कृति – ब्रह्मनाभिः
विधा - मुक्तछन्द में लिखित संस्कृत काव्यसंग्रहः
कवि – प्रफुल्ल कुमार मिश्र,
प्रकाशक – श्रीमती स्वर्णलता मिश्र, स्वर्ण प्रकाशन, 331 – A, तपस्या, श्रीअरविन्द नगर, चन्द्रशेखरपुर, भुवनेश्वर 751016, ओडिशा,
प्रथम प्रकाश – विक्रम संवत् 2056, 2000 A. D.,
मूल्य – Rs. 70/- (soft binding) तथा Rs. 85/- (hard binding),
पृष्ठ संख्या – v + 57
प्रोफेसर प्रफुल्ल कुमार मिश्र के नाम को आधुनिक संस्कृत साहित्य जगत् में रहस्यवादी कवि के रूप में उल्लिखित करे तो अतिरञ्जित नहीं होगा । प्रोफेसर मिश्र उत्कल विश्वविद्यालय, भुवनेश्वर के संस्कृत विभाग में 33 साल अध्यापन करके 2014 फरवरी में अध्यापन कार्य से मुक्त हुए हैं । आप उत्कल विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर परिषद् के अध्यक्ष; राष्ट्रीय पाण्डुलिपि मिशन (नासानाल् मिशन फॉर मेनुस्क्रिप्टस्), नई दिल्ली के निर्देशक; उत्तर ओडिशा विश्वविद्यालय, वारिपदा के कुलपति के रूप में काम कर चुके हैं तथा वर्तमान डा. राजेन्द्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, समस्तिपुर, पुसा, बिहार के कुलाधिपति के रूप में कार्यरत है । शैक्षिक और प्रशासनिक कार्य में व्यस्त रहकर भी प्रोफेसर मिश्र कभी काव्य को नहीं भूले हैं । संस्कृत काव्य, अलङ्कारशास्त्र और वैदिक साहित्य प्रोफेसर मिश्र के विषय हैं । प्रो. मिश्र के पास प्रत्यक्ष रूप से पढने का और उनके निर्देशन में शोध कार्य करने का अवसर मुझे प्राप्त हुआ था । कवि की अन्तर्दृष्टि गंभीर है । ओडिशा की आध्यात्मिक और पर्यटन नगरी पुरी में 1954 फरवरी में जन्मे कवि प्रो. मिश्र श्रीअरविन्द दर्शन के अनुगामी है । प्रतिदिन कुछ ना कुछ लिखने का अभ्यास कवि प्रफुल्ल कुमार मिश्र के भावोच्छ्वास और कवि गुण को दर्शाता है । उत्कल विश्वविद्यालय के सवुजिमा से भरे प्राङ्गण में जब आकाश में मेघ उमड आते थे और शीतल हवा से जब पेडों की पत्तियां झुमती थी तब कवि बोला करते थे की देखो कैसे यह सारे पेड आकाश के साथ संवाद कर रहे हैं । कवि ही प्रकृति को वैसे देख सकता है । अभी तक प्रो. मिश्र के संस्कृत में 15 काव्य संग्रह (1. चित्रकुरङ्गी - 1995, 2. तव निलये - 1998, 3. ब्रह्मनाभिः-2000, 4. कोणार्के - 2001, 5. चित्रङ्गदा - 2005, 6. ऋतायनी (संपादित काव्य संग्रह) - 2005, 7. कविताभुवनेश्वरी (संपादित काव्य संग्रह) - 2005, 8. काव्यवैतरणी (संपादित काव्य संग्रह) - 2006, 9. चत्वारि शृङ्गाः - 2009, 10. मनोजङ्गमे – 2010, 11. तथापि सत्यस्य मुखम् – 2011, 12. गोधूलिः – 2011, 13. चैत्ररजनी – 2016, 14. धर्मपदीयम् – 2016 तथा 15. कुशभद्रामहाकाव्यम् – 2019), एक पत्र कथा (पत्रप्रिया – 2014), अंग्रेजी में 07 शैक्षिक और शोध पुस्तक तथा ओडिआ भाषा में 08 पुस्तक प्रकाशित हैं।
