाद भी स्वयं कवि ने ही कर दिया है, जिससे इन रचनाओं में सर्वजन-संवेद्यता आ गई है।



       कवि ने अपने कथ्य को सर्वजनसुलभ बनाने हेतु परम्परा में से अभिनव का सर्जन करते हुए प्रेक्षणक विधा का चयन किया है। इन प्रेक्षणकों के द्वारा कविवर डॉ. राधावल्लभ त्रिपाठी की युगीन जागरुकता भी प्रमाणित होती है। वस्तुतः संस्कृत- साहित्य की आधुनिकता उसके युग-दायित्व के प्रति सावधानता से ही हो सकती है। डॉ. जगन्नाथ पाठक कहते हैं-

कविता तद् वक्तव्यं येन तमो यातु नाशमिह किञ्चित्। 

नालङ्कारैर्न गुणैः कवित्वमिह सार्थकं भवति ।।

मराठी से अर्वाचीन संस्कृत साहित्य के इतिहास का हिंदी अनुवाद

कृति - अर्वाचीन संस्कृत साहित्य

लेखक - डॉ. श्रीधर भास्कर वर्णेकर (मूल मराठी) 

हिन्दी अनुवाद - डॉ. लीना रस्तोगी

प्रधान सम्पादक - आचार्य मधुसूदन पैन्ना

विधा - समीक्षा

प्रकाशक -कविकुलगुरू कालिदास संस्कृत विश्वविद्यालय, रामटेक

प्रकाशन वर्ष - 2022, प्रथम संस्करण

पृष्ठ संख्या - 502

अंकित मूल्य - 1095/- रू.



              अर्वाचीन संस्कृत साहित्य में प्रभूत मात्रा में लिखा जा रहा है। साहित्य की प्राचीन एवं नूतन विधाओं में अनेक ग्रन्थ रचे व पढे जा रहे हैं। इन सब का परिचय देने के लिए साहित्य के इतिहास से सम्बन्धित ग्रन्थ भी लिखे जा रहे हैं। हीरालाल शुक्ल, केशवराव मुसलगावरकर, देवर्षि कलानाथ शास्त्री, राधावल्लभ त्रिपाठी आदि ने समय-समय पर अपने ग्रन्थों में अर्वाचीन संस्कृत साहित्य पर लिखा है। श्रीधर भास्कर वर्णेकर ने अर्वाचीन संस्कृत साहित्य की 1960 तक की रचनाओं का परिचय अपने शोधप्रबन्ध में दिया था।  यह शोधप्रबन्ध हांलाकि प्रकाशित है, किन्तु इसकी मूल भाषा मराठी होने से संस्कृत या हिन्दी भाषा के पाठकों को समस्या आती थी। हाल ही में डॉ. लीना रस्तोगी ने इस मराठी ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद किया है, जिसे कविकुलगुरू कालिदास संस्कृत विश्वविद्यालय, रामटेक के प्रकाशन विभाग द्वारा अर्वाचीन संस्कृत साहित्य शीर्षक से ग्रन्थाकार में प्रकाशित किया गया है। 




       प्रस्तुत ग्रन्थ को 31 अध्यायों में विभक्त किया गया है। प्रथम अध्याय में वर्णेकर जी ने अर्वाचीन संस्कृत का परिचय देते हुए बतलाया है कि इस ग्रन्थ में 17 वीं सदी से 1960 तक की रचनाओं का परिचय देने की आवश्यकता क्यों हुई-

   ऐसी दशा में, जब आधुनिक संस्कृत साहित्य का सर्वत्र अभाव दिखाई देता हो, तो यदि संस्कृत न जाननेवाले लोग तथा संस्कृत से मुँह मोडनेवाले नवशिक्षित लोग संस्कृत भाषा को 'मृत भाषा' मानने लगे, तो उसमें उनका कोई विशेष अपराध नहीं। "अमराणां भाषा मृता इति वदतोव्याघातः एवं' इस प्रकार के शब्दच्छलात्मक युक्तिवाद से संस्कृत की सजीवता सिद्ध नहीं हो सकती। संस्कृत को 'मृत भाषा' कहने का साहस ये लोग इसीलिए कर सकते हैं क्यों कि विगत ३०० वर्षों में उन्होंने संस्कृत साहित्य की निर्मिति देखी ही नहीं। प्रत्यक्ष प्रमाण के आधार पर ही उनके मतों का खण्डन करना उचित होगा। उसके लिए सोलहवीं शती के पश्चात् निर्मित साहित्य का, और उन साहित्यकर्मियों का यथोचित परिचय कराना आवश्यक है। इस कालखण्ड में अन्य प्रादेशिक भाषाओं में जो साहित्यिक विधाएँ, विशेषताएँ अथवा विचारधाराएँ दीखती र्थी, वे संस्कृत में र्थी या नहीं - यह भी प्रदर्शित करना आवश्यक है। यही नहीं यह भी सप्रमाण बताना होगा कि कालिदास, भट्टि, जयदेव, बैंकटाध्वरि आदि लेखकों ने जो विविध काव्यविधाएँ प्रवर्तित की थीं, वे इस आधुनिक कालखण्ड में अक्षुण्ण रहीं या खण्डित हुई। अंग्रेजी वाङ्मय के साथ संपर्क होने के कारण आधुनिक साहित्यक्षेत्र में कुछ नये वादों का जन्म हुआ। सो यह भी सप्रमाण सिद्ध करना पडेगा कि संस्कृत में वे उत्पन्न हुए या नहीं। 

