कृति - संस्कृत-व्यंग्यविलास:
विधा - हास्य-व्यंग्य काव्य
लेखक - प्रशस्य मित्र शास्त्री
प्रकाशक - अक्षयवट प्रकाशन, इलाहाबाद
संस्करण - प्रथम, 1989
अंकित मूल्य - 45 रु.
आज का आधुनिक कवि असभ्यता पर व्यंग्य करता है तो सभ्यता पर भी , शरारत पर व्यंग्य करता है तो शराफत पर भी, उसने बेईमानी को अपने व्यंग्य का निशाना बनाया है, तो तथाकथित ईमानदारी पर प्रहार करने से भी नहीं चूका है ; जनता को बेवकूफ बनाकर वोट लेने वाले और वोट पुनः लेकर मूर्ख बनाने वाले नेताओं पर व्यंग्यात्मक आक्रमण किया है, तो धोखे में आ जाने वाली जनता की बेवकूफियों को व्यंग्य का बिन्दु बनाया है। कोई भी विसंगति ऐसी नहीं है जिस पर उसने अपनी दृष्टि न डाली हो। यहाँ तक कि उसने व्यंग्य न करने पर भी व्यंग्य किया है--
" व्यंग्य मत बोलो
काटता है जूता तो क्या हुआ
पैर में न सही
सिर पर रख डालो
व्यंग्य मत बोलो"
साम्प्रतिक संस्कृत साहित्य में हास्य-व्यंग्यकार अंगुलिगण्य हैं, जिनमें डॉ० प्रशस्य मित्र शास्त्री का स्थान अद्वितीय है। हिन्दी भाषा की पत्र-पत्रिकाओं में हरिशंकर परसाई, रवीन्द्र त्यागी, डॉ० बरसाने लाल चतुर्वेदी प्रभृत कवियों के द्वारा लिखे गये मनोरंजक व्यंग्य लेखों से कवि व्यंग्य लेखन की ओर उन्मुख हुआ। बीसवीं सदी के आधुनिक कवि शास्त्री ने वर्तमान एवं तात्कालिक सामाजिक समस्याओं, व्यक्तिगत सन्दर्भों एवं पारम्परिक संवाद की मनोरंजक परिस्थितियों को आधार बनाकर 'गाण्डीवम्', 'पारिजातम्' और 'भारतोदय' आदि विविध संस्कृत पत्रिकाओं में नानाविध विषयों पर अवलम्बित अपने प्रकाशित हुए व्यंग्य निबन्धों का संकलन किया है इस "संस्कृत-व्यंग्यविलास:" कृति में।
इन व्यंग्य निबन्धों के लेखन में कवि ने किसी प्रकार की अतिशयोक्ति , अतिकल्पना का सायास प्रयास नहीं किया है। यथार्थभूत घटित होने वाले घटनाक्रमों के द्वारा जो स्वयं अनुभूत किया उसको इन निबन्धों में निबद्ध किया है।
ना sन्य: पन्था विद्यतेऽयनाय, अश्वस्य संस्कृतशिक्षक: पण्डित:, अभिनन्दनसमारोह:, ताम्बूलविक्रेतुर्नमस्कार:, मूल्यनिर्धारणम्, आधुनिकभारते तुलसीदासस्य पर्यटनम्, सेवासाक्षात्कार-रहस्यम्, अथ भार्यावशीकरणोपाया:, अथातोधर्मजिज्ञासा, भृत्युपुराणम्, मम मूर्तिमत् पौरुषम्, ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:, अयोग्यता, भ्रष्टाचारी, आरक्षणचक्रम्, गृहस्य संकेतज्ञानम् आदि इस काव्य में ३५ व्यंग्य निबन्ध हैं। जिनमें ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:, निमन्त्रणपत्रप्राप्तेरनन्तरम्, अभिनन्दनसमारोह:, अध्यक्षताया आनन्दानुभूति:, भार्यावशीकरणोपाया: आदि कवि के वैशिष्ट्यपूर्ण भावों की अभिव्यक्ति कराते हैं। ये निबन्ध कल्पना प्रसूत ,मनोरंजक और समाज की तात्कालिक घटनाओं को वास्तविक रूप से उकेर कर पाठकों, सहृदयजनों और अध्येताओं के मानस को बरबस अपनी ओर आकर्षित करते हैं।
