Sunday, January 2, 2022

भावों और विचारों का अद्भुत प्रवाह : गोविंद चंद्र पांडेय कृत भागीरथी

कृति - भागीरथी

विधा - कवितासंग्रह

रचयिता - गोविन्द चन्द्र पाण्डेय

संस्करण - प्रथम

प्रकाशन वर्ष - 2002

प्रकाशक - राका प्रकाशन, प्रयागराज

पृष्ठ संख्या - 223

अंकित मूल्य - 200 रु.




   आचार्य गोविन्द चन्द्र पाण्डेय सुप्रतिष्ठित लेखक, कवि, इतिहासकार, दार्शनिक आदि कई रूपों में सुविख्यात हैं। हिन्दी और संस्कृत में आचार्य पाण्डेय की कविताएं सहृदय सामाजिकों के साथ समालोचकों में भी पर्याप्त रूप से चर्चित रही हैं। आचार्य पाण्डेय कृत भागीरथी काव्यसंग्रह का प्रकाशन 2002 में हुआ है। यह काव्यसंकलन कई मायनों में अनूठा है। यहां दर्शन काव्य के साथ चहलकदमी करते दृष्टिगोचर होता है। यद्यपि दार्शनिक भाव काव्य में सर्वत्र अनुस्यूत हैं तथापि वे कहीं भी काव्य के आस्वादन में बोझिल नहीं जान पडते हैं। विषय-वैविध्य इस काव्य की अपर विशेषता है। कवि ने मुक्तछन्द में कविताओं का स्वयं ही हिन्दी अनुवाद कर दिया है, जो  पृथक् रूप से एक मौलिक हिन्दी काव्य के समान ही आनन्द प्रदान करता है। कवि ने इस काव्यसंग्रह को सात भागों में विभक्त किया है, जिनमें 163 विभिन्न शिर्षकों से युक्त कविताएं निबद्ध हैं। 



1. लोकः - इस भाग में 13 कविताएं संकलित हैं जो हमारे समक्ष लोक के विविध दृश्यों को प्रस्तुत करती हैं, यथा- नाट्यायितम्, खलपूः,लूता, कंकालः इत्यादि। नाट्यायितम कविता में कवि संसार को अद्भुत रस के युक्त ऐसा नाटक बतलाता है, जिसमें नार-नारी नट-नटी तो हैं ही, साथ ही वे स्वयं ही प्रेक्षक (दर्शक) भी हैं-

 

प्रत्याकारमधायि रूपसुषमा शब्देषु चानुस्वनो

वृत्तान्तेषु कथाप्रसंगविधिं कौतूहलं गुम्फितम्।

नानोपाधिजनेषु नेतृचरितं प्रत्यात्मवैचित्र्यभाक्

संलक्ष्यः प्रतिभावमद्भुतरसो लोको नु नाट्यायितम्।।


रूप रूप मे निरालेपन की शोभा अन्तर्निहित है

शब्दों में अनन्त गूंज

घटनाओं से कहानियों के सूत्रों में 

अनोखे कौतूहल गुंथे।

अलग-अलग मुखौटा पहने नर-नारियों में 

नायक-नायिकाएं छिपी हैं, विलक्षण स्वभाव की

सभी भावों में दीखता अद्भुत-रस

संसार ऐसा नाटक है जिसमें नट ही प्रेक्षक है। (अनुवाद स्वयं कवि द्वारा)


      लूता कविता में कवि ने लूता (मकडी) को सम्बोधित करते हुए वेदान्त के दर्शन के साथ स्पिनोजा के राजनीतिक विचारों को भी गूंथा है-



उक्ता ब्रह्मसरूपिणी विसृजसि स्वात्मानमात्मेच्छया

नानाजालवितानशिल्पनिपुणा मायाप्रतिस्पर्धिनी।

संख्याता वधदण्डकूटचतुरा प्राज्ञैर्जिगीषूपमा

लूते! तत्त्वनिरूपणादिव भयं त्वत्तो जनः प्राप्नुते।।


ब्रह्म की तुलना तुम से की गयी है

तुम अपने आप का स्वेच्छा से सृजन करती हो

नीति-कोविदों ने जिगीषुओं को तुम्हारे सदृश बताया है।

वध, दण्ड और कूटनीति में चतुर मकडी!

