कृति - ग़ालिबकाव्यम्
मूल - मिर्जा असदुल्लाह खां ग़ालिब
अनुवादक - डॉ. जगन्नाथ पाठक
प्रकाशक - दाश पब्लिशर्स, इलाहाबाद
संस्करण - प्रथम, 2003
पृष्ठ संख्या- 637
अंकित मूल्य - 630
अर्वाचीन संस्कृत साहित्य को पल्लवित - पुष्पित करने में आर्यासम्राट् डॉ. जगन्नाथ पाठक का अपना विशेष स्थान है। इन्होंने कापिशायनी, मृद्विका, पिपासा, विच्छित्तिवातायनी, आर्यासहस्ररामम्, जगन्नाथसुभाषितम्, आदि अनेक रचनाओं का सृजन कर संस्कृत साहित्य को समृद्ध बनाया है। जगन्नाथ पाठक को न केवल संस्कृत भाषा पर अपितु हिन्दी, उर्दू, फारसी, प्राकृत आदि भाषाओं पर भी पूर्ण अधिकार प्राप्त है। उनकी रचनाएं यह प्रमाणित करती हैं कि भारतीय संस्कृति की प्राणभूता संस्कृत भाषा में युगोपरान्त भी वही ग्रहण क्षमता है जो शाश्वत जीवन मूल्यों को अपनी ऊर्जा प्रदान कर रही है।
ग़ालिबकाव्यम् डॉ. जगन्नाथ पाठक का प्रथम प्रकाशित अनूदित काव्य है। इसमें उर्दू साहित्य के महाकवि मिर्जा असदुल्लाह खां ग़ालिब के दीवाने ग़ालिब की 240 ग़ज़लों का संस्कृत में अनुवाद किया है। पुस्तक के प्रारम्भ में कवि ने 9 श्लोकों में ग़ालिबकाव्यम् की भूमिका प्रस्तुत की है-
पूछते हैं वह, कि ग़ालिब कौन है
कोई बतलाओ, कि हम बतलाये क्या
ग़ालिब-नामा कोऽसाविति पृच्छन्नास्ति हन्त सैष जनः।
अभिदध्यादिह कोऽपि स्वयमभिदध्याम किन्नु वयम्।।
किसी भी रचना का अन्य भाषा में अनुवाद बहुत ही कठिन कार्य है। स्वयं जगन्नाथ पाठक लिखते हैं - ग़ालिबकाव्यमिदं दीवानेग़ालिब इत्यस्य आर्याछन्दसि संस्कृतानुवादः। प्रतिपदं गम्भीरस्य काव्यस्यास्य कस्याञिचदन्यस्यां भाषायामनुवादः। सोऽपि पद्यानुवादः। कश्चन दुष्करः प्रयासः।
यहां ध्यातव्य है कि ग़ालिब की ग़ज़लों का यह अनुवाद आर्या छन्द में निबद्ध है। डॉ. जगन्नाथ पाठक उर्दू की ग़ज़ल को संस्कृत के छन्दों विशेषकर आर्या छन्द में उतारने की कला के पारखी हैं, अतः इन्हें आर्या सम्राट् की उपाधि से भी अलंकृत किया गया है।
ग़ालिब की ग़ज़लों के अनुवाद का एक उदाहरण स्थालीपुलाकन्याय से उद्धृत है-
नक्श फरियादी है, किसकी शोखि-ए-तहरीर का
कागजी है पैरहन, हर पैकर ए तस्वीर का
काव-ए-काव ए सख्त जानिहा ए तन्हाई, न पूँछ
सुबह करना शाम का, लाना है जू-ए-शीर का
जज्ब:-ए-बे इख़्तियार-ए-शौक देखा चाहिये
सीन:-ए-शमशीर से बाहर है, दम शमशीर का
आगही दाम-ए-शानिदान, जिस कदर चाहे, बिछाये
