कृति- पूर्वशाकुन्तलम्
लेखक - डॉ. हरिराम आचार्य
विधा - रेडियो नाटक
प्रकाशक - हंसा प्रकाशन, जयपुर
संस्करण -प्रथम, 2002
पृष्ठ संख्या - 100
अंकित मूल्य - 100 रू.
आधुनिक संस्कृत नाट्य साहित्य का फलक इतना विस्तृत है कि उस पर नैक विधाओं रूपी चित्रों को उकेरा गया है। 19 वीं सदी के आरम्भ में पारसी थियेटर का प्रभाव, सूचना-क्षेत्र में क्रान्ति, विश्व साहित्य का सम्पर्क आदि कई कारणों के चलते संस्कृत नाट्य साहित्य में कई नवीन विधाओं ने प्रवेश किया, यथा- नुक्कड-नाटक, गीतिनाट्य, नृत्यनाटिका, संवादमाला, रेडियो रूपक आदि। अब नाट्य रंगमंच की परिधि में खेले जाने वाला खेल मात्र नहीं रह गया है अपितु यह अपनी सीमाओं को त्यागकर सर्वथा मुक्ताकाश में विचरण कर रहा है।
संचार माध्यमों के क्षेत्र में जब रेडियो का आविष्कार हुआ तो नाट्यकारों को अपने नाट्यों की प्रस्तुति के लिये एक नया मंच मिल गया। इस प्रकार रूपक साहित्य में युगानुरूप रेडियो रूपक नामक विधा का अवतार सम्भव हो पाया। रेडियो रूपको के कारण नाट्य दृश्य से श्रव्य कि ओर उन्मुख हुआ क्योंकि रेडियो पर संवादों के श्रवण मात्र से नाटक की प्रस्तुति दी जाती है। इस प्रकार इस विधा में संवादों का अत्यन्त महत्त्व है। नाट्य की इस विधा में वाचिक अभिनय पर बल दिया जाता है। प्राचीन आचार्यों ने रूपकों के लिये वस्तु, नेता और रस नामक तीन तत्त्व बतलाये हैं, उन्हीं में ध्वनि नामक एक और तत्त्व रेडियो रूपकों के लिये जोड दिया जाता है। आकाशवाणी से प्रसारित होने वाले इन ध्वनि प्रधान संवादात्मक रूपकों को रेडियो रूपक, ध्वनिनाटक, ध्वनिरूपक, नभोवाणी नाट्य, श्रव्यनाटक आदि भी कहा जाता है। संस्कृत नाट्यकारों ने अन्य भारतीय भाषाओं में प्रचलित इस विधा से प्रेरणा प्राप्त कर संस्कृत में कई रेडियो रूपकों की रचना की तो अभिराज राजेन्द्र मिश्र, रहस बिहारी द्विवेदी जैसे अर्वाचीन काव्यशास्त्रियों ने इसके लक्षण भी प्रस्तुत किये। संस्कृत में मौलिक और अनूदित दोनों ही प्रकार के रेडियो रूपक उपलब्ध हैं।
पूर्वशाकुन्तलम् - डॉ. हरिराम आचार्य जयपुर में निवास करते थे। आप संस्कृत, हिंदी, प्राकृत, उर्दू, राजस्थानी आदि भाषाओं के जानकार थे | गौरतलब है कि डॉ. हरिराम आचार्य ने फिल्मों के लिए भी गीत लिखे| गम-ए-दिल किस से कहूं, कोई भी गमख्वार नहीं' जो मुकेश ने गाया था, उसे सुनकर आलोचकों को हैरानी हुई। आपने 'भूल न जाना' (1971), मेहंदी रंग लाएगी (1981), बवंडर (2000) फिल्मों के लिए हिन्दी और उर्दू में गीत लिखे।
आपके द्वारा रचित अनेक संस्कृत काव्यों में मधुच्छन्दा, नचिकेतकाव्यम्, पूर्वशाकुन्तलम् प्रसि़द्ध रहे हैं। पूर्वशाकुन्तलम् सात एकांकियों का संकलन है, जो अपनी शैली के कारण रेडियो रूपक हैं। ये सब रेडियो रूपक मौलिक हैं, रूपान्तरित नहीं। नाट्यकार ने ये रूपक आकाशवाणी केन्द्र जयपुर से प्रसारण के लिये लिखे थे, बाद में इनका संकलन कर पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित करवाया गया। डॉ. हरिराम आचार्य ने ध्वनि-रूपक-विधा के आविष्कार और उसके लक्षणों पर भी विचार किया है। इन सात रेडियो रूपकों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-