तुम से लोग वैसे ही डरते हैं, जैसे यथार्य से।। (अनुवाद स्वयं कवि द्वारा)


               यहां उक्ता पद से वेदान्तियों का प्रसंग लिया गया है तो प्राज्ञैः पद से स्पिनोजा का संकेत है। ध्यातव्य है कि वेदान्त दर्शन में ब्रह्म को लूता के समान बताया है, जो मकडी के जाले के समान ही सृष्टि की उत्पत्ति, निर्माण व संहार करता है। 

2. कालः - इस भाग में 20 कविताएं संकलित हैं, यथा कालः, इतिहासः, गिरिजास्मृतिः, वासना, अजन्ता, महेशस्मृतिः, नीरोपमम् इत्यादि। आयुः कविता में बौद्धदर्शन में प्रचलित सर्वास्तित्ववाद के अन्तर्गत आने वाले अप्रतिसंख्यानिरोध का प्रयोग किया गया है। कवि ने जब अजन्ता में गुफाचित्रों को देखा तो उस समय मन में आये प्रश्न को अजन्ता कविता में कुछ यूं निबद्ध किया-



राजसुता  शयनीये कृच्छश्वासा मलिननयनकान्तिः।

स्वजनानुपेक्षमाणा कस्मिन्नेषाहितप्राणा।।


राजकन्या बिस्तर पर लेटी है

रुंध रही उसकी सांस

आंखें मुरझायी काली-सफेद।

स्वजनों की उपेक्षा करती हुई 

उसने कहां रखे अपने प्राण।। (अनुवाद स्वयं कवि द्वारा)




3. वसन्तानलः - इस भाग में 37 कविताएं संकलित हैं, जो विविध ऋतु-वर्णन व प्रकृति-चित्रण पर आधारित है। किन्तु ये वर्णन सामान्य कथन न होकर अपने आप में विशिष्ट हैं। कोकिल कविता में कवि वसन्तदूती कोयल को शहर से भाग जाने के लिये कहते हैं क्योंकि वर्तमान भौतिकतावादी समाज में नये संचारसाधनों के कारण विरह शहर से निर्वासित हो गया है-



अपसर वसन्तदूत्याः

क इवावसरोऽधुनास्ति नगरेषु।

निर्वासित इव विरहो

बहुतरसंचारसेवाभिः।।


भाग जा अब वसन्तदूती,

शहर में तुम्हारे लिए अब अवकाश नहीं।

निर्वासित कर दिया विरह को

नये संचारसाधनों ने।। (अनुवाद स्वयं कवि द्वारा)


       यहां कोकिल के लिये प्रयुक्त वसन्तदूती शब्द साभिप्राय है। 


4. भागीरथी - इस भाग के आधार पर ही संग्रह का नामकरण किया गया है। इस भाग में कुल 11 कविताएं हैं। भागीरथी कविता शान्त रस से ओतप्रोत है-



याता नः पितरः प्रवाह-पतितास्त्वं निर्विकारं स्थिता

यास्यामो जलवीचिफेनसदृशाः शान्तं चिरं स्थास्यसि।

दग्धेष्वेव कृपाकरी त्वमथवा स्वर्गावतीर्णा धराम्

उत्संगे तव विश्रमाहितधियो मुक्तिं प्रतीक्षामहे।।


प्रवाह में गिरे हमारे पितर जा चुके हैं

तुम वैसे ही निर्विकार बनी हुई हो,

हम लोग भी चले जायेंगे 

लहरों में फेन के समान 

तुम चिरकाल तक शान्त बनी रहोगी।

अथवा, स्वर्ग से पृथ्वी पर उतरी हुई

तुम चिता में दग्ध लोगों पर ही कृपा करती हो,

तुम्हारी गोद में विश्राम की इच्छा से 

हम मुक्ति की प्रतीक्षा करते हैं।।  (अनुवाद स्वयं कवि द्वारा)