                          द्वितीय अध्याय में आधुनिक साहित्य के प्रयोजनों पर प्रकाश डाला गया है। यहां संस्कृत में श्रद्धा, लोक जागृति, समाजहित, स्वाध्याय आदि को विभिन्न साहित्यकारों के कथन के माध्यम से प्रयोजन के रूप मंे प्रस्तुत किया गया है। तृतीय एवं चतुर्थ अध्याय में महाकाव्यात्मक चरित्रग्रन्थों एवं साधुजनों केे चरित्र ग्रन्थों का परिचय दिया गया है। पंचम अध्याय में राजपुरुषों के चरित्र को आधार बनाकर रचे गये काव्यों का वर्णन है। 

                   षष्ठ अध्याय का शीर्षक है परकीय राजस्तुति। इस अध्याय में भारत पर शासन करने वाले मुगल शासकों यथा अकबर, जहांगीर आदि पर रचे गये काव्यों का वर्णन प्राप्त होता है। पाण्डुरंग कवि द्वारा रचित विजयपुरकथा में बीजापुर के मुस्लिम बादशाहों की जीवनियां चित्रित हैं। इसी अध्याय में आंग्ल राजाओं के चरित्र पर आधारित काव्यों का भी उल्लेख किया गया है। सर्वाधिक काव्य पंचम जार्ज पर लिखे गये, ऐसा उल्लेख मिलता है। यहां लेखक परकीय राजस्तुति को एक विचित्र बात बतलाते हुए इसे प्राचीन परम्परा की राजस्तुतिपरक काव्यरचना की एक दुःखद विकृति कहते है और इसे आजीविका से जोडते हुए इसका समाधान खोजने का प्रयत्न करते हैं। 



    सप्तम अध्याय में क्लिष्ट काव्यों का परिचय है तो 8 वें अध्याय में शास्त्रनिष्ठ काव्यों का वर्णन किया गया है। नवें अध्याय में चम्पू वांग्मय का परिचय दिया गया है।   10 वें अध्याय में ऐतिहासिक काव्यों का वर्णन प्राप्त होता है- यथा  औरंगजेब और मराठा वीरों मध्य हुए युद्ध को आधार बनाकर रचा गया राजारामचरितम्।

              11 वें अध्याय में छत्रपति शिवाजी महाराज की प्रत्यक्ष प्रेरणा से लिखे गये ग्रन्थों का परिचय दिया गया है, यथा - रघुनाथपण्डित रचित राजव्यवहार कोश, जो भाषाशुद्धि को लेकर रचा गया था। 12 वें अध्याय से लेकर 21 वें अध्याय तक अर्वाचीन संस्कृत के शतककाव्यों, स्तोत्र साहित्य, दूतकाव्यों, सुभाषितसंग्रहों, नाटकों एवं  गद्य साहित्य का परिचय निबद्ध है। 

                                      22 वें अध्याय में अनूदित संस्कृत साहित्य का परिचय दिया गया है, जो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यहां अनुवाद में होने वाली समस्याओं का वर्णन करते हुए तमिल, तेलगु, हिन्दी, मराठी, बांगला आदि भारतीय भाषाओं से संस्कृत में किये गये अनुवाद का उल्लेख है। यही पर फारसी भाषा से संस्कृत मे हुए अनुवादों का भी वर्णन किया गया है। उमर खय्याम की रुबाईयों के तीन अनुवादों का परिचय यहां प्राप्त होता है। साथ ही अंग्रेजी से संस्कृत में हुए अनुवादों का भी परिचय विशेष रूप से उल्लेखनीय है। 23 वां अध्याय अन्य भाषीय शब्दों के संस्कृतीकरण पर आधारित है। जब संसकृत के कवियों ने विभिन्न नवीन विषयों पर कविता रची तो उन्हें नये शब्दों की आवश्यकता हुई। उन्होंने इसके लिए उन नये शब्दों का संस्कृतीकरण कर दिया जो, अन्य भाषाओं में तो हैं किन्तु संस्कृत में नहीं थे। यथा-

श्री  रामावतार  शर्मा ने 'भारतीयं वृत्तम्' नामक पद्यात्मक इतिहासग्रन्थ की रचना की है। उसमें परकीय शब्दों के स्थान पर नवनिर्मित संस्कृत रूप प्रचुर मात्रा में प्रयुक्त हैं। वे यहाँ दिये जा रहे हैं-


नेपोलियन = नयपाल्यः । (नयपाल्योऽभवद्द्वीरः सम्राट् फ्रान्सनिवासिनाम् ।)


व्हिक्टोरिया = व्यक्तोर्जा । (आङ्ग्लवंशधरा राज्ञी व्यक्तोर्जा वसुधामशात् ।) (पृ.५१)


बाष्पानस् = रेल्वे ट्रेन। (बाष्पानसा च पोतैश्च सुगमास्ता भुवोऽभवन् ।) (पृ.५१) टेलिग्राफी = विद्युत्संवादशैली ।


आद्यव्रत = एडवर्ड (आद्यव्रतेन राज्ञाऽथ व्यक्तोर्जासूनुनाभवत् ।) (पृ.५२) कर्पूरद्वीप = जपान। (समयेऽस्याऽभवद्युद्धं कर्पूरद्वीपवासिनाम् ।)


रुष्य = रशियन । (जिगीषूणां समं रुष्यै रुष्या यत्र पराजिताः ।।) (पृ.५२)


शर्मण्यः = जर्मन.


