कृति - सुहासिका
विधा - हास्य व्यंग्य काव्य
लेखक - डॉ. शिवस्वरूप तिवारी
प्रकाशक - कुमार प्रकाशन, हरदोई, उ.प्र..
संस्करण - प्रथम, 2010
पृष्ठ संख्या -88
अंकित मूल्य - 150 रू.
संस्कृत साहित्य में हास्य- व्यंग्य काव्यों की दीर्घ परम्परा उपलब्ध है। अर्वाचीन काव्यकारों में प्रशस्यमित्र शास्त्री, इच्छाराम द्विवेदी प्रणव, हर्षदेव माधव इत्यादि उल्लेखनीय हैं। डॉ. शिवस्वरूप तिवारी रचित सुहासिका काव्यसंकलन भी इसी परम्परा को आगे बढाने वाला काव्य है। प्रस्तुत काव्यसंग्रह के तीन भाग किये गये हैं-
प्रथम भाग - हास्यव्यंग्यकाव्यम्
हास्यव्यंग्यकाव्यम् भाग में 29 शीर्षकों में निबद्ध हास्य एवं व्यंग्य परक कविताएं हैं। कवि मंगलाचरण में गणेश का स्मरण हास्य की शैली में ही करते हैं-
नमस्तस्मै गणेशाय योऽतिभीतः पलायते।
मूषकं वाहनं वीक्ष्य प्लेगाशंकाप्रपीडितः।।
जब चूहों से होने वाला प्लेग महामारी के रूप में फैला तो गणेश भी अपने वाहन मूषकराज से सम्भावित रोग की आशंका से डर कर भाग लिये। यह संस्कृत कवि की विनोदप्रियता ही है, जिसके दायरे में वह अपने ईश को भी ले आता है और उससे भी परिहास कर लेता है। चायस्तोत्र 11 पद्यों में चाय देवी की स्तुति है। चाय तो सब को आनन्द, ज्ञान, शक्ति देने वाली देवी है। ऐसी चाय जहां बनाई और पिलाई जाती हो ऐसी चायशाला टीस्टॉल को अगर कवि एकता बढाने वाली और भेदभाव मिटाने वाली कहते हैं तो इसमें कैसी अतिशयोक्ति-
चायशाला महाधन्याराष्ट्रियैक्यविधायिनी।
भेदभावहरे नित्यं चायदेवि! नमोऽस्तु ते।।
16 पद्यों में निबद्ध मत्कुणस्तोत्र आपके मुख पर हास्य की लकीर खींच देता है। कवि को मच्छर का डंक इंजेक्शन की तरह प्रतीत होता है, अतः वह उसे चिकित्सक के समान मानता है-
यस्य मनोहरस्तुण्डो इन्जेक्शनमिव शोभते।
तस्मै त्रैलोक्यजेतारं मत्कुणाय नमो नमः।।
सूक्तिसौन्दर्यम् कविता के 15 पद्यों में कवि ने संस्कृत में प्रचलित प्राचीन सूक्तियों को हास्य-व्यंग्य से पूर्ण कर परिवर्तित कर दिया है। यथा-
येषां न कुर्सी न पदं न कारम्
बैंकेषु क्षिप्तं प्रचुरं धनं वा ।
ते राजमार्गेषु विनैव बीमां
मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति।।
यहां कुर्सी, बैंक आदि शब्दों को संस्कृत में यथावत लिया गया है। हास्य-व्यंग्य की कविताओं में यह प्रवृत्ति प्रायः देखने को मिलती है क्योंकि इनका संस्कृतीकरण किये जाने पर हास्य रस के आस्वादन की प्रक्रिया में वह तीव्रता नहीं रह पाती है।
विद्यार्थी के पंच लक्षण अब पुराने हो चुके हैं। वर्तमान युग के विद्यार्थी के लक्षण भी युगानुरूप दिये गये है-
बसट्रेनेषु फिल्मेषु त्यक्त्वा स्वाध्यायन्तु यो
विनैव टिकटं याति विद्यार्थीति निगद्यते।
नकलं योग्यता यस्य चन्दा चैव धनार्जनम्
कट्टाधारी मनुष्योऽयं विद्यार्थीति निगद्यते।।
हास्य कवि का परिचय कुछ यूं प्रस्तुत किया गया है-
मम काव्यधारायां निमज्जनेन शीघ्रमेव
मृृत्युलोकतस्तु मुक्तिमेव परिलभ्यते।
रोगिणो हसन्ति स्वस्थमानवा म्रियन्ते चैव
पण्डितेष्वपण्डितेष्वभेदो परिलक्ष्यते।।
द्वितीय भाग - काव्यविविधा
काव्यविविधा भाग में 14 शीर्षकों में निबद्ध विविध विषयक कविताएं हैं। प्रारम्भ में बालकृष्ण को प्रणाम किया गया है। राष्ट्रीय एकता की बात करते हुए कवि कहते हैं कि -
यत्र घण्टाध्वनिर्मन्दिरे-मन्दिरे
मस्जिदेष्वप्यजानध्वनिः श्रूयते।
गान्धिनो रामराज्यस्य संकल्पना
यत्र सम्भाव्यते नौमि तं भारतम्।।
यहां संस्कृत की स्तुति की गई है तो वाल्मीकि को भी नमन किया गया है। यहां प्राकृतिक सौन्दर्य का भी वर्णन सूर्योदयः, प्रावृट्-गीतम्, शारद-शोभा आदि कविताओं में प्राप्त होता है।
तृतीय भाग - वार्ताः
वार्ताः भाग में मूर्ख-लक्षणानि एवं संस्कृतवांग्मये राष्ट्रैक्यभावना ये दो गद्य निबन्ध संकलित हैं।
विधा - हास्य व्यंग्य काव्य
लेखक - डॉ. शिवस्वरूप तिवारी
प्रकाशक - कुमार प्रकाशन, हरदोई, उ.प्र..