‘ब्रह्मनाभिः’ एक रहस्यात्मक काव्य संग्रह है । रहस्यवाद संस्कृत कवियों का परिचय होता है । लगभग सारे संस्कृत भाषा के कवि रहस्यवाद को छूते हैं। कवि मिश्र अपने काव्य में रहस्य को बिम्ब, प्रतिबिम्ब और रूपचित्रों से सजाते हैं। ‘ब्रह्मनाभिः’ शब्द सूचक है ‘नाभौ ब्रह्म यस्य’ या फिर ‘ब्रह्म एव नाभिः’ का । भगवान् जगन्नाथ के नाभि स्थान में ब्रह्म नामक सांकेतिक वस्तु संस्थापित है यह विश्वास जगन्नाथ संस्कृति में है । वास्तव में मनुष्य जीवन में भी यही होता है । शिशु नाभि से ही खाद्य ग्रहण करके माता की कोख में पुष्ट होता है । नीरव और निःशब्दता से भगवान् अपने नाभि से स्पन्दित हैं और बाहर दारुमय हैं| इस तथ्य को रूपचित्र में उपजीव्य बनाकर कवि संसार के दुःख और अन्तःस्थ सुख कर सन्धान में काव्य लिखते हैं। जैसे ‘विज्ञप्तिः(preface)’ में कवि ने कहा है –
“पूर्वसमुद्रतटस्थितस्य पुरुषोत्तमक्षेत्रस्य भगवतो जगन्नाथस्य महिमानं विश्वविश्रुतं मन्ये । दारुरूपेण स्पन्दनं गभीरे नाभिब्रह्मणि जायते । बहिः दारुरूपे वयं पश्यामः समस्तं दुःखं प्राणीनां श्रुत्वा तूष्णीं तिष्ठति । मनुष्योऽपि स्वस्य सुकुमारभावनां किमर्थं बहिः प्रकाशयेत् ? यतो हि इह लोके तस्य भावनामभिज्ञातुं न कश्चिद् वर्तते । हृदि सुखस्य दुःखस्य वा गणनं चलतु । प्रत्यूत बहिः स्पन्दनहीनतायाः दारुजीवनं प्रसरतु चेत् न कश्चित् तस्य सुकुमारभावनायाः हासं जनयिष्यति । हृदि गोपनेन स्वकीयां भावनां निधाय आत्मरतौ रमते । तत्र का क्षतिः । संसारे कुत्र वा सहृदयता लभ्यते ? स्वस्वगानप्रमत्तः न कश्चित् शृणोति क्रन्दनमपरस्य । स्वप्नार्जिते सुखे कस्यचिदपि न वर्तते किमपि नेतुम् । अन्योन्यभावनाविरहितत्वात् नाभिब्रह्मणि स्पन्दनवत् स्पन्दनं भवतु । कालो ह्ययं निरवधिः विपुला च पृथ्वी । अतः स्पन्दमानस्य ध्वनेः श्रवणं पुनः कथञ्चित् भवतु । चिदाकाशे हृदन्धकारे एतान्यपि वस्तूनि दृष्टिपथारूढानि भवन्ति । अतः तेषां मननं प्रकटनञ्च काव्यस्तवकेऽस्मिन् ग्रथितम् । अन्तःस्थलं हृदाकाशस्य विस्तारं विज्ञाय यदि कश्चित् तत्रस्थानां चित्राणां प्रकाशं कुर्यात् तर्हि तेषां स्वरूपं किं भवेत् ? इति धिया शून्यतायाः चित्रणमपि कृतम् ।” (पृ. सं. iii)
वास्तव में मनुष्य जब शून्य होता है तव पूर्ण को ढूंढता है और ब्रह्म तो सदा पूर्ण है । ‘ब्रह्मनाभिः’ काव्य संग्रह में सूचीपत्र के अनुसार कुल 20 कवितायें हैं। पर प्रथम काव्य ‘ब्रह्मनाभिः’ शीर्षक के अन्तर्गत 14 कवितायें, द्वितीय काव्य ‘शिवः’ के अन्तर्गत 12 कवितायें, अष्टम काव्य तिमिरः शीर्षक के अन्तर्गत 22 कवितायें संकलित हैं । श्रीजगन्नाथ का ब्रह्मतत्त्व, शिव का विषपान करके जगत् का कल्याण करना, माता त्रिपुरविमोहिनी का वर्णन, गङ्गा की पावनता, मनुष्य जीवन की विपलता और नैराश्य, सावित्री – सत्यवान् की कथा में सावित्री का सत्यान्वेषण, ओडिशा के मन्दिर गात्रों में शिला में अङ्कित चन्द्रावली, एकावली नाम की नायिकायों का वर्णन, कलिङ्ग भूमि में युद्ध के लिए आये हुए सम्राट् अशोक का धर्माशोक में रूपान्तरण और बुद्ध की अहिंसा प्रचार आदि सामाजिक, ऐतिहासिक, धार्मिक और आध्यात्मिक तथ्यों को लेकर यहां कविताएं चित्राङ्कित हुई हैं।
योगदर्शन के अनुसार ब्रह्मप्राप्ति का साधन षड् चक्र साधन या कुण्डलिनी जागरण है । इडा पिङ्गला के माध्यम से मूलाधार से लेकर सहस्रार चक्र भेदन ही ब्रह्मप्राप्ति की क्रमिक अवस्थायें हैं । इस तथ्य का संकेत हुए कवि ने लिखा है कि –
नाभिब्रह्म !