बलियम = विल्यम् । (शर्मण्यानां बलियमो रुष्याणां निचुलो नृपः ।)


कुलुम्बः = कोलम्बस. (कुलुम्बो भारतान्वेषी प्राप्ते पञ्चदशे शते ।)


तुङ्‌ङ्गान्धिः = अटलांटिकसागर। तुङ्गाब्धेरपरे पारे धीरः प्रापदमेरिकाम् ।। (पृ.४८)


वस्का = वास्को डि गामा। (वस्काभिधः पुर्तुगलाभिजनश्च ततः परम् । आगाद् भारतमन्विष्यन् दक्षिणाम्बुनिधेस्तटम् ।।

                     किन्तु यहां ग्रन्थकार यह भी कहते हैं कि ऐसे शब्दों के संस्कृतीकरण के लिए नियम भी निर्धारित किये जाने चाहिए-

          इस प्रकार, विगत सौ वर्षों में (कदाचित् उसके पूर्व भी) ऐसे बहुत से संस्कृत शब्द निर्माण हुए जो प्राचीन संस्कृत को परिचित नहीं थे। परंतु उनमें एकसूत्रता नहीं है। ऐसे शब्द आगामी काल में भी बनते ही रहेंगे, क्यों कि आधुनिक व्यवहार में जो शब्द उपयुक्त हैं वे न प्राचीन साहित्य में पाये जाते हैं न शब्दकोशों में। अतः इन नवनिर्मित शब्दों के विषय में नियमनिर्धारण अत्यंत आवश्यक है। मिन्त्र संस्कृति के ग्रन्थों का संस्कृत में अनुवाद करने वाले तथा आधुनिक विषयों पर संस्कृत में ग्रन्थरचना करनेवाले लेखकों को नये शब्दों का निर्माण करना ही पड़ता है। अतः आधुनिक संस्कृत लेखकों का पथप्रदर्शन करने हेतु आवश्यकता प्रतीत होती है कि पण्डित-परिषदों द्वारा कुछ नये नियम निर्धारित किये जावें। किन्तु उसमें ऐसी दक्षता हो कि पाणिनीय शास्त्र अथवा वैयाकरण सम्मत त्रिमुनिप्रामाण्य का किसी प्रकार का विरोध उसमें न हो। 

   25 वें अध्याय में संस्कृत पत्रकारिता पर प्रकाश डाला गया है। यहां संस्कृत की पहली मासिक पत्रिका विद्योदय को बतलाया गया है, जिसका प्रारम्भ हृषीकेश भट्टाचार्य ने किया था। 26 वें अध्याय में हास्य रस से सम्बन्धित रचनाओं तथा 27 वें अध्याय में संस्कृत साहित्य में राष्ट्रवाद पर अलग से सामग्री दी गई है, जो अत्यन्त उपयोगी है। 



                      शोधकर्ताओं एवं जिज्ञासुओं के लिए यह ग्रन्थ उपादेय है। अनुवादिका एवं प्रकाशक इस प्रकाशन के लिए साधुवाद के पात्र हैं।  


ग़ज़ल के मूल संविधानक से भटकता ग़ज़लसंग्रह _ काव्यपीयूषम्

कृति - काव्यपीयूषम्

रचयिता - डॉ. के. सुधाकरराव

प्रधानसम्पादक - आचार्य के. नीलकण्ठम्

विधा - ग़ज़लसंग्रह

प्रकाशक - संस्कृत अकादमी, उस्मानिया विवि, हैदराबाद

प्रकाशन वर्ष - 2020 प्रथम संस्करण

पृष्ठ संख्या - 87

अंकित मूल्य - 100 रू 



   अर्वाचीन संस्कृत की नवीन विधाओं में सबसे लोकप्रिय विधा ग़ज़ल है। मंजुनाथ उपनाम से ग़ज़ल लिखने वाले भट्ट मथुरानाथ शास्त्री से प्रारम्भ हुई यह विधा 21 वीं सदी के युवा रचनाकारों की रचनाओं में भी प्राप्त होती है। भारत सरकार के दूरदर्शन वार्ता विभाग में उपनिदेशक पद पर कार्यरत  डॉ. के. सुधाकरराव ने संस्कृत, तेलगु, कन्नड, हिन्दी, अंग्रेजी आदि भाषाओं में 80 से अधिक ग्रन्थ रचे हैं, ऐसा इस पुस्तक से लेखक का परिचय प्राप्त होता है। संस्कृत में आपके 20 से अधिक ग्रन्थ हैं। 