संस्करण - प्रथम, 2010
पृष्ठ संख्या -88
अंकित मूल्य - 150 रू.
संस्कृत साहित्य में हास्य- व्यंग्य काव्यों की दीर्घ परम्परा उपलब्ध है। अर्वाचीन काव्यकारों में प्रशस्यमित्र शास्त्री, इच्छाराम द्विवेदी प्रणव, हर्षदेव माधव इत्यादि उल्लेखनीय हैं। डॉ. शिवस्वरूप तिवारी रचित सुहासिका काव्यसंकलन भी इसी परम्परा को आगे बढाने वाला काव्य है। प्रस्तुत काव्यसंग्रह के तीन भाग किये गये हैं-
प्रथम भाग - हास्यव्यंग्यकाव्यम्
हास्यव्यंग्यकाव्यम् भाग में 29 शीर्षकों में निबद्ध हास्य एवं व्यंग्य परक कविताएं हैं। कवि मंगलाचरण में गणेश का स्मरण हास्य की शैली में ही करते हैं-
नमस्तस्मै गणेशाय योऽतिभीतः पलायते।
मूषकं वाहनं वीक्ष्य प्लेगाशंकाप्रपीडितः।।
जब चूहों से होने वाला प्लेग महामारी के रूप में फैला तो गणेश भी अपने वाहन मूषकराज से सम्भावित रोग की आशंका से डर कर भाग लिये। यह संस्कृत कवि की विनोदप्रियता ही है, जिसके दायरे में वह अपने ईश को भी ले आता है और उससे भी परिहास कर लेता है। चायस्तोत्र 11 पद्यों में चाय देवी की स्तुति है। चाय तो सब को आनन्द, ज्ञान, शक्ति देने वाली देवी है। ऐसी चाय जहां बनाई और पिलाई जाती हो ऐसी चायशाला टीस्टॉल को अगर कवि एकता बढाने वाली और भेदभाव मिटाने वाली कहते हैं तो इसमें कैसी अतिशयोक्ति-
चायशाला महाधन्याराष्ट्रियैक्यविधायिनी।
भेदभावहरे नित्यं चायदेवि! नमोऽस्तु ते।।
16 पद्यों में निबद्ध मत्कुणस्तोत्र आपके मुख पर हास्य की लकीर खींच देता है। कवि को मच्छर का डंक इंजेक्शन की तरह प्रतीत होता है, अतः वह उसे चिकित्सक के समान मानता है-
यस्य मनोहरस्तुण्डो इन्जेक्शनमिव शोभते।
तस्मै त्रैलोक्यजेतारं मत्कुणाय नमो नमः।।
सूक्तिसौन्दर्यम् कविता के 15 पद्यों में कवि ने संस्कृत में प्रचलित प्राचीन सूक्तियों को हास्य-व्यंग्य से पूर्ण कर परिवर्तित कर दिया है। यथा-
येषां न कुर्सी न पदं न कारम्
बैंकेषु क्षिप्तं प्रचुरं धनं वा ।
ते राजमार्गेषु विनैव बीमां
मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति।।
यहां कुर्सी, बैंक आदि शब्दों को संस्कृत में यथावत लिया गया है। हास्य-व्यंग्य की कविताओं में यह प्रवृत्ति प्रायः देखने को मिलती है क्योंकि इनका संस्कृतीकरण किये जाने पर हास्य रस के आस्वादन की प्रक्रिया में वह तीव्रता नहीं रह पाती है।
विद्यार्थी के पंच लक्षण अब पुराने हो चुके हैं। वर्तमान युग के विद्यार्थी के लक्षण भी युगानुरूप दिये गये है-
बसट्रेनेषु फिल्मेषु त्यक्त्वा स्वाध्यायन्तु यो
विनैव टिकटं याति विद्यार्थीति निगद्यते।
नकलं योग्यता यस्य चन्दा चैव धनार्जनम्
कट्टाधारी मनुष्योऽयं विद्यार्थीति निगद्यते।।
हास्य कवि का परिचय कुछ यूं प्रस्तुत किया गया है-
मम काव्यधारायां निमज्जनेन शीघ्रमेव
मृृत्युलोकतस्तु मुक्तिमेव परिलभ्यते।
रोगिणो हसन्ति स्वस्थमानवा म्रियन्ते चैव
पण्डितेष्वपण्डितेष्वभेदो परिलक्ष्यते।।
द्वितीय भाग - काव्यविविधा
काव्यविविधा भाग में 14 शीर्षकों में निबद्ध विविध विषयक कविताएं हैं। प्रारम्भ में बालकृष्ण को प्रणाम किया गया है। राष्ट्रीय एकता की बात करते हुए कवि कहते हैं कि -
यत्र घण्टाध्वनिर्मन्दिरे-मन्दिरे
मस्जिदेष्वप्यजानध्वनिः श्रूयते।
गान्धिनो रामराज्यस्य संकल्पना
यत्र सम्भाव्यते नौमि तं भारतम्।।
यहां संस्कृत की स्तुति की गई है तो वाल्मीकि को भी नमन किया गया है। यहां प्राकृतिक सौन्दर्य का भी वर्णन सूर्योदयः, प्रावृट्-गीतम्, शारद-शोभा आदि कविताओं में प्राप्त होता है।
तृतीय भाग - वार्ताः
वार्ताः भाग में मूर्ख-लक्षणानि एवं संस्कृतवांग्मये राष्ट्रैक्यभावना ये दो गद्य निबन्ध संकलित हैं।