नाभौ सञ्चरतः हृदि स्पन्दतः
अनन्तकालकवलिते जडप्राणावस्थिते ते
मूलाधारतः स्वाधिष्ठानपर्यन्तं
तस्मात् मणिपुरकमनाहतं निष्पीड्य निष्पीड्याज्ञा
मारुतं हृद्युद्भिद्य ब्रह्मरन्ध्रं
हंसमिथुनावेव रंरमते
सहस्रारे ।।
(ब्रह्मनाभिः, 5, पृ. सं. 3)
देवता ने सृष्टि को सुन्दर बनाने के लिए कठिन श्रम किया है । पर उस श्रम को कौन देखता है ? यह भावना श्रीरविन्द की ‘A God’s Labour’ [Collected Poems from Sri Aurobindo Birth Centenary Library (Volumn 5) with Odia Translation, p. 44] कविता में अङ्कित है । उस की छाया में कवि ‘शिवः’ कविता में लिखते हैं कि–
जीर्णः हलाहलस्य प्रकोपः
वर्द्धते शिवस्य कोपः
विषादोऽसौ दग्धः पुष्पशरः
शोभनेशः, हृदि दुःखं
येषां सुखार्थं विषपानदग्धः
क्व गतास्ते सुरासुराः ??
(शिवः (गरलपानम्), 2, पृ. सं. 13)
फिर शिव की शान्त मूर्त्ति विषज्वाला से घोर तनु में परिणत होती है -
विषपानानलस्य देहस्य
ज्वालायाः नीलेषु
शिवतनूः घोरायते ।
घोरतरेण रुद्रायते
रुद्ररूपेण सर्वमत्ति ।।
(शिवः (गरलपानम्), 3, पृ. सं. 14)
शिव का शिवत्व मङ्गलमय रूप स्वर्ग से लेकर पाताल तक मङ्गल ही वर्षाता है । विपरीत भाव वाले उनके प्रभाव से मित्रता से उनके परिवार में एकत्रित निवास करते हैं । शुद्ध सत् चरितों का प्रभाव के बारे में यहां संकेत किया गया है -
पुत्रस्ते क्रीडति मयूरस्योपरि
त्वदलंकाराः सर्पाः भीताः
तदर्थं कनिष्ठस्य मूषकः रक्षितः
वृषभश्च सिंहात् सुरक्षितः ।।
परस्परं स्पर्धमानाः
जन्तुभिः निर्लिप्तः
त्वद्भावना कैलासस्य
हिमाङ्कलेखामतिरिच्य
पातालं शीतलायते ।।
(शिवः शवः, 5, 2-3, पृ. सं. 14-15)
सम्राट् खारबेल (ख्री. पू. द्वितीय या प्रथम शतक) द्वारा निर्मित कलिङ्ग प्रदेश की खण्डगिरि की गुफायें आज भी प्राचीन ओडिशा की बौद्ध कीर्तियों की मूक साक्षी हैं-
धर्मकीर्त्तिदिङ्नागानां
शून्यकोटरा अपि
थेरावादस्य माध्यमिककारिकायाः
साक्षरं वहन्ति ।।
व्याघ्रस्य गर्जने सा गुहा
करालायते
शोणितविन्दुपातेन
सर्वं शून्यायते ।।
(तृतीयनेत्रम्, 11, 4-5, पृ. सं. 20)
गङ्गा का सुन्दर वर्णन काव्य को सरस बनाता है –
घर्घर-निनादिनी
कुलु-कुलु-प्लाविनी
मतङ्गजगामिनी
निःसरति भामिनी
अनन्तलोक-पावनी
वनान्त-गुल्म-तोषिणी ।।
(गङ्गा, 1, पृ. सं. 23)
उत्कल की पुराणी वैभव पूर्ण गाथा को याद करके, उसकी कला नैपुण्य को याद करके या फिर प्रतिभावान् चित्रकार को न पहचानने के दुःख को आज का कवि व्यक्त करता है –
चित्रवीथौ शून्यायिते चित्रे
तूलिका रुदति रङ्गलोतकैः ।
अन्धः कर्षति वर्णविभवं
चित्रकारस्य का दशा ??
(चन्द्रवली, 2, पंक्ति 5, पृ. सं. 28)
दूरदर्शन आज कर समाज को कहीं पठन से, अध्यात्म से और आत्मचिन्तन से दूर तो नहीं कर रहा हैं ? इस को व्यंजित करके कवि कहते हैं -
अहर्निशं बोधयति
किं कर्म किमकर्मेति ।
हासयति त्रासयति
मोदयति मोहयति
रोषयति रोदयति
टिभिं वन्दे महागुरुम् ।।
(तिमिरः, 5 – टिभिं वन्दे महागुरुम्, पृ. सं. 35)
हम लोग भगवान् के कितने करीब है, वह अन्तःकरण की स्वच्छता, श्रद्धा, विश्वास, गभीरता, नीरवता और समर्पण संकेत करता है । प्रचार से लोकप्रियता कुछ क्षण के लिए रहती है । कवि व्यंजना भरते हैं –
इदानीं देवदेवस्य
घोषयात्रा प्रवर्त्तते ।
प्रचारः दूरदर्शने
प्रसारः दूरसंचारे
भक्ति-भावना कुत्र गता ??
