कृति - कापिशायनी
विधा - मुक्तककाव्य
लेखक - डॉ. जगन्नाथ पाठक
प्रकाशक - गंगानाथ झा केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ, प्रयाग
संस्करण - प्रथम, 1980
पृष्ठ संख्या - 103
अंकित मूल्य - 27 रू.
उर्दू-फारसी भाषा के साहित्य की शैली में संस्कृत में भी बहुत रचनाएं हुई हैं। डॉ. जगन्नाथ पाठक ने ऐसी कई रचनाएं लिखी हैं, जो सहृदय समाज में बहुत प्रसिद्ध हुई। उनकी कुछ ऐसी ही मुक्तक रचनाओं का संकलन कापिशायिनी के रूप में प्रकाशित हुआ है। यहां कापिशायिनी शब्द की सिद्धि ‘कापिश्याः ष्फक्’, इस पाणिनीय सूत्र से बताई गई है। यह कापिशी क्या है, यह जिज्ञासा स्वाभाविक है| ‘काशिका’ कहती है- ‘कापिश्यां जातादि कापिशायनं मधु, कापिशायनी द्राक्षा’। डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने अपनी पुस्तक में कापिशी नामक एक शहर विशेष का नाम भी बताया है, जो वर्तमान अफगानिस्तान में है। पाणिनी के निवास स्थान गन्धार के समीप ही इस स्थान के होने से पाणिनी इससे परिचित थे। कापिशी को हरे अंगूरों की उत्पत्ति का स्थान माना गया है। उसी से बना कापिशायन मधु (मदिराविशेष) भारत में भी लाया जाता रहा। कापिशी मदिरा के व्यापार का बहुत बडा केन्द्र था। कौटिलीय अर्थशास्त्र में भी कापिशायन का उल्लेख प्राप्त होता है। वस्तुतः उत्तरी अफगानिस्तान में हरे रंग के अंगूरों से बनी मदिरा कापिशायन कहलाती थी तो पश्चिमी अफगानिस्तान में बनी मदिरा हारहूरक कहलाती थी।
डॉ. जगन्नाथ पाठक ने इन मुक्तक रचनाओं में प्रायः मदिरा को आधार बनाकर अपना कथ्य प्रस्तुत किया है, अतः इसका नामकरण कापिशायिनी, ऐसा किया गया है। साहित्य में प्रायः ऐसे काव्यों की व्याख्या दार्शनिक भूमि के आधार पर की जाती रही है। पूर्व में ऐसे काव्यों से संस्कृत का श्रोता/पाठक अभ्यस्त नहीं था, किन्तु ग़ज़ल आदि विधाओं के प्रवेश से तथा अन्य भाषायी साहित्य के सम्पर्क से वह इधर इस शैली के काव्यों के मर्म को समझा जाने लगा है। इसमें पीने वाला सत्य का इच्छुक बन जाता है, पिपासु आत्मा बन जाता है, पिलाने वाला परम आत्मा का रूप ले लेता है। मदिरा प्रेम बन जाती है। मयखाना प्रार्थना का घर बन जाता है। मिर्ज़ा ग़ालिब ने क्या खूब कहा है-
विधा - मुक्तककाव्य
लेखक - डॉ. जगन्नाथ पाठक
प्रकाशक - गंगानाथ झा केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ, प्रयाग
संस्करण - प्रथम, 1980
पृष्ठ संख्या - 103
अंकित मूल्य - 27 रू.
