कृति - नाचिकेतकाव्यम्
लेखक - डॉ. हरिराम आचार्य
विधा - प्रबन्धकाव्य
प्रकाशक -लिट्रेरी सर्किल, जयपुर
संस्करण - प्रथम, 2013
पृष्ठ संख्या - 98
अंकित मूल्य - 250 रू.
संस्कृत की विविध विधाओं के सृजन-कर्म में निष्णात, अभिनय कौषल में प्रवीण, ममधुर गीतियों के गायक, कवि डॉ. हरिराम आचार्य का अर्वाचीन संस्कृत साहित्य में विशिष्ट स्थान है। आप संस्कृत, हिन्दी, उर्दू, प्राकृत, राजस्थानी आदि भाषाओं के लोकप्रिय सरस गीतकार रहे हैं। प्राकृत रचना हाल कृत गाहासतसई पर आपका विद्वत्तापूर्ण शोधग्रन्थ है तथा प्राकृत गाथाओं का काव्यानुवाद आपके सरस काव्यमय व्यक्तित्व की सफल अभिव्यक्ति है। आपकी संस्कृत में प्रकाशित रचनाओं में पूर्वशाकुन्तलम्, मधुच्छन्दा, नाचिकेतकाव्यम् आदि प्रमुख है।
नाचिकेतकाव्यम् डॉ. हरिराम आचार्य का प्रथम प्रबन्ध काव्य है, जो कठोपनिषद् के प्रसिद्ध नचिकेता आख्यान पर आधारित है। इसका विभाजन सात सर्गों में किया गया है। इस आख्यान के जटिल दार्शनिक प्रसंग को कवि ने अपनी काव्यमयी सुललित शैली में प्रस्तुत किया है। यह काव्य प्राचीन भारतीय संस्कृति के शाश्वत मूल्यों पर आधारित काव्य है, जिसमें प्राचीन गुरुकुल, तपोवन, यज्ञसंस्था, अतिथिसत्कार आदि की अभिव्यक्ति की गई है-
काव्य में वाजश्रवा का आश्रम प्राचीन वैदिक संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता है। वाजश्रवा के आश्रम का एक चित्र है-
सुवृष्टिं कुर्वते मेघाः
धरित्री धान्यपूरिता।
योगक्षेमं वहन्तीव
देवास्तत्र यथाक्रमम्।।
आश्रम में रहने वाले ब्रह्मचारी निरन्तर विद्या-व्यसन, तपश्चर्या, योगाभ्यास, व शास़ मनथन में लगे रहते थे, अतः वे वैचारिक रूप से शुद्ध थे-
जाड्यं प्रस्तर-खण्डेषु
कृष्णसारेषु कालिमा।
नदीविचिषु कौटिल्यं
गुप्तिर्मन्त्रेषु केवलम्।
भारतीय संस्कृति में गुरु का अत्यन्त महत्त्व रहा है। कवि डॉ. हरिराम आचार्य ने गुरु के महत्त्व को पदे-पदे प्रतिपादित किया है-
शमयति सुहृदिव हृदय-विषादं
गमयति कविरिव ब्रह्मास्वादम्।
शिष्यं श्रुतिगर्भे पालयते
तस्मै श्रीगुरवे नमः।।
गुरु जडता के पाशों से मुक्ति दिलाकर सन्मार्ग पर प्रवृत्त करता है अतः जीवन में गुरु का आशीर्वाद विशेष महत्ता लिये होता है।
कवि ने काव्य में नारी पात्र नचिकेता की मां सुमेधा के उदात्त चरित का वर्णन किया है। कवि नारी के मंगलमय पवित्र रूप को चित्रित करते हुए कहते हैं -
शिखेव गृहप्रदीपस्य
चाशीः मंगलरूपिणी।
आर्याऽऽचार्या ऋषेर्भाया
यशेषु सहधर्मिणी।।
नचिकेता का आख्यान दान की महत्ता से भरा हुआ है। हमारा सम्पूर्ण परिवेश परोपकार के लिये ही तो अस्तित्व धारण किये हुए है-
सूर्यातपं सहन्ते ये
जंगमयोगिनो दु्रमाः।
किमेते सफला भूत्वा
खादन्ति नितसम्पदाम्।।
जब नचिकेता प्रश्न करता है कि दान किसे और कब दिया जाए तथा उसकी विधि क्या हो तो सुमेधा उत्तर देती है-
पात्राय दीयते दानं
वस्तूनामुपयोगिनाम्।