(तिमिरे मे मनः, 19, पृ. सं. 39)
सावित्री – सत्यवान् की कथा महाभारत के आदिपर्व में आख्यायित है । सावित्री कथा को उपजीव्य बनाकर श्रीअरविन्द ने विश्व का सबसे बडा अंग्रेजी महाकाव्य लिखा है । आज भी ओडिशा में ज्येष्ठ अमावस्या की तिथि में पत्नी अपने पति की दीर्घायु कामना करके व्रत रखती है, सावित्री कथा पाठ करती है और सावित्री को देवी मानती है । महाभारत की कथा ओडिशा के जन जीवन में रूपायित होने का उत्स अनुसन्धान सापेक्ष है । एकनिष्ठ प्रेम और सत्य संकल्प मृत्यु को भी पराजित कर सकता है, यह इस कथा का अन्तर्मर्म है -
अन्वेषणं सावित्र्याः
किं जनयति जागरणं
सत्यवता किं ज्ञातम् ?
सावित्र्याः नेत्रं कोरकितं
तारके तारकायते
अभिज्ञाय स्वस्य
प्रियं मित्रम् ।
जीवनस्य
विवक्षितं
लक्ष्यम् ।।
(अन्वेषणं सावित्र्याः, पृ. सं. 45)
समय से वृष्टि न होने का चित्र भी कवि ने व्यथित चित्त से लिखा है । श्रीजगन्नाथ के दो पार्श्व में रत्नसिंहासन के उपर दो देवीयां अधिष्ठित हैं । वामपार्श्व में श्रीदेवी जो श्रीलक्ष्मी जी की प्रतिनिधि है और दक्षिणभाग में भूदेवी जो भूमि या पृथ्वी को प्रतिनिधित्व करती हैं । श्रीजगन्नाथ की रथयात्रा पर्व अक्षय तृतीया से प्रारम्भ होता है जिस दिन रथ निर्माण की प्रक्रिया शुरू होती है । ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन ग्रीष्म उत्ताप के कारण भगवान् 108 कुम्भ के सुवासित जल से स्नान करते है और 14 दिन तक ज्वर पीडित होते हैं । इस समय भक्तों को दर्शन नहीं देते हैं । आषाढ अमावास्या में फिर नवयौवन के रूप में दर्शन होता है । आषाढ के शुक्ल द्वितीय दिवस में रथयात्रा होती है, जो वर्षण की प्रारम्भ बेला को सूचित करती है । वृष्टि से पृथ्वी सस्यश्यामला होगी और श्री से या लक्ष्मी से भर जायेगी – यह भी सूचित होता है । पर समय में वृष्टि नहीं होती है ।
श्रीदेवी संतापिता तापितापि भूदेवी
तापेनात्र जगन्नाथः पक्षं ज्वरायते
वर्षायां नवयौवने कदम्बकदम्बायिते
नीलाचले निश्चिन्तः शेषशय्यामध्यास्ते ।।
(सम्बिधानम्, 4, पृ. सं. 49)
आकुले प्रार्थ्यते जलं जलमिति
मेघाडम्बरे सर्वं विलीनम् ।
व्यर्थं यत्र मयूरस्य नृत्यं
व्यर्थं सर्वं संविधानकम् ।।
(सम्बिधानम्, 7, पृ. सं. 50)
ऋण लेना और किसी का ऋणी होने की वेदना को कवि ने दर्शाया है । अधमर्ण भाव आत्मसम्मान को संतापित करता है -
कियन्ती व्यथा
कस्यचिदधमर्णस्य
कन्यायाः विवाहार्थं
औषध्यर्थं पुत्रस्य दारस्य
वा पितुरामये ।।
कियन्ती व्यथा
एतस्मिन् लोके
कश्चिद् यदि जातोऽधमर्णः ।।
(अधमर्णः, 1-2, पृ. सं. 57)
हृदय की अव्यक्त व्यथायें काव्य बनती हैं । व्यथा की स्पन्दन काव्य में होता है जैसे ब्रह्म का स्पन्दन दारु देवता की नाभि में है । इस उपलक्षण से मनुष्य जीवन में कवित्व का महत्त्व ‘ब्रह्मनाभिः’ काव्यसंग्रह में मुखरित है । नामधातुओं का विपुल प्रयोग इस काव्य में देखने को मिलता है ।
डॉ. पराम्बा श्रीयोगमाया
सहायक आचार्य, स्नातकोत्तर वेद विभाग, श्रीजगन्नाथ संस्कृत विश्वविद्यालय, श्रीविहार, पुरी 752003, ओडिशा
सम्पर्क सूत्र - 8917554392
विधा - मुक्तछन्द में लिखित संस्कृत काव्यसंग्रहः
