कृति - चतुष्पथीयम्
विधा - संस्कृतनुक्क्डनाटक
लेखक - अभिराज राजेन्द्र मिश्र
प्रकाशक - वैजयन्त प्रकाशन, इलाहबाद
संस्करण - प्रथम, 1983
आधुनिक संस्कृत नाट्य प्राचीन सीमाओं का अतिक्रमण करके सर्वथा मुक्ताकाश में विचरण कर रहा है। वर्तमान में संस्कृत नाट्य में रूपक व उपरूपक के प्राचीन भेदों के साथ-साथ ध्वनिरूपक, छायानाटक, एकांकी, नुक्कडनाटक इत्यादि विधाओं में प्रभावशाली लेखन हो रहा है। हम कह सकते है कि संस्कृतसाहित्य सतत अद्यतन हो रहा है। आचार्य भरत ने नाट्यशास्त्र में दो प्रकार की परम्पराओं का उल्लेख किया है- नाट्यधर्मी व लोकधर्मी। लोक के जीवन का अनुकरण करने वाला अभिनय जब लौकिक उपयोगी तथा सामयिक परम्पराओं का अनुसंधान करता हो तो उसे लोकधर्मी नाट्य कहते हैं। लोकधर्मी नाट्य या यूं कहे कि लोकनाट्य कृत्रिमता से रहित, जनसामान्य के आचार को प्रदर्शित करने वाला नाट्य है। इस लोकनाट्य के भिन्न - भिन्न प्रदेशों में भिन्न-भिन्न रूप उपलब्ध होते हैं, यथा - नौटंकी, तमाशा, स्वांग, जात्रा आदि।
इन लोकनाट्यों में नुक्कडनाटक सर्वाधिक प्रसिद्ध लोकनाट्य रूप है। नव्य काव्यशास्त्री आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी उपरूपक के एक प्राचीन भेद प्रेक्षणक का ही नवोत्थान नुक्कडनाटक को मानते हैं। नुक्कडनाटक को गली के किसी कोने या चौराहों आदि खुले स्थानों पर , अल्पव्यय व अल्पश्रम में अभिनीत किया जा सकता है। इन नुक्कडनाटकों में हास्य एवं व्यंग्य के पुट के साथ भाषा और शैली के देशज चरित्र की रोचक प्रस्तुति होती है। ये नुक्क्डनाटक प्रायः संवादबहुल होते हैं। समाज में व्याप्त विसंगतियों, रूढियों, कुप्रथाओं, भ्रष्ट-आचरणों आदि पर यहां करारा प्रहार किया जाता है। मार्मिक व्यंग्य इन नाटकों का प्राणस्वरूप होता है।
अभिराज राजेन्द्र मिश्र रचित चतुष्पथीयम् संस्कृत में नुक्कड नाटकों का संकलन है। ये नाटक प्रहसन की शैली में रचे गये हैं। चतुष्पथीयम् के प्रत्येक पथ पर एक-एक नाटक अवस्थित है-
इन्द्रजालम् - हमारे आसपास के वातावरण में हम कई बार जादूगरों को मार्ग के बीच में खेल दिखाते हुए पाते हैं। ऐसा ही वातावरण यहां पर निर्मित किया गया है। नाटक के प्रारम्भ में जादूगर डमरु बजाकर भीड एकत्रित करता है-
डिम् डिम् डिम् डिम् डिमिक् डिमिक् डिम्
डिम् डिम् डिम् डिम् डिमिक् डिमिक् डिम्
बन्धो रे बन्धो रे शृणु वचनम्
इन्द्रजाले मदीये विधेहि नयनम्।।
यहां जादूगर एवं जमूरे के मध्य तीखे सवालों-जवाबों के माध्यम से समाज के तथाकथित सफेदपोश नेताओं, तस्करों, वकीलों, प्राध्यापकों आदि पर कटाक्ष के माध्यम से पर्दाफाश किया गया है। यथा- अयं जननेता बन्धुबान्धवस्नेहशीलाचारभेत्ता, मतपत्राणां क्रेता, मानपदप्रतिष्ठाविक्रेता, समाचारपत्रांकितकोणवृत्तैकवेत्ता, राष्टगौरवरज्जुच्छेत्ता, आसन्दिकावधूपरिणेता च। अस्यैव कृपया दीनो देशः, पीनो मेषः, नवीनः क्लेशः, मलीनो वेषः अजीर्णो निदेशश्च। यहां वकील मृषाजीवी है तो इंजीनियर बालुकापुरुष है।