प्रस्तुत काव्य में कुछ स्थल ऐसे हैं जिनकों पढ़कर आप हंसे बिना नहीं रह सकते हैं। ' अश्वस्य संस्कृतशिक्षक: पण्डित:' निबन्ध का कथानक बहुत ही आह्लादित करने वाला है। धर्मदेव एक निर्धन शिक्षक है उसका मित्र ज्ञानदेव उसे राजसभा में राजा के पास ले जाकर कहता है कि महाराज! यह निपुण विद्वान है जो दो साल में घोड़े को भी संस्कृत सीखा सकता है। राजा प्रसन्न होकर एक सुन्दर घोड़ा धर्मदेव को देता है और धर्मदेव के लिए सभी सुखोपभोग की व्यवस्था कराता है। धर्मदेव फिर भी इस बात से चिन्तित रहता है कि अश्व कैसे संस्कृत बोलेगा। वह दु: खी रहता है और अपनी मृत्यु निश्चित मानता है। कालांतर में ज्ञानदेव उसकी शंका का निवारण करता है--
ज्ञानदेव: - तत् तु संकेतितमेव मया यत् किमपि नैव भविता। सम्प्रति वर्षद्वयस्य सुदीर्घ: कालो विद्यते । क इदं जानाति यद् वर्षद्वये राजा मरिष्यति घोटको वा मरिष्यति ? यदि कदाचित् राजा नैव मृत: स्यात् तर्हि' घोटक एव मरिष्यति। एतस्योत्तरदायित्वं मम वर्तते यत् पुनस्तुभ्यम् अभिनवो घोटक: प्रदास्यते। तथा च सोsपि घोटको वर्षद्वयात् पूर्वमेव दिवंगतो भविष्यति, पुनस्तृतीय:...। (ज्ञानदेवस्य तत्सर्वं वचनामाकर्ण्य धर्मदेवेनेदम् अनुभूतं यत् तस्य ज्ञानचक्षूंषि अकस्मादेव प्रस्फुटितानि इति )।
'अथ भार्यावशीकरणोपाया:' निबन्ध भी दर्शनीय है-
विगतग्रीष्मकाले मया भारतवर्षस्य बहवः प्रदेशा यात्रायां पर्यटिता:। तदानीमेव एकस्मिन् प्राचीने पुस्तकालये मम दृष्टिपथे एका प्राचीना जर्जरा च पाण्डुलिपि: समागता। पाण्डुलिपिरियं मया महता प्रयासेन पठिता। तत्र कस्यचित् मध्ययुगीनस्य आचार्यस्य कानिचित् सूत्राणि वर्तन्ते यानि ग्रन्थस्य ' दाम्पत्य-प्रकरणे' प्रदत्तानि। अस्य ग्रन्थस्य नामधेयं तु स्पष्टं नैवोपलभ्यते किन्तु पाठकानां हितसाधनाय सुखशान्ति-प्रापणाय च तानि सूत्राणि मया स्वोपज्ञभाष्यसहितं प्रस्तूयन्ते।
"श्वशुरालयप्रशंसनम्"
भाष्यम् -- पतिभि: स्वदिनचर्या निपुणतया गोपनीया । यतोहि पुरुषाणां परस्त्रीषु कुमारीषु वा आकर्षणं स्वभावसिद्धं भवति, तज्ज्ञाने च गृहे महान् कलह: संभाव्यते अत एव चतुरै: पुरुषै: स्व एवंविधाः दिनचर्या: साधुरीत्या गोपनीया:। अन्यथा सर्वं वशीकरणं सहसा व्यर्थं भविष्यति।
प्रशस्य मित्र शास्त्री हास्य-व्यंग्य के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। इनके द्वारा कई कहानियाँ, कविताएँ, लेख और निबन्ध रचे गए हैैं जो हास्य-व्यंग्य के अमिट बिन्दु हैं। जिनमें अनभिसिप्तम्, अनाघ्रातं पुष्पम् , व्यंग्यार्थकौमुदी, कोमलकण्टकाञ्जलि: , हासविलास:, आषाढस्य प्रथमदिवसे प्रमुख हैं।
मेल आई डी - kumartaresh82@gmail.com
विधा - हास्य-व्यंग्य काव्य
लेखक - प्रशस्य मित्र शास्त्री
प्रकाशक - अक्षयवट प्रकाशन, इलाहाबाद
संस्करण - प्रथम, 1989
अंकित मूल्य - 45 रु.