कवि – प्रफुल्ल कुमार मिश्र,
प्रकाशक – श्रीमती स्वर्णलता मिश्र, स्वर्ण प्रकाशन, 331 – A, तपस्या, श्रीअरविन्द नगर, चन्द्रशेखरपुर, भुवनेश्वर 751016, ओडिशा,
प्रथम प्रकाश – विक्रम संवत् 2056, 2000 A. D.,
मूल्य – Rs. 70/- (soft binding) तथा Rs. 85/- (hard binding),
पृष्ठ संख्या – v + 57
प्रोफेसर प्रफुल्ल कुमार मिश्र के नाम को आधुनिक संस्कृत साहित्य जगत् में रहस्यवादी कवि के रूप में उल्लिखित करे तो अतिरञ्जित नहीं होगा । प्रोफेसर मिश्र उत्कल विश्वविद्यालय, भुवनेश्वर के संस्कृत विभाग में 33 साल अध्यापन करके 2014 फरवरी में अध्यापन कार्य से मुक्त हुए हैं । आप उत्कल विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर परिषद् के अध्यक्ष; राष्ट्रीय पाण्डुलिपि मिशन (नासानाल् मिशन फॉर मेनुस्क्रिप्टस्), नई दिल्ली के निर्देशक; उत्तर ओडिशा विश्वविद्यालय, वारिपदा के कुलपति के रूप में काम कर चुके हैं तथा वर्तमान डा. राजेन्द्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, समस्तिपुर, पुसा, बिहार के कुलाधिपति के रूप में कार्यरत है । शैक्षिक और प्रशासनिक कार्य में व्यस्त रहकर भी प्रोफेसर मिश्र कभी काव्य को नहीं भूले हैं । संस्कृत काव्य, अलङ्कारशास्त्र और वैदिक साहित्य प्रोफेसर मिश्र के विषय हैं । प्रो. मिश्र के पास प्रत्यक्ष रूप से पढने का और उनके निर्देशन में शोध कार्य करने का अवसर मुझे प्राप्त हुआ था । कवि की अन्तर्दृष्टि गंभीर है । ओडिशा की आध्यात्मिक और पर्यटन नगरी पुरी में 1954 फरवरी में जन्मे कवि प्रो. मिश्र श्रीअरविन्द दर्शन के अनुगामी है । प्रतिदिन कुछ ना कुछ लिखने का अभ्यास कवि प्रफुल्ल कुमार मिश्र के भावोच्छ्वास और कवि गुण को दर्शाता है । उत्कल विश्वविद्यालय के सवुजिमा से भरे प्राङ्गण में जब आकाश में मेघ उमड आते थे और शीतल हवा से जब पेडों की पत्तियां झुमती थी तब कवि बोला करते थे की देखो कैसे यह सारे पेड आकाश के साथ संवाद कर रहे हैं । कवि ही प्रकृति को वैसे देख सकता है । अभी तक प्रो. मिश्र के संस्कृत में 15 काव्य संग्रह (1. चित्रकुरङ्गी - 1995, 2. तव निलये - 1998, 3. ब्रह्मनाभिः-2000, 4. कोणार्के - 2001, 5. चित्रङ्गदा - 2005, 6. ऋतायनी (संपादित काव्य संग्रह) - 2005, 7. कविताभुवनेश्वरी (संपादित काव्य संग्रह) - 2005, 8. काव्यवैतरणी (संपादित काव्य संग्रह) - 2006, 9. चत्वारि शृङ्गाः - 2009, 10. मनोजङ्गमे – 2010, 11. तथापि सत्यस्य मुखम् – 2011, 12. गोधूलिः – 2011, 13. चैत्ररजनी – 2016, 14. धर्मपदीयम् – 2016 तथा 15. कुशभद्रामहाकाव्यम् – 2019), एक पत्र कथा (पत्रप्रिया – 2014), अंग्रेजी में 07 शैक्षिक और शोध पुस्तक तथा ओडिआ भाषा में 08 पुस्तक प्रकाशित हैं।
