कृति - स्मृतीनां जर्जरितानि पृष्ठानि
लेखक - डॉ. हर्षदेव माधव
सम्पादक - डॉ. नारायण दाश
विधा- स्मृतिकथा (गद्यकाव्य)
प्रकाशक - कथा भारती, कलकत्ता
प्रकाशन वर्ष - 2018
पृष्ठ संख्या -96
अंकित मूल्य - 200/-
गद्य को कवियों के लिये निकष कहा गया है, यह भी एक कारण है कि प्रायः कवि गद्य-लेखन में संलग्न होते हैं। आधुनिक संस्कृत साहित्य के गद्य का स्वरूप अन्य भाषायी साहित्य के प्रभाव व नये-नये प्रयोगों के चलते परिवर्तित हो रहा है। जहां गद्यकारों की भाषा-शैली बदली है वहीं नई-नई विधाओं में रचनाएं भी संस्कृत पाठकों को पढने हेतु उपलब्ध हो रही हैं। ऐसी ही एक विधा है स्मृतिकथा। व्यक्ति को स्मृतियां आजीवन प्रभावित करती हैं। व्यक्तित्व निर्माण में स्मृतियों का बहुत बडा योगदान होता है। दरअसल व्यक्ति और स्मृति परस्पर पूरक होते हैं। स्मृतियों की जुगाली करते रहना बहुत आवश्यक है। स्मृतियां नकारात्मक भी हो सकती हैं और सकारात्मक भी। स्मृतियां दृःखद भी हो सकती हैं और सुखद भी। इन स्मृतियों को जब एक कवि गद्य के सांचे में ढाल कर कथाओं के रूप में प्रस्तुत करता हैं तो पाठक के लिये वे सर्वथा ग्राह्य ही होती हैं। स्मृतियों को जब एक सिलसिलेवार ढंग से लम्बी कथा के रूप में लिखा जाता है तो वह आत्मकथा का रूप ले लेती हैं। जब किसी व्यक्ति विशेष या घटना विशेष से जुडी स्मृति को पृथक् पृथक् कथा के रूप में प्रस्तुत किया जाये तो उसे ही स्मृतिकथा की संज्ञा दी जाती है। लेखक के द्वारा भोगी गई ये कथाएं साधारणीकरण प्रक्रिया से गुजर कर काव्यप्रयोजनों को सिद्ध करती हैं।
डॉ. हर्षदेव माधव निर्विवादित रूप से आधुनिक संस्कृत साहित्य के सबसे अधिक प्रयोगधर्मी कवि हैं। गद्य, पद्य, नाट्य आदि सभी काव्यभेदों में सिद्धहस्त कवि डॉ. हर्षदेव माधव ने अपने जीवन काल की स्मृतियों को कथाओं के रूप में स्मृतीनां जर्जरितानि पृष्ठानि नामक कथासंग्रह में लेखनबद्ध किया है। 32 कथाओं के माध्यम से कथाकार ने अपने जीवन की कई स्मृतियों को पाठकों के लिये तो प्रस्तुत किया ही है साथ ही उन स्मृतियों को स्वयं कवि ने भी जी लिया है। कभी भोज को 32 पुत्तलिकाओं ने विक्रमादित्य की 32 कथाएं सुनाई थीं| इस संग्रह में स्वयं कथाकार अपनी 32 स्मृतियों की कथा हमें सुना रहे हैं| इन स्मृतियों की जुगाली करते करते कथाकार इन स्मृतियों के तर्पण की बात भी कह देता है क्योंकि इनमें से कई स्मृतियों से ही पीडित भी हैं - ‘‘मेरी स्मृतियों में मैंने अपने रंग भरे हैं। इन स्मृतियों ने मेरे हृदय को जलाया है, आज मैं स्मृतियों को सरस्वती के प्रवाह में बहाकर तर्पण कर रहा हूं।’’
इन स्मृतिकथाओं में प्रथम कथा का शीर्षक सविता है। सविता कथाकार की पडौसी युवती है, जिसे उसकी लालची मां और ताऊ विवाह के पश्चात् भी उसके सुसराल में नहीं भेजना चाहते। सविता कथाकार को अपने मन की बात भी कहती है और एक दिन उसे यह भी बतलाती है कि वह वहां से भागकर सुसराल जाने वाली है। सविता के पिता का पात्र कथा के अन्त में अपनी छाप छोड जाता है। क्रूरहृदयः कविः कथा में ऐसे कवि की कथा है जो प्रारम्भ में अपने व्यक्तित्व से कथाकार को प्रभावित करता है किन्तु बाद में उसके कृत्यों से कथाकार सोचने को विवश हो जाता है- इदानीमपि यदा यदा अहं स्मरामि तदा तदा विह्वलो