Tuesday, July 14, 2020

हृदय की संसिसृक्षा है कविता - शतपत्रम्

कृति - शतपत्रम् 

लेखक - रेवाप्रसाद द्विवेदी
विधा - मुक्तककाव्य
प्रकाशक - कालिदास संस्थान, वाराणसी
संस्करण -प्रथम, 1987
पृष्ठ संख्या - 42
अंकित मूल्य - 30 रू.

आचार्य रेवाप्रसाद द्विवेदी अर्वाचीन संस्कृत साहित्य में अपनी बहुमुखी रचनाधर्मिता के लिए प्रसिद्ध हैं। आचार्य द्विवेदी ने 1985 में दिल्ली में आयोजित वाल्मीकि समारोह नामक विश्व कवि सम्मेलन में जिस काव्य को सुनाया था, उसी को संकलित करके शतपत्र नाम से प्रकाशित किया गया है। इस मुक्तक काव्य में 115 पद्य निबद्ध हैं, जो कविता को केन्द्र में रखकर रचे गये हैं। आचार्य के पुत्र सदाशिव द्विवेदी कहते हैं कि यहां दर्शन, ऐतिह्य और उक्ति तीनों की समरसता है।

   कविता को परिभाषित करते हुए कवि कहते हैं कि कविता तो एकान्त मेें जाग उठने वाली संसिसृक्षा है, अगर वाग्देवी उसका प्रतिबिम्ब पा जाती है तो वह नृत्य कर उठती है-

कविता हृदयस्य संसिसृक्षा
प्रतिबुद्धस्य रहः कुतोऽपि हेतोः।
वचसामधिदेवता यदीयं
प्रतिबिम्बं परिरभ्य नर्नृतीति।।

              कविता को अगर समझाना पडे कि कविता क्या है, वह कैसा व्यवहार करती है तो कवि कहता है कि कविता तो नई दुल्हन की तरह हृदय की एक ऐसी भाषा है , जो मुखर भी रहती है और मौन भी। यहां सम्पूर्ण अर्पण का एकमात्र उपाय प्रतिपत्ति ही बन पाती है, न तो शक्ति और न भक्ति। इस प्रतिपत्ति में गौरव, प्राप्ति, प्रवृत्ति, प्रगल्भता तथा बोध सम्मिलित है-

कविता हृदयस्य कापि भाषा
मुखरा मौनमयी वधूर्नवेव।
न हि शक्तिरथो न तत्र भक्तिः
प्रतिपत्तिस्तु समर्पणाय मार्गः।।


               कवि कविता को परिभाषित करने के लिये हमारे साहित्य व इतिहास का भी उपयोग करते चलते हैं। कालिदास कृत विक्रमोवर्शीय में कार्तिकेय के अप्रवेश्य गन्धमादन पर्वत तथा संगमनीय मणि की कथा की पृष्ठभूमि में कहते हैं कि कविता तो कौमारव्रती कार्तिकेय के अप्रवेश्य धाम में उनकी माता पार्वती के चरणों से अलते से बनी संगमनीय मणि है, जो आकस्मिक योग में अत्यन्त निपुण है-

कविता व्रतिनो गुहस्य धाम्नि
प्रतिषिद्धे गिरिजांघ्रियावकात्मा।
स हि संगमनीय इत्यभिख्यो 
मणिराकस्मिकयोग-संपटिष्ठः।।

               कविता यहां कहीं त्रिपुरारि का भस्मलेप है, जिसमें मृत्यु अमृतत्व से जुडी है तो कहीं वह पराम्पर शिशु गोपाल की त्रिलोकवन्द्य मुरली है। कविता यहां वाग्देवी के करकमलों में विराजमान शुकशावक है, भोलीभाली शकुन्तला का प्रेमपत्र है, शिव की तीसरी आंख है, विष्णु के वक्ष पर विराजमान कौस्तुभ मणि है।
    कवि साथ ही यह भी बतलाते हैं कि कविता क्या नहीं है। वे कहते हैं कि न तो देश के साथ किया गया घात कविता है  और  न ही धनलिप्सा।  कविता पलायन का मन्त्र भी नहीं है ओर न ही पदलिप्सा में किया गया कथन कविता है-

कविता न मुमूर्षता गुरूणां 
पदलाभेन कृतार्थभावभाजाम्।
कविता न च राजनीतियात्रा 
गुरुगेहेऽध्ययनाय दीक्षितानाम्।।

           कविता यदि विवाहितों के कोहवर का गीत है तो युद्धभूमि की उद्घोषणाएं भी कविता ही है। पांचाली का खुला केशपाश कविता है और चाणक्य की खुली शिखा भी कविता ही है। कवि कहते हैं कि सब कुछ कह देने के बाद भी जो अकथित बचा रह जाता हैं, हृदय का वह वाक्यशेष कविताहै। कविता जितनी पुरानी है उतनी ही नई भी है किन्तु उसे न तो पुरानी कहा सकता है और न ही नई-

कविता हृदयस्य वाक्यशेषः
कथितेऽनुक्ततया प्रकाशमानः।
कविता कथिता कथा पुराणी
न पुराणी न नवा, सुरांगना सा।।

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