‘ब्रह्मनाभिः’ एक रहस्यात्मक काव्य संग्रह है । रहस्यवाद संस्कृत कवियों का परिचय होता है । लगभग सारे संस्कृत भाषा के कवि रहस्यवाद को छूते हैं। कवि मिश्र अपने काव्य में रहस्य को बिम्ब, प्रतिबिम्ब और रूपचित्रों से सजाते हैं। ‘ब्रह्मनाभिः’ शब्द सूचक है ‘नाभौ ब्रह्म यस्य’ या फिर ‘ब्रह्म एव नाभिः’ का । भगवान् जगन्नाथ के नाभि स्थान में ब्रह्म नामक सांकेतिक वस्तु संस्थापित है यह विश्वास जगन्नाथ संस्कृति में है । वास्तव में मनुष्य जीवन में भी यही होता है । शिशु नाभि से ही खाद्य ग्रहण करके माता की कोख में पुष्ट होता है । नीरव और निःशब्दता से भगवान् अपने नाभि से स्पन्दित हैं और बाहर दारुमय हैं| इस तथ्य को रूपचित्र में उपजीव्य बनाकर कवि संसार के दुःख और अन्तःस्थ सुख कर सन्धान में काव्य लिखते हैं। जैसे ‘विज्ञप्तिः(preface)’ में कवि ने कहा है –
“पूर्वसमुद्रतटस्थितस्य पुरुषोत्तमक्षेत्रस्य भगवतो जगन्नाथस्य महिमानं विश्वविश्रुतं मन्ये । दारुरूपेण स्पन्दनं गभीरे नाभिब्रह्मणि जायते । बहिः दारुरूपे वयं पश्यामः समस्तं दुःखं प्राणीनां श्रुत्वा तूष्णीं तिष्ठति । मनुष्योऽपि स्वस्य सुकुमारभावनां किमर्थं बहिः प्रकाशयेत् ? यतो हि इह लोके तस्य भावनामभिज्ञातुं न कश्चिद् वर्तते । हृदि सुखस्य दुःखस्य वा गणनं चलतु । प्रत्यूत बहिः स्पन्दनहीनतायाः दारुजीवनं प्रसरतु चेत् न कश्चित् तस्य सुकुमारभावनायाः हासं जनयिष्यति । हृदि गोपनेन स्वकीयां भावनां निधाय आत्मरतौ रमते । तत्र का क्षतिः । संसारे कुत्र वा सहृदयता लभ्यते ? स्वस्वगानप्रमत्तः न कश्चित् शृणोति क्रन्दनमपरस्य । स्वप्नार्जिते सुखे कस्यचिदपि न वर्तते किमपि नेतुम् । अन्योन्यभावनाविरहितत्वात् नाभिब्रह्मणि स्पन्दनवत् स्पन्दनं भवतु । कालो ह्ययं निरवधिः विपुला च पृथ्वी । अतः स्पन्दमानस्य ध्वनेः श्रवणं पुनः कथञ्चित् भवतु । चिदाकाशे हृदन्धकारे एतान्यपि वस्तूनि दृष्टिपथारूढानि भवन्ति । अतः तेषां मननं प्रकटनञ्च काव्यस्तवकेऽस्मिन् ग्रथितम् । अन्तःस्थलं हृदाकाशस्य विस्तारं विज्ञाय यदि कश्चित् तत्रस्थानां चित्राणां प्रकाशं कुर्यात् तर्हि तेषां स्वरूपं किं भवेत् ? इति धिया शून्यतायाः चित्रणमपि कृतम् ।” (पृ. सं. iii)
वास्तव में मनुष्य जब शून्य होता है तव पूर्ण को ढूंढता है और ब्रह्म तो सदा पूर्ण है । ‘ब्रह्मनाभिः’ काव्य संग्रह में सूचीपत्र के अनुसार कुल 20 कवितायें हैं। पर प्रथम काव्य ‘ब्रह्मनाभिः’ शीर्षक के अन्तर्गत 14 कवितायें, द्वितीय काव्य ‘शिवः’ के अन्तर्गत 12 कवितायें, अष्टम काव्य तिमिरः शीर्षक के अन्तर्गत 22 कवितायें संकलित हैं । श्रीजगन्नाथ का ब्रह्मतत्त्व, शिव का विषपान करके जगत् का कल्याण करना, माता त्रिपुरविमोहिनी का वर्णन, गङ्गा की पावनता, मनुष्य जीवन की विपलता और नैराश्य, सावित्री – सत्यवान् की कथा में सावित्री का सत्यान्वेषण, ओडिशा के मन्दिर गात्रों में शिला में अङ्कित चन्द्रावली, एकावली नाम की नायिकायों का वर्णन, कलिङ्ग भूमि में युद्ध के लिए आये हुए सम्राट् अशोक का धर्माशोक में रूपान्तरण और बुद्ध की अहिंसा प्रचार आदि सामाजिक, ऐतिहासिक, धार्मिक और आध्यात्मिक तथ्यों को लेकर यहां कविताएं चित्राङ्कित हुई हैं।
योगदर्शन के अनुसार ब्रह्मप्राप्ति का साधन षड् चक्र साधन या कुण्डलिनी जागरण है । इडा पिङ्गला के माध्यम से मूलाधार से लेकर सहस्रार चक्र भेदन ही ब्रह्मप्राप्ति की क्रमिक अवस्थायें हैं । इस तथ्य का संकेत हुए कवि ने लिखा है कि –
नाभिब्रह्म !