          डॉ. के. सुधाकरराव द्वारा संस्कृत में रची गई नवीन संस्कृत कविताओं को आचार्य के. नीलकण्ठम् के प्रधान सम्पादकत्व में संस्कृत अकादमी, उस्मानिया विवि, हैदराबाद से प्रकाशित किया गया है। आवरण पृष्ठ सहित अन्य कई स्थानों पर इस संकलन की विधा ग़ज़ल बतलाई गई है। संकलन का आमुख अकादमी के अध्यक्ष आचार्य नीलकण्ठ ने लिखा है, जो इस ग्रन्थ के प्रधान सम्पादक भी हैं। यहां 42 शीर्षकों में कविताएं प्रस्तुत की गई हैं। 



                         पुनर्जीवितोऽहम् शीर्षकयुक्त प्रथम कविता में  प्रेम केे भाव निबद्ध किये गये हैं-

तया स्वप्नहम्र्ये समालिङ्गितोऽहम्

 न जानेऽब्जनेत्र्या भृशं चुम्बितोऽहम् । 

तया चन्द्रिकायां मुहुर्वीक्षितोऽहम् 

वियोगाग्निदग्धो पुनर्जीवितोऽहम् ।।

              मतला में रदीफ एवं काफिए का प्रयोग किया गया है किन्तु  ग़ज़ल के एक शेर में कवि से उसमें चूक हुई है_

सदा सैकते सागरस्योपकण्ठम् 

तदीयं च शङ्खोपमं वीक्ष्य कण्ठम् ।

 नवं गानमाकर्ण्य रोमाञ्चितोऽहम् 

वियोगाग्निदग्धो पुनर्जीवितोऽहम् ।।

         कण्ठम्  यह रदीफ़ सही नहीं हैं क्योंकि  ग़ज़ल में हम् यह रदीफ है| 

            यहां कवि प्रेयसी के विरह से पीडित दिखलाई देता है। वह उससे जुडी बातों को याद करता हुआ बार-बार कहता है कि वह उसके विरह की अग्नि में जल कर फिर से जीवित हो गया है। ग़ज़ल को पढते हुए यहां वियोग शृंगार की अभिव्यक्ति प्रतीत होती है किन्तु मक्ते अर्थात् ग़ज़ल के अन्तिम शेर में यह वियोग शृंगार करुण में परिवर्तित हो जाता है-

कृशाङ्गयाः वियोगेन दुःषावृतोऽहम्

तदीयोक्तिभिर्नर्मगर्भेस्तुतोऽहम् ।

समाधेः प्रियायाः समीपं गतोऽहम्

मृतो नाभवं किं पुनर्जीवितोऽहम् ।।

            संकलन की तीसरी गजल तक आते-आते कवि ग़ज़ल के संविधानक से भटक जाता है, जहां पाठक रदीफ और काफिए को खोजता ही रहता है-

       प्रियोच्छिष्टं जगत्


प्रिये ! ब्रूहि किं देयमस्मिन् क्षणे ते ? 

दत्तं मदीयं हृदब्जं त्वदर्थम् ? । 

प्रिये ! ब्रूहि किं भाषणीयं मयाऽद्य ? 

नेत्राञ्चलैः व्यक्तमेवेङ्गितं नः ।।


प्रिये ! ब्रूहि कुत्रास्ति गन्तव्यमद्य ?

 स्वप्ने जगत् दृष्टमेवाखिलं तत् । 

प्रिये ! ब्रूहि किं वाञ्छसे माक्षिकं त्वं 

बिम्बाधरं चुम्बितं ते मयाऽद्य ।।


सुधाकर ! प्राप्य तत्साहचर्यम् 

जगत्सर्वमेतद् प्रियोच्छिष्टमेव ।


​         चतुर्थ ग़ज़ल की हर पंक्ति में रदीफ की अनुपस्थिति में (गैर-मुरद्दफ ग़ज़ल में)  काफिए का संयोजन करने के प्रयास के पश्चात् नेता शीर्षक वाली पांचवी ग़ज़ल में रदीफ की अनुपस्थिति में इतनी बार काफिया परिवर्तित होता है कि इसे समूची एक ग़ज़ल कहना ही उचित प्रतीत नहीं होता। समुचित यह होता कि अगर इन शब्दों को काफिया बनाकर पूरी ग़ज़ल  नहीं रची जा रही थी तो उन्हें पृथक् से शेर कह कर संकलन में मुक्तक के रूप में रखा जा सकता था-

निर्वाचने नायको कोऽपि घुष्टः 

पूर्णोदरो श्वेतवस्त्रोऽतिपुष्टः । 

कालेन वित्तेन भृशं विशिष्टः 

नृणां विनाशं विदधाति दुष्टः ।।


पत्नी मृता मारिता वा न जाने 

लसत्यब्जनेत्री समीपे विमाने । 

कार्यालये काचन स्त्री चकास्ति 

लज्जा भृशं मानसे तस्य नास्ति ।।


सदा मद्यपाने निमग्नोऽस्ति नेता 

क्वचित् धूमपानेऽवलग्नोऽस्ति भ्राता । 

चलच्चित्रगीतावलीनां च श्रोता 

खलानां कृते भाग्यदोऽसौ विधाता ।।

         छठी ग़ज़ल हे पयोद! में पयोद शब्द रदीफ है किन्तु काफिया गायब है। बिना रदीफ के ग़ज़ल कही जा सकती है किन्तु बिना काफिया की ग़ज़ल को अच्छी ग़ज़ल के रूप में  आचार्य स्वीेकार नहीं करते हैं।