मुद्द'आ अंका है, अपने आलम ए तक़रीर का
बसकि हूँ, गालिब, असीरी में भी आतश जेर-ए-पा
मू-ए-आतश दीद:, है हल्क: मिरी जंजीर का
संस्कृतानुवाद-
कार्यार्थि कस्य तावद् रचना सौन्दर्यचिह्नमेतदहो।
कार्गदपरिधानधरा सर्वा चित्राकृतिर्भाति।।
मा पृच्छ कष्टमस्मानेकान्ते यापनस्य कठिनस्य।
सन्ध्याप्रभातकरणं दुग्धस्रोतः सभानयनम्।।
प्रबलमस्याकलनं हृदयावेगस्य कार्यमेतर्हि।
खड्गस्य वक्षसो ननु बहिर्गता खड्गधारा हि।।
प्रतिभानं श्रवणाख्यं विधिना केनापि जालमातनुयात्।
तात्पर्यं काल्पनिको रचनाजगतः खगः स्वस्य।।
कारागतस्य वह्निर्ज्वलति ममाङिघ्रद्वयस्य तलदेशे।
ग़ालिबं केशो ज्वलितो मम बन्धनशृंखला तावत्।।
संस्कृत पद्यानुवाद में कवि ने ग़ालिब के भावों को हूबहू उतारा है। प्रत्येक ग़ज़ल के अनुवाद के नीचे अनुवादक ने कठिन शब्दों के अर्थ पाद टिप्पणी में दिये हैं, जिससे उर्दू न जानने वाला पाठक भी ग़ज़लों का आनन्द ले सके। देवर्षि कलानाथ शास्त्री के अनुसार - ‘‘पाठक जी एक अभ्युक्ति में तो नहीं समेटे जा सकते किन्तु वे संस्कृत जगत् में बांग्ला की भाव प्रवण संवेदना-तरल प्रसन्न शैली और उर्दू के अंदाजे बयां (भणिति-भंगी) का प्रतिनिधित्व करते हैं। अतः उन्हें संस्कृत का ग़ालिब या रवीन्द्रनाथ कहा जा सकता है। पिपासा की गजलों में उर्दू का भावबोध और अन्दाजे बयां पाठक जी के पाठकों को गुदगुदाता रहता था, अब तो उन्होंने ग़ालिब के भाव को आर्याओं के चषकों में उतारकर पूरा मयखाना ही खोल दिया है।’’ डॉ. जगन्नाथ पाठक द्वारा किया गया एक और अनुवाद द्रष्टव्य है-
कहते हो न देंगे हम दिल अगर पड़ा पाया
दिल कहाँ कि गुम कीजे हम ने मुद्दआ' पाया
इश्क़ से तबीअ'त ने ज़ीस्त का मज़ा पाया
दर्द की दवा पाई दर्द-ए-बे-दवा पाया
दोस्त-दार-ए-दुश्मन है ए'तिमाद-ए-दिल मा'लूम
आह बे-असर देखी नाला ना-रसा पाया
सादगी ओ पुरकारी बे-ख़ुदी ओ हुश्यारी
हुस्न को तग़ाफ़ुल में जुरअत-आज़मा पाया
ग़ुंचा फिर लगा खिलने आज हम ने अपना दिल
ख़ूँ किया हुआ देखा गुम किया हुआ पाया
हाल-ए-दिल नहीं मा'लूम लेकिन इस क़दर या'नी
हम ने बार-हा ढूँडा तुम ने बार-हा पाया
शोर-ए-पंद-ए-नासेह ने ज़ख़्म पर नमक छिड़का
आप से कोई पूछे तुम ने क्या मज़ा पाया
संस्कृतानुवाद-
हृदयं यदि चेल्लब्धं क्वचन न दास्यामि तदिति यद् वदसि।
यदपह्रियेत हृत् क्व त्वदभिमतं तन्मयाऽवगतम्।।
प्राणैराप्तः कोऽपि प्रणयादिह हन्त जीवनानन्दः।