नाभौ सञ्चरतः हृदि स्पन्दतः
अनन्तकालकवलिते जडप्राणावस्थिते ते
मूलाधारतः स्वाधिष्ठानपर्यन्तं
तस्मात् मणिपुरकमनाहतं निष्पीड्य निष्पीड्याज्ञा
मारुतं हृद्युद्भिद्य ब्रह्मरन्ध्रं
हंसमिथुनावेव रंरमते
सहस्रारे ।।
(ब्रह्मनाभिः, 5, पृ. सं. 3)
देवता ने सृष्टि को सुन्दर बनाने के लिए कठिन श्रम किया है । पर उस श्रम को कौन देखता है ? यह भावना श्रीरविन्द की ‘A God’s Labour’ [Collected Poems from Sri Aurobindo Birth Centenary Library (Volumn 5) with Odia Translation, p. 44] कविता में अङ्कित है । उस की छाया में कवि ‘शिवः’ कविता में लिखते हैं कि–
जीर्णः हलाहलस्य प्रकोपः
वर्द्धते शिवस्य कोपः
विषादोऽसौ दग्धः पुष्पशरः
शोभनेशः, हृदि दुःखं
येषां सुखार्थं विषपानदग्धः
क्व गतास्ते सुरासुराः ??
(शिवः (गरलपानम्), 2, पृ. सं. 13)
फिर शिव की शान्त मूर्त्ति विषज्वाला से घोर तनु में परिणत होती है -
विषपानानलस्य देहस्य
ज्वालायाः नीलेषु
शिवतनूः घोरायते ।
घोरतरेण रुद्रायते
रुद्ररूपेण सर्वमत्ति ।।
(शिवः (गरलपानम्), 3, पृ. सं. 14)
शिव का शिवत्व मङ्गलमय रूप स्वर्ग से लेकर पाताल तक मङ्गल ही वर्षाता है । विपरीत भाव वाले उनके प्रभाव से मित्रता से उनके परिवार में एकत्रित निवास करते हैं । शुद्ध सत् चरितों का प्रभाव के बारे में यहां संकेत किया गया है -
पुत्रस्ते क्रीडति मयूरस्योपरि
त्वदलंकाराः सर्पाः भीताः
तदर्थं कनिष्ठस्य मूषकः रक्षितः
वृषभश्च सिंहात् सुरक्षितः ।।
परस्परं स्पर्धमानाः
जन्तुभिः निर्लिप्तः
त्वद्भावना कैलासस्य
हिमाङ्कलेखामतिरिच्य
पातालं शीतलायते ।।
(शिवः शवः, 5, 2-3, पृ. सं. 14-15)
सम्राट् खारबेल (ख्री. पू. द्वितीय या प्रथम शतक) द्वारा निर्मित कलिङ्ग प्रदेश की खण्डगिरि की गुफायें आज भी प्राचीन ओडिशा की बौद्ध कीर्तियों की मूक साक्षी हैं-
धर्मकीर्त्तिदिङ्नागानां
शून्यकोटरा अपि
थेरावादस्य माध्यमिककारिकायाः
साक्षरं वहन्ति ।।
व्याघ्रस्य गर्जने सा गुहा
करालायते
शोणितविन्दुपातेन
सर्वं शून्यायते ।।
(तृतीयनेत्रम्, 11, 4-5, पृ. सं. 20)
गङ्गा का सुन्दर वर्णन काव्य को सरस बनाता है –
घर्घर-निनादिनी
कुलु-कुलु-प्लाविनी
मतङ्गजगामिनी
निःसरति भामिनी
अनन्तलोक-पावनी
वनान्त-गुल्म-तोषिणी ।।
(गङ्गा, 1, पृ. सं. 23)
उत्कल की पुराणी वैभव पूर्ण गाथा को याद करके, उसकी कला नैपुण्य को याद करके या फिर प्रतिभावान् चित्रकार को न पहचानने के दुःख को आज का कवि व्यक्त करता है –
चित्रवीथौ शून्यायिते चित्रे
तूलिका रुदति रङ्गलोतकैः ।
अन्धः कर्षति वर्णविभवं
चित्रकारस्य का दशा ??
(चन्द्रवली, 2, पंक्ति 5, पृ. सं. 28)
दूरदर्शन आज कर समाज को कहीं पठन से, अध्यात्म से और आत्मचिन्तन से दूर तो नहीं कर रहा हैं ? इस को व्यंजित करके कवि कहते हैं -
अहर्निशं बोधयति
किं कर्म किमकर्मेति ।
हासयति त्रासयति
मोदयति मोहयति
रोषयति रोदयति
टिभिं वन्दे महागुरुम् ।।
(तिमिरः, 5 – टिभिं वन्दे महागुरुम्, पृ. सं. 35)
हम लोग भगवान् के कितने करीब है, वह अन्तःकरण की स्वच्छता, श्रद्धा, विश्वास, गभीरता, नीरवता और समर्पण संकेत करता है । प्रचार से लोकप्रियता कुछ क्षण के लिए रहती है । कवि व्यंजना भरते हैं –
इदानीं देवदेवस्य
घोषयात्रा प्रवर्त्तते ।
प्रचारः दूरदर्शने
प्रसारः दूरसंचारे
भक्ति-भावना कुत्र गता ??
