संस्कृत ग़ज़लसंग्रह - काक्षेण वीक्षितम्
कृति - काक्षेण वीक्षितम्
लेखक - महराजदीन पाण्डेय ‘विभाष’
मोबाइल नम्बर-9451027704
पता-गोण्डा-उत्तरप्रदेश
विधा - ग़ज़ल-काव्य संग्रह
प्रकाशक -ज्ञान भारती पब्लिकेशन, दिल्ली
संस्करण - प्रथम -2004, द्वितीय-2016
पृष्ठ संख्या -119
अंकित मूल्य - 395
संस्कृत में ग़ज़ल विधा की शुरुआत भट्ट मथुरानाथ शास्त्री से मानी जाती है। इसे गज्जल, गज्जलिका, गलज्जलिका, गीतिका, गजलगीति, द्विपदिका आदि संज्ञाएं भी दी गई हैं। संस्कृत के नये काव्यशास्त्र अभिनवकाव्यालंकारसूत्रम्, अभिराजयशोभूषणम् तथा नव्यकाव्यतत्त्वमीमांसा में इसका लक्षण भी प्रस्तुत किया गया है। महराजदीन पाण्डेय वर्तमान समय के सशक्त ग़ज़लकार हैं। आप विभाष तखल्लुस से गजले लिखते हैं। महराजदीन पाण्डेय की ग़ज़लों का प्रथम संकलन मौनवेधः 1991 में प्रकाशित हुआ था। काक्षेण वीक्षितम् आपकी ग़ज़लों का द्वितीय संग्रह है। हाल ही में मध्ये मेघयक्षयोः संवाद काव्य प्रकाशित हुआ है। यहां काक्षेण वीक्षितम् (कनखी से देखना) का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत है-
महराजदीन पाण्डेय की 32 संस्कृत ग़ज़लों का संकलन काक्षेण वीक्षितम् के रूप में प्रकाशित हुआ है। यहां इन ग़ज़लों का हिन्दी अनुवाद भी स्वयं द्वारा प्रस्तुत कर दिया गया है। साथ ही इन ग़ज़लों के अतिरिक्त 9 कविताएं भी संकलित हैं। महराजदीन पाण्डेय ने उर्दू छन्दशास्त्र में प्रचलित सात बह्रों में ये ग़ज़ले कही हैं, यथा- मफाईलुन मफाईलुन मफाईलुन मफाईलुन। महराजदीन पाण्डेय प्रेम पर आधारित ग़ज़ल ही नहीं कहते, वे ग़ज़ल को सामाजिक सरोकारों से सम्बद्ध करते हुए उसे आज के समय से भी जोड देते हैं। इसका कारण वह पहली ही ग़ज़ल के मतले (गजल का प्रारम्भिक शेर) में कहते हैं-
औरसेनासृजा पोषिता लेखनी।
लोकरागोष्मणा शोधिता लेखनी।। (पृ.सं.12)
अर्थात् लेखनी को हृदय के रक्त से पोसा है। लोकराग की ऊष्मा से इसका शोधन किया है। जिसकी लेखनी हृदय के रक्त से पोषित होगी वह केवल इश्क की बातें नहीं करेगी और न ही हिज्र की रातों के आंसू टपकायेगी। जब दो जून की रोटी के जुगाड में सारी जिन्दगी रीती जा रही हो तो चालाकी कहां से आयेगी-
चिन्तया रोटिकाया हता चातुरी।
तैल लवणस्य योगे गता चातुरी।। (पृ.सं.20)
परमात्मा का अस्तित्व बहस का मुद्दा रहा है, जिस पर दार्शनिक विचारधाराएं अपने अपने मत रखती हैं। लेकिन कवि को इन दार्शनिक विवादों से क्या मतलब, वह तो सीधा सपाट कह देता है कि जो परमात्मा हमारे काल्पनिक प्रमाणों पर टिका हुआ है वह अन्धे की लकडी मात्र है, अतः उसकी चर्चा व्यर्थ है-
अलं तच्चर्चया लगुडो भवेदन्धस्य परमेशः,
श्रितो नः कल्पनासूते प्रमाणे किं त्वया बुद्धम्! (पृ.सं.22)
महराज दीन पाण्डेय राजनीति पर करारा व्यंग्य करते हुए कहते हैं कि गाओ क्योंकि गाने से दो लाभ होंगे, गाने से राजा खुश तो होगा ही साथ ही उस निर्दयी राजा को सहन करने की शक्ति भी मिलेगी-
गाय गानेन हृष्यते राजा ।
कालकुटिलोऽपि मृष्यते राजा।।
मतान्यदाम सेवकं चेतुं
संसदा नः प्रदिश्यते राजा।। (पृ.सं.70)
हमने वोट तो दिया था समाज सेवक चुनने के लिये लेकिन संसद ने हमे दिया राजा। इस प्रकार की ग़ज़ले हमें हिन्दी के मशहूर शायर दुष्यन्त का स्मरण कराती हैं। अपने उपनाम (तखल्लुस) विभाष का एक ग़ज़ल के मक़ते में बखूबी प्रयोग करते हुए कहते हैं विभाष की वह भाषा ही क्या जो छीले नहीं, शब्द के हिंडोले को झुलाने वाला भी भला कवि होता है-
या न तक्षति विभाषस्य भाषास्ति का
किं कविः शब्दहिन्दोलकं दोलयन्।। (पृ.सं.24)
कृति - काक्षेण वीक्षितम्
लेखक - महराजदीन पाण्डेय ‘विभाष’