            यहां यह भी ध्यातव्य है कि अभिराज राजेन्द्र मिश्र के नवीन काव्यशास्त्र अभिराजयशोभूषणम् में ग़ज़ल का जो लक्षण दिया गया है, उसमें शेर के अन्त में दुहराए जाने वाले एक जैसे अन्तिम शब्द को काफिया कहा है‌ _

शब्द आरम्भिकाबन्धवाक्ययोरन्तिमोऽथ सः। 

एक एव भवेद् गीते काफियाख्योऽनुवर्तितः ।।८१ ।।

                 अभिराज  जी का यह कथन सही नहीं है क्योंकि इसे काफिया न कहकर रदीफ कहा जाता है। रदीफ काफिए के बाद आने वाला शब्द या शब्द समूह होता है। जैसा कि मद्दाहकोश के नाम से प्रसिद्ध उर्दू-हिन्दी शब्द कोश कहता है- 

रदीफ  ردیف अ.वि.-पीछे चलनेवाली; (स्त्री.) ग़ज़ल में काफिए के बाद आनेवाला शब्द या शब्द-समूह।



        काफिया किसी ग़ज़ल के शेर में रदीफ से पहले आने वाले तुकान्त को कहा जाता है। अभिराज जी ने आचार्य बच्चूलाल अवस्थी जी की इस ग़ज़ल को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है-

पिकाः कूजन्ति माकन्देषु कूजेयुः किमायातम् ? 

समीरा दाक्षिणात्या मन्दमञ्चेयुः किमायातम् ?

इदं पाणौ सुरापात्रं सुरा कुम्भेऽन्तिके रामा 

उदन्वन्तः समे सर्वत्र शुष्येयुः किमायातम् ? 

अतन्त्रं लोकतन्त्रं वा विवादो नामनि व्यर्थः 

सुमन्त्रा यान्त्रिके तन्त्रे न सिध्येयुः किमायातम् ?

           यहां किमायातम् इस अंश विशेष को अभिराज जी काफिया कहते हैं_

'काफिया' यथोपर्युदाहृते गीत एव किमायातम् इत्यंशः। अयमेवांशः प्रतिबन्धमनुवर्त्यते गलज्जलिकायाम्।

              जबकि ग़ज़ल के संविधानक की दृष्टि से यह काफिया न होकर रदीफ है। इसी ग़ज़ल में किमायातम् के पहले आने वाले कूजेयुः, मंचेयुः, शुष्येयुः, सिध्येयुः आदि तुकान्त शब्द काफिया कहलायेंगे। 

                   अस्तु, ग़ज़ल के मूल संविधानक से जुडी हुई ऐसी कई त्रुटियां प्रस्तुत संकलन में अखरती हैं, जिससे इसे ग़ज़ल विधा का संग्रह कहना सही नहीं जान पडता है। संग्रह के आमुख में ग़ज़ल के संविधानक की चर्चा तो की गई है किन्तु वहां इसी संकलन में उसी संविधानक में हुई चूकों का कोई उल्लेख नहीं किया गया है।  कवि के सुधाकर राव ने अपने संग्रह की भूमिका में लिखा है कि ग़ज़ल सम्प्रदाय का अनुसरण सबसे पहले संस्कृत में त्रिवेणी कवि अभिराज राजेन्द्र मिश्र ने किया है- गज़ल संप्रदायस्य अनुसरणं संस्कृते प्रप्रथमतया त्रिवेणीकविभिः शताधिकग्रन्थकर्तृभिः अभिराजराजेन्द्रमहोदयैः कृतम् । यह कथन सही नहीं है क्योंकि त्रिवेणी कवि के बहुत पहले जयपुर निवासी भट्ट मथुरानाथ शास्त्री ने संस्कृत में ग़ज़ल लिखी थी, ऐसे साक्ष्य विद्यमान हैं ही। कवि के प्रस्तुत संकलन के प्रास्ताविक में पैन्ना मधुसूदन जी ने इस का स्पष्ट उल्लेख करते हुए आचार्य बच्चूलाल अवस्थी आदि का नाम लिया है_

यथा महाकविना राजेन्द्रमिश्रमहाभागेन विवृतम् -

गलञ्जलिका पुरा फारसीभाषायामुत्पन्ना क्रमेण विकासमाप्य उर्दूभाषायामपि नको समवातरत् । ततश्च जयपुरवास्तव्यः फारसीसंस्कृतभाषाद्वयोद्भटः मथुरानाथशास्त्रीति प्रथितयशा संस्कृतेऽपि गजलगीतं सर्वप्रथमतया ससर्ज इति । नूनमेव मथुरानाथ- शास्त्रिवर्येण श्लाघनीयरीत्या संस्कृतेऽपि गजलरीतिमवलम्ब्य रचना कृता । स एव संस्कृतगजलस्य प्रथमः उद्गाता 