(तिमिरे मे मनः, 19, पृ. सं. 39)
सावित्री – सत्यवान् की कथा महाभारत के आदिपर्व में आख्यायित है । सावित्री कथा को उपजीव्य बनाकर श्रीअरविन्द ने विश्व का सबसे बडा अंग्रेजी महाकाव्य लिखा है । आज भी ओडिशा में ज्येष्ठ अमावस्या की तिथि में पत्नी अपने पति की दीर्घायु कामना करके व्रत रखती है, सावित्री कथा पाठ करती है और सावित्री को देवी मानती है । महाभारत की कथा ओडिशा के जन जीवन में रूपायित होने का उत्स अनुसन्धान सापेक्ष है । एकनिष्ठ प्रेम और सत्य संकल्प मृत्यु को भी पराजित कर सकता है, यह इस कथा का अन्तर्मर्म है -
अन्वेषणं सावित्र्याः
किं जनयति जागरणं
सत्यवता किं ज्ञातम् ?
सावित्र्याः नेत्रं कोरकितं
तारके तारकायते
अभिज्ञाय स्वस्य
प्रियं मित्रम् ।
जीवनस्य
विवक्षितं
लक्ष्यम् ।।
(अन्वेषणं सावित्र्याः, पृ. सं. 45)
समय से वृष्टि न होने का चित्र भी कवि ने व्यथित चित्त से लिखा है । श्रीजगन्नाथ के दो पार्श्व में रत्नसिंहासन के उपर दो देवीयां अधिष्ठित हैं । वामपार्श्व में श्रीदेवी जो श्रीलक्ष्मी जी की प्रतिनिधि है और दक्षिणभाग में भूदेवी जो भूमि या पृथ्वी को प्रतिनिधित्व करती हैं । श्रीजगन्नाथ की रथयात्रा पर्व अक्षय तृतीया से प्रारम्भ होता है जिस दिन रथ निर्माण की प्रक्रिया शुरू होती है । ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन ग्रीष्म उत्ताप के कारण भगवान् 108 कुम्भ के सुवासित जल से स्नान करते है और 14 दिन तक ज्वर पीडित होते हैं । इस समय भक्तों को दर्शन नहीं देते हैं । आषाढ अमावास्या में फिर नवयौवन के रूप में दर्शन होता है । आषाढ के शुक्ल द्वितीय दिवस में रथयात्रा होती है, जो वर्षण की प्रारम्भ बेला को सूचित करती है । वृष्टि से पृथ्वी सस्यश्यामला होगी और श्री से या लक्ष्मी से भर जायेगी – यह भी सूचित होता है । पर समय में वृष्टि नहीं होती है ।
श्रीदेवी संतापिता तापितापि भूदेवी
तापेनात्र जगन्नाथः पक्षं ज्वरायते
वर्षायां नवयौवने कदम्बकदम्बायिते
नीलाचले निश्चिन्तः शेषशय्यामध्यास्ते ।।
(सम्बिधानम्, 4, पृ. सं. 49)
आकुले प्रार्थ्यते जलं जलमिति
मेघाडम्बरे सर्वं विलीनम् ।
व्यर्थं यत्र मयूरस्य नृत्यं
व्यर्थं सर्वं संविधानकम् ।।
(सम्बिधानम्, 7, पृ. सं. 50)
ऋण लेना और किसी का ऋणी होने की वेदना को कवि ने दर्शाया है । अधमर्ण भाव आत्मसम्मान को संतापित करता है -
कियन्ती व्यथा
कस्यचिदधमर्णस्य
कन्यायाः विवाहार्थं
औषध्यर्थं पुत्रस्य दारस्य
वा पितुरामये ।।
कियन्ती व्यथा
एतस्मिन् लोके
कश्चिद् यदि जातोऽधमर्णः ।।
(अधमर्णः, 1-2, पृ. सं. 57)
हृदय की अव्यक्त व्यथायें काव्य बनती हैं । व्यथा की स्पन्दन काव्य में होता है जैसे ब्रह्म का स्पन्दन दारु देवता की नाभि में है । इस उपलक्षण से मनुष्य जीवन में कवित्व का महत्त्व ‘ब्रह्मनाभिः’ काव्यसंग्रह में मुखरित है । नामधातुओं का विपुल प्रयोग इस काव्य में देखने को मिलता है ।
डॉ. पराम्बा श्रीयोगमाया
सहायक आचार्य, स्नातकोत्तर वेद विभाग, श्रीजगन्नाथ संस्कृत विश्वविद्यालय, श्रीविहार, पुरी 752003, ओडिशा
सम्पर्क सूत्र - 8917554392
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