कृति - गंगापुत्रावदानम्
कृतिकार - डां निरंजन मिश्र
विधा - महाकाव्य
संस्करण - प्रथम 2013
प्रकाशक - मातृसदनम्, जगजीतपुरम्, कनखलः, हरिद्वारम्
फोन नं. : 01334-246241, 245333
पृष्ठ संख्या - 348
अंकित मूल्य - अंकित नहीं
डां निरंजन मिश्र अर्वाचीन संस्कृत साहित्य में सुपरिचित हैं| हिंदी और संस्कृत दोनों ही भाषाओं में रचना करने वाले कवि मिश्र जी।की।संस्कृत साहित्य में अनेक पुस्तके प्रकाशित हुई हैं| आप महाकाव्य , खंडकाव्य, गजलकाव्य, बालकविता, कथा, नाट्य आदि नैक विधाओं में लिखते हैं| गंगापुत्रावदानम् कवि मिश्र का महाकाव्य विधा में लिखा गया ग्रंथ है जिसे 2017 में साहित्य अकादेमी के मुख्य पुरस्कार से भी पुरस्कृत किया गया है|
गंगापुत्रावदानम् महाकाव्य का अपर नाम स्वामिनिगमानन्दचरितम् है क्योंकि इस महाकाव्य के नायक स्वामी निगमानन्द जी हैं| स्वामी निगमानन्द को गंगापुत्र के नाम से भी प्रसिद्धि प्राप्त थी| कवि ने किसी अलौकिक दिव्य पात्र को नायक न बनाकर लौकिक किंतु दिव्य पात्र को नायक बनाया है| क्योंकि स्वामी निगमानन्द अपने कर्मों से दिव्य ही थे| पर्यावरण संरक्षण, भागीरथी गंगा की स्वच्छता और भ्रष्टाचार का उन्मूलन करने के संकल्प को लेकर स्वामी निगमानन्द ने अपने प्राणों की भी आहुति दे दी| यह महाकाव्य सत्य घटना पर आधारित है| कवि ने स्वयं इसकी अधिकांश घटनाओं को घटते हुए देखा है| मिथिला अंचल में जन्म लेने वाले स्वामी निगमानन्द जी की कर्मभूमि और तपोभूमि बना हरिद्वार स्थित मातृसदन नामक आश्रम| लेखक ने स्वयं लिखा है कि नायक के संन्यास लेने के पूर्व की कथा कल्पना पर आधारित है किंतु बाद की कथा सत्य घटनाओं को कहती है - संन्यासग्रहणात्प्राक्तनीया कथा यथाश्रुति वर्णिता वर्तते। कथासंयोजनाय कल्पना भवति बलीयसी कवीनामित्यत्रापि न संशयः । संन्यासिनः पूर्वजन्मविषये कल्पनैवाधारत्वमर्हति। कल्पनायामस्यामपि तन्मुखाद्गलित वचनमेव प्रमाणम् ।
वीर रस प्रधान इस महाकाव्य में 23 सर्ग हैं| कवि ने प्रथम सर्ग में उत्तरांचल का मनोहारी वर्णन किया है_
घनो घनस्तिष्ठति यत्र गेहे सौदामिनी यत्र करोति नृत्यम् ।
गभीरनादो गगने घनस्य गुहासु शैलस्य हरेश्च नित्यम् ॥
अर्थात् जहाँ घना मेघ घर में निवास करता है। (मेघ लोगों के घरों में प्रवेश कर जाता है।) सौदामिनी (विद्युत्) जहाँ अपना नृत्य प्रस्तुत करती है। जहाँ आकाश में मेघ का और पर्वत की गुफाओं में सिंहों का गम्भीर नाद नित्य हुआ करता है। (यह वही भूमि है।)
द्वितीय सर्ग में हरिद्वार का विशिष्ट वर्णन प्राप्त होता है| किंतु कवि वर्तमान में धर्म के नाम पर हो रहे अधर्म से भी आहत है_
तीव्रध्वनिर्भवति देवसमर्चनायां स्तोत्रेण तुष्यति न दुष्यति कर्णरन्यम् ।
लोकस्य दुःखमुपपाद्य कथं कदा वा लोकेश्वरस्य चरणेऽस्तु रतिर्न जाने ।।