         संस्कृत अकादमी, जहां से यह संकलन प्रकाशित हुआ है, के निदेशक ने इस संग्रह के आमुख में हर्षदेव माधव द्वारा सम्पादित जिस द्राक्षावल्ली ग़ज़लसंग्रह का उल्लेख किया है, अगर उस पर संक्षिप्त दृष्टिपात् कर लिया जाए तो भी यह भ्रान्ति बडी सरलता से दूर हो सकती है कि संस्कृत में ग़ज़ल लिखना सबसे पहले किसने आरम्भ किया।   

                   कथ्य की दृष्टि से विचार किया जाए तो संग्रह की प्रायः आधी कविताओं में प्रणय के विविध चित्र उकेरे गये हैं। कुछ कविताओं को सामाजिक कुरूतियों, विडम्बनाओं आदि के चित्रण के साथ समसामयिक बनाया गया है। नेता कविता में आधुनिक राजनेता पर व्यंग्य किया गया है तो भाटकमाता कविता में किराए की कोख को आधार बनाया गया है। स्वयं लेखक ने इन कविताओं का हिन्दी अनुवाद भी यहां प्रस्तुत किया है किन्तु अनुवाद के मुद्रण में इतनी त्रुटियां  हैं कि कई बार मन खिन्न हो जाता है।



            साहित्य में किसी नवीन विधा का प्रवेश सदैव स्वागत योग्य होता है किन्तु यह उस विधा में रचना करने वाले कवियों का कर्तव्य है किवे उस विधा के मूल संविधानक का पालन करना सुनिश्चित करें और उसमें उतनी ही छूट ले जितनी ग्राह्य है। इस संग्रह को बलात् ग़ज़लसंग्रह न कहकर केवल काव्य संग्रह कह दिया जाता तो कुछ बेहतर होता| ग़ज़ल कह देने मात्र से कोई रचना ग़ज़ल नहीं हो जाती है| अंत में कवि की ही कुछ पंक्तियों से अपनी बात को विराम देता हूं_


सत्यं समाजे यदि त्वं ब्रवीषि 

सत्यं ! प्रहारैः ! परितप्तदेहः । 

जीवच्छवत्वं समवाप्य शीर्णो 

हे मानव ! त्वं भविता शृणुष्व ! ।।


               


Friday, November 1, 2024

ललद्यद के वाख और उनके संस्कृत रूपान्तरण

 ललद्यद के वाख और उनके संस्कृत रूपान्तरण



      ललद्यद कश्मीर की बहुचर्चित सन्त कवयित्री हैं। इन्हें वहां आदि कवयित्री भी कहा जाता है। ललद्यद के कई नाम प्रचलित रहे हैं, यथा लल, लला, ललारिफा, ललेश्वरी, ललयोगेश्वरी। पं. गोपीनाथ रैना ने अपने ग्रन्थ ललवाक्य में ललद्यद के जन्म का नाम पद्मावती माना है। लल कश्मीरी भाषा में तोंद को कहते हैं और द्यद वहां दादी या आदर योग्य वृद्धा को कहा जाता है। कथाओं के अनुसार लल प्रायः अर्धनग्नावस्था में घूमती रहती थी और उनकी तोंद इतनी विकसित थी कि उनके गुप्तांग उस तोंद से ढके रहते थे, अतः उनका नाम ललद्यद, ऐसा प्रसिद्ध हो गया। ललद्यद का समय 14 वीं सदी माना जाता है। अपने गुरु सिद्धकोल से लल ने धर्म, दर्शन, योग आदि की शिक्षा प्राप्त की थी। लल का मन विवाह पश्चात् भी संसार में नहीं रमा। वे विरक्त भाव से रहती थी। लल से सम्बन्धित कई चमत्कारिक घटनाएं भी कश्मीर प्रदेश में प्रचलित हैं। लल काश्मीर शैव दर्शन की मर्मज्ञ हैं। 

                      ललद्यद ने अपनी अभिव्यक्ति को काश्मीरी  भाषा में वाखों के रूप में प्रकट किया। वाक्य का ही नाम यहां वाख है। ये प्रायः छन्दमुक्त वाख हैं, जो चार-चार पदों में हैं। गेय रूप ये वाख प्रारम्भ में मौखिक रूप में थे।  डॉं शिबनकृष्ण रैना के अनुसार 1914 में ग्रियर्सन ने इन वाखों को एकत्रित कर प्रकाशित करने का विचार किया। पं. मुकुन्दराम शास्त्री ने सन्त धर्मदास से सुने हुए वाखों का संग्रह कर ग्रियर्सन को सौंप दिया। यह भी जानकारी मिलती है कि पं. मुकुन्दराम शास्त्री ने यह संग्रह संस्कृत व हिन्दी रूपान्तरण के साथ दिया था। 1920 में यह रोयल एशियाटिक सोसाइटी, लन्दन से प्रकाशित हुआ, इस संकलन में मूल वाख 1 के साथ अंग्रेजी अनुवाद भी है । यह नागरीलिपि में है। पद्मभूषण बनारसी दास चतुर्वेदी के अनुसार यद्यपि कश्मीरी भाषा की मौजूदा लिपि फारसी है किन्तु स्वरों के उच्चारण एवं प्रयत्नों में कश्मीरी भाषा के कुछ अपने रूप हैं। अनुवाद के साथ मिलान करने पर स्पष्ट पता चलता है कि अधिकांश शब्दों का मूल उद्गम संस्कृत भाषा ही है। अलबत्ता कालान्तर में फारसी, अरबी शब्दों का सन्निवेश होता रहा है। यहां यह भी ध्यातव्य है कि ललद्यद को संस्कृत भाषा का पूर्ण ज्ञान था किन्तु उन्होंने अभिव्यक्ति के लिये कश्मीरी भाषा को चुना।