1.पूर्वशाकुन्तलम् - यह महाभारत के शकुन्तला उपाख्यान पर आधारित है। कालिदास के अभिज्ञानशाकुन्तलम् के प्रथम अंक में अनसूया-दुष्यन्त संवाद के द्वारा शकुन्तला के जन्म का वृतान्त ज्ञात होता है, अतः इसका नामकरण पूर्वशाकुन्तलम् किया गया है। कुशिकवंशी राजर्षि विश्वामित्र और अप्सरा मेनका वृतान्त और शकुन्तला की उत्पत्ति और कण्व को शकुन्तला की प्राप्ति तक का कथानक इसमें वर्णित है। यहां मेनका का वात्सल्य प्रकट होता है-
मेनका- मा रोदीः वत्से (सपुच्चकारम्) अलं अलं क्रन्देन। त्वं मे हृदयम्, त्वं मे प्राणाः, त्वं में उत्संग-रत्नम्, त्वं सौभाग्यमणिः, त्वां प्रसूय अयं मम अपराधोऽपि पुण्यरूपेण परिणतः। वत्से। पुत्रिके। (वत्सा पुनः रोदिति) अले-ले-ले-पश्य, अयं मयूरः, अयं शुकः, इयं सारिका, अयं चित्रमृगः।
2.गंगालहरी - पण्डितराज जगन्नाथ एवं लवंगी से सम्बद्ध कथा को आधार बनाकर यह रूपक रचा गया है। दाराशुकोह के गुरु एवं संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान् पं. जगन्नाथ यवनी कन्या लवंगी के प्रेम में आसक्त होकर उससे विवाह करते हैं तो वे काशी के अप्पय दीक्षित प्रभृति विद्वानों के कोप के भाजन बनते हैं। पं. जगन्नाथ पर यवनी-संसर्ग-दूषित का आक्षेप लगाया जाता है। लवंगी के द्वारा आत्महत्या करना, पं. जगन्नाथ द्वारा गंगाजल में विसर्जन के लिये लवंगी के शरीर को ले जाना, धार्मिकों द्वारा रोकना, 52 सीढियों के ऊपर बैठकर गंगालहरी की रचना करना आदि वर्णित है। दाराशुकोह और पं. जगन्नाथ के वार्तालाप में नाट्यकार कहते हैं-
दाराशिकोह- यवनभाषासंसर्गेण दूषिताः मा भवेयुरिमे पवित्रा मन्त्राः।
जगन्नाथ- मंत्रस्तु स्यमेव पावनः भवति। अपि च, न काऽपि भाषा अस्पृश्या सदोषा त्याज्या वा। एतैः संकीर्णैः विचारैः मा करु कलुषितं स्वचित्तम्।
3.न हि भोजसमो नृपः - धारा नगरी के राजा का चरित न जाने कितनी किंवदन्तियों से भरा पडा है। राजा, कवि, पण्डितों के आश्रयदाता, सहृदय मित्र न जाने कितने रूपों में भोज हमारे सामने आते हैं। बल्लालसेन ने तो भोजप्रबन्ध ग्रन्थ में महाकवि कालिदास को भी उनकी सभा का रत्न बताया है।एक किंवदन्ती के अनुसार किसी बात के कारण कालिदास भोज के राज्य से निर्वासित होते हैं। फिर भिक्षुवेश वाले राजा भोज से कालिदास सुनते हैं कि भोज दिवंगत हो गये तो पुनः किस प्रकार उनका मिलन होता है, यह इसमें वर्णित किया गया है-
अद्य धारा निराधारा निरालम्बा सरस्वती।
पण्डिताः खण्डिताः सर्वे भोजराजे दिवंगते।।
वेश्या विलासवती व कालिदास के वार्तालाप के व्याज से नाट्यकार वेश्याओं के विषय में समाज को उद्घाटित करते हैं-
विलासवती - नैव नाथ! केवलम् एका क्षुद्रा गणिका अस्मि, रूप -यौवन-विक्रेत्री पण्यस्त्री.................