निर्गृहघट्टम् - इस प्रहसन में मध्यमवर्गीय परिवार की कथा को आधार बनाया गया है। यहां पत्नीविरोध समिति के सदस्य अपनी अपनी पीडाओं को अभिव्यक्त करते हैं- पत्नयोऽस्माकं साकारपीडा एव। एवंविधेयं पीडा या न सोढुं शक्या न निवेदयितुं शक्या। इमाः कृष्णाक्षराणि महिषनिभानि मन्यमाना रूपाश्वतर्यो बी.ए. एम.ए. परीक्षोत्तीर्णान् लब्धस्वर्णपदकांश्चापि सर्वानस्मान् प्रशासितुं समीहन्ते। समिति के अध्यक्ष व कथा के नायक गिरीश भी पत्नी-पीडित हैं। किसी चुगलखोर सहकर्मी द्वारा कार्यालय की स्टेनो के साथ उनका प्रेम-प्रसंग उनकी पत्नी को बता दिया जाता है, तब से ही वे पत्नी के अत्याचार से परेशान रहते हैं। इधर कार्यालय में अधिकारी भी परेशान करते हैं। वे सोचते हैं- हन्त भो! प्रातर्वेलात् एवं निकृतिं प्रहारंच सहमानोऽस्मि। तदासीत् गृहम्। अयमस्ति घट्टः। गृहे पत्नी वैरिणी। घट्टे चायं दानवोऽधक्षको वैरी। उभयत्रापि अशरणोऽस्मि। रजकसारमेयो न गृहस्य न वा घट्टस्य। सत्यमेव निर्गृहघट्टोऽस्मि सञ्जातः।
वैधेयविक्रमम् - यहां निर्धनता, बढती जनसंख्या जैसी सामाजिक समस्याओं का यथार्थ चित्रण किया गया है। एक निर्धन परिवार का स्वामी यहां मुख्य पात्र है, जो अधिकाधिक सन्नति उत्पन्न करके स्वयं को प्रजापति मानता है-न जाने पुनरपि जन्मनि मिथः साहचर्यं भवेत् न वेति सम्प्रधार्येव युगपदेकादशमितान् पुत्रान् उत्पादितवान् अस्मि। पुत्रोत्पादनदक्षत्वादेव मे प्रजापतित्वम्।उसकी पत्नी कर्मशीला है, जो किसी तरह गृहस्थी का भार वहन कर रही है। किन्तु पति द्वारा बच्चों को पीटे जाने पर वह उसे उसकी अकर्मण्यता एवं गलतियों का भान करवाती है।
मोदकं केन भक्षितम् - यह हास्य से परिपूर्ण रूपक है, जिसमें तीन भिन्न-भिन्न धर्म के तीन पुरुष हैं। वे धर्म की श्रेष्ठता के प्रश्न पर किसी विश्वस्त आप्त पुरुष की खोज में हैं। मार्ग में ब्राह्मण के पास रखी मोदक की पेटी पर अन्यों का जी ललचा जाता है। ब्राह्मण कहता है कि जिसका स्वप्न श्रेष्ठ होगा उसे ही सारे मोदक मिलेंगे। अब किसका स्वप्न श्रेष्ठ रहा, इसे जानने के लिये यह नाटक पढा जाना अपेक्षित है।
अभिराज राजेन्द्र मिश्र स्वयं कुशल अभिनेता हैं। ये रूपक भी सर्वथा अभिनेय हैं। यहां
दैनिक व्यवहार में प्रचलित अनेक शब्दों का संस्कृतीकरण भी किया गया है, यथा- कॉलगर्ल-कालगरला, टमेटोसूप-ताम्रतरसूपम्, छोलाभटूरा-छविल्लभर्तारम्, मेहंदी-महेन्द्री। साथ ही प्रो. मिश्र ने अनेक वाक्यों का भी संस्कृतीकरण किया है, यथा-
जयतु वज्रांगवली त्रुटयतु द्विषतां नली
सर्वम् अपि गुडगोमयं विधाय तुष्णीमुपगतोऽसि
मयाऽपि नाम अपक्वगुलिकाः न क्रीडिताः
विटपे विटपे सा पत्रे पत्रे पुनरहम्
हस्ती गच्छति कुक्कुराः बुक्कन्त्येव
यह संग्रह संस्कृत में नुक्कडनाटकों का उत्तम निदर्शन है।
विधा - संस्कृतनुक्क्डनाटक
लेखक - अभिराज राजेन्द्र मिश्र