पीडौषधमुपलब्धं पीडा लब्धा त्वसाध्यैषा।।
हृदयं शत्रोर्मित्रं कथमिव कुर्यां नु तत्र विश्वासम्।
प्राप्तुमसक्तो रहितः प्रभावतश्चार्तनादो मे।।
आर्जवमथ चातुर्यं तथाऽऽत्मविस्मृतिरथाप्रमादश्च।
सौन्दर्यमध्युपेक्षं साहससंवर्धकं लब्धम्।।
कलिका पुनः स्फुटन्ती वर्तत एषा, मया निजं हृदयम्।
आहतमासीद् यदितो दृष्टं भ्रष्टञ्च तत्प्राप्तम्।।
नाहं हृदयस्थितिमिह जाने बत किञ्चिदेतदिव जाने।
भूयो मया गवेषितमवाप्तमेतत् त्वया भूयः।।
उपदेशरणरणकतो व्रणे विकीर्णं ममेह लवणमिव।
कोऽपि भवन्तं पृच्छेद् भवता लब्धः किमानन्दः।।
बच्चूलाल अवस्थी ग़ालिबकाव्यम् के विषय में लिखते हैं कि कवि पाठक ने पहले ग़ालिब के काव्य को पढा। वैखरी की उस अभिव्यक्ति की भावना में उतारा। वहां से उसे अपनी मेधा में ले गये कि वागर्थ की प्रतिपत्ति के समीप पहुंच सके और प्रतिभा के उन्मेष के साथ जो तन्मयता मिली, वह सहृदय रसिक की तन्मयता है जो उसे कविता के मूल तक पहुंचा देती है और वह तल्लीन होकर जो अद्वैत संवेदना प्राप्त करता है, वहां वह कवि के साथ अभेद प्राप्त करता है। यही चमत्कार है, यही संविद् विश्रान्ति है।
-डॉ. सुदेश आहुजा
सम्पर्कसूत्र- 9413404463
मूल - मिर्जा असदुल्लाह खां ग़ालिब
अनुवादक - डॉ. जगन्नाथ पाठक
प्रकाशक - दाश पब्लिशर्स, इलाहाबाद
संस्करण - प्रथम, 2003
पृष्ठ संख्या- 637
अंकित मूल्य - 630
अर्वाचीन संस्कृत साहित्य को पल्लवित - पुष्पित करने में आर्यासम्राट् डॉ. जगन्नाथ पाठक का अपना विशेष स्थान है। इन्होंने कापिशायनी, मृद्विका, पिपासा, विच्छित्तिवातायनी, आर्यासहस्ररामम्, जगन्नाथसुभाषितम्, आदि अनेक रचनाओं का सृजन कर संस्कृत साहित्य को समृद्ध बनाया है। जगन्नाथ पाठक को न केवल संस्कृत भाषा पर अपितु हिन्दी, उर्दू, फारसी, प्राकृत आदि भाषाओं पर भी पूर्ण अधिकार प्राप्त है। उनकी रचनाएं यह प्रमाणित करती हैं कि भारतीय संस्कृति की प्राणभूता संस्कृत भाषा में युगोपरान्त भी वही ग्रहण क्षमता है जो शाश्वत जीवन मूल्यों को अपनी ऊर्जा प्रदान कर रही है।
ग़ालिबकाव्यम् डॉ. जगन्नाथ पाठक का प्रथम प्रकाशित अनूदित काव्य है। इसमें उर्दू साहित्य के महाकवि मिर्जा असदुल्लाह खां ग़ालिब के दीवाने ग़ालिब की 240 ग़ज़लों का संस्कृत में अनुवाद किया है। पुस्तक के प्रारम्भ में कवि ने 9 श्लोकों में ग़ालिबकाव्यम् की भूमिका प्रस्तुत की है-
पूछते हैं वह, कि ग़ालिब कौन है