उर्दू-फारसी भाषा के साहित्य की शैली में संस्कृत में भी बहुत रचनाएं हुई हैं। डॉ. जगन्नाथ पाठक ने ऐसी कई रचनाएं लिखी हैं, जो सहृदय समाज में बहुत प्रसिद्ध हुई। उनकी कुछ ऐसी ही मुक्तक रचनाओं का संकलन कापिशायिनी के रूप में प्रकाशित हुआ है। यहां कापिशायिनी शब्द की सिद्धि ‘कापिश्याः ष्फक्’, इस पाणिनीय सूत्र से बताई गई है। यह कापिशी क्या है, यह जिज्ञासा स्वाभाविक है| ‘काशिका’ कहती है- ‘कापिश्यां जातादि कापिशायनं मधु, कापिशायनी द्राक्षा’। डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने अपनी पुस्तक में कापिशी नामक एक शहर विशेष का नाम भी बताया है, जो वर्तमान अफगानिस्तान में है। पाणिनी के निवास स्थान गन्धार के समीप ही इस स्थान के होने से पाणिनी इससे परिचित थे। कापिशी को हरे अंगूरों की उत्पत्ति का स्थान माना गया है। उसी से बना कापिशायन मधु (मदिराविशेष) भारत में भी लाया जाता रहा। कापिशी मदिरा के व्यापार का बहुत बडा केन्द्र था। कौटिलीय अर्थशास्त्र में भी कापिशायन का उल्लेख प्राप्त होता है। वस्तुतः उत्तरी अफगानिस्तान में हरे रंग के अंगूरों से बनी मदिरा कापिशायन कहलाती थी तो पश्चिमी अफगानिस्तान में बनी मदिरा हारहूरक कहलाती थी।
डॉ. जगन्नाथ पाठक ने इन मुक्तक रचनाओं में प्रायः मदिरा को आधार बनाकर अपना कथ्य प्रस्तुत किया है, अतः इसका नामकरण कापिशायिनी, ऐसा किया गया है। साहित्य में प्रायः ऐसे काव्यों की व्याख्या दार्शनिक भूमि के आधार पर की जाती रही है। पूर्व में ऐसे काव्यों से संस्कृत का श्रोता/पाठक अभ्यस्त नहीं था, किन्तु ग़ज़ल आदि विधाओं के प्रवेश से तथा अन्य भाषायी साहित्य के सम्पर्क से वह इधर इस शैली के काव्यों के मर्म को समझा जाने लगा है। इसमें पीने वाला सत्य का इच्छुक बन जाता है, पिपासु आत्मा बन जाता है, पिलाने वाला परम आत्मा का रूप ले लेता है। मदिरा प्रेम बन जाती है। मयखाना प्रार्थना का घर बन जाता है। मिर्ज़ा ग़ालिब ने क्या खूब कहा है-
हर-चंद हो मुशाहिदा-ए-हक़ की गुफ़्तुगू
बनती नहीं है बादा-ओ-साग़र कहे बग़ैर
सत्य की बातें चलती रहनी चाहिए, पर बिना मय और पैमाने के बात कहीं भी कैसे जा सकती है।
इस संकलन को 10 भागों में बांटा गया है-
कापिशायनी - इस भाग में 405 मुक्तक पद्य हैं। इनकी रचना का आरम्भ कवि ने छात्र जीवन से ही कर दिया था। इन मुक्तक पद्यों को समालोचकों व रसिकों ने चषक (प्याला/पैमाना) कहा है, जिनसे इस मदिरा का पान किया जाता है। ये पद्य उर्दू के शेरों के समान भावों से भरे हुए हैं। ब्रजमोहन चतुर्वेदी कहते हैं कि -‘‘ये चषक प्रायः प्रिया के प्रति निवेदित हैं, जिनमें कहीं कोई उससे आग्रह है तो कहीं उपालम्भ या शिकायत। कहीं उसके पास पहुंचने की झिझक प्रकट होती है तो कहीं उसके साथ अद्वैत-भाव की अभिव्यक्ति। मधुपायी कभी मधुपान की आशा से ही समुल्लसित है तो कभी निराश होकर अपने भाग्य को कोसता है।’’