भवामि। सरस्वतीकृपावशात् स कवित्वं लब्धवान् किन्तु आसुरीसम्पद्वशात् स क्रूरहृदयोऽभवत्। अहं तस्य हृदयस्य मालिन्यस्य रहस्यं न जाने। एकः कविरासीत् किन्तु क्रूरहृदयः। कवेरनुग्रहः कथा में कथाकार ने महाविद्यालय में अपनी नियुक्ति की कथा प्रस्तुत की है। प्रस्तुत कथा यह तो बतलाती ही है कि किस प्रकार प्रतिभाशाली व्यक्ति के लिये नये द्वार खुलते जाते हैं साथ ही यह भी बतलाती है कि कविहृदय ही कवि का मूल्यांकन सही तरीके से कर पाता है। मंछाडाकिनी कथा हमें यह सोचने को विवश कर देती है कि हम मनुष्यों ने इस दौर में अपने स्वार्थों के चलते क्या क्या खोया है, कि हम किस प्रकार एक अच्छी भली युवती को डाकिनी बना देते हैं- दुःखिनी विधवा स्वनिराधारस्थितौ डाकिनी जाता। वयं तस्याः क्रोधकारणानि ज्ञातुं न शक्नुमः। अद्यापि तस्या मलिनशाटीयुक्तं दर्शनम्, तस्याः हताशामयानि कटुवचनानि स्मृतिपथमायान्ति। कदाचित् कालप्रवाहाद् वियुक्तो मनुष्य आनन्दरहितं निराधारं जीवनं भारवद् वहति.............इदमपि निष्ठुरं सत्यमस्ति। संग्रह की अन्य कथाएं भी प्रभावित करती हैं। यहां स्थित पात्र ऐसे प्रतीत होते हैं जैसे वे हमारे आसपास के वातावरण के ही हों, जैसे बर्फ बेचने वाले आमनचाचा या फिर रावण का पात्र निभाने वाले बच्चूलाल या कि पानी पिलाने वाली भागीरथी।
कथाकार संग्रह के आरम्भ में स्मृतियों को शाप जैसा बतलाते हुए कहते हैं कि स्मृतियां शाप हैं लेकिन शैतान मन उनके बिना नहीं रह सकता। सम्भवतः कथाकार की कई कटुस्मृतियां इस कथन के पीछे की कारण रहीं हैं। अस्तु, संस्कृत में इस प्रकार की कथाओं का मुक्तहृदय से स्वागत किया जाना चाहिए। हम वेदों में निबद्ध कथाओं से होते हुए दीर्घ दीर्घ वाक्यों व कल्पनाओं तथा यथार्थ से निबद्ध कथाओं के बाद आज अल्प सामासिक शैली से युक्त, सरल पदावली वाली, विविध स्वरूपों वाली कथाओं तक पहुंचे हैं। आगे हमें और भी मार्गों पर चलना है।
धन्यवाद प्रवीणजी ।बहुत मार्मिक बातें कही।स्मृति कथा के स्वरूप की भी अच्छी चर्चा है।चलो संस्कृत में कुछ तो पढनेवाले लोग हैं
ReplyDeleteआभार
Deleteयह डॉ कौशल तिवारी जी ने लिखा है। मेरी ओर से भी और आपकी ओर से ओर से भी तिवारी जी को धन्यवाद। मुझे लगता है कि संस्कृत में बहुत से लोग पढ़ते हैं और सराहते हैं, किंतु प्रत्येक बार वाचिक प्रतिक्रिया देना न तो संभव हो पाता है और न वह आवश्यक है। बहुत से लोग एक उचित अवसर पर अपनी बात रखते हैं। इससे यह मान लेना कि संस्कृत में कोई पढ़ नहीं रहा है या जानबूझकर उपेक्षा की जा रही है तो यह जल्दबाजी में निकाला गया निष्कर्ष होगा। सबकी सभी रचनाओं पर प्रतिक्रिया नहीं देते हुए भी आस्वाद पाठक लेता है। कई बार यह होता है कि यह मान लिया है कि अमुक अमुक अच्छे लेखक तो इस स्तर का लिखेंगे, उसके लिए वाह वाह कहा जाय तो भी क्या और नहीं कहा जाय तो भी क्या ? पाठक अपने संस्कारों में उसे सहेजता है।