अर्थात् यहाँ देवताओं की अर्चना में तीव्र ध्वनियाँ होती हैं। इन स्तोत्रपाठों से देवता तो तुष्ट होते नहीं, कर्ण रन्ध्र दोषपूर्ण अवश्य हो जाता है। लोगों के दुःखों को उत्पन्न कर लोकेश्वर के चरणों में प्रीति कैसे होगी, यह समझ में नहीं आता है।
तृतीय सर्ग में नायक की कर्म स्थली मातृ सदन का वर्णन किया गया है| चतुर्थ सर्ग से नायक की कथा शुरू होती है| नायक सीता, विद्यापति आदि की भूमि में जन्म लेते हैं जहां उनका नाम स्वरूपम् रखा जाता है| पंचम और षष्ठ सर्ग में नायक के आध्यात्मिक विचारों से अवगत कराया गया है| सातवें सर्ग से तेरहवें सर्ग तक की कथा में बतलाया गया है कि किस तरह स्वरूपम संन्यास लेकर स्वामी निगमानन्द बन जाता है-
शिष्यस्य चारुचरितेन गुरुः प्रसन्नः
सेवाविधौ नियमनं च चकार तस्य ।
संन्यासधर्ममधिगत्य नवीननाम्ना
लोके स्वरूपमवटुर्निगमाभिधोऽभूत् ॥ भूत् ॥
अर्थात् शिष्य के सुन्दर चरित्र से गुरु ने प्रसन्न होकर अपनी सेवा विधि में उसका नियमन कर दिया। अर्थात् अपनी सेवा में लगा लिया। संन्यास धर्मा, विष को ग्रहण कर यह स्वरूपम नवीन नाम से निगमा (निगमानन्द सरस्वती) हो गया।
14 वें सर्ग में 63 श्लोकों के माध्यम से गंगा के मुख से ही गंगा की दुर्दशा का वर्णन किया गया है_
मलं सदा क्षालयतीह गङ्गा श्रुत्वेति वाक्यं स्वमलप्रवाहम् ।
विसर्जयन्त्यत्र हि मच्छरीरे रक्षन्ति देहे मनसो मलं ते ॥
15 वें सर्ग से 23 वें सर्ग तक की कथा में बतलाया गया है कि किस प्रकार गंगा की रक्षा के लिए वाहनों के प्रतिबंध को लेकर और कुंभ की।भूमि को खनन मुक्त करवाने के लिए आश्रम वासी अनशन करते हुए आंदोलन करते हैं| कई बार उनकी बात मान ली जाती है किंतु फिर से गंगा को प्रदूषित करने और खनन करने का कार्य शुरू हो जाता है| इससे आहत होकर स्वामी निगमानन्द अनशन करते हैं जिसमें सरकार और पत्रकार उदासीन रवैया अपनाते हैं| यही पर वर्णन मिलता है कि उन्हे अस्पताल में धोखे से जहर दिया जाता है जिससे वह ब्रह्मलीन हो जाते हैं_
मध्येमार्ग कृतं यत्तैस्तत्फलं स्वामिनो मुखात् ।
निर्गतं फेनरूपेण तरङ्गिण्या यथा मलम् ॥
अर्थात् इस बीच रास्ते में इन लोगों ने जो किया उसका परिणाम यह हुआ कि उस स्वामी (निगमानन्द) के मुख से फेन निकलने लगा। जैसे तरंगिणी अपनी का मल फेन रूप में निकलता है।
अर्वाचीन संस्कृत महाकाव्यों में गंगापुत्रावदानम् निश्चित ही महत्वपूर्ण महाकाव्य है जिसमे एक साधु चरित को आधार बनाकर महाकाव्य का ताना बाना बुना गया है साथ ही हमारे समय के समाज के दोगलेपन का भी मार्मिकता से वर्णन किया गया है| नदियों को मां कहने वाले हम उन्हें किस तरह बर्बाद कर रहे हैं और उनकी रक्षा का व्रत लेने वालों की क्या स्थिति कर दी जाती है, इसका सच्चा परिचय यह महाकाव्य देता है| काव्य की।भाषा का प्रवाह प्रशंसनीय है| विविध अलंकारों के प्रयोग में कवि ने अपनी कुशलता प्रदर्शित की है और छंद प्रयोग भी श्लाघनीय है|
No comments:
Post a Comment