कवि कहता है कि यूं तो मैंने जीवन में कई प्याले पिये और तोडे हैं पर यह जो नशा है वह केवल एक क्षण के लिये पी गई तुम्हारी मधु-मुस्कान का है-
इस संकलन को 10 भागों में बांटा गया है-
कापिशायनी - इस भाग में 405 मुक्तक पद्य हैं। इनकी रचना का आरम्भ कवि ने छात्र जीवन से ही कर दिया था। इन मुक्तक पद्यों को समालोचकों व रसिकों ने चषक (प्याला/पैमाना) कहा है, जिनसे इस मदिरा का पान किया जाता है। ये पद्य उर्दू के शेरों के समान भावों से भरे हुए हैं। ब्रजमोहन चतुर्वेदी कहते हैं कि -‘‘ये चषक प्रायः प्रिया के प्रति निवेदित हैं, जिनमें कहीं कोई उससे आग्रह है तो कहीं उपालम्भ या शिकायत। कहीं उसके पास पहुंचने की झिझक प्रकट होती है तो कहीं उसके साथ अद्वैत-भाव की अभिव्यक्ति। मधुपायी कभी मधुपान की आशा से ही समुल्लसित है तो कभी निराश होकर अपने भाग्य को कोसता है।’’
कवि कहता है कि यूं तो मैंने जीवन में कई प्याले पिये और तोडे हैं पर यह जो नशा है वह केवल एक क्षण के लिये पी गई तुम्हारी मधु-मुस्कान का है-
चषका इह जीवने मया परिपीता अपि चूर्णिता अपि।
मदमेष बिभर्मि केवलं क्षणपीतस्य मधुस्मितस्य ते।।
मयखाने के तौर तरीके अलग ही होते हैं। साकी (मदिरा पीलाने वाली स्त्री) उसी को शराब पिलाती हैं, जो आंखों की भी भाषा जानता हो-
मधुपानगृहस्य योषितां पृथगेव व्यवतिष्ठते क्रमः।
मधु तं परिपाययन्ति यो नयनानामपि वेद भाषितम्।।
पिपासु कवि कहता है कि भले ही तुम्हे पूरा प्याला मिला हो और मुझे आधा, किन्तु देखना कौन अधिक मदमस्त होता है-
मिलितं चषकार्धमेव ते तव पूर्णश्चषको बभूव चेत्।
किमनेन, विलोकयाधिको मदमत्तो भविता क आवयोः।।
और जब मतवाला होने के बाद कदम लडखडाने लगे तो इसमें मद्यप का भला क्या दोष? वह तो उसे सहारा देने वाला ही नहीं मिला कोई तो वह भी क्या करे-
स्खलितानि बहूनि सन्ति मे मधुपानं न च तत्र कारणम्।
स्खलनप्रकृतेर्न हन्त मे मिलितः कोऽपि करावलम्बदः।।
कवि पाठक के इस मुक्तक व गालिब के इस शेर में काफी समानता है-
कहाँ मय-ख़ाने का दरवाज़ा 'ग़ालिब' और कहाँ वाइज़
पर इतना जानते हैं कल वो जाता था कि हम निकले
कुत एव धार्मिकः कुतो मधुशालेति क एव पश्यति।
गत एव दिने विनिःसरन् प्रविशन्तं तमहं व्यलोकयम्।।
मदमेष बिभर्मि केवलं क्षणपीतस्य मधुस्मितस्य ते।।
मयखाने के तौर तरीके अलग ही होते हैं। साकी (मदिरा पीलाने वाली स्त्री) उसी को शराब पिलाती हैं, जो आंखों की भी भाषा जानता हो-
मधुपानगृहस्य योषितां पृथगेव व्यवतिष्ठते क्रमः।
मधु तं परिपाययन्ति यो नयनानामपि वेद भाषितम्।।
पिपासु कवि कहता है कि भले ही तुम्हे पूरा प्याला मिला हो और मुझे आधा, किन्तु देखना कौन अधिक मदमस्त होता है-
मिलितं चषकार्धमेव ते तव पूर्णश्चषको बभूव चेत्।
किमनेन, विलोकयाधिको मदमत्तो भविता क आवयोः।।
और जब मतवाला होने के बाद कदम लडखडाने लगे तो इसमें मद्यप का भला क्या दोष? वह तो उसे सहारा देने वाला ही नहीं मिला कोई तो वह भी क्या करे-