ReplyDeleteआपकी भी कविताएं और रचनाएं पाठक पढ़ते हैं। एक परामर्श मुझे सभी कवियों और लेखकों को देना है कि वे अपनी रचना को ही बोलने दें। उसके साथ टिप्पणी लगाकर अपनी रचना को अवलंब देने की चेष्टा करने से कविता की व्याप्ति सीमित हो जाती है। कविता रच जाने के बाद कवि को भी उसका पाठक होना चाहिए। संस्कृत रचना को समस्त प्रकार के प्रस्थानों की आवश्यकता है,किसी विशेष प्रस्थान की नहीं। आपने स्वर्गीय डॉक्टर रमाकांत शुक्ल जी को उद्धृत किया था कि रचना का फलक कोई सीमित पट नहीं, अपितु अनन्त आकाश है। बहुत उचित कहा था, उन्होंने। किसी एक पक्षी के उड़ने से न कोई अन्य पक्षी बाधित होता है और न किसी एक पक्षी से आकाश को भरा जा सकता है। सबके पास अपनी उड़ान को दिखाने का अवसर है। कभी कभी पक्षियों को लगता है कि आकाश और धरती उनकी परवाह नहीं कर रहे हैं, जबकि ऐसा नहीं है। यह अदीबों की दुनिया है, अपनी मौज में बोलती है और जीती है। आपके सहित समस्त समकालिक संस्कृत नए कीर्तिमान स्थापित कर रहा है ।
आभार इस बहुत ही अच्छी टिप्पणी के लिए
Deleteआपसे मैं सहमत नही हूं।मैने सो लोगों को मेरी रचनाऐं भेजी हैं।दो तीन चार मित्रों का उत्तर आता है।
ReplyDeleteकुछ लोग आचानक फोन करके पूछते हैं आपकी रचना के प्रकाशक और संक्षिप्त विवरण दे दो।हम को जरूरत है।।मैं पोस्टकार्ड भेजता हूं जवाब के लिए।वे भी मुझे नही मिलते।
ऐसा अन्य सर्जकों की अनुभव होगा।
अपने पुस्तकालय से पुस्तक निकाल कर कौन देखें, कवि से सीधे जानकारी मांग करके काम चलाना है।
Deleteमेरे कार्य पर एक दो लोग पीएचडी का रजिस्ट्रेशन करवा कर छोड़ चुके हैं। जो मेरे साहित्य पर शोध करना चाहता है, वह मेरे से लिखा लिखाया चाहता है। मेरे एक बहुत परिचित कवि थे, जो अब स्वर्गस्थ हैं। वे कहते थे कि मेरे पर सारी थीसिस मेरे द्वारा ही लिखी गई हैं। कौशल जी साक्षी है कि कोटा से मेरे काव्यों पर शोध कार्य पंजीकृत हुआ और सिनॉप्सिस भी बनी। मैंने प्रथम फोन में शोधकर्त्री को दो टूक शब्दों में कह दिया था कि पारिवारिक जानकारी देने के अलावा मैं कोई सहयोग नहीं कर सकूंगा। वह शोध कार्य करना चाहें तो अपने और अपने शोध निर्देशक के बल पर करें।
अभी जयनारायण व्यास विश्व विद्यालय से भी मेरे कार्य पर पंजीकरण हुआ है और शोधार्थी को मैंने पहली वार्ता में स्पष्ट किया था कि मेरे से कोई अपेक्षा नहीं रखेंगे तो शोध कार्य कर सकते हैं।
यह स्थिति है शोध की। श्रम से बचना चाहते हैं लोग। यह विवरण इसलिए दे रहा हूं कि श्रम का हमारा स्वभाव नहीं रहा है। आप तो स्वयं शोध निर्देशक रहे हैं। शोधार्थियों और अपने साथी शोध निर्देशकों के बारे में आपके संस्मरण अद्भुत होंगे। एक वायवा में जब आप थे, मैं था और वे थे। चाय थी, टी ए बिल था और और वायवा नहीं था। उसे संकेत में रहने देना उचित है। यह स्थिति भारत में बहुत्र है।
आपने जिन स्थितियों का उल्लेख किया है, वे लिपिकीय मानस के अनुभव हैं।प्राचार्य होने से मुझे अनुभव हैकि जो सूचना जिला कार्यालयों में भेज दी जाती है, उस पर जब कार्यवाही करनी होती है तो वे अपनी फाइल में खोजने की अपेक्षा हमसे उसकी फोटो कॉपी मांगते हैं, जिसे कई बार न चाहते हुए भी देना होता है, जैसे कि आप अपने उन मित्रों को देते हैं, जिनके पास आपकी पुस्तक है। उनकी उपेक्षा करना सीखना होगा।
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ReplyDeleteसही कह रहे हैं भैया। मुझसे भी कई लोगों ने कहा पीएचडी लिख दो । कितना पैसा लोगे। मैं साफ मना कर दिया भैया। कुछ दुर्वासा ऋषि ने तो श्राप भी दे डाला है कि जिंदगी भर प्राइवेट कालेज में ही रहोगे तब
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