कृति - भ्रष्टाचारसप्तशती
विधा - सप्तशती काव्य
कवि - डॉ. शिवसागर त्रिपाठी
प्रकाशक - जगदीश संस्कृत पुस्तकालय, जयपुर
संस्करण - प्रथम, 2005
पृष्ठ संख्या - 119
अंकित मूल्य - 200 रू.
संस्कृत काव्य परम्परा मे सात सौ पद्यों के समूह को सप्तशती कहा जाता है। प्राकृत भाषा में हाल कवि कृत गाहासतसई (गाथासप्तशती) प्रसिद्ध है। 12 वीं सदी मेें गोवर्धनाचार्य ने आर्यासप्तशती की रचना की, जिसमें आर्या छन्द में 700 पद्य संकलित हैं। इससे भी प्राचीन साहित्य की ओर देखें तो गीता में 700 पद्य हैं किन्तु महाभारत का अंश होने से उसे पृथक् रूप से सप्तशती नहीं कहा गया। मार्कण्डेय पुराण का एक अंश दुर्गासप्तशती के नाम से प्रसिद्ध है। शिवदत्त शर्मा चतुर्वेदी कृत स्फूर्तिसप्तशती, गिरिधर शर्मा नवरत्न कृत गिरिधरसप्तशती, अभिराज राजेन्द्र मिश्र कृत अभिराजसप्तशती, पं. गोपीनाथ दाधीच कृत कृष्णार्यासप्तशती, शिवकुमार मिश्र कृत गान्धीसूक्तिसप्तशती आदि अर्वाचीन संस्कृत साहित्य में प्रसिद्ध सप्तशती काव्य हैं। हिन्दी में लिखी बिहारीसतसई के दो संस्कृत अनुवादों का पता लगता है-पं. परमानन्द कृत शृंगारसप्तशतिका तथा पं. प्रेमनारायण द्विवेदी कृत सौन्दर्यसप्तशती।
सप्तशती काव्य परम्परा में डॉ. शिवसागर त्रिपाठी कृत भ्रष्टाचारसप्तशती अन्यतम है। यहां भ्रष्टाचार को आधार बनाकर कवि ने 725 पद्य रचे हैं, जो 17 सर्गों में निबद्ध हैं। कवि ने सर्वप्रथम भ्रष्टोपनिषत् नाम से भ्रष्टाचार पर कविताएं लिखी, जो संस्कृत की मासिक पत्रिका भारती में प्रकाशित हुई। बाद में कवि ने इसमें परिवर्धन किया और इसका कलेवर बढकर 725 पद्यों का हो गया। इसका कुछ अंश कानपुर से प्रकाशित पारिजात पत्रिका में प्रकाशित हुआ। यही काव्य भ्रष्टाचारसप्तशती के रूप में पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ। इसमें पद्यों के साथ हिन्दी अनुवाद भी भी दिया गया है। यहां प्रमुख प्रयुक्त छन्द अनुष्टुप है। भ्रष्टाचार का वर्णन हमें वैदिक सूक्तोें से लेकर अभिज्ञानशाकुन्तल, मुद्राराक्षस जैसे काव्यों में भी प्राप्त होता है। कौटिलीय अर्थशास्त्र में भी इस पर विचार किया गया है।
उक्त सप्तशती काव्य में उपनिषदों की शैली में कवि भ्रष्टाचार का का बखान करते हुए कहते हैं-
भ्रष्टमदो भ्रष्टमिदं भ्रष्टोऽसौ भ्रष्टसंहतिः।
भ्रष्टाचार तो आज हमारे समाज के प्रत्येक भाग में विद्यमान है। उसे सर्वशक्तिमान् कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। यही कारण है कि कवि कहते हैं कि यह गूंगे को वाचाल बना देता है, असमर्थ को समर्थ कर देता है-
मूकं करेाति वाचालमशक्तं शक्तमेव च।
सर्वदुःखप्रहन्ता यो भ्रष्टाचारः स नम्यते।।
भ्रष्टाचार को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि कोई भी ऐसा कार्य, आचरण, व्यवहार या बात जो व्यक्तिगत लाभ के लिये किया जाए और साथ ही वह व्यक्ति, समाज और देश के लिए पीडापरक, अहितकारी और कष्टप्रद हो तो वह भ्रष्टाचार कहलाता है-
कार्यमाचरणं वापि व्यवहारोऽपि वृत्तकम्।
व्यक्तिगतस्वलाभाय यदि सम्पाद्यते तथा।।
व्यक्तिसमाजराष्ट्रेभ्यः यच्च पीडाकरं भवेत्।
यद्यपि भ्रष्टाचार हमें सुखी दिखाई देता है, किन्तु उसका परिणाम भयंकर होता है। कवि के अनुसार भ्रष्टाचारी जीवन के दिन भाग में खाता है, खिलाता है, गाता है, नाचता है, पर अन्त में जीवन की सन्ध्या में विलाप करता है-
जीवनेऽहनि तैः भ्रष्टैः भुज्यते भोज्यते पुनः।
गीयते नृत्यते चैवान्ततः सायं विलप्यते।।
प्रस्तुत काव्य में भ्रष्टाचार की महिमा मात्र नहीं बताई गई है अपितु भ्रष्टाचार के निवारण हेतु उपायों पर भी चर्चा की गई है। वस्तुतः यह सप्तशती काव्य भ्रष्टाचार की व्यंग्यपरक व्याख्या करता हुआ उसके उन्मूलन का मार्ग भी सूझाता है।
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