स्खलितानि बहूनि सन्ति मे मधुपानं न च तत्र कारणम्।
स्खलनप्रकृतेर्न हन्त मे मिलितः कोऽपि करावलम्बदः।।
कवि पाठक के इस मुक्तक व गालिब के इस शेर में काफी समानता है-
कहाँ मय-ख़ाने का दरवाज़ा 'ग़ालिब' और कहाँ वाइज़
पर इतना जानते हैं कल वो जाता था कि हम निकले
कुत एव धार्मिकः कुतो मधुशालेति क एव पश्यति।
गत एव दिने विनिःसरन् प्रविशन्तं तमहं व्यलोकयम्।।
कवि डॉ. जगन्नाथ पाठक वेदान्ती को कहते हैं कि तुम्हारी तरह ही मुझे भी यह संसार मिथ्या ही दिखाई देता है किन्तु अन्तर सिर्फ इतना सा है कि तुम पढकर कह रहे हो और मैं मदिरा पी कर ही इस को जान गया हूं-
अयि शांकरदर्शनज्ञ मेऽपि जगद् भाति मृषैव पश्यतः।
त्वमधीत्य हि वेत्सि मादृशा मधुमात्रं विनिपीय जानते।।
इस भाग के 405 चषक सहृदय रसिकों को मदमस्त कर देते हैं। संस्कृत श्रोताओं/पाठकों के लिये ये भिन्न आस्वाद की कविताएं हैं, जिनका मुक्तहृदय से स्वागत किया जाना चाहिए।
प्रकीर्णम् - इस भाग में भिन्न-भिन्न विषयों पर 50 पद्य संकलित हैं। इनमें से एक पद्य द्रष्टव्य है जो संस्कृत की उस परम्परा का निर्वाह करता है, जिसमें समाज के निम्न वर्ग के संघर्षों, कष्टों, विपत्तियों को मार्मिक ढंग से उकेरा जाता है। एक गरीब किसान अपने घर पर देखता है कि उसका छोटा बच्चा अपनी माता के सूखे स्तन को चूस रहा है, बछडा अपनी मां के मुंह में रखे एकमात्र ग्रास की ओर उत्कण्ठा से देख रहा है और पिंजरे में बैठा तोता तो अपने मुंह में अपने पंख के अग्रभाग को ही रख लेता है तो किसान को भला चैन की नींद कैसे आ सकती है-
डिम्भश्चूषति निर्दयं प्ररुदितः शुष्कं स्वमातुः स्तनं
वत्सो धेनुमुखस्थमेककवलं भोक्तुं समुत्कण्ठते।
तूष्णीमाश्रयते च पञ्जरशुकः पक्षाग्रमास्ये दधत्
पश्यन् दृश्यमिदं गृहस्य कृषको निद्राति नान्तःशुचा
समस्यापूर्तयः - इसमें कवि द्वारा 63 समस्यापूर्ति काव्यों का संकलन किया गया है |
कालिदासप्रशस्तयः - इसमें कवि कालिदास की प्रशस्ति में 12 पद्य निबद्ध हैं। यथा-
कुत एष इहागतः सुगन्धिः पवनः कश्चन शीतलश्च मन्दः।
किमितो मधुशालिकाऽस्ति काचित् किमितो वा कविकालिदासगोष्ठी।।
यह महकती हुई, ठण्डी, मन्द बयार कहां से आ रही है, यह मयखाना है या कवि कालिदास की गोष्ठी।
मैथिलकोकिलविद्यापतिप्रशस्तयः - इस भाग में मैथिली भाषा के प्रसिद्ध कवि विद्यापति की प्रशस्ति में 5 पद्य हैं।
भारत-शार्दूलविक्रीडितम्- यहां नाम से ही ज्ञात हो जाता है कि भारत देश को आधार बनाकर इन पद्यों की रचना की गई है। इस में नाम के ही अनुरूप शार्दूलविक्रीडितम् छन्द में 6 पद्य निबद्ध हैं।
गजलगीतानि - इस भाग में 7 संस्कृतगजलगीतियां संकलित हैं। एक उदाहरण द्रष्टव्य है-
त्वं मदन्तिके येषु ते हि नो गताः दिवसाः।
किं प्रतीक्षया तेषां ते हि नो गताः दिवसाः।।
किं वसन्त आगन्ता किं कुहूरवो भविता
प्रियजने विदूरस्थे ते हि नो गताः दिवसाः।।