कालिदास-विलासवति! पाप-पंकिला दोषदूषिता हि तेषां दृष्टिः, ये खलु अपूर्वसौंदर्यविभूषितायाम् अपि त्वयि केवलं वारांगनां पश्यन्ति।
4 आषाढस्य प्रथम-दिवसे - पद्मपुराण में वर्णित हेममाली यक्ष व विशालाक्षी यक्षिणी की कथा तथा कालिदास रचित मेघदूत को आधार बनाकर इस रूपक की रचना की गई है। यहां यक्ष की दशा जानकर कुबेर उसे क्षमा कर देते हैं, पुष्पकविमान से यक्ष अलकापुरी आता है और यक्षिण से उसका पुनर्मिलन हो जाता है।
5. सत्यमेव जयते - रामायण के युद्धकाण्ड की कथा व रावणवध को इस रूपक में विशेषरूप से निबद्ध किया गया है।
6. वेताल-कथा- सोमदेव रचित कथासरित्सागर में वेतालकथा पद्यबद्ध दी गई है। उनमें 25 वीं कथा को आधार बनाकर यह रूपक रचा गया है।
7. नेत्रदानम्- इस एकांकी में शुभा नामक बौद्धभिक्षुणी की कथा वर्णित है, जिसके सौन्दर्य से आकर्षित होकर ब्रह्मपुर नरेश काममोहित हो जाता है। वह उसके सुन्दरनेत्रों की प्रशंसा करता है। उसकी सौन्दर्यपिपासा को शान्त करने के लिये शुभा अपने नेत्र निकालकर उसे दे देती है और मृत्यु को प्राप्त हो जाती है। उपगुप्त नामक भिक्षु पश्चात्ताप की अग्नि में जल रहे राजा को सान्त्वना देकर तथागत की शरण में जाने के लिये प्रेरित करता है।
लेखक - डॉ. हरिराम आचार्य
विधा - रेडियो नाटक
प्रकाशक - हंसा प्रकाशन, जयपुर
संस्करण -प्रथम, 2002
पृष्ठ संख्या - 100
अंकित मूल्य - 100 रू.
आधुनिक संस्कृत नाट्य साहित्य का फलक इतना विस्तृत है कि उस पर नैक विधाओं रूपी चित्रों को उकेरा गया है। 19 वीं सदी के आरम्भ में पारसी थियेटर का प्रभाव, सूचना-क्षेत्र में क्रान्ति, विश्व साहित्य का सम्पर्क आदि कई कारणों के चलते संस्कृत नाट्य साहित्य में कई नवीन विधाओं ने प्रवेश किया, यथा- नुक्कड-नाटक, गीतिनाट्य, नृत्यनाटिका, संवादमाला, रेडियो रूपक आदि। अब नाट्य रंगमंच की परिधि में खेले जाने वाला खेल मात्र नहीं रह गया है अपितु यह अपनी सीमाओं को त्यागकर सर्वथा मुक्ताकाश में विचरण कर रहा है।
संचार माध्यमों के क्षेत्र में जब रेडियो का आविष्कार हुआ तो नाट्यकारों को अपने नाट्यों की प्रस्तुति के लिये एक नया मंच मिल गया। इस प्रकार रूपक साहित्य में युगानुरूप रेडियो रूपक नामक विधा का अवतार सम्भव हो पाया। रेडियो रूपको के कारण नाट्य दृश्य से श्रव्य कि ओर उन्मुख हुआ क्योंकि रेडियो पर संवादों के श्रवण मात्र से नाटक की प्रस्तुति दी जाती है। इस प्रकार इस विधा में संवादों का अत्यन्त महत्त्व है। नाट्य की इस विधा में वाचिक अभिनय पर बल दिया जाता है। प्राचीन आचार्यों ने रूपकों के लिये वस्तु, नेता और रस नामक तीन तत्त्व बतलाये हैं, उन्हीं में ध्वनि नामक एक और तत्त्व रेडियो रूपकों के लिये जोड दिया जाता है। आकाशवाणी से प्रसारित होने वाले इन ध्वनि प्रधान संवादात्मक रूपकों को रेडियो रूपक, ध्वनिनाटक, ध्वनिरूपक, नभोवाणी नाट्य, श्रव्यनाटक आदि भी कहा जाता है। संस्कृत नाट्यकारों ने अन्य भारतीय भाषाओं में प्रचलित इस विधा से प्रेरणा प्राप्त कर संस्कृत में कई रेडियो रूपकों की रचना की तो अभिराज राजेन्द्र मिश्र, रहस बिहारी द्विवेदी जैसे अर्वाचीन काव्यशास्त्रियों ने इसके लक्षण भी प्रस्तुत किये। संस्कृत में मौलिक और अनूदित दोनों ही प्रकार के रेडियो रूपक उपलब्ध हैं।