प्रकाशक - वैजयन्त प्रकाशन, इलाहबाद
संस्करण - प्रथम, 1983
आधुनिक संस्कृत नाट्य प्राचीन सीमाओं का अतिक्रमण करके सर्वथा मुक्ताकाश में विचरण कर रहा है। वर्तमान में संस्कृत नाट्य में रूपक व उपरूपक के प्राचीन भेदों के साथ-साथ ध्वनिरूपक, छायानाटक, एकांकी, नुक्कडनाटक इत्यादि विधाओं में प्रभावशाली लेखन हो रहा है। हम कह सकते है कि संस्कृतसाहित्य सतत अद्यतन हो रहा है। आचार्य भरत ने नाट्यशास्त्र में दो प्रकार की परम्पराओं का उल्लेख किया है- नाट्यधर्मी व लोकधर्मी। लोक के जीवन का अनुकरण करने वाला अभिनय जब लौकिक उपयोगी तथा सामयिक परम्पराओं का अनुसंधान करता हो तो उसे लोकधर्मी नाट्य कहते हैं। लोकधर्मी नाट्य या यूं कहे कि लोकनाट्य कृत्रिमता से रहित, जनसामान्य के आचार को प्रदर्शित करने वाला नाट्य है। इस लोकनाट्य के भिन्न - भिन्न प्रदेशों में भिन्न-भिन्न रूप उपलब्ध होते हैं, यथा - नौटंकी, तमाशा, स्वांग, जात्रा आदि।
इन लोकनाट्यों में नुक्कडनाटक सर्वाधिक प्रसिद्ध लोकनाट्य रूप है। नव्य काव्यशास्त्री आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी उपरूपक के एक प्राचीन भेद प्रेक्षणक का ही नवोत्थान नुक्कडनाटक को मानते हैं। नुक्कडनाटक को गली के किसी कोने या चौराहों आदि खुले स्थानों पर , अल्पव्यय व अल्पश्रम में अभिनीत किया जा सकता है। इन नुक्कडनाटकों में हास्य एवं व्यंग्य के पुट के साथ भाषा और शैली के देशज चरित्र की रोचक प्रस्तुति होती है। ये नुक्क्डनाटक प्रायः संवादबहुल होते हैं। समाज में व्याप्त विसंगतियों, रूढियों, कुप्रथाओं, भ्रष्ट-आचरणों आदि पर यहां करारा प्रहार किया जाता है। मार्मिक व्यंग्य इन नाटकों का प्राणस्वरूप होता है।
अभिराज राजेन्द्र मिश्र रचित चतुष्पथीयम् संस्कृत में नुक्कड नाटकों का संकलन है। ये नाटक प्रहसन की शैली में रचे गये हैं। चतुष्पथीयम् के प्रत्येक पथ पर एक-एक नाटक अवस्थित है-
इन्द्रजालम् - हमारे आसपास के वातावरण में हम कई बार जादूगरों को मार्ग के बीच में खेल दिखाते हुए पाते हैं। ऐसा ही वातावरण यहां पर निर्मित किया गया है। नाटक के प्रारम्भ में जादूगर डमरु बजाकर भीड एकत्रित करता है-
डिम् डिम् डिम् डिम् डिमिक् डिमिक् डिम्
डिम् डिम् डिम् डिम् डिमिक् डिमिक् डिम्
बन्धो रे बन्धो रे शृणु वचनम्
इन्द्रजाले मदीये विधेहि नयनम्।।
यहां जादूगर एवं जमूरे के मध्य तीखे सवालों-जवाबों के माध्यम से समाज के तथाकथित सफेदपोश नेताओं, तस्करों, वकीलों, प्राध्यापकों आदि पर कटाक्ष के माध्यम से पर्दाफाश किया गया है। यथा- अयं जननेता बन्धुबान्धवस्नेहशीलाचारभेत्ता, मतपत्राणां क्रेता, मानपदप्रतिष्ठाविक्रेता, समाचारपत्रांकितकोणवृत्तैकवेत्ता, राष्टगौरवरज्जुच्छेत्ता, आसन्दिकावधूपरिणेता च। अस्यैव कृपया दीनो देशः, पीनो मेषः, नवीनः क्लेशः, मलीनो वेषः अजीर्णो निदेशश्च। यहां वकील मृषाजीवी है तो इंजीनियर बालुकापुरुष है।
