कृति - सिनीवाली
विधा - मुक्तछन्दोबद्धकाव्य
लेखक - प्रो. देवदत्त भट्टि
प्रकाशक - शब्दश्री प्रकाशन आगरा
प्रकाशक - प्रथम, 1986
पृष्ठ संख्या - 128
संस्कृत में प्रयोगशील शैली की कविताओं का संकलन है सिनीवाली । सिनीवाली शीर्षक से ही डॉ. रामकरण शर्मा का भी एक काव्यसंग्रह प्रकाशित है। प्रो. देवदत्त भट्टि रचित ‘इरा’ और ‘सिनीवाली’ काव्य आधुनिक शैली में निबद्ध कविताओं के लिए चर्चित रहे हैं। सिनीवाली मुक्तछन्द में 115 कविताओं का संकलन है। ये सभी कविताएं प्रायः यथार्थवादी दविचारधारा की हैं। कवि कहता है कि मेरे देश में व्यक्तियों का समाज नहीं है अपितु व्यक्तियों की भीड मात्र है-
मम देशे
जनानां समाजो नास्ति,
जनसंमर्दोऽस्ति।
मद्देशनागरिकाः
मिथः सहानुभूतिं न कुर्वन्ति,
न चापि तेषु सामाजिकता।
ते तु
एकस्य जनसंमर्दस्य
व्यस्ततां कोलाहलं च
वर्धमानाः
मिथोऽसंयुक्ताः
तरसा धावन्तः
जनाः सन्ति
येषां न किंचित्
सामान्यम्, युक्तं वा।
आधुनिक संस्कृत कवि एक मनुष्य के रूप में यह स्वीकारता है कि अभी भी उस में पशुता का अंश शेष है ,जो अवसर पाकर यदा कदा बाहर निकल आता है। जब वह किसी असहाय सुन्दरी को देखता है या किसी निर्बल को सहायता के लिए विवश होते देखता है तो आदि युग में लुप्त उस की पूंछ निकल आती है, सींग पुनः उग आते हैं और वह अपने में केवल पशुता को देखता है, जिसे दूर करने में वह चाह कर भी समर्थ नहीं हो पाता-
अहञ्च
केवलां पशुतामेव
मयि पश्यामि।
प्रयतमानोऽपि
अपगच्छन्तीं मानवताम्
उपसंहर्तुं न पारयामि।
रहसा मयि
प्रविशन्तीं पशुताम्
अपाकर्तुं नालम्,
खिद्ये चात्मवैवश्ये।
कवि कहीं सत्य को समझने की चेष्टा करता है (सत्यम्) तो कहीं धर्म के तथाकथित कर्णधारों को धर्म समझाता है (धर्मः)। कहीं वह इस युग की विडम्बनाओं को प्रकट करता है (कोऽयं युगः) तो कहीं व्यंग्य के माध्यम से वर्तमान राजनीति की परतें उघाडता है (साप्तपदी)। प्रो. भट्टि की बिम्ब योजना अनूठी है। कवि कहता है कि हम तो तुष मात्र शेष धान हैं, जिनमें चावल नहीं बचे या कि हम छिलकों के रूप में बचे हुए फल हैं, जिनके सार को कीडों ने खा लिया है-
तुषमात्रावशेषाः
शालयः स्मो वयम्,
येषु तण्डुला न सन्ति।
वल्कलावशिष्टानि
(त्वङ्मात्रावशेषाणि)
फलानि स्मो वयम्,
येषु सारभूतोऽष्ठीलांशः
कीटैर्भक्षितः।।
प्रेम के विषय में कवि कहते हैं कि प्रेम न तो स्वर है , न शब्द, न प्रतीक्षा है, न देह की भूख। प्रेम तो अनन्त काल से चली आ रही आत्मा की शाश्वत अनुभूति है, आत्म सौन्दर्य का उत्स है, मन की भाषा का मधुर अनुवाद है प्रेम-
प्रेम तु-
अनन्तकालादागताऽऽत्मनः
अनुभूतिः शाश्वती,
आत्मबोधस्यात्मसौन्दर्यस्य
चोत्सः
मनसो भाषायाः
मध्वनुवादः।।
विधा - मुक्तछन्दोबद्धकाव्य
