कृति - मानवी
विधा - बालोपन्यास
लेखक - राधावल्लभ त्रिपाठी
प्रकाशक - शिवालिक प्रकाशन, दरियागंज, नईदिल्ली
प्रकाशन वर्ष - 2021
पृष्ठ संख्या - 229
अंकित मूल्य - 495/-
संस्कृत में प्राचीन बाल साहित्य प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। अर्वाचीन समय में भी बाल साहित्य लिखा व पढा जा रहा है। आचार्य वासुदेव द्विवेदी शास्त्री का बालसाहित्य के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान है। शास्त्री जी द्वारा लिखे गये बाल साहित्य का संकलन करके हाल ही में उत्तरप्रदेश संस्कृत संस्थान, लखनऊ से आचार्य वासुदेवद्विवेदिशास्त्रिग्रन्थावालिः प्रसन्नभारती के प्रथम भाग में प्रकाशित किया गया है। प्रो. अभिराज राजेन्द्र मिश्र ने मोगली की कथा के समान अपने जनपद की एक कथा को कान्तारकथा में गूंथा है। हर्षदेव माधव ने बाल साहित्य के क्षेत्र में पिपीलिका विपणीं गच्छति, बुभुक्षितः काकः तथा त्रीणि मित्राणि के माध्यम से ख्याति प्राप्त की है। डॉ. सम्पदानन्द मिश्र तो बाल साहित्य के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। आपको शनैः शनैः के लिये साहित्य अकादेमी से बाल साहित्य पुरस्कार प्राप्त हुआ है। युवा लेखकों में ऋषिराज जानी विशेष रूप से उल्लेखनीय है। ऋषिराज के चमत्कारिकः चलदूरभाषः को भी साहित्य अकोदमी द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार प्राप्त है।
प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी रचित मानवी नामक रचना संस्कृत बाल साहित्य को नई दिशा देने वाली है। यह उपन्यास शैली में लिखी गई रचना है, अतः इसे बालोपन्यास कहा गया है। संस्कृतेतर भाषाओं में जिस प्रकार की रचनाएं बाल पाठकों के लिये देखने को मिलती हैं, मानवी उसी तरह की कृति है। यह एक काल्पनिक उपन्यास है किन्तु अपने समय के यथार्थ को यह बखूबी व्यक्त करता है।
उपन्यास का प्रारम्भ सलीम अली नामक वैज्ञानिक से होता है (लेखक ने स्पष्ट कर दिया है कि यह एक काल्पनिक चरित्र है, जिसका कोई भी सम्बन्ध प्रसिद्ध पक्षी वैज्ञानिक पद्मश्री सलीम अली से नहीं है)। अखबार से वैज्ञानिक को पता लगता है कि बुन्देलखण्ड में नर्मदा नदी के किनारे भोपाल के पास नन्दनपुर नामक गांव में दुर्लभ प्रजाति के राजहंस प्रवासी के रूप में आये हैं। सलीम अली वहां राजहंसों को देखने जाते हैं। उन राजहंसों में से एक हंसिनी अपने यूथ के प्रस्थान कर जाने पर भी वहीं रह जाती है क्योंकि वह गांव के एक बच्चे रघु के साथ बहुत घुल-मिल गई थी। हंसिनी का नाम मानवी है। वह सचमुच मानवी ही है। मानवोचित गुण उसमें हैं, वह मनुष्यों की बोली में भी बोलती है। यूथ से बिछडी हुई मानवी उसी गांव में रघु के पास रह जाती है और उसकी सहायता भी करती है। बोलने वाली हंसिनी का समाचार सर्कस कम्पनी चलाने वाले कलानाथ को मिलता है। यहीं से कहानी में नया मोड आता है। गांव से प्रारम्भ हुई कथा रूस देश में जाकर खत्म होती है। मानवी 5 साल तक रघु के साथ रहती है। वे दोनों इस दौरान अनेक घटनाओं का सामना करते हैं। मनुष्यों की लोलपुता के बीच में यह दिखलाया गया है कि किस प्राकर एक हंसिनी और मनुष्य का निश्छल प्रेम हो सकता है। यह प्रकृति और मनुष्य के जुडाव की गाथा है।
उपन्यासकार ने पात्रों को उनके पूरे व्यक्तित्व के साथ उकेरा है। घटना दर घटना उपन्यास के पात्रों का चरित्र - चित्रण पाठक के सामने आता जाता है। चाहे वह वैज्ञानिक सलीम अली हों, बालक से किशोर बना रघु हो, सर्कस कम्पनी का मालिक कलानाथ हो या रघु की माता सुहागिनी देवी हो। उपन्यासकार ने पात्रों के परस्पर संवादों से उपन्यास को आद्यन्त रोचक व जीवन्त बनाये रखा है। ये संवाद न केवल पात्रों के चरित्र को प्रकट करते हैं अपितु कथा को आगे भी बढाने में सहायक होते हैं। जैसे रघु व उसकी माता का यह संवाद-
माता तस्य शिरः हस्ते संवाहयन्ती अवदत् - अरे किमर्थं रोदिषि? गंगी तु श्वो यावत् आगमिष्यति, सा स्ववत्सकं गोलुं विहाय क्वापि गन्तुं न शक्नुयात्। तस्या विहग्याः का मात्रा! एकस्य पक्षिणः कृते रोदिषि! सा विहगी वर्तते..................उड्डीय गता। तस्या अस्माकं मानवानां च कः संगः?