निर्गृहघट्टम् - इस प्रहसन में मध्यमवर्गीय परिवार की कथा को आधार बनाया गया है। यहां पत्नीविरोध समिति के सदस्य अपनी अपनी पीडाओं को अभिव्यक्त करते हैं- पत्नयोऽस्माकं साकारपीडा एव। एवंविधेयं पीडा या न सोढुं शक्या न निवेदयितुं शक्या। इमाः कृष्णाक्षराणि महिषनिभानि मन्यमाना रूपाश्वतर्यो बी.ए. एम.ए. परीक्षोत्तीर्णान् लब्धस्वर्णपदकांश्चापि सर्वानस्मान् प्रशासितुं समीहन्ते। समिति के अध्यक्ष व कथा के नायक गिरीश भी पत्नी-पीडित हैं। किसी चुगलखोर सहकर्मी द्वारा कार्यालय की स्टेनो के साथ उनका प्रेम-प्रसंग उनकी पत्नी को बता दिया जाता है, तब से ही वे पत्नी के अत्याचार से परेशान रहते हैं। इधर कार्यालय में अधिकारी भी परेशान करते हैं। वे सोचते हैं- हन्त भो! प्रातर्वेलात् एवं निकृतिं प्रहारंच सहमानोऽस्मि। तदासीत् गृहम्। अयमस्ति घट्टः। गृहे पत्नी वैरिणी। घट्टे चायं दानवोऽधक्षको वैरी। उभयत्रापि अशरणोऽस्मि। रजकसारमेयो न गृहस्य न वा घट्टस्य। सत्यमेव निर्गृहघट्टोऽस्मि सञ्जातः।
वैधेयविक्रमम् - यहां निर्धनता, बढती जनसंख्या जैसी सामाजिक समस्याओं का यथार्थ चित्रण किया गया है। एक निर्धन परिवार का स्वामी यहां मुख्य पात्र है, जो अधिकाधिक सन्नति उत्पन्न करके स्वयं को प्रजापति मानता है-न जाने पुनरपि जन्मनि मिथः साहचर्यं भवेत् न वेति सम्प्रधार्येव युगपदेकादशमितान् पुत्रान् उत्पादितवान् अस्मि। पुत्रोत्पादनदक्षत्वादेव मे प्रजापतित्वम्।उसकी पत्नी कर्मशीला है, जो किसी तरह गृहस्थी का भार वहन कर रही है। किन्तु पति द्वारा बच्चों को पीटे जाने पर वह उसे उसकी अकर्मण्यता एवं गलतियों का भान करवाती है।
मोदकं केन भक्षितम् - यह हास्य से परिपूर्ण रूपक है, जिसमें तीन भिन्न-भिन्न धर्म के तीन पुरुष हैं। वे धर्म की श्रेष्ठता के प्रश्न पर किसी विश्वस्त आप्त पुरुष की खोज में हैं। मार्ग में ब्राह्मण के पास रखी मोदक की पेटी पर अन्यों का जी ललचा जाता है। ब्राह्मण कहता है कि जिसका स्वप्न श्रेष्ठ होगा उसे ही सारे मोदक मिलेंगे। अब किसका स्वप्न श्रेष्ठ रहा, इसे जानने के लिये यह नाटक पढा जाना अपेक्षित है।
अभिराज राजेन्द्र मिश्र स्वयं कुशल अभिनेता हैं। ये रूपक भी सर्वथा अभिनेय हैं। यहां
दैनिक व्यवहार में प्रचलित अनेक शब्दों का संस्कृतीकरण भी किया गया है, यथा- कॉलगर्ल-कालगरला, टमेटोसूप-ताम्रतरसूपम्, छोलाभटूरा-छविल्लभर्तारम्, मेहंदी-महेन्द्री। साथ ही प्रो. मिश्र ने अनेक वाक्यों का भी संस्कृतीकरण किया है, यथा-
जयतु वज्रांगवली त्रुटयतु द्विषतां नली
सर्वम् अपि गुडगोमयं विधाय तुष्णीमुपगतोऽसि
मयाऽपि नाम अपक्वगुलिकाः न क्रीडिताः
विटपे विटपे सा पत्रे पत्रे पुनरहम्
हस्ती गच्छति कुक्कुराः बुक्कन्त्येव
यह संग्रह संस्कृत में नुक्कडनाटकों का उत्तम निदर्शन है।
डॉ. सरिता भार्गव
निवर्तमान प्राचार्य
कोटा, राजस्थान
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