आज का आधुनिक कवि असभ्यता पर व्यंग्य करता है तो सभ्यता पर भी , शरारत पर व्यंग्य करता है तो शराफत पर भी, उसने बेईमानी को अपने व्यंग्य का निशाना बनाया है, तो तथाकथित ईमानदारी पर प्रहार करने से भी नहीं चूका है ; जनता को बेवकूफ बनाकर वोट लेने वाले और वोट पुनः लेकर मूर्ख बनाने वाले नेताओं पर व्यंग्यात्मक आक्रमण किया है, तो धोखे में आ जाने वाली जनता की बेवकूफियों को व्यंग्य का बिन्दु बनाया है। कोई भी विसंगति ऐसी नहीं है जिस पर उसने अपनी दृष्टि न डाली हो। यहाँ तक कि उसने व्यंग्य न करने पर भी व्यंग्य किया है--
" व्यंग्य मत बोलो
काटता है जूता तो क्या हुआ
पैर में न सही
सिर पर रख डालो
व्यंग्य मत बोलो"
साम्प्रतिक संस्कृत साहित्य में हास्य-व्यंग्यकार अंगुलिगण्य हैं, जिनमें डॉ० प्रशस्य मित्र शास्त्री का स्थान अद्वितीय है। हिन्दी भाषा की पत्र-पत्रिकाओं में हरिशंकर परसाई, रवीन्द्र त्यागी, डॉ० बरसाने लाल चतुर्वेदी प्रभृत कवियों के द्वारा लिखे गये मनोरंजक व्यंग्य लेखों से कवि व्यंग्य लेखन की ओर उन्मुख हुआ। बीसवीं सदी के आधुनिक कवि शास्त्री ने वर्तमान एवं तात्कालिक सामाजिक समस्याओं, व्यक्तिगत सन्दर्भों एवं पारम्परिक संवाद की मनोरंजक परिस्थितियों को आधार बनाकर 'गाण्डीवम्', 'पारिजातम्' और 'भारतोदय' आदि विविध संस्कृत पत्रिकाओं में नानाविध विषयों पर अवलम्बित अपने प्रकाशित हुए व्यंग्य निबन्धों का संकलन किया है इस "संस्कृत-व्यंग्यविलास:" कृति में।
इन व्यंग्य निबन्धों के लेखन में कवि ने किसी प्रकार की अतिशयोक्ति , अतिकल्पना का सायास प्रयास नहीं किया है। यथार्थभूत घटित होने वाले घटनाक्रमों के द्वारा जो स्वयं अनुभूत किया उसको इन निबन्धों में निबद्ध किया है।
ना sन्य: पन्था विद्यतेऽयनाय, अश्वस्य संस्कृतशिक्षक: पण्डित:, अभिनन्दनसमारोह:, ताम्बूलविक्रेतुर्नमस्कार:, मूल्यनिर्धारणम्, आधुनिकभारते तुलसीदासस्य पर्यटनम्, सेवासाक्षात्कार-रहस्यम्, अथ भार्यावशीकरणोपाया:, अथातोधर्मजिज्ञासा, भृत्युपुराणम्, मम मूर्तिमत् पौरुषम्, ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:, अयोग्यता, भ्रष्टाचारी, आरक्षणचक्रम्, गृहस्य संकेतज्ञानम् आदि इस काव्य में ३५ व्यंग्य निबन्ध हैं। जिनमें ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:, निमन्त्रणपत्रप्राप्तेरनन्तरम्, अभिनन्दनसमारोह:, अध्यक्षताया आनन्दानुभूति:, भार्यावशीकरणोपाया: आदि कवि के वैशिष्ट्यपूर्ण भावों की अभिव्यक्ति कराते हैं। ये निबन्ध कल्पना प्रसूत ,मनोरंजक और समाज की तात्कालिक घटनाओं को वास्तविक रूप से उकेर कर पाठकों, सहृदयजनों और अध्येताओं के मानस को बरबस अपनी ओर आकर्षित करते हैं।