         यहां कवि एक ऋषि के समान प्रतीत होते हैं, जिनसे ऋचाएं प्रकट हो रही हैं।  इस भाग की समुद्रमन्थनम्, शब्दसागरः, त्रिपथगा आदि कविताएं पठनीय, मननीय हैं। 


5. शतदलम् - इस भाग मे 36 कविताएं संकलित हैं, यथा चम्पकः, गन्धः, अरविन्दम्, कर्णिकारः, वृन्दावनम् आदि। कवि ने इस भाग में कतिपय कविताओं के माध्यम से काश्मीर को प्रदर्शित किया है। कवि कहीं वितस्ता कविता में वितस्ता (झेलम)  नदी का मनोहारी चित्र खिंचते हैं तो कहीं शारदादेशे कविता में काश्मीर की नारियों की उपमा शरद् में ज्योत्स्ना की हंसी से देते हैं। कवि मुक्तकण्ठ से मुगलों की प्रशंसा उनके सत्कार्यों के लिये करते हैं। चश्माशाही श्रीनगर में मुगलबागों में से एक बाग है, जो वहां स्थित झरने के मिनरल वाटर जैसे पानी के लिये अतिप्रसिद्ध है। कवि इस चश्माशाही के लिये मनोहारी उत्प्रेक्षा से युक्त वचन कहते हैं-


मुक्तापिष्टं द्रुतमिव, दिवः कौमुदी वा भुवीयम्,

आकाशं वा तरलितमिदं स्वच्छनीरूपभासम्।

शुभ्रं पर्युच्छलति सलिलं निर्झरेऽस्मिन्नजस्रं,

मन्ये कीर्तिर्वहति मुखरा मोगलीयाधुनापि ।।


जैसे मोती पिघल कर बहते हों

या द्युलोक से चांदनी पृथ्वी पर उतरी हो,

या आकाश तरल हो गया हो

बिना रूप के पारदर्शी।

चमकता हुआ पानी सब ओर उछलता

अविराम इस झरने का,

मुझे लगता है आज भी मुगलों की कीर्ति 

मुखरित बही जा रही है।। (अनुवाद स्वयं कवि द्वारा)


       किन्तु ऐसा नहीं है कि कवि ने यहां काश्मीर के सुरम्य चित्र ही प्रस्तुत किये हो। कवि की दृष्टि वहां की वादियों में फैली हिंसा को भी देखती है-


कश्मीरान्वयमव्रजाम शिशिरे शान्ता यदोपत्यका

प्राप्ताः श्रीनगरोपकण्ठविपणिं मांसापणांश्चोभतः।

काचश्यानहिमाधिवेष्टनमयी रक्तातपिण्डावली

तत्रालम्ब्यत या विडम्बनमयी जाताऽद्य हिंस्रे युगे।।


जब हम कश्मीर गये

जाडों के दिन थे

जब हमने श्रीनगर में प्रवेश किया

हमने बाजार में खून और बरफ से जमे हुए

मांस के लोथडे लटके देखे दोनों ओर।

आज के हिंसा के युग में

उनकी स्मृति मानवशवों की

विडम्बना करती है।। (अनुवाद स्वयं कवि द्वारा)


6. दक्षिणापथे जयसिंहः - इस भाग में 1 5 कविताएं निबद्ध हैं। यहां कवि ने पर्यटन एवं विविध क्षेत्रों से सम्बद्ध भावों को प्रकट किया है। एक कविता में चीन की विशाल दीवार का वर्णन है तो एक कविता में तीन श्लोकों के माध्यम सें हिमाचल में स्थित धर्मशाला नगर में कवि द्वारा की गई यात्रा व प्रवास का मनोरम वर्णन है। तीन श्लोकों में कवि ने कालीदास की प्रशस्ति तथा चार श्लोकों में वाल्मीकि की प्रशस्ति भी लिखी है। दक्षिणापथे जयसिंहः नामक कविता में मिर्जाराजा जयसिंह द्वारा दक्षिणापथ अभियान के दौरान फोग नामक कांटेदार पौधे को देखकर स्वदेश स्मरण का वर्णन  कवि द्वारा किया गया है किन्तु राजस्थानी किंवदन्तियों में इस घटना को बीकानेर के राजा रायसिंह के छोटे भाई और पीथल के नाम से प्रसिद्ध पृथ्वीराज से सम्बद्ध माना जाता है, जो अकबर के राजदरबार में सम्मानित थे।  बुहारनपुर प्रवास के दौरान फोग देखकर उन्हें देश की याद आ जाती है-