लेखक - प्रो. देवदत्त भट्टि
प्रकाशक - शब्दश्री प्रकाशन आगरा
प्रकाशक - प्रथम, 1986
पृष्ठ संख्या - 128
संस्कृत में प्रयोगशील शैली की कविताओं का संकलन है सिनीवाली । सिनीवाली शीर्षक से ही डॉ. रामकरण शर्मा का भी एक काव्यसंग्रह प्रकाशित है। प्रो. देवदत्त भट्टि रचित ‘इरा’ और ‘सिनीवाली’ काव्य आधुनिक शैली में निबद्ध कविताओं के लिए चर्चित रहे हैं। सिनीवाली मुक्तछन्द में 115 कविताओं का संकलन है। ये सभी कविताएं प्रायः यथार्थवादी दविचारधारा की हैं। कवि कहता है कि मेरे देश में व्यक्तियों का समाज नहीं है अपितु व्यक्तियों की भीड मात्र है-
मम देशे
जनानां समाजो नास्ति,
जनसंमर्दोऽस्ति।
मद्देशनागरिकाः
मिथः सहानुभूतिं न कुर्वन्ति,
न चापि तेषु सामाजिकता।
ते तु
एकस्य जनसंमर्दस्य
व्यस्ततां कोलाहलं च
वर्धमानाः
मिथोऽसंयुक्ताः
तरसा धावन्तः
जनाः सन्ति
येषां न किंचित्
सामान्यम्, युक्तं वा।
आधुनिक संस्कृत कवि एक मनुष्य के रूप में यह स्वीकारता है कि अभी भी उस में पशुता का अंश शेष है ,जो अवसर पाकर यदा कदा बाहर निकल आता है। जब वह किसी असहाय सुन्दरी को देखता है या किसी निर्बल को सहायता के लिए विवश होते देखता है तो आदि युग में लुप्त उस की पूंछ निकल आती है, सींग पुनः उग आते हैं और वह अपने में केवल पशुता को देखता है, जिसे दूर करने में वह चाह कर भी समर्थ नहीं हो पाता-
अहञ्च
केवलां पशुतामेव
मयि पश्यामि।
प्रयतमानोऽपि
अपगच्छन्तीं मानवताम्
उपसंहर्तुं न पारयामि।
रहसा मयि
प्रविशन्तीं पशुताम्
अपाकर्तुं नालम्,
खिद्ये चात्मवैवश्ये।
कवि कहीं सत्य को समझने की चेष्टा करता है (सत्यम्) तो कहीं धर्म के तथाकथित कर्णधारों को धर्म समझाता है (धर्मः)। कहीं वह इस युग की विडम्बनाओं को प्रकट करता है (कोऽयं युगः) तो कहीं व्यंग्य के माध्यम से वर्तमान राजनीति की परतें उघाडता है (साप्तपदी)। प्रो. भट्टि की बिम्ब योजना अनूठी है। कवि कहता है कि हम तो तुष मात्र शेष धान हैं, जिनमें चावल नहीं बचे या कि हम छिलकों के रूप में बचे हुए फल हैं, जिनके सार को कीडों ने खा लिया है-
तुषमात्रावशेषाः
शालयः स्मो वयम्,
येषु तण्डुला न सन्ति।
वल्कलावशिष्टानि
(त्वङ्मात्रावशेषाणि)
फलानि स्मो वयम्,
येषु सारभूतोऽष्ठीलांशः
कीटैर्भक्षितः।।
प्रेम के विषय में कवि कहते हैं कि प्रेम न तो स्वर है , न शब्द, न प्रतीक्षा है, न देह की भूख। प्रेम तो अनन्त काल से चली आ रही आत्मा की शाश्वत अनुभूति है, आत्म सौन्दर्य का उत्स है, मन की भाषा का मधुर अनुवाद है प्रेम-
प्रेम तु-
अनन्तकालादागताऽऽत्मनः
अनुभूतिः शाश्वती,
आत्मबोधस्यात्मसौन्दर्यस्य
चोत्सः
मनसो भाषायाः
मध्वनुवादः।।
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