Monday, June 13, 2022

कवि की पहचान _ अभिज्ञानम्

कृति - अभिज्ञानम्

कवि - डॉ. राजकुमार मिश्र ‘कुमार’

विधा - ग़ज़लकाव्य

प्रकाशक - सत्यम् पब्लिशिंग हाऊस, नई दिल्ली

प्रकाशन वर्ष - 2020

पृष्ठ संख्या -147

अंकित मूल्य - 400/-



           साहित्य में ग़ज़लविधा अत्यन्त लोकप्रिय रही है। उर्दू ग़ज़ल किस का मन नही मोह लेती। मीर, गालिब के शेर आज तक उद्धृत किये जाते हैं। हिन्दी ग़ज़ल में दुष्यन्त की ग़ज़ल अपने समय को बखूबी व्यक्त करती हैं। संस्कृत में भी ग़ज़ल विधा प्रसिद्धि पा रही है। कई कवि सम्मेलनों में ग़ज़ल को सुना व सराहा जा रहा है। भट्ट मथुरानाथ शास्त्री से प्रवर्तित ग़ज़लविधा में वर्तमान में कई हस्ताक्षर हैं। कवि हर्षदेव माधव ने शास्त्री जी से लेकर वर्तमान युवा कवियों सहित संस्कृत ग़ज़लकारों की प्रतिनिधि ग़ज़लों का संकलन तैयार किया है, जो द्राक्षावल्ली के नाम से साहित्य अकादेमी, दिल्ली से प्रकाशित है। 



                      युवा ग़ज़लकारों में डॉ. राजकुमार मिश्र प्रमुख हैं, जो ‘कुमार’ तखल्लुस (उपनाम) का प्रयोग भी करते हैं। कवि को साहित्य अकादेमी द्वारा युवा पुरस्कार एवं बाल साहित्य पुरस्कार से सम्मानित किया गया है| कवि राजकुमार मिश्र की ग़ज़लों का संकलन अभिज्ञानम् नाम से प्रकाशित हुआ है। इस में 60 ग़ज़लें हैं और साथ ही इनका हिन्दी अनुवाद भी दिया गया है। 

                        अपनी ग़ज़लयात्रा को कवि संग्रह की प्रथम ग़ज़ल के मतले में इस प्रकार अभिव्यक्त करता है-

गीतं तु तन्न गेयं यस्मिन् समा न मात्रा

तस्यापि जीवनं किं हीनोऽस्ति यः स्वमात्रा।।

इसी ग़ज़ल के अन्य शेर में कवि विदेश में धन कमाने में व्यस्त उन कुपुत्रों का वर्णन करता है, जिनके माता-पिता अपने सूने पडे घरों में अकेले मर-खप जाते हैं-

व्यस्ता धनार्जनार्थं पुत्रास्समे विदेशे

एकाकिनो रुदन्तस्ताताश्च जीर्णगात्राः।।

  कवि संस्कृत कवि सम्मेलनों की दुर्दशा से भी व्यथित है। जब वह यह देखता है कि जिन्होंने कभी जीवन में सरस्वती की उपासना नहीं की किन्तु धनमात्र के लिये वे कविता बनाकर पढ रहें हैं तो कवि आहत मन से कह उठता है-

न कदापि वागुपसेविता यैर्जीवने ते निस्त्रपाः

सहसा धनाय सतां पुरः कवनोद्यता दृष्टा मया।।

    इस संकलन की तालकम् ग़ज़ल सुन्दर बन पडी है। हम सब घरों में ताले का प्रयोग करते हैं। किन्तु ताले की इस संस्कृति ने तब जन्म लिया जब हमारा आपसी विश्वास प्रायः खत्म सा हो गया-

चिन्तये केन पूर्वं गृहे स्वे कदा

वैरकालुष्यदं योजितं तालकम्।।

तस्य तावन्त एवाऽरयो निन्दकाः

लम्बते यस्य यावद् गृहे तालकम्।।



    कवि ने व्यंग्य का अपनी ग़ज़लों में बहुत अच्छा प्रयोग किया है, यथा-

इदं राष्ट्रमद्यास्ति भो बोधितं यत्

वयं जानकीं नैव तस्माद् हरामः।।

यहां देश में नारी की दुर्दशा का वर्णन तो है ही साथ में कवि विदेशी जनों को सम्बोधित करते हुए भारतीयों पर भी व्यंग्य करता है कि हमारी नारियों को विदेशी लोगों द्वारा हरने की जरुरत ही नहीं है, हम स्वयं इस कार्य में दक्ष हो चुके हैं। 

        युवा कवि की ग़ज़लगीतियों में प्रणय के स्वर भी हैं। वह कहीं प्रेम में कुपित प्रिया के मुख का स्मरण करता है तो कहीं प्रिया से कहता है कि प्रेम को अन्य लोगों से छुपाना चाहिए।

          रदीफों का प्रयोग ग़ज़लसंग्रह में पठनीय है। कवि ने पारम्परिक प्रतीकों व मिथकों को नई अर्थवत्ता के साथ प्रस्तुत किया है। प्रायः संग्रह की ग़ज़लें गैर मुसल्सल हैं क्योंकि इनके शेर के भाव स्वतन्त्र रूप से प्रकट हो रहे हैं। संस्कृत ग़ज़ल के क्षेत्र में यह संकलन स्वागतयोग्य है।


4 comments:

  1. बहुत सुन्दर पुस्तक परिचय। ग़ज़ल विशेषकर संस्कृत ग़ज़ल में रुचि रखने वालों के लिए यह एक पठनीय ग्रंथ है

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  2. संस्कृत गजल के लिए इक्कीसवीं शताब्दी बहुत शुभ है। यहां वह नई उपलब्धियों को अर्जित कर रही है। डॉ कुमार की रचनाओं का नोटिस लिया जाना चाहिए। इनके दो संग्रह आ चुके हैं और तीसरा प्रकाशन प्रक्रिया में है। प्रत्येक गजलकार का मुकाम अलग होता है और रास्ता भी। उनकी अपनी महत्ता होती है। कौशल जी, आप इन सब रचनाओं का परिचय देने का काम करके आधुनिक संस्कृत साहित्य की बड़ी सेवा कर रहे हैं। आपको और डा. कुमार को बधाई।

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    1. आपने सही कहा राजकुमार जी की ग़ज़लें बहुत अच्छी बन पड़ी हैं उन पर चर्चा होनी चाहिए
      आभार

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