दीनाय वित्तहीनस्य
दानं भवति पुण्यदम्।।
अतिथि सत्कार हमारी परम्परा रही है। जब नचिकेता यम के द्वार पर बिना खाये पीये रहता है तो अतिथि को होने वाले कष्ट से यम भी व्याकुल हो जाता है, क्योंकि भूखा अतिथि अग्नि स्वरूप बताया गया है-
अनलोऽतिथरूपतो द्विजः
क्षुधितो यस्य गृहे प्रतीक्षते।
सकलार्जित-पुण्यसंचयो
विकलस्तस्य जनस्य जायते।।
आत्मा का ज्ञान तो नचिकेता की कथा में मुख्य प्रसंग है। पंचभूतो से निर्मित जड शरीर में चेतन आत्मा किस प्रकार निवास करती है, इसे लौकिक उदाहरण के माध्यम से कवि इस प्रकार समझाते हैं-
नचिकेतः शृणु तत्त्वम्
आत्माऽयं वसति भौतिके देहे।
जडे निजाधिष्ठाने
यथा स्वगेहे गृहाधिपतिः।।
इस प्रबन्ध काव्य में संस्कृत के पारम्परिक छन्दों के साथ हिन्दी के छन्दों का भी प्रयोग किया गया है। द्वितीय सर्ग में दोहा व चौपाई, सातवें सर्ग में रोला छन्द के प्रयोग कवि की नवीन प्रयोगधर्मिता को दर्शाता है। वैदिक गायत्री छन्द के आधार पर गुरु गायत्री छन्द का प्रयोग तथा गुरु वन्दना गीति गेयता का अनुपम उदाहरण है। सम्पूर्ण प्रबन्ध काव्य की भाषा सहज, सरल, गतिशील एवं प्रवाहमयी है।
-डॉ. सुदेश आहुजा
सम्पर्कसूत्र- 9413404463
लेखक - डॉ. हरिराम आचार्य
विधा - प्रबन्धकाव्य
प्रकाशक -लिट्रेरी सर्किल, जयपुर
संस्करण - प्रथम, 2013
पृष्ठ संख्या - 98
अंकित मूल्य - 250 रू.
संस्कृत की विविध विधाओं के सृजन-कर्म में निष्णात, अभिनय कौषल में प्रवीण, ममधुर गीतियों के गायक, कवि डॉ. हरिराम आचार्य का अर्वाचीन संस्कृत साहित्य में विशिष्ट स्थान है। आप संस्कृत, हिन्दी, उर्दू, प्राकृत, राजस्थानी आदि भाषाओं के लोकप्रिय सरस गीतकार रहे हैं। प्राकृत रचना हाल कृत गाहासतसई पर आपका विद्वत्तापूर्ण शोधग्रन्थ है तथा प्राकृत गाथाओं का काव्यानुवाद आपके सरस काव्यमय व्यक्तित्व की सफल अभिव्यक्ति है। आपकी संस्कृत में प्रकाशित रचनाओं में पूर्वशाकुन्तलम्, मधुच्छन्दा, नाचिकेतकाव्यम् आदि प्रमुख है।
नाचिकेतकाव्यम् डॉ. हरिराम आचार्य का प्रथम प्रबन्ध काव्य है, जो कठोपनिषद् के प्रसिद्ध नचिकेता आख्यान पर आधारित है। इसका विभाजन सात सर्गों में किया गया है। इस आख्यान के जटिल दार्शनिक प्रसंग को कवि ने अपनी काव्यमयी सुललित शैली में प्रस्तुत किया है। यह काव्य प्राचीन भारतीय संस्कृति के शाश्वत मूल्यों पर आधारित काव्य है, जिसमें प्राचीन गुरुकुल, तपोवन, यज्ञसंस्था, अतिथिसत्कार आदि की अभिव्यक्ति की गई है-
काव्य में वाजश्रवा का आश्रम प्राचीन वैदिक संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता है। वाजश्रवा के आश्रम का एक चित्र है-
सुवृष्टिं कुर्वते मेघाः
धरित्री धान्यपूरिता।
योगक्षेमं वहन्तीव
देवास्तत्र यथाक्रमम्।।
आश्रम में रहने वाले ब्रह्मचारी निरन्तर विद्या-व्यसन, तपश्चर्या, योगाभ्यास, व शास़ मनथन में लगे रहते थे, अतः वे वैचारिक रूप से शुद्ध थे-
जाड्यं प्रस्तर-खण्डेषु