पूर्वशाकुन्तलम् - डॉ. हरिराम आचार्य जयपुर में निवास करते थे। आप संस्कृत, हिंदी, प्राकृत, उर्दू, राजस्थानी आदि भाषाओं के जानकार थे | गौरतलब है कि डॉ. हरिराम आचार्य ने फिल्मों के लिए भी गीत लिखे| गम-ए-दिल किस से कहूं, कोई भी गमख्वार नहीं' जो मुकेश ने गाया था, उसे सुनकर आलोचकों को हैरानी हुई। आपने 'भूल न जाना' (1971), मेहंदी रंग लाएगी (1981), बवंडर (2000) फिल्मों के लिए हिन्दी और उर्दू में गीत लिखे।
आपके द्वारा रचित अनेक संस्कृत काव्यों में मधुच्छन्दा, नचिकेतकाव्यम्, पूर्वशाकुन्तलम् प्रसि़द्ध रहे हैं। पूर्वशाकुन्तलम् सात एकांकियों का संकलन है, जो अपनी शैली के कारण रेडियो रूपक हैं। ये सब रेडियो रूपक मौलिक हैं, रूपान्तरित नहीं। नाट्यकार ने ये रूपक आकाशवाणी केन्द्र जयपुर से प्रसारण के लिये लिखे थे, बाद में इनका संकलन कर पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित करवाया गया। डॉ. हरिराम आचार्य ने ध्वनि-रूपक-विधा के आविष्कार और उसके लक्षणों पर भी विचार किया है। इन सात रेडियो रूपकों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-
1.पूर्वशाकुन्तलम् - यह महाभारत के शकुन्तला उपाख्यान पर आधारित है। कालिदास के अभिज्ञानशाकुन्तलम् के प्रथम अंक में अनसूया-दुष्यन्त संवाद के द्वारा शकुन्तला के जन्म का वृतान्त ज्ञात होता है, अतः इसका नामकरण पूर्वशाकुन्तलम् किया गया है। कुशिकवंशी राजर्षि विश्वामित्र और अप्सरा मेनका वृतान्त और शकुन्तला की उत्पत्ति और कण्व को शकुन्तला की प्राप्ति तक का कथानक इसमें वर्णित है। यहां मेनका का वात्सल्य प्रकट होता है-
मेनका- मा रोदीः वत्से (सपुच्चकारम्) अलं अलं क्रन्देन। त्वं मे हृदयम्, त्वं मे प्राणाः, त्वं में उत्संग-रत्नम्, त्वं सौभाग्यमणिः, त्वां प्रसूय अयं मम अपराधोऽपि पुण्यरूपेण परिणतः। वत्से। पुत्रिके। (वत्सा पुनः रोदिति) अले-ले-ले-पश्य, अयं मयूरः, अयं शुकः, इयं सारिका, अयं चित्रमृगः।
2.गंगालहरी - पण्डितराज जगन्नाथ एवं लवंगी से सम्बद्ध कथा को आधार बनाकर यह रूपक रचा गया है। दाराशुकोह के गुरु एवं संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान् पं. जगन्नाथ यवनी कन्या लवंगी के प्रेम में आसक्त होकर उससे विवाह करते हैं तो वे काशी के अप्पय दीक्षित प्रभृति विद्वानों के कोप के भाजन बनते हैं। पं. जगन्नाथ पर यवनी-संसर्ग-दूषित का आक्षेप लगाया जाता है। लवंगी के द्वारा आत्महत्या करना, पं. जगन्नाथ द्वारा गंगाजल में विसर्जन के लिये लवंगी के शरीर को ले जाना, धार्मिकों द्वारा रोकना, 52 सीढियों के ऊपर बैठकर गंगालहरी की रचना करना आदि वर्णित है। दाराशुकोह और पं. जगन्नाथ के वार्तालाप में नाट्यकार कहते हैं-
