पशुपक्षिविचिन्तनम् - खण्डकाव्य
कृति - पशुपक्षिविचिन्तनम्
विधा - खण्डकाव्य
रचयिता - डॉ.हरिनारायण दीक्षित
पृष्ठ संख्या - 195
अंकित मूल्य - 450
संस्करण प्रथम - 2008
प्रकाशक - ईस्टर्न बुक लिंकर्स,देहली
संस्कृत खण्डकाव्य की परम्परा में राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित 'डॉ.हरिनारायण दीक्षित' कृत 'पशुपक्षिविचिन्तनम्' उत्कृष्ट कोटि का खण्डकाव्य है। डॉ.दीक्षित संस्कृत साहित्य की सभी विधाओं में काव्यरचना करने में सिद्धहस्त हैं। आपने अभी तक 30 से अधिक मौलिक कृतियों की रचना की है।
पशुपक्षिविचिन्तनम्' इस खण्डकाव्य को दो भागों में विभक्त किया गया है-1.पशुविचिन्तनात्मक-पूर्वार्द्ध तथा 2.पक्षिविचिन्तनात्मक उत्तरार्द्ध। दोनों भागों में 190-190 पद्य हैं।
कथानक -
पशुविचिन्तनात्मक-
पशुविचिन्तनात्मक नामक पूर्वार्द्ध भाग में विद्याधर नामक एक वैद्य जो पशु-पक्षियों की बोली के जानकार थे; जंगल में जाते हैं तो वहाँ पर हाथी की अध्यक्षता में आयोजित मनुष्यों द्वारा सताए गए सभी प्रकार के पशुओं की सभा को छिपकर देखते हैं। यहाँ पर बकरा,खरगोश,भैंसा,बैल,ऊंट,अश्व, गधा,भेड़,हरिण आदि पशु मनुष्यों द्वारा निर्दयतापूर्वक उनके प्रति किए जाने वाले बुरे व्यवहार को कहते हैं। जैसे कि एक बकरा हाथी से अपनी व्यथा को प्रकट करता हुआ कहता है कि इस देश में तरह-तरह के स्वाद वालीं अनेक स्वादिष्ट शाक-सब्जियाँ रोज ही पैदा हो रही हैं लेकिन फिर भी हाय यहाँ अधिकांश मनुष्य मांसाहारी हो गए हैं; यह आश्चर्य दु:खद है-
नाना स्वादुषु शाकेषु देशेsस्मिन्नुद्भभवत्स्वपि।
हन्त मांसाशना भूता मनुष्या अधिसंख्यका:।।
सभी पशुओं द्वारा अपनी व्यथा बताने के पश्चात् जो अपने क्षणिक स्वाद के लिए इन निरीह पशुओं के मांस को खाते हैं,उन लोगों को धिक्कारते हुए अध्यक्ष हाथी कहता है कि उनकी जीभ की चञ्चलता को धिक्कार है,जिसके वश में होकर वे लोग मांस खाते हैं; और उनकी धन कमाने की उस इच्छा को भी मैं धिक्कारता हूँ, जिसके वश में होकर वे मनुष्य पशुओं को मारते हैं-
धिक् तेषां रसनालौल्यं धिक् तेषां धनगृध्नुताम्।
अदन्ति यद्वशा मांसं पशूंश्च घ्नन्ति यद्वशा:।।
वैद्य विद्याधर जी झाडी में छुपकर बैठे हुए यह सारा वृत्तांत सुनकर दु:खी होते हैं और पशुओं के हितार्थ कोई शुभ कार्य करने का संकल्प लेकर घर लौट आते हैं।
पक्षिविचिन्तनात्मक -
पक्षिविचिन्तनात्मक नामक उत्तरार्द्ध भाग में विद्याधर वैद्य जी फिर से जडी-बूटी लेने जंगल जाते हैं तो एक बरगद के पेड पर पक्षिराज गरुड की अध्यक्षता में चल रही पक्षियों की सभा को छिपकर देखने लगते हैं।यहाँ पर भी मुर्गा,तीतर,बटेर,गोरैया, मोर,तोता,कबूतर आदि सभी पक्षियों ने अपने-अपने ऊपर मनुष्यों द्वारा किए गए अत्याचारों को बताया है। मुर्गा अपनी व्यथा को प्रकट करता हुआ कहता है कि अपनी कामवासना की गर्माहट में बढोतरी लाने के लिए, अपनी जीभ की संतुष्टि के लिए तथा अपनी तथाकथित आधुनिकता को साबित करने के लिए हाय अपनी सभ्यता के गुणों की हत्या करने वाले असंख्य मनुष्य यहाँ हम मुर्गों को रोज ही खाते हैं-
कामोष्मवृद्ध्यै रसनाभितुष्ट्यै,तथोक्त-नव्यत्व-निदर्शनाय च।
जना असंख्या हतसभ्यतागुणा:,खादन्ति हास्मानिह नित्यमेव।।
सभी पक्षियों की व्यथाओं को सुनकर गरुड भी दु:खी होते हुए कहता है कि महावीर,गौतम बुद्ध, गुरुनानक और महात्मा गान्धी के इस भारत देश में पक्षियों खाया जा रहा है,इससे बडी दु:ख की बात और क्या हो सकती है-
महावीरस्य बुद्धस्य , नानकस्य च गान्धिन: ।
खगा: देशेsत्र खाद्यन्ते,दु:खं स्यात् किमत:परम्?