        त्रिलोकीनाथ धर ‘कुन्दन’ के अनुसार सब से प्राचीन प्रति जो मिलती है वह भास्कराचार्य कृत संस्कृत अनुवाद की है। इसके पश्चात् हिन्दी, अंग्रेजी आदि कई भाषाओं में अनुवाद प्रकाशित हुए। त्रिलोकीनाथ धर का कथन सही भी है क्योंकि स्वयं ग्रियर्सन द्वारा प्रकाशित संग्रह में भास्कराचार्य (पूरा नाम राजानक भास्कराचार्य) द्वारा किया गया संस्कृत अनुवाद भी दिया गया हैै किन्तु यह अनुवाद नागरी लिपि में न होकर रोमन लिपि में है। यह अनुवाद लगभग 42 वाखों का है, किन्तु वही पर संकेत भी किया गया है कि यह अनुवाद 60 वाखों पर है। 


ललद्यद के वाखों के संस्कृत रूपान्तरण - 

                         जैसा कि पूर्व में बतलाया गया है कि इन वाखों का संस्कृत अनुवाद सबसे पहले राजानक भास्कराचार्य द्वारा किया गया था। इसके अतिरिक्त आचार्य रामजी शास्त्री द्वारा भी वाखों का संस्कृत रूपान्तरण किया गया है|


राजानक भास्कराचार्य कृत संस्कृत रूपान्तरण -



                      राजानक भास्कराचार्य ने ललेश्वरी के वाखों का अनुष्टुप् छन्द में संस्कृत में पद्य अनुवाद किया था। कालान्तर में यह प्रायः अप्राप्य हो गया। ग्रियर्सन ने राजानक कृत अनुवाद में से लगभग 42 वाखों के अनुवाद को रोमन लिपि में अपने संकलन में प्रस्तुत किया किन्तु वस्तुतः राजानक ने 60 वाखों का अनुवाद किया था, यह भी स्पष्ट कर दिया। यह अनुवाद नागरी लिपि में किया गया है। राजानक ने नागरी लिपि में मूल वाख को भी प्रस्तुत किया है।  1977 में हिन्दी अनुवाद के साथ लखनऊ से प्रकाशित एक ग्रन्थ में राजानक के द्वारा किये गये अनुवाद के 49 पद्य ही दिये गये। 2011 में जम्मू से लल पर प्रकाशित एक अन्य ग्रन्थ में इस अनुवाद के 39 ही पद्य संकलित हैं। 

                                   राजानक भास्कराचार्य द्वारा किये गये 60 वाखों का अनुवाद लगभग अप्राप्य सा हो गया था, इसी को ध्यान में रखते हुए हाल ही में साहित्य अकादेमी,  दिल्ली से राजानक द्वारा अनूदित वाखों को सम्पादित करके प्रकाशित किया गया है।  ग्रंथ का शीर्षक है लल्लेश्वरी के वाख़| इस ग्रन्थ के सम्पादन का महत् कार्य आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी‌ ने किया है। 



         आचार्य त्रिपाठी जी ने ग्रन्थ के प्रारम्भ में 23 पृष्ठात्मक सम्पादकीय में लल्लेश्वरी का परिचय देते हुए काश्मीर शैव दर्शन के आलोक मे लल्लेश्वरी के वाखों पर प्रकाश डाला है। प्रो. त्रिपाठी जी ने लल्ल का काल 14 वीं सदी मानते हुए बतलाया है कि उनके समय काश्मीर में मुस्लिम शासक राज्य कर रहे थे। भाषायी दृष्टि से फारसी और संस्कृत के मध्य आदान-प्रदान की प्रक्रिया तेज हो रही थी। प्रो. त्रिपाठी यह भी मानते हैं कि लल्ल के काव्य पर शैव दर्शन की संक्रान्ति के साथ पूर्ववर्ती सूफी कवि यथा अमीर खुसरो आदि का भी प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। प्रो. त्रिपाठी लल् या लड् धातु से निष्पन्न मानते हुए कहते हैं कि लल्लद्वद यह नाम गुरूजनों की लाडली या प्रीतिपात्र होने के कारण दिया गया था। 



        यहां स्पष्ट किया गया है कि राजानक ने यह अनुवाद 18 वीं सदी में किया था। प्रस्तुत संस्करण के लिए श्रीनगर स्थित जम्मू कश्मीर शोध विभाग द्वारा 1930 में प्रकाशित राजानकभास्करकृतलल्लेश्वरीवाक्यानि पाठ को आधार बनाया गया है। 



       इस संस्करण की एक और विशेषता यह है कि प्रो. अद्वैतवादिनी कौल ने इन वाखों का हिन्दी में पद्यानुवाद भी किया है, जो इस में सम्मिलित है। साथ ही प्रो. कौल में 36 पृष्ठों में इस ग्रन्थ की विस्तृत भूमिका भी लिखी हैं