तूं सैं देसी रुंखडो, म्हे परदेशी लोग

म्हानै अकबर तेडिया तूं यूं आयो फोग


7. प्रत्यग्बिम्बाः - इस भाग में कुल 31 कविताएं संकलित हैं। क्रिसमसदिवस में सैनिकों द्वारा वैरभाव भूलकर शत्रुओं के साथ ईसा मसीह के जन्मोत्सव को मनाने का वर्णन है तो बोधिसत्त्व कविता मेे भगवान् बुद्ध की करुणा का चित्रण किया गया है। काचगवाक्षः कविता में बुढापे को कांच की खिडकी के समान बतलाया गया है, जिससे तटस्थ होकर द्वन्द्व संघर्षों को देखा जाता है-


निस्त्रिंशति हिमवातः प्रहरति दोधूयमानतरुराजौ।

वार्धककाचगवाक्षाद् ईक्षे द्वन्द्वान्यनुद्विग्नः।।


बर्फीली हवा

छुरी सी चल रही है

झपटती थरथर कांपते वृक्षों पर।

बुढापा जैसे कांच की खिडकी है

उससे देखता हूं द्वन्द्व संघर्षों को

अनुद्विग्न।। (अनुवाद स्वयं कवि द्वारा)



               प्रस्तुत कृति में अनुप्रास, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि अलंकार सहज भाव से मिलते हैं| उक्त कृति को सरस्वती सम्मान व कबीर सम्मान से सम्मानित किया गया है। प्रो. सत्यप्रकाश मिश्र ने इस कृति के विषय में सत्य ही कहा है- भागीरथी संस्कृत और हिन्दी दो भाषाओं में लिखा गया भारतीय परम्परा का ज्ञानकाण्ड और भावकाण्ड है। संस्कृत और हिन्दी दोनों में ही चिन्तनशीलता जिस रूप में अनुस्यूत है वह चकित ही नहीं करती है अपितु ठहरकर सोचने को बाध्य करती है।

8 comments:

  1. समाज के अन्तस्थल की अनुभूति को अभिव्यक्ति देने वाले सुधी साहित्यकार गोविंद चन्द्र पाण्डेय महोदय की वागर्थमयी सृष्टि को सामाजिक पटल पर रखने के लिए बहुत बहुत बधाई एवं अपार बधाइयां कौशल जी

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  2. गोविंद्र चंद्र पांडेय विद्वान अध्येता है। उनकी कुछ कविताएं पढ़ी। अच्छी लगी।
    - देवेंद्र चौबे

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  3. चिंतक और कवि पांडेय जी अनेक विद्याशाखाओं के विद्वान् थे और सर्जक भी। बड़ी व्याप्ति के साथ लिखी उनकी कविताओं का परिचय सुखद अनुभव हुआ। भागीरथी पर गहन विचार की आवश्यकता है।
    कौशल जी बीच बीच में कहीं खो जाते हैं, परंतु इस बार बहुत अच्छी दो पुस्तकों, भागीरथी और पश्यन्ती का समर्थ शब्दों में परिचय करवाते हुए प्रकट हुए हैं। बहुत बधाई, कौशल तिवारी जी।

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    1. आपने सही कहा गोविंद चंद्र पांडेय जी की यह कृति गहन विचार की अपेक्षा करती है धर्म, दर्शन, शास्त्र यहां बिखरे पड़े हैं
      हां कुछ भटक जाता हूं पर जहाज का पंछी उड़ उड़ कर पुनः जहाज पर ही पहुंचता है
      प्रयास रहेगा कि यह क्रम भंग न हो🙏

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  4. Very good poems short but depth in meaning.. philosophical yet contemporary.read with hindi n sanskrit version. Worth reading.. thankyou kaushslji fir sharing..keep sharing such poems.

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