दाराशिकोह- यवनभाषासंसर्गेण दूषिताः मा भवेयुरिमे पवित्रा मन्त्राः।
जगन्नाथ- मंत्रस्तु स्यमेव पावनः भवति। अपि च, न काऽपि भाषा अस्पृश्या सदोषा त्याज्या वा। एतैः संकीर्णैः विचारैः मा करु कलुषितं स्वचित्तम्।
3.न हि भोजसमो नृपः - धारा नगरी के राजा का चरित न जाने कितनी किंवदन्तियों से भरा पडा है। राजा, कवि, पण्डितों के आश्रयदाता, सहृदय मित्र न जाने कितने रूपों में भोज हमारे सामने आते हैं। बल्लालसेन ने तो भोजप्रबन्ध ग्रन्थ में महाकवि कालिदास को भी उनकी सभा का रत्न बताया है।एक किंवदन्ती के अनुसार किसी बात के कारण कालिदास भोज के राज्य से निर्वासित होते हैं। फिर भिक्षुवेश वाले राजा भोज से कालिदास सुनते हैं कि भोज दिवंगत हो गये तो पुनः किस प्रकार उनका मिलन होता है, यह इसमें वर्णित किया गया है-
अद्य धारा निराधारा निरालम्बा सरस्वती।
पण्डिताः खण्डिताः सर्वे भोजराजे दिवंगते।।
वेश्या विलासवती व कालिदास के वार्तालाप के व्याज से नाट्यकार वेश्याओं के विषय में समाज को उद्घाटित करते हैं-
विलासवती - नैव नाथ! केवलम् एका क्षुद्रा गणिका अस्मि, रूप -यौवन-विक्रेत्री पण्यस्त्री.................
कालिदास-विलासवति! पाप-पंकिला दोषदूषिता हि तेषां दृष्टिः, ये खलु अपूर्वसौंदर्यविभूषितायाम् अपि त्वयि केवलं वारांगनां पश्यन्ति।
4 आषाढस्य प्रथम-दिवसे - पद्मपुराण में वर्णित हेममाली यक्ष व विशालाक्षी यक्षिणी की कथा तथा कालिदास रचित मेघदूत को आधार बनाकर इस रूपक की रचना की गई है। यहां यक्ष की दशा जानकर कुबेर उसे क्षमा कर देते हैं, पुष्पकविमान से यक्ष अलकापुरी आता है और यक्षिण से उसका पुनर्मिलन हो जाता है।
5. सत्यमेव जयते - रामायण के युद्धकाण्ड की कथा व रावणवध को इस रूपक में विशेषरूप से निबद्ध किया गया है।
6. वेताल-कथा- सोमदेव रचित कथासरित्सागर में वेतालकथा पद्यबद्ध दी गई है। उनमें 25 वीं कथा को आधार बनाकर यह रूपक रचा गया है।
7. नेत्रदानम्- इस एकांकी में शुभा नामक बौद्धभिक्षुणी की कथा वर्णित है, जिसके सौन्दर्य से आकर्षित होकर ब्रह्मपुर नरेश काममोहित हो जाता है। वह उसके सुन्दरनेत्रों की प्रशंसा करता है। उसकी सौन्दर्यपिपासा को शान्त करने के लिये शुभा अपने नेत्र निकालकर उसे दे देती है और मृत्यु को प्राप्त हो जाती है। उपगुप्त नामक भिक्षु पश्चात्ताप की अग्नि में जल रहे राजा को सान्त्वना देकर तथागत की शरण में जाने के लिये प्रेरित करता है।
अद्भुत जानकारी।आपकी रत्नान्वेषी सद्प्रवृत्ति स्तुत्य
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Deleteअद्भुत प्रतिभा के धनी डॉ. हरिराम आचार्य 🙏
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