कोई बतलाओ, कि हम बतलाये क्या
ग़ालिब-नामा कोऽसाविति पृच्छन्नास्ति हन्त सैष जनः।
अभिदध्यादिह कोऽपि स्वयमभिदध्याम किन्नु वयम्।।
किसी भी रचना का अन्य भाषा में अनुवाद बहुत ही कठिन कार्य है। स्वयं जगन्नाथ पाठक लिखते हैं - ग़ालिबकाव्यमिदं दीवानेग़ालिब इत्यस्य आर्याछन्दसि संस्कृतानुवादः। प्रतिपदं गम्भीरस्य काव्यस्यास्य कस्याञिचदन्यस्यां भाषायामनुवादः। सोऽपि पद्यानुवादः। कश्चन दुष्करः प्रयासः।
यहां ध्यातव्य है कि ग़ालिब की ग़ज़लों का यह अनुवाद आर्या छन्द में निबद्ध है। डॉ. जगन्नाथ पाठक उर्दू की ग़ज़ल को संस्कृत के छन्दों विशेषकर आर्या छन्द में उतारने की कला के पारखी हैं, अतः इन्हें आर्या सम्राट् की उपाधि से भी अलंकृत किया गया है।
ग़ालिब की ग़ज़लों के अनुवाद का एक उदाहरण स्थालीपुलाकन्याय से उद्धृत है-
नक्श फरियादी है, किसकी शोखि-ए-तहरीर का
कागजी है पैरहन, हर पैकर ए तस्वीर का
काव-ए-काव ए सख्त जानिहा ए तन्हाई, न पूँछ
सुबह करना शाम का, लाना है जू-ए-शीर का
जज्ब:-ए-बे इख़्तियार-ए-शौक देखा चाहिये
सीन:-ए-शमशीर से बाहर है, दम शमशीर का
आगही दाम-ए-शानिदान, जिस कदर चाहे, बिछाये
मुद्द'आ अंका है, अपने आलम ए तक़रीर का
बसकि हूँ, गालिब, असीरी में भी आतश जेर-ए-पा
मू-ए-आतश दीद:, है हल्क: मिरी जंजीर का
संस्कृतानुवाद-
कार्यार्थि कस्य तावद् रचना सौन्दर्यचिह्नमेतदहो।
कार्गदपरिधानधरा सर्वा चित्राकृतिर्भाति।।
मा पृच्छ कष्टमस्मानेकान्ते यापनस्य कठिनस्य।
सन्ध्याप्रभातकरणं दुग्धस्रोतः सभानयनम्।।
प्रबलमस्याकलनं हृदयावेगस्य कार्यमेतर्हि।
खड्गस्य वक्षसो ननु बहिर्गता खड्गधारा हि।।
प्रतिभानं श्रवणाख्यं विधिना केनापि जालमातनुयात्।
तात्पर्यं काल्पनिको रचनाजगतः खगः स्वस्य।।
कारागतस्य वह्निर्ज्वलति ममाङिघ्रद्वयस्य तलदेशे।
ग़ालिबं केशो ज्वलितो मम बन्धनशृंखला तावत्।।
संस्कृत पद्यानुवाद में कवि ने ग़ालिब के भावों को हूबहू उतारा है। प्रत्येक ग़ज़ल के अनुवाद के नीचे अनुवादक ने कठिन शब्दों के अर्थ पाद टिप्पणी में दिये हैं, जिससे उर्दू न जानने वाला पाठक भी ग़ज़लों का आनन्द ले सके। देवर्षि कलानाथ शास्त्री के अनुसार - ‘‘पाठक जी एक अभ्युक्ति में तो नहीं समेटे जा सकते किन्तु वे संस्कृत जगत् में बांग्ला की भाव प्रवण संवेदना-तरल प्रसन्न शैली और उर्दू के अंदाजे बयां (भणिति-भंगी) का प्रतिनिधित्व करते हैं। अतः उन्हें संस्कृत का ग़ालिब या रवीन्द्रनाथ कहा जा सकता है। पिपासा की गजलों में उर्दू का भावबोध और अन्दाजे बयां पाठक जी के पाठकों को गुदगुदाता रहता था, अब तो उन्होंने ग़ालिब के भाव को आर्याओं के चषकों में उतारकर पूरा मयखाना ही खोल दिया है।’’ डॉ. जगन्नाथ पाठक द्वारा किया गया एक और अनुवाद द्रष्टव्य है-