पशु-पक्षियों के दु:ख-दर्द को सुनकर वैद्य विद्याधर का मन बहुत दु:खी हुआ और पशु-पक्षियों की मर्मान्तक व्यथाओं को पत्र के माध्यम से देश के राष्ट्रपति के पास भेज दिया ताकि वे अच्छे प्रशासनिक निर्णय लेकर पशु-पक्षियों की समस्याओं का निदान कर सकें। इस प्रकार खण्डकाव्य की कथा समाप्त हो जाती है।
खण्डकाव्य के माध्यम से डॉ.हरिनारायण दीक्षित न केवल पशु-पक्षियों के ऊपर मनुष्यों द्वारा किए जा रहे निर्दयतापूर्ण व्यवहार को ही बताना चाहते हैं अपितु दया-ममतापूर्वक इस समस्या के निदान के लिए भी लोगों को प्रेरित करना चाहते हैं। इसीलिए डॉ.दीक्षित ने इस खण्डकाव्य को पशु-पक्षियों को खाने वाले लोगों के लिए ही समर्पित किया है ताकि वे इससे कुछ सीख कर परिवर्तन कर सकें-
भूत्वापि मनुजा लोके येsश्नन्ति पशु-पक्षिण:।
अर्पये स्वमिदं तेभ्य: पशुपक्षिविचिन्तनम् ।।
इस ग्रन्थ के द्वारा कवि ने मानवों के हृदय में पशु-पक्षियों के प्रति गहरी संवेदना को उत्पन्न किया है, मनुष्यों में मनुष्यता का परिष्कार किया है। डॉ.दीक्षित ने अपनी अन्य काव्यकृतियों की भांति इस काव्य को भी माधुर्यप्रसादगुण सम्पन्न वैदर्भी शैली के माध्यम से प्रस्तुत किया है। खण्डकाव्य के लिए निर्धारित मानदण्डों की दृष्टि से भी यह ग्रन्थ उत्कृष्ट कोटि का खण्डकाव्य सिद्ध होता है।
डॉ. ललित नामा
असिस्टेंट प्रोफेसर संस्कृत
मोबाइल नम्बर - 9950207542
कृति - पशुपक्षिविचिन्तनम्
विधा - खण्डकाव्य
रचयिता - डॉ.हरिनारायण दीक्षित
पृष्ठ संख्या - 195
अंकित मूल्य - 450
संस्करण प्रथम - 2008
प्रकाशक - ईस्टर्न बुक लिंकर्स,देहली
संस्कृत खण्डकाव्य की परम्परा में राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित 'डॉ.हरिनारायण दीक्षित' कृत 'पशुपक्षिविचिन्तनम्' उत्कृष्ट कोटि का खण्डकाव्य है। डॉ.दीक्षित संस्कृत साहित्य की सभी विधाओं में काव्यरचना करने में सिद्धहस्त हैं। आपने अभी तक 30 से अधिक मौलिक कृतियों की रचना की है।
पशुपक्षिविचिन्तनम्' इस खण्डकाव्य को दो भागों में विभक्त किया गया है-1.पशुविचिन्तनात्मक-पूर्वार्द्ध तथा 2.पक्षिविचिन्तनात्मक उत्तरार्द्ध। दोनों भागों में 190-190 पद्य हैं।
कथानक -
पशुविचिन्तनात्मक-
पशुविचिन्तनात्मक नामक पूर्वार्द्ध भाग में विद्याधर नामक एक वैद्य जो पशु-पक्षियों की बोली के जानकार थे; जंगल में जाते हैं तो वहाँ पर हाथी की अध्यक्षता में आयोजित मनुष्यों द्वारा सताए गए सभी प्रकार के पशुओं की सभा को छिपकर देखते हैं। यहाँ पर बकरा,खरगोश,भैंसा,बैल,ऊंट,अश्व, गधा,भेड़,हरिण आदि पशु मनुष्यों द्वारा निर्दयतापूर्वक उनके प्रति किए जाने वाले बुरे व्यवहार को कहते हैं। जैसे कि एक बकरा हाथी से अपनी व्यथा को प्रकट करता हुआ कहता है कि इस देश में तरह-तरह के स्वाद वालीं अनेक स्वादिष्ट शाक-सब्जियाँ रोज ही पैदा हो रही हैं लेकिन फिर भी हाय यहाँ अधिकांश मनुष्य मांसाहारी हो गए हैं; यह आश्चर्य दु:खद है-
नाना स्वादुषु शाकेषु देशेsस्मिन्नुद्भभवत्स्वपि।
हन्त मांसाशना भूता मनुष्या अधिसंख्यका:।।
सभी पशुओं द्वारा अपनी व्यथा बताने के पश्चात् जो अपने क्षणिक स्वाद के लिए इन निरीह पशुओं के मांस को खाते हैं,उन लोगों को धिक्कारते हुए अध्यक्ष हाथी कहता है कि उनकी जीभ की चञ्चलता को धिक्कार है,जिसके वश में होकर वे लोग मांस खाते हैं; और उनकी धन कमाने की उस इच्छा को भी मैं धिक्कारता हूँ, जिसके वश में होकर वे मनुष्य पशुओं को मारते हैं-
