Tuesday, May 28, 2024

परमानन्दशास्त्रिरचनावलिः

कृति - परमानन्दशास्त्रिरचनावलिः

लेखक - परमानन्द शास्त्री

प्रधान सम्पादक - प्रो. परमेश्वर नारायण शास्त्री

सम्पादक  - सत्यप्रकाश शर्मा

प्रकाशक - राष्टिय संस्कृत संस्थान , नई दिल्ली

प्रकाशन वर्ष -2016

पृष्ठ संख्या - 22 +,882

अंकित मूल्य - 720रु/-



                 अर्वाचीन संस्कृत साहित्य के सुपरिचित कवि परमानन्द शास्त्री नूतन विधाओं और नूतन कथ्य के लिए सुपरिचित हैं | परमानन्द शास्त्री‌ जी की रचनाओं को एक स्थान पर लाने का सुकार्य किया है राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान ने और संपादन का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है सत्यप्रकाश शर्मा जी ने| रचनावली के प्रारंभ में सत्यप्रकाश जी ने परमानन्द शास्त्री जी लें जीवन और कर्तृत्व का संक्षिप्त परिचय दिया है, जिससे ज्ञात होता है कि कवि परमानन्द शास्त्री जी का जन्म उत्तरप्रदेश के मेरठ मंडल के अनवरपुर गांव में  हुआ था| विभिन्न महाविद्यालयों में पढ़ाते हुए अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में कवि ने लंबे समय तक कार्य किया और यही से सेवानिवृत्त हुए| कवि ने संस्कृत के साथ हिंदी में भी लेखन कार्य किया है| प्रस्तुत रचनावली में 2 संस्कृत महाकाव्यों के साथ अन्य 12 रचनाओं का संकलन हैं| कुछ काव्यों का हिंदी अनुवाद भी साथ में दिया गया है| इन रचनाओं का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है




1 जनