अर्वाचीनसंस्कृतम्-संस्कृत पत्रिका
प्रकाशनकालावधि - त्रैमासिक
प्रधानसम्पादक-डॉ. रमाकान्त शुक्ल
संयुक्तसम्पादक-डॉ. अभिनव शुक्ल
प्रकाशनस्थान- नयी दिल्ली
प्रकाशक-डॉ.रमाकान्त शुक्ल
प्रकाशक का पता-देववाणी परिषद् दिल्ली, आर्-6, वाणी विहार, नयी दिल्ली
प्रकाशक का सम्पर्क सूत्र- arvacheenam@gamil.com
मोबाइल नम्बर- 9560532392
शुल्क-100 रू. वार्षिक
अर्वाचीन संस्कृत के प्रचार-प्रसार में संस्कृत पत्र-पत्रिकाओं का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। संस्कृत पत्र-पत्रिकाओं के इस योगदान को रेखांकित करते हुए डॉ. बलदेवानन्द सागर तथा डॉ. लालाशंकर गयावाल ने महत्त्वपूर्ण शोधकार्य किये हैं। आज भी अर्वाचीन संस्कृत के क्षेत्र में होने वाले शोधकार्यों में शोधार्थी इन पत्र-पत्रिकाओं से बहुत सहायता प्राप्त करते हैं। ये पत्र-पत्रिकाएं एक तरह से अर्वाचीन संस्कृत साहित्य के इतिहास के दस्तावेज हैं। दैनिक समाचारपत्रों से लेकर वार्षिक पत्रिकाओं तक संस्कृत पत्र-पत्रिकाओं की सुदीर्घ सूची है।
अर्वाचीनसंस्कृतम् एक ऐसी ही पत्रिका है जो प्रकाशित सामग्री के कारण अपना अन्यतम स्थान रखती है। देववाणी परिषद्, दिल्ली से इसका प्रकाशन निर्बाध रूप से हो रहा है। प्रधानसम्पादक डॉ. रमाकान्त शुक्ल के अथक प्रयासों से यह पत्रिका 42 वर्षों से प्रकाशित हो रही है। इसके अभी तक 167 अंक प्रकाशित हो चुके हैं। हाल ही में इसका 164 से 167 का संयुक्तांक आया है, जो जनवरी 2020 से अक्टूबर 2020 की अवधि का है। इस प्रकार इस पत्रिका के अंक निर्धारित कालावधि के पूर्व ही प्रकाशित हो जाते हैं। इस संयुक्तांक में 500 पृष्ठ हैं। यह पत्रिका न केवल काव्यों से समृद्ध होती है अपितु इसमें उत्कृष्ट शोधपत्र, नवप्रकाशनर्चा, संस्कृतजगद्वार्ता, देववाणी-परिषद्वार्ता आदि स्तम्भ भी समाविष्ट होते हैं। अर्वाचीनसंस्कृतम् पत्रिका में कई महत्त्वपूर्ण संस्कृत काव्य एवं ग्रन्थ भी प्रकाशित हुए हैं, जैसे- डॉ. रमाकान्त शुक्ल कृत भाति मे भारतम्, डॉ. राधावल्लभ त्रिपाठी कृत समष्टिः, आचार्य शिवदत्त शर्मा कृत आर्यार्णवः, डॉ. अभिनव शुक्ल लिखित श्रीधरभास्करवर्णेकरकृत श्रीशिवराज्योदयम् महाकाव्य का साहित्यशास्त्रीय अध्ययन आदि।
प्राच्यविद्याशताब्दीयम् -
वर्तमान अंक में डॉ. रमाकान्त शुक्ल रचित प्राच्यविद्याशताब्दीयम् नामक ग्रन्थ 260 पृष्ठों में संकलित है। इसके चार खण्ड हैं- प्राच्यविद्याधिवेशनम्, प्राच्यविद्याशताब्दीयं नागपूराधिवेशनम्, अध्यक्षीयभाषणानि, अ.भा.प्राच्यविद्यासम्मेलनस्य पञ्चाशत्तमेऽधिवेशने पठितो लेखः। प्रथम खण्ड में 475 श्लोक हैं, साथ ही प्राच्यविद्याधिवेशन के पुराने चित्रों के माध्यम से इसे रोचक बनाया गया है। द्वितीय खण्ड में 268 श्लोक हैं और साथ में नागपुर में हुए प्राच्यविद्याधिवेशन से सम्बद्ध चित्र भी योजित किये हुए हैं। तृतीय व चतुर्थ खण्ड में डॉ. रमाकान्त शुक्ल द्वारा प्राच्यविद्याधिवेशन के अवसरों पर दिये गये भाषण व लेख हैं, जो अपने - आप में अर्वाचीन संस्कृत साहित्य का पूरा लेखा-जोखा हैं। ये लेख शोध करने वालों के नितान्त उपादेय हैं।
कोराना-रचनावलिः -
संस्कृत समाज में सर्वादृत एवं समादृत यह पत्रिका विशेष रूप से समसामयिक रचनाओं के प्रकाशन के लिये जानी जाती है। कारगिलयुद्ध हो कि निर्भयाकाण्ड, जो भी घटनाक्रम हमारे मानव समाज को प्रभावित करता है, उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप जो काव्य प्रस्फुटित होता है, वह प्रथमतया अर्वाचीनसंस्कृतम् पत्रिका में ही अवकाश पाता है। वर्तमान में कोराना नामक वायरस के चलते सम्पूर्ण विश्व पीडित है। संस्कृत रचनाकार भी इससे कैसे अछूता रह सकता है। उसने कोराना पर भी काव्य रचे, उन्हीं को संकलित करके इस अंक में प्रकाशित किया गया है। प्रायः 182 पृष्ठों में कोराना पर आधारित काव्यों को कोराना-रचनावलिः के नाम से प्रकाशित किया गया है। इसमें 27 कवियों की रचनाएं संकलित हैं। इस रचनावलि के आरम्भ में अभिराज राजेन्द्र मिश्र रचित कोरानाशतकम् प्रस्तुत है। जिसमें वे सीधे चीन देश को इसका जिम्मेवार ठहराते हुए वहां की खानपान की शैली पर आपत्ति दर्ज करते हैं-
अपक्वः खलु यो मांसः पिशितं हि तदुच्यते।
अश्नन्ति पिशितं ये वै पिशाचाश्चैव ते मताः।।
चीना दृष्ट्या तया नूनं पिशाचा एव मानिताः।
यतः कृशानुकल्पास्ते दृश्यन्ते सर्वभक्षिणः।।
डॉ. माधव देशपाण्डे कृत कोरोना-विडम्बन-शतकम् अंग्रेजी अनुवाद के साथ दिया गया है। हास्य-व्यंग्य पूण विडम्बन शैली में यह लिखा गया है-
न पाणिग्रहणं कुर्यां यावत्स्पर्शभयं मम।
इत्युक्त्वा निर्गतः कोऽपि मण्डपात् सत्वरं वरः।।
Saying “I will not take your hand as long as I am scared of touch,” the groom quickly eñited the wedding hall.