- सा विहगी नास्ति........सा मम मानवी।- इत्युक्त्वा रघुः पुनरपि अरुदत्।
- आयास्यति सा, यदि तव तस्यां तथा स्नेहः, तर्हि सा आगच्छेत्...............
उपन्यासकार ने नर्मदा के किनारे के गांव के वातावरण को आधार बनाकर उपन्यास को रचा है। कथा जैसे-जैसे आगे बढती जाती है, वैसे-वैसे उनके घटने का स्थान भी बदलता है। गांव से निकलकर कथा विदिशा शहर में जाती है और फिर उसमें भरतपुर का विख्यात घना पक्षी अभयारण्य भी मिलता है- भरतपुरीयः पक्षीविहारो भव्यः। इदानीम् एतत् स्थलं पक्षीविहार इति नाम्ना न ज्ञायते, इदं केवलादेवराष्टियमुद्यानम् इति ख्यातिं गतम्। अत्र केवलं पक्षिणो न सन्ति, अन्ये वन्यजन्तवोऽपि सन्ति। कथा का समापन रुस देश में किया गया है।
उपन्यास की भाषा सरल-तरल एवं भावमयी है। लेखक ने नये शब्द भी प्रयोग किये हैं, यथा - उड्डयनी (फ्लाइट), शय्यावाक्यम् (तकियाकलाम), शरकष (सर्कस), पिष्टल (पिस्तोल), गोमयगैसचुल्लिका (गोबरगैसचूल्हा), पारपत्रम् (पासपोर्ट) इत्यादि। कुछ स्थानों पर शब्दों को ज्यों का त्यों ले लिया गया है, जैसा कि वे आम बोलचाल की भाषा में प्रयुक्त होते हैं- फार्महाउस्, मोटरसायकिलम्, ट्रेक्टरः, शरकषकम्पन्याम्, ट्रकेन, होटलम्, पार्किंगस्थले। प्रो. त्रिपाठी ने मुहावरों , कहावतों एवं लोक में प्रचलित वाक्यों का भी संस्कृतीकरण करके प्रयोग किया है, यथा-
अयम् इतो गतस्तत आगतः
क्षते क्षारमिव
इतो भ्रष्टा ततो नष्टा
एते किंचित् ददति तत् मम लवणाय शाकाय वा जायते
त्वया सह विवाहं तु मम अंगुष्ठम् अपि न कुर्यात्
प्रथमं त्वं स्वमुखं कस्मिंश्चित् प्रणालके प्रक्षाल्य आयाहि
चन्द्रमाः कया दिशा उदितः
प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी ने उपन्यास में एक ओर तो मानव व प्रकृति का सम्बन्ध जोडा है, वहीं दूसरी ओर वे अपने समय की सच्चाईयों से भी हमें रूबरू करवाते चलते हैं। बढते हुए तापमान का वर्णन करते हुए जलवायु परिवर्तन को उसका कारण बतलाते हुए लिखते हैं-
जुलाईमासः समागतप्रायः। दिल्लीनगरी वह्निज्वालाभिरिव भास्करस्य अतितरां तीक्ष्णैः दाहकैः रश्मिभिरवलीढा। तापमानं पंचचत्वारिंशदंशमितं जातम्। राजस्थाने चुरूनगरे तापमानं पंचाशदंशपर्यन्तम् आरूढम्। मुम्बय्यामपि भीष्मो ग्रीष्मः प्रवर्तते। कोलकातायास्तु कथैव का। चेन्नयामपि तापमानं उपरि अंचितम्। वैशिक्या उष्णताया परिणामा इमे इदानीं प्रत्यक्षीभवन्ति।
हमारी विकृत जीवनशैली ने पहाडों को भी नहीं छोडा है। हम प्रकृति को नष्ट कर देने पर आमादा हैं, बिना यह जाने कि एक दिन यही मानव जाति को लील लेगा-
हिमालयः परिवर्तितः। तत्र जनाः आरोहन्ति, नाना वस्तूनि प्रक्षिपन्ति। क्वचिद् दुर्गन्धः, क्वचित् खाद्यवस्तूनि। हिमं द्रवितम्। तेन क्लेशः।
उपन्यास में एक स्थान पर सर्कस के जोकर के माध्यम से उपन्यासकार कहते हैं-
ये खेलासु विदूषकाः भवन्ति, ते सज्जना एव भवन्ति......ये च सज्जना इव दृश्यन्ते संसारे, ते विदूषका भवन्ति।
उपन्यास का विभाजन 23 खण्डों में किया गया है। मूल संस्कृत के साथ ही हिन्दी अनुवाद भी दिया गया है। यह उपन्यास न केवल बालपाठकों के लिये है अपितु हर आयुवर्ग द्वारा पठनीय है।
एक अच्छे उपन्यास की अच्छा परिचय। यह पठनीय कृति है।
ReplyDeleteआभार
Deleteबहुत ही रोचक परिचय दिया है मानवी उपन्यास का। परिचय को पढ़कर उत्सुकता होती है उपन्यास को पढ़ने की। साधुवाद।
Deleteआभार
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