प्रस्तुत काव्य में कुछ स्थल ऐसे हैं जिनकों पढ़कर आप हंसे बिना नहीं रह सकते हैं। ' अश्वस्य संस्कृतशिक्षक: पण्डित:' निबन्ध का कथानक बहुत ही आह्लादित करने वाला है। धर्मदेव एक निर्धन शिक्षक है उसका मित्र ज्ञानदेव उसे राजसभा में राजा के पास ले जाकर कहता है कि महाराज! यह निपुण विद्वान है जो दो साल में घोड़े को भी संस्कृत सीखा सकता है। राजा प्रसन्न होकर एक सुन्दर घोड़ा धर्मदेव को देता है और धर्मदेव के लिए सभी सुखोपभोग की व्यवस्था कराता है। धर्मदेव फिर भी इस बात से चिन्तित रहता है कि अश्व कैसे संस्कृत बोलेगा। वह दु: खी रहता है और अपनी मृत्यु निश्चित मानता है। कालांतर में ज्ञानदेव उसकी शंका का निवारण करता है--
ज्ञानदेव: - तत् तु संकेतितमेव मया यत् किमपि नैव भविता। सम्प्रति वर्षद्वयस्य सुदीर्घ: कालो विद्यते । क इदं जानाति यद् वर्षद्वये राजा मरिष्यति घोटको वा मरिष्यति ? यदि कदाचित् राजा नैव मृत: स्यात् तर्हि' घोटक एव मरिष्यति। एतस्योत्तरदायित्वं मम वर्तते यत् पुनस्तुभ्यम् अभिनवो घोटक: प्रदास्यते। तथा च सोsपि घोटको वर्षद्वयात् पूर्वमेव दिवंगतो भविष्यति, पुनस्तृतीय:...। (ज्ञानदेवस्य तत्सर्वं वचनामाकर्ण्य धर्मदेवेनेदम् अनुभूतं यत् तस्य ज्ञानचक्षूंषि अकस्मादेव प्रस्फुटितानि इति )।
'अथ भार्यावशीकरणोपाया:' निबन्ध भी दर्शनीय है-
विगतग्रीष्मकाले मया भारतवर्षस्य बहवः प्रदेशा यात्रायां पर्यटिता:। तदानीमेव एकस्मिन् प्राचीने पुस्तकालये मम दृष्टिपथे एका प्राचीना जर्जरा च पाण्डुलिपि: समागता। पाण्डुलिपिरियं मया महता प्रयासेन पठिता। तत्र कस्यचित् मध्ययुगीनस्य आचार्यस्य कानिचित् सूत्राणि वर्तन्ते यानि ग्रन्थस्य ' दाम्पत्य-प्रकरणे' प्रदत्तानि। अस्य ग्रन्थस्य नामधेयं तु स्पष्टं नैवोपलभ्यते किन्तु पाठकानां हितसाधनाय सुखशान्ति-प्रापणाय च तानि सूत्राणि मया स्वोपज्ञभाष्यसहितं प्रस्तूयन्ते।
"श्वशुरालयप्रशंसनम्"
भाष्यम्-- श्वशुरालयस्य प्रशंसयापि भार्या: वशीभूता : भवन्ति। जायाया: समक्षं तस्या मातुर्गृहस्य निन्दा कदापि न करणीया। मातुर्गृहस्य कुक्कुरा गर्दभाश्चापि तस्यै रोचन्ते । सा तद्विरुद्धा किमपि श्रोतुं न समीहते निन्दावाक्यानि च न सहते। ये चतुरा: पुरुषा: स्वभार्यां वश्यां कर्तुमिच्छन्ति ते सदैव श्वशुरालस्य गुणान् एव गायन्ति (अनिच्छयापि)। एवंविधमेव पतिं तस्य भार्या परमेश्वरम् इव पूजयति।" दाक्षिण्यं दिनचर्यायाम्"
भाष्यम् -- पतिभि: स्वदिनचर्या निपुणतया गोपनीया । यतोहि पुरुषाणां परस्त्रीषु कुमारीषु वा आकर्षणं स्वभावसिद्धं भवति, तज्ज्ञाने च गृहे महान् कलह: संभाव्यते अत एव चतुरै: पुरुषै: स्व एवंविधाः दिनचर्या: साधुरीत्या गोपनीया:। अन्यथा सर्वं वशीकरणं सहसा व्यर्थं भविष्यति।
प्रशस्य मित्र शास्त्री हास्य-व्यंग्य के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। इनके द्वारा कई कहानियाँ, कविताएँ, लेख और निबन्ध रचे गए हैैं जो हास्य-व्यंग्य के अमिट बिन्दु हैं। जिनमें अनभिसिप्तम्, अनाघ्रातं पुष्पम् , व्यंग्यार्थकौमुदी, कोमलकण्टकाञ्जलि: , हासविलास:, आषाढस्य प्रथमदिवसे प्रमुख हैं।
- डॉ तारेश कुमार शर्मा
मेल आई डी - kumartaresh82@gmail.com
साधु
ReplyDeleteधन्यवाद
Delete