डॉ. निरंजन मिश्र कृत जय जय चीनसुते, डॉ. अरविन्द तिवारी रचित कोरोनादण्डकम्, डॉ. नवलता रचित कोरोनोन्मूलक्रतुः जैसी रचनाएं समसामयिकता के साथ कोरानाकाल के मानव समाज पर पडे प्रभाव को व्यक्त करती हैं। डॉ. रामविनय सिंह तो कोराना पर एक गजल ही रच देते हैं-
परीक्षा जीवनस्यैषाऽवलोक्या।
युगान्धैर्वादिता वाद्याऽवलोक्या।।
स्वगेहे देवता अपि निस्सहायाः,
करोना पिशाची प्रबलाऽवलोक्या।।
डॉ. रमाकान्त शुक्ल की आशावाहिनी दृष्टि इस काव्य में दृष्टिगोचर होती है जो हम सब को इस काल में आश्वस्त करती है-
भूमिभारो यदाधिक्यभावं व्रजेत्
स्यात्प्रकृत्याः प्रकोपः प्रवृद्धस्तदा।
भूमिमातुः सपर्यां कुरुध्वं समे
शान्तिमायास्यतीयं करोणा ध्रुवम्।।
प्रकाशनकालावधि - त्रैमासिक
प्रधानसम्पादक-डॉ. रमाकान्त शुक्ल
संयुक्तसम्पादक-डॉ. अभिनव शुक्ल
प्रकाशनस्थान- नयी दिल्ली
प्रकाशक-डॉ.रमाकान्त शुक्ल
प्रकाशक का पता-देववाणी परिषद् दिल्ली, आर्-6, वाणी विहार, नयी दिल्ली
प्रकाशक का सम्पर्क सूत्र- arvacheenam@gamil.com
मोबाइल नम्बर- 9560532392
शुल्क-100 रू. वार्षिक
अर्वाचीन संस्कृत के प्रचार-प्रसार में संस्कृत पत्र-पत्रिकाओं का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। संस्कृत पत्र-पत्रिकाओं के इस योगदान को रेखांकित करते हुए डॉ. बलदेवानन्द सागर तथा डॉ. लालाशंकर गयावाल ने महत्त्वपूर्ण शोधकार्य किये हैं। आज भी अर्वाचीन संस्कृत के क्षेत्र में होने वाले शोधकार्यों में शोधार्थी इन पत्र-पत्रिकाओं से बहुत सहायता प्राप्त करते हैं। ये पत्र-पत्रिकाएं एक तरह से अर्वाचीन संस्कृत साहित्य के इतिहास के दस्तावेज हैं। दैनिक समाचारपत्रों से लेकर वार्षिक पत्रिकाओं तक संस्कृत पत्र-पत्रिकाओं की सुदीर्घ सूची है।
अर्वाचीनसंस्कृतम् एक ऐसी ही पत्रिका है जो प्रकाशित सामग्री के कारण अपना अन्यतम स्थान रखती है। देववाणी परिषद्, दिल्ली से इसका प्रकाशन निर्बाध रूप से हो रहा है। प्रधानसम्पादक डॉ. रमाकान्त शुक्ल के अथक प्रयासों से यह पत्रिका 42 वर्षों से प्रकाशित हो रही है। इसके अभी तक 167 अंक प्रकाशित हो चुके हैं। हाल ही में इसका 164 से 167 का संयुक्तांक आया है, जो जनवरी 2020 से अक्टूबर 2020 की अवधि का है। इस प्रकार इस पत्रिका के अंक निर्धारित कालावधि के पूर्व ही प्रकाशित हो जाते हैं। इस संयुक्तांक में 500 पृष्ठ हैं। यह पत्रिका न केवल काव्यों से समृद्ध होती है अपितु इसमें उत्कृष्ट शोधपत्र, नवप्रकाशनर्चा, संस्कृतजगद्वार्ता, देववाणी-परिषद्वार्ता आदि स्तम्भ भी समाविष्ट होते हैं। अर्वाचीनसंस्कृतम् पत्रिका में कई महत्त्वपूर्ण संस्कृत काव्य एवं ग्रन्थ भी प्रकाशित हुए हैं, जैसे- डॉ. रमाकान्त शुक्ल कृत भाति मे भारतम्, डॉ. राधावल्लभ त्रिपाठी कृत समष्टिः, आचार्य शिवदत्त शर्मा कृत आर्यार्णवः, डॉ. अभिनव शुक्ल लिखित श्रीधरभास्करवर्णेकरकृत श्रीशिवराज्योदयम् महाकाव्य का साहित्यशास्त्रीय अध्ययन आदि।
प्राच्यविद्याशताब्दीयम् -
