Monday, June 1, 2020

किसानों की कथा - तपस्विकृषीवलम्

कृति - तपस्विकृषीवलम्

विधा - काव्य
लेखक - हरिहर शर्मा अर्याल
प्रकाशक -दिल्ली संस्कृत अकादेमी की आर्थिक सहायता से प्रकाशित
प्राप्ति स्थान - श्रीरामशंकर सांगवेदविद्यापीठम्, कबीरनगर, उ.प्र.
संस्करण - प्रथम, 2000
पृष्ठ संख्या - 62
अंकित मूल्य - 30

       संस्कृत साहित्य में प्राचीन काल से ही दो प्रकार की परम्पराएं प्रचलित रही हैं- एक आभिजात्य परम्परा और दूसरी लोकधर्मी परम्परा । प्रो.राधावल्लभ त्रिपाठी ने अपनी  पुस्तक संस्कृत कविता की लोकधर्मी परम्परा  में संस्कृत की लोकधर्मी परम्परा को विस्तार से सोदाहरण स्पष्ट किया है। आधुनिक संस्कृत साहित्य में इस परम्परा का बखूबी निर्वाह किया जा रहा है।  अब संस्कृत साहित्यकार अपनी प्रतिभा को नख-शिख वर्णन मात्र में ही नहीं खपा रहा है अपितु उसकी दृष्टि  अपने काव्यों में उस समाज पर भी पडती है, जो है तो हमारा अविभाज्य अंग किन्तु सदियों से वह उपेक्षित सा रहा है।

      हरिहर शर्मा अर्याल कृत तपस्विकृषीवलम् सम्भवतः किसानों पर स्वतन्त्र रूप से कन्द्रित  एकमात्र काव्य है। 100 पद्यों के माध्यम से कवि ने किसानों की दशा को अपने काव्य में प्रकट किया है, साथ ही इनका हिन्दी अनुवाद भी स्वयं कवि ने प्रस्तुत कर दिया है। जब काव्य किसानों पर है तो कवि मंगलाचरण के श्लोक में वन्दना भी उन्हीं से सम्बद्ध करता हुआ कहता है कि -

प्रचण्डं सन्तापं स्फुरदसुहरीं शीतलहरीं 
विजित्याऽऽधिं व्याधिं सुखमसुखमेकीकृतवताम्।
स्वयं तापं तापं जगदुदरशापं शमयतां
स केषाञ्चिद्धन्यो बबबततकारो विजयते।।

अर्थात् ग्रीष्म ऋतु की चिलचिलाती धूपों, प्राणों के स्पन्दन बन्द कर देने वाली भयंकर शीतलहरियों, मन की वेदनाओं तथा शारीरिक कष्टों की तनिक भी प्रवाह न करने वाले, सुख एपं दुःख दोनों को समझने वाले तथा स्वयं नानाविध कष्टों को झेलते हुए अखिल जगत् की जनता के भूख की ज्वाला शान्त करने वाले किन्हीं विशिष्ट तपस्वियों का वह ब.....ब........ब......त.........त ओ.............न ओ आदि स्वर धन्य तथा सर्वोत्कृष्ट है।

               दिन-रात को एक समान करके जो सतत अन्न उत्पादन में लगा रहता है, ऐसा किसान तपस्वी ही तो कहा जायेगा। देवता भी किसान की ओर ही आशा भरी दृष्टि लगाये रखते हैं-

अहो! स्वाहोच्चारैर्वितरितबलिं लब्धुमनसां
त्वदन्नायत्तानाममरनिकरणामयि! दृशः।
घृताचीं चुम्बन्ति क्षणमपि तु ते भूरि सतृषं
श्रयन्ते दोर्मञ्चे नटनपटु-कुद्दालसुषमाम्।। 

अर्थात् कृषक्- तपस्विन्! आश्चर्य है कि स्वाहा मन्त्र उच्चारण पूर्वक दी गई हवि पाने की उत्कट इच्छा वाले तथा तुम्हारे अन्नों के अधीन रहने वाले देवताओं की दृष्टि एक ही क्षण के लिये घृताची अप्सरा की ओर घूमती है, किन्तु दूसरे ही क्षण पुनः सतृष्ण होकर तुम्हारे बाहु रूपी मंच पर नृत्य करते हुए कुदाल की शोभा का स्थिर आश्रय ग्रहण करती है, यह सोचकर कि हमारी तृप्ति के हेतु तो कुदाल से सुशोभित किसान के बाहुयुगल ही हैं |

           कवि अपनी पदावली से पाठक का मन हर लेते हैं। किसानों का वर्णन करते हुए वे अनूठे बिंब भी रचते हैं। एक स्थान पर महानगरों के आवासों तथा किसान की कुटिया की तुलना करते हुए कहते हैं कि महानगरों की तंग गलियां तो दया की पात्र हैं क्योंकि वहां सूरज की किरणों आदि की पहुंच नहीं किन्तु गावं में तो गिरी हुई दीवार वाले किसान के घर में चांद हालिक दम्पत्ति का नर्म सचिव बन बलभी पर उपस्थित हो जाता है-

दयार्हा सा वीथी यदुपरि न सूर्योऽपि दयते, 
जगत्प्राणो नाहो नहि नहि विधुर्नैव प्रकृतिः।
कुटीरः पर्णानां स तु पतितकुड्यो जयति यद्-
रहः साचिव्यं ही वहति वलभीस्थोऽमृतकरः।।

यहां चन्द्रमा के लिये प्रयुक्त अमृतकरः विशेषण कितना उपयुक्त प्रतीत होता है, यही तो कवि की वक्रोक्ति है। काव्य में कहीं पीले सरसों के खेत लहलहाते दिखते हैं तो कहीं गेहूं की फसल देवताओं के रूप में चित्रित है। कहीं किसान के द्वारा जिह्वा के जडता विकार को दूर करने के लिये प्रयुक्त इमली की चटनी, गुड आदि का वर्णन प्राप्त होता है तो कहीं किसान द्वारा बताशे के टुकडे से ही जिह्वा को सरस करने का वर्णन कवि ने किया है, क्योंकि किसान के लिये तो सभी रस समान हैं-

स्मं त्वं त्यक्त्वा तत्त्वधिपुरि बताशैकशकलं 
रसज्ञां दत्त्वाऽज्ञां सरसयसि साधो! समरसः।।

प्रस्तुत काव्य में किसानों की दुर्दशा का वर्णन है तो  गांव की महिमा भी निबद्ध है। फसलों की महक लिये ये पद्य आपको सुवासित कर देंगे बशर्ते आपकी नासिका अभी तक महानगरीय कंकरीट की बू से आप्लावित नहीं हुई हो तो।

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