तुम जिन दिनों मेरे पास थे, अब वे दिन चले गये। अब उनकी प्रतीक्षा करके क्या लाभ, अब वे दिन चले गये। अब वसन्त और कुहूकार से भी क्या, जब प्रिय ही दूर हो।
यवनिका - इस भाग में पण्डितराज जगन्नाथ के विषय में प्रचलित उस प्रणयप्रसंग को आधार बनाकर 71 पद्यों की रचना की गई है, जिस के अनुसार उन्होंने एक यवनकन्या से विवाह किया था|
शलभदीपशिखम् - पतंगे और दिये की लौ की भाव भूमि को आधार बनाकर 33 पद्य संकलित किये गये हैं।
रुबाई-गीतानि - रुबाई उर्दू की नज्म-शायरी की वह विधा है जो चार मिसरों (पंक्तियों) पर आधारित होती है। इनमें पहली, दूसरी और चौथी पंक्ति के काफिए (अन्त्यानुप्रास) की समानता होती है। उमर खैयाम की रुबाईयां तो विश्वप्रसिद्ध हैं ही, साथ ही हरिवंशराय बच्चन की मधुशाला को भला कौन भूला सकता है। संस्कृत में उमर खैयाम की रुबाईयों के कई अनुवाद हुए हैं। डॉ. जगन्नाथ पाठक ने संस्कृत में भी रुबाईयां रच दी हैं। इस भाग में 6 रुबाई गीत संकलित हैं-
सहसा न तथा व्योम्नि घना गर्जन्ति
वृक्षा न लता हन्त वृथा तर्जन्ति।
सौदामिनी! नैवं परिस्फुरेः सततं
नीडेषु शयाना हि खगा मूर्च्छन्ति।।
मैथिलकोकिलविद्यापतिप्रशस्तयः - इस भाग में मैथिली भाषा के प्रसिद्ध कवि विद्यापति की प्रशस्ति में 5 पद्य हैं।
भारत-शार्दूलविक्रीडितम्- यहां नाम से ही ज्ञात हो जाता है कि भारत देश को आधार बनाकर इन पद्यों की रचना की गई है। इस में नाम के ही अनुरूप शार्दूलविक्रीडितम् छन्द में 6 पद्य निबद्ध हैं।
गजलगीतानि - इस भाग में 7 संस्कृतगजलगीतियां संकलित हैं। एक उदाहरण द्रष्टव्य है-
त्वं मदन्तिके येषु ते हि नो गताः दिवसाः।
किं प्रतीक्षया तेषां ते हि नो गताः दिवसाः।।
किं वसन्त आगन्ता किं कुहूरवो भविता
प्रियजने विदूरस्थे ते हि नो गताः दिवसाः।।
तुम जिन दिनों मेरे पास थे, अब वे दिन चले गये। अब उनकी प्रतीक्षा करके क्या लाभ, अब वे दिन चले गये। अब वसन्त और कुहूकार से भी क्या, जब प्रिय ही दूर हो।
यवनिका - इस भाग में पण्डितराज जगन्नाथ के विषय में प्रचलित उस प्रणयप्रसंग को आधार बनाकर 71 पद्यों की रचना की गई है, जिस के अनुसार उन्होंने एक यवनकन्या से विवाह किया था|
शलभदीपशिखम् - पतंगे और दिये की लौ की भाव भूमि को आधार बनाकर 33 पद्य संकलित किये गये हैं।
रुबाई-गीतानि - रुबाई उर्दू की नज्म-शायरी की वह विधा है जो चार मिसरों (पंक्तियों) पर आधारित होती है। इनमें पहली, दूसरी और चौथी पंक्ति के काफिए (अन्त्यानुप्रास) की समानता होती है। उमर खैयाम की रुबाईयां तो विश्वप्रसिद्ध हैं ही, साथ ही हरिवंशराय बच्चन की मधुशाला को भला कौन भूला सकता है। संस्कृत में उमर खैयाम की रुबाईयों के कई अनुवाद हुए हैं। डॉ. जगन्नाथ पाठक ने संस्कृत में भी रुबाईयां रच दी हैं। इस भाग में 6 रुबाई गीत संकलित हैं-
सहसा न तथा व्योम्नि घना गर्जन्ति
वृक्षा न लता हन्त वृथा तर्जन्ति।
सौदामिनी! नैवं परिस्फुरेः सततं
नीडेषु शयाना हि खगा मूर्च्छन्ति।।
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