कहते हो न देंगे हम दिल अगर पड़ा पाया
दिल कहाँ कि गुम कीजे हम ने मुद्दआ' पाया
इश्क़ से तबीअ'त ने ज़ीस्त का मज़ा पाया
दर्द की दवा पाई दर्द-ए-बे-दवा पाया
दोस्त-दार-ए-दुश्मन है ए'तिमाद-ए-दिल मा'लूम
आह बे-असर देखी नाला ना-रसा पाया
सादगी ओ पुरकारी बे-ख़ुदी ओ हुश्यारी
हुस्न को तग़ाफ़ुल में जुरअत-आज़मा पाया
ग़ुंचा फिर लगा खिलने आज हम ने अपना दिल
ख़ूँ किया हुआ देखा गुम किया हुआ पाया
हाल-ए-दिल नहीं मा'लूम लेकिन इस क़दर या'नी
हम ने बार-हा ढूँडा तुम ने बार-हा पाया
शोर-ए-पंद-ए-नासेह ने ज़ख़्म पर नमक छिड़का
आप से कोई पूछे तुम ने क्या मज़ा पाया
संस्कृतानुवाद-
हृदयं यदि चेल्लब्धं क्वचन न दास्यामि तदिति यद् वदसि।
यदपह्रियेत हृत् क्व त्वदभिमतं तन्मयाऽवगतम्।।
प्राणैराप्तः कोऽपि प्रणयादिह हन्त जीवनानन्दः।
पीडौषधमुपलब्धं पीडा लब्धा त्वसाध्यैषा।।
हृदयं शत्रोर्मित्रं कथमिव कुर्यां नु तत्र विश्वासम्।
प्राप्तुमसक्तो रहितः प्रभावतश्चार्तनादो मे।।
आर्जवमथ चातुर्यं तथाऽऽत्मविस्मृतिरथाप्रमादश्च।
सौन्दर्यमध्युपेक्षं साहससंवर्धकं लब्धम्।।
कलिका पुनः स्फुटन्ती वर्तत एषा, मया निजं हृदयम्।
आहतमासीद् यदितो दृष्टं भ्रष्टञ्च तत्प्राप्तम्।।
नाहं हृदयस्थितिमिह जाने बत किञ्चिदेतदिव जाने।
भूयो मया गवेषितमवाप्तमेतत् त्वया भूयः।।
उपदेशरणरणकतो व्रणे विकीर्णं ममेह लवणमिव।
कोऽपि भवन्तं पृच्छेद् भवता लब्धः किमानन्दः।।
बच्चूलाल अवस्थी ग़ालिबकाव्यम् के विषय में लिखते हैं कि कवि पाठक ने पहले ग़ालिब के काव्य को पढा। वैखरी की उस अभिव्यक्ति की भावना में उतारा। वहां से उसे अपनी मेधा में ले गये कि वागर्थ की प्रतिपत्ति के समीप पहुंच सके और प्रतिभा के उन्मेष के साथ जो तन्मयता मिली, वह सहृदय रसिक की तन्मयता है जो उसे कविता के मूल तक पहुंचा देती है और वह तल्लीन होकर जो अद्वैत संवेदना प्राप्त करता है, वहां वह कवि के साथ अभेद प्राप्त करता है। यही चमत्कार है, यही संविद् विश्रान्ति है।
-डॉ. सुदेश आहुजा
सम्पर्कसूत्र- 9413404463
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