     अनुवाद के प्रारम्भ में राजानक भास्कराचार्य ने श्रीगणेश को प्रणाम करके गुरु की पादुका का स्मरण किया है- 


नुत्वा देवं श्रीगणेशं सुरेशं स्मृत्वा चित्ते श्रीगुरोः पादुकां च। 

लल्लादेवीप्रोदितं वाक्यजातं पद्यैर्दृब्धं रच्यते भास्करेण ॥


श्रीगणेश और सुरो के ईश (शिव) को नमन कर 

श्रीगुरुपादुका का चित्त में ध्यान धर। 

देवी लल्ला से उदित वाखों की 

सुघटित पद्यों में भास्कर द्वारा हो रही रचना ॥ 

(हिंदी अनुवाद प्रो कौल)



लल्लाहं निर्गता दूरमन्वेष्टुं शंकरं विभुम् ।

भ्रान्त्वा लब्धो मया स्वस्मिन्देहे देवो गृहे स्थितः ||



हिंदी अनुवाद -


प्रेम दीवानी लल्ल मैं निकली

 ढूँढते बीते दिन और रात। 

पाया भीतर ही प्रभु को अपने 

क्षण वह शुभ नक्षत्र बना ॥

(हिंदी अनुवाद प्रो कौल)


निंदन्तु वा मामथ वा स्तुवन्तु कुर्वतु वार्चा विविधैः सुपुष्पैः। 

न हर्षमायाम्यथ वा विषादं विशुद्धबोधामृतपानस्वस्था॥ 


अवमान करें या स्तुति पढ़ें 

बोले वही जिसकी जैसी रुचि। 

सहज कुसुमों से मेरी पूजा करें 

मैं अमलिन किसका क्या शेष बचे ॥

(हिंदी अनुवाद प्रो कौल)


     यहां नागरी लिपि में निबद्ध मूल वाख के साथ कुछ संक्षिप्त तो कुछ विस्तृत टिप्पणियां भी दी गई हैं, जो पूर्व कृत विभिन्न भाषाओं के अनुवादों के आलोक में वाख को समझने के लिए सहायक हैं।


आचार्य रामजी शास्त्री कृत संस्कृत रूपान्तरण - 



                    मध्यप्रदेश के मुरैना जिले में जन्मे आचार्य रामजी शास्त्री ने 130 वाखों का संस्कृत अनुवाद किया है, जिनमें राजानक द्वारा किये गये अनुवाद वाले वाखों का पुनः अनुवाद नहीं किया गया है। अतः यह संस्कृत अनुवाद राजानक वाले 60 वाखों  से भिन्न 130 वाखों  का है |  इन 130 अनूदित वाखों के साथ यहां राजानक द्वारा अनूदित 60 वाख में से 49 वाख भी दिए गए हैं| इस प्रकार यहां कुल 179 वाख हो जातें हैं| इन 179 वाखों का हिंदी भाषा में गद्य अनुवाद शिबन कृष्ण रैना द्वारा किया गया है| इसका प्रकाशन भुवन वाणी ट्रस्ट, लखनऊ द्वारा 1977 में किया गया है|   

 इस अनुवाद से कुछ उदाहरण द्रष्टव्य है-


बहिरंगाद् अन्तरंगं स्वं, प्रविशेति गुरुर्जगौ।

कायान्तरम् अनेनाभूद्, विवस्त्रा नर्तने रता।।


गुरु ने कहा मुझ से

चली जा बाहर से भीतर

काया ही पलट गई इससे मेरी

नाच उठी मैं होकर विवस्त्र।।



अवाच्यानां सहस्राणि, कथयन्तु न मन्मनः।

मालिन्यम् एत्युदासीनं, रजोभिर् मुकुरो यथा।।


दे हजारों गालियां कोई

नहीं होता मन खिन्न मेरा

जब हूं मैं शंकर की भगतन

भला मनदर्पण पर धूल कैसी?


यहां मूल में आया शंकरभक्त शब्द (बो योद सहजु शंकरु बखुच आसा) संस्कृत अनुवाद में नहीं आ पाया है। किसी का ललद्यद हो जाना आसान तो नहीं, उसके क्या कुछ नहीं करना पडता-


ततोऽत्र दृष्ट्वावरणानि भूयो, ज्ञातं मयात्रैव भविष्यतीति।

भंक्त्वा यदा तानि च संप्रविष्टा, लल्लेति लोके प्रथिता तदाऽहम्।।


जब जला डाला सारा मैल दिल का

जिगर को भी मारा

और बैठ गई द्वार पर उसके

तब जाकर प्रसिद्ध हुआ लल नाम मेरा।।


     यहां भी संस्कृत अनुवाद में मैल जलाने, जिगर को मारने का भाव नहीं उतर पाया है। (मल वोदि जालुम/जिगर मोरुम/तेलि लल नाव द्राम/येलि दल्यत्राव्यमस तत्या)



     इस तरह ललद्यद के कश्मीरी भाषा के वाखों  के दो संस्कृत रूपान्तरण किये गये हैं, जिनमें कुल संख्या में 190 (60 राजानक कृत+ 130 रामजी शास्त्री कृत) वाखों का संस्कृत अनुवाद हो जाता है।