वर्तमान अंक में डॉ. रमाकान्त शुक्ल रचित प्राच्यविद्याशताब्दीयम् नामक ग्रन्थ 260 पृष्ठों में संकलित है। इसके चार खण्ड हैं- प्राच्यविद्याधिवेशनम्, प्राच्यविद्याशताब्दीयं नागपूराधिवेशनम्, अध्यक्षीयभाषणानि, अ.भा.प्राच्यविद्यासम्मेलनस्य पञ्चाशत्तमेऽधिवेशने पठितो लेखः। प्रथम खण्ड में 475 श्लोक हैं, साथ ही प्राच्यविद्याधिवेशन के पुराने चित्रों के माध्यम से इसे रोचक बनाया गया है। द्वितीय खण्ड में 268 श्लोक हैं और साथ में नागपुर में हुए प्राच्यविद्याधिवेशन से सम्बद्ध चित्र भी योजित किये हुए हैं। तृतीय व चतुर्थ खण्ड में डॉ. रमाकान्त शुक्ल द्वारा प्राच्यविद्याधिवेशन के अवसरों पर दिये गये भाषण व लेख हैं, जो अपने - आप में अर्वाचीन संस्कृत साहित्य का पूरा लेखा-जोखा हैं। ये लेख शोध करने वालों के नितान्त उपादेय हैं।
कोराना-रचनावलिः -
संस्कृत समाज में सर्वादृत एवं समादृत यह पत्रिका विशेष रूप से समसामयिक रचनाओं के प्रकाशन के लिये जानी जाती है। कारगिलयुद्ध हो कि निर्भयाकाण्ड, जो भी घटनाक्रम हमारे मानव समाज को प्रभावित करता है, उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप जो काव्य प्रस्फुटित होता है, वह प्रथमतया अर्वाचीनसंस्कृतम् पत्रिका में ही अवकाश पाता है। वर्तमान में कोराना नामक वायरस के चलते सम्पूर्ण विश्व पीडित है। संस्कृत रचनाकार भी इससे कैसे अछूता रह सकता है। उसने कोराना पर भी काव्य रचे, उन्हीं को संकलित करके इस अंक में प्रकाशित किया गया है। प्रायः 182 पृष्ठों में कोराना पर आधारित काव्यों को कोराना-रचनावलिः के नाम से प्रकाशित किया गया है। इसमें 27 कवियों की रचनाएं संकलित हैं। इस रचनावलि के आरम्भ में अभिराज राजेन्द्र मिश्र रचित कोरानाशतकम् प्रस्तुत है। जिसमें वे सीधे चीन देश को इसका जिम्मेवार ठहराते हुए वहां की खानपान की शैली पर आपत्ति दर्ज करते हैं-
अपक्वः खलु यो मांसः पिशितं हि तदुच्यते।
अश्नन्ति पिशितं ये वै पिशाचाश्चैव ते मताः।।
चीना दृष्ट्या तया नूनं पिशाचा एव मानिताः।
यतः कृशानुकल्पास्ते दृश्यन्ते सर्वभक्षिणः।।
डॉ. माधव देशपाण्डे कृत कोरोना-विडम्बन-शतकम् अंग्रेजी अनुवाद के साथ दिया गया है। हास्य-व्यंग्य पूण विडम्बन शैली में यह लिखा गया है-
न पाणिग्रहणं कुर्यां यावत्स्पर्शभयं मम।
इत्युक्त्वा निर्गतः कोऽपि मण्डपात् सत्वरं वरः।।
Saying “I will not take your hand as long as I am scared of touch,” the groom quickly eñited the wedding hall.
डॉ. निरंजन मिश्र कृत जय जय चीनसुते, डॉ. अरविन्द तिवारी रचित कोरोनादण्डकम्, डॉ. नवलता रचित कोरोनोन्मूलक्रतुः जैसी रचनाएं समसामयिकता के साथ कोरानाकाल के मानव समाज पर पडे प्रभाव को व्यक्त करती हैं। डॉ. रामविनय सिंह तो कोराना पर एक गजल ही रच देते हैं-
परीक्षा जीवनस्यैषाऽवलोक्या।
युगान्धैर्वादिता वाद्याऽवलोक्या।।
स्वगेहे देवता अपि निस्सहायाः,
करोना पिशाची प्रबलाऽवलोक्या।।
डॉ. रमाकान्त शुक्ल की आशावाहिनी दृष्टि इस काव्य में दृष्टिगोचर होती है जो हम सब को इस काल में आश्वस्त करती है-
भूमिभारो यदाधिक्यभावं व्रजेत्
स्यात्प्रकृत्याः प्रकोपः प्रवृद्धस्तदा।
भूमिमातुः सपर्यां कुरुध्वं समे
शान्तिमायास्यतीयं करोणा ध्रुवम्।।
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