धिक् तेषां रसनालौल्यं धिक् तेषां धनगृध्नुताम्।
अदन्ति यद्वशा मांसं पशूंश्च घ्नन्ति यद्वशा:।।
वैद्य विद्याधर जी झाडी में छुपकर बैठे हुए यह सारा वृत्तांत सुनकर दु:खी होते हैं और पशुओं के हितार्थ कोई शुभ कार्य करने का संकल्प लेकर घर लौट आते हैं।
पक्षिविचिन्तनात्मक -
पक्षिविचिन्तनात्मक नामक उत्तरार्द्ध भाग में विद्याधर वैद्य जी फिर से जडी-बूटी लेने जंगल जाते हैं तो एक बरगद के पेड पर पक्षिराज गरुड की अध्यक्षता में चल रही पक्षियों की सभा को छिपकर देखने लगते हैं।यहाँ पर भी मुर्गा,तीतर,बटेर,गोरैया, मोर,तोता,कबूतर आदि सभी पक्षियों ने अपने-अपने ऊपर मनुष्यों द्वारा किए गए अत्याचारों को बताया है। मुर्गा अपनी व्यथा को प्रकट करता हुआ कहता है कि अपनी कामवासना की गर्माहट में बढोतरी लाने के लिए, अपनी जीभ की संतुष्टि के लिए तथा अपनी तथाकथित आधुनिकता को साबित करने के लिए हाय अपनी सभ्यता के गुणों की हत्या करने वाले असंख्य मनुष्य यहाँ हम मुर्गों को रोज ही खाते हैं-
कामोष्मवृद्ध्यै रसनाभितुष्ट्यै,तथोक्त-नव्यत्व-निदर्शनाय च।
जना असंख्या हतसभ्यतागुणा:,खादन्ति हास्मानिह नित्यमेव।।
सभी पक्षियों की व्यथाओं को सुनकर गरुड भी दु:खी होते हुए कहता है कि महावीर,गौतम बुद्ध, गुरुनानक और महात्मा गान्धी के इस भारत देश में पक्षियों खाया जा रहा है,इससे बडी दु:ख की बात और क्या हो सकती है-
महावीरस्य बुद्धस्य , नानकस्य च गान्धिन: ।
खगा: देशेsत्र खाद्यन्ते,दु:खं स्यात् किमत:परम्?
पशु-पक्षियों के दु:ख-दर्द को सुनकर वैद्य विद्याधर का मन बहुत दु:खी हुआ और पशु-पक्षियों की मर्मान्तक व्यथाओं को पत्र के माध्यम से देश के राष्ट्रपति के पास भेज दिया ताकि वे अच्छे प्रशासनिक निर्णय लेकर पशु-पक्षियों की समस्याओं का निदान कर सकें। इस प्रकार खण्डकाव्य की कथा समाप्त हो जाती है।
खण्डकाव्य के माध्यम से डॉ.हरिनारायण दीक्षित न केवल पशु-पक्षियों के ऊपर मनुष्यों द्वारा किए जा रहे निर्दयतापूर्ण व्यवहार को ही बताना चाहते हैं अपितु दया-ममतापूर्वक इस समस्या के निदान के लिए भी लोगों को प्रेरित करना चाहते हैं। इसीलिए डॉ.दीक्षित ने इस खण्डकाव्य को पशु-पक्षियों को खाने वाले लोगों के लिए ही समर्पित किया है ताकि वे इससे कुछ सीख कर परिवर्तन कर सकें-
भूत्वापि मनुजा लोके येsश्नन्ति पशु-पक्षिण:।
अर्पये स्वमिदं तेभ्य: पशुपक्षिविचिन्तनम् ।।
इस ग्रन्थ के द्वारा कवि ने मानवों के हृदय में पशु-पक्षियों के प्रति गहरी संवेदना को उत्पन्न किया है, मनुष्यों में मनुष्यता का परिष्कार किया है। डॉ.दीक्षित ने अपनी अन्य काव्यकृतियों की भांति इस काव्य को भी माधुर्यप्रसादगुण सम्पन्न वैदर्भी शैली के माध्यम से प्रस्तुत किया है। खण्डकाव्य के लिए निर्धारित मानदण्डों की दृष्टि से भी यह ग्रन्थ उत्कृष्ट कोटि का खण्डकाव्य सिद्ध होता है।
डॉ. ललित नामा
असिस्टेंट प्रोफेसर संस्कृत
मोबाइल नम्बर - 9950207542
सम्यगालोचितम् ... परिचयात्मकलेखः अस्ति यदि विस्तृतलेखः स्यात् तदा अत्त्युत्तमः भवेत् ।
ReplyDeleteधन्यवादाः
आभार
Deleteहार्दिक आभार
ReplyDelete