कृष्णसारेषु कालिमा।
नदीविचिषु कौटिल्यं
गुप्तिर्मन्त्रेषु केवलम्।
भारतीय संस्कृति में गुरु का अत्यन्त महत्त्व रहा है। कवि डॉ. हरिराम आचार्य ने गुरु के महत्त्व को पदे-पदे प्रतिपादित किया है-
शमयति सुहृदिव हृदय-विषादं
गमयति कविरिव ब्रह्मास्वादम्।
शिष्यं श्रुतिगर्भे पालयते
तस्मै श्रीगुरवे नमः।।
गुरु जडता के पाशों से मुक्ति दिलाकर सन्मार्ग पर प्रवृत्त करता है अतः जीवन में गुरु का आशीर्वाद विशेष महत्ता लिये होता है।
कवि ने काव्य में नारी पात्र नचिकेता की मां सुमेधा के उदात्त चरित का वर्णन किया है। कवि नारी के मंगलमय पवित्र रूप को चित्रित करते हुए कहते हैं -
शिखेव गृहप्रदीपस्य
चाशीः मंगलरूपिणी।
आर्याऽऽचार्या ऋषेर्भाया
यशेषु सहधर्मिणी।।
नचिकेता का आख्यान दान की महत्ता से भरा हुआ है। हमारा सम्पूर्ण परिवेश परोपकार के लिये ही तो अस्तित्व धारण किये हुए है-
सूर्यातपं सहन्ते ये
जंगमयोगिनो दु्रमाः।
किमेते सफला भूत्वा
खादन्ति नितसम्पदाम्।।
जब नचिकेता प्रश्न करता है कि दान किसे और कब दिया जाए तथा उसकी विधि क्या हो तो सुमेधा उत्तर देती है-
पात्राय दीयते दानं
वस्तूनामुपयोगिनाम्।
दीनाय वित्तहीनस्य
दानं भवति पुण्यदम्।।
अतिथि सत्कार हमारी परम्परा रही है। जब नचिकेता यम के द्वार पर बिना खाये पीये रहता है तो अतिथि को होने वाले कष्ट से यम भी व्याकुल हो जाता है, क्योंकि भूखा अतिथि अग्नि स्वरूप बताया गया है-
अनलोऽतिथरूपतो द्विजः
क्षुधितो यस्य गृहे प्रतीक्षते।
सकलार्जित-पुण्यसंचयो
विकलस्तस्य जनस्य जायते।।
आत्मा का ज्ञान तो नचिकेता की कथा में मुख्य प्रसंग है। पंचभूतो से निर्मित जड शरीर में चेतन आत्मा किस प्रकार निवास करती है, इसे लौकिक उदाहरण के माध्यम से कवि इस प्रकार समझाते हैं-
नचिकेतः शृणु तत्त्वम्
आत्माऽयं वसति भौतिके देहे।
जडे निजाधिष्ठाने
यथा स्वगेहे गृहाधिपतिः।।
इस प्रबन्ध काव्य में संस्कृत के पारम्परिक छन्दों के साथ हिन्दी के छन्दों का भी प्रयोग किया गया है। द्वितीय सर्ग में दोहा व चौपाई, सातवें सर्ग में रोला छन्द के प्रयोग कवि की नवीन प्रयोगधर्मिता को दर्शाता है। वैदिक गायत्री छन्द के आधार पर गुरु गायत्री छन्द का प्रयोग तथा गुरु वन्दना गीति गेयता का अनुपम उदाहरण है। सम्पूर्ण प्रबन्ध काव्य की भाषा सहज, सरल, गतिशील एवं प्रवाहमयी है।
डॉ हरिराम आचार्य
-डॉ. सुदेश आहुजा
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ReplyDeleteप्राचीन आख्यानों का समसामयिक संदर्भों में व्याख्यान वास्तव समय की सर्वाधिक प्रासंगिक अपेक्षा है। इस सर्जना को साहित्य समाज के समक्ष रखने के लिए साहित्य शिरोमणि हरिराम आचार्य जी,आदरणीया सुदेश आहूजा मेम एवं साहित्य गङ्गा को अवतरित करने वाले भागीरथ आदरणीय कौशल जी का सादर अभिनन्दन ⚘
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद
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