मोबाइल नम्बर-9451027704
पता-गोण्डा-उत्तरप्रदेश
विधा - ग़ज़ल-काव्य संग्रह
प्रकाशक -ज्ञान भारती पब्लिकेशन, दिल्ली
संस्करण - प्रथम -2004, द्वितीय-2016
पृष्ठ संख्या -119
अंकित मूल्य - 395
संस्कृत में ग़ज़ल विधा की शुरुआत भट्ट मथुरानाथ शास्त्री से मानी जाती है। इसे गज्जल, गज्जलिका, गलज्जलिका, गीतिका, गजलगीति, द्विपदिका आदि संज्ञाएं भी दी गई हैं। संस्कृत के नये काव्यशास्त्र अभिनवकाव्यालंकारसूत्रम्, अभिराजयशोभूषणम् तथा नव्यकाव्यतत्त्वमीमांसा में इसका लक्षण भी प्रस्तुत किया गया है। महराजदीन पाण्डेय वर्तमान समय के सशक्त ग़ज़लकार हैं। आप विभाष तखल्लुस से गजले लिखते हैं। महराजदीन पाण्डेय की ग़ज़लों का प्रथम संकलन मौनवेधः 1991 में प्रकाशित हुआ था। काक्षेण वीक्षितम् आपकी ग़ज़लों का द्वितीय संग्रह है। हाल ही में मध्ये मेघयक्षयोः संवाद काव्य प्रकाशित हुआ है। यहां काक्षेण वीक्षितम् (कनखी से देखना) का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत है-
महराजदीन पाण्डेय की 32 संस्कृत ग़ज़लों का संकलन काक्षेण वीक्षितम् के रूप में प्रकाशित हुआ है। यहां इन ग़ज़लों का हिन्दी अनुवाद भी स्वयं द्वारा प्रस्तुत कर दिया गया है। साथ ही इन ग़ज़लों के अतिरिक्त 9 कविताएं भी संकलित हैं। महराजदीन पाण्डेय ने उर्दू छन्दशास्त्र में प्रचलित सात बह्रों में ये ग़ज़ले कही हैं, यथा- मफाईलुन मफाईलुन मफाईलुन मफाईलुन। महराजदीन पाण्डेय प्रेम पर आधारित ग़ज़ल ही नहीं कहते, वे ग़ज़ल को सामाजिक सरोकारों से सम्बद्ध करते हुए उसे आज के समय से भी जोड देते हैं। इसका कारण वह पहली ही ग़ज़ल के मतले (गजल का प्रारम्भिक शेर) में कहते हैं-
औरसेनासृजा पोषिता लेखनी।
लोकरागोष्मणा शोधिता लेखनी।। (पृ.सं.12)
अर्थात् लेखनी को हृदय के रक्त से पोसा है। लोकराग की ऊष्मा से इसका शोधन किया है। जिसकी लेखनी हृदय के रक्त से पोषित होगी वह केवल इश्क की बातें नहीं करेगी और न ही हिज्र की रातों के आंसू टपकायेगी। जब दो जून की रोटी के जुगाड में सारी जिन्दगी रीती जा रही हो तो चालाकी कहां से आयेगी-
चिन्तया रोटिकाया हता चातुरी।
तैल लवणस्य योगे गता चातुरी।। (पृ.सं.20)
परमात्मा का अस्तित्व बहस का मुद्दा रहा है, जिस पर दार्शनिक विचारधाराएं अपने अपने मत रखती हैं। लेकिन कवि को इन दार्शनिक विवादों से क्या मतलब, वह तो सीधा सपाट कह देता है कि जो परमात्मा हमारे काल्पनिक प्रमाणों पर टिका हुआ है वह अन्धे की लकडी मात्र है, अतः उसकी चर्चा व्यर्थ है-
अलं तच्चर्चया लगुडो भवेदन्धस्य परमेशः,
श्रितो नः कल्पनासूते प्रमाणे किं त्वया बुद्धम्! (पृ.सं.22)
महराज दीन पाण्डेय राजनीति पर करारा व्यंग्य करते हुए कहते हैं कि गाओ क्योंकि गाने से दो लाभ होंगे, गाने से राजा खुश तो होगा ही साथ ही उस निर्दयी राजा को सहन करने की शक्ति भी मिलेगी-
गाय गानेन हृष्यते राजा ।
कालकुटिलोऽपि मृष्यते राजा।।
मतान्यदाम सेवकं चेतुं
संसदा नः प्रदिश्यते राजा।। (पृ.सं.70)
हमने वोट तो दिया था समाज सेवक चुनने के लिये लेकिन संसद ने हमे दिया राजा। इस प्रकार की ग़ज़ले हमें हिन्दी के मशहूर शायर दुष्यन्त का स्मरण कराती हैं। अपने उपनाम (तखल्लुस) विभाष का एक ग़ज़ल के मक़ते में बखूबी प्रयोग करते हुए कहते हैं विभाष की वह भाषा ही क्या जो छीले नहीं, शब्द के हिंडोले को झुलाने वाला भी भला कवि होता है-
या न तक्षति विभाषस्य भाषास्ति का
किं कविः शब्दहिन्दोलकं दोलयन्।। (पृ.सं.24)
कवि कौशल की कुशलता से हम सभी लाभान्वित हो रहे हैं। एतदर्थ आपको धन्यवाद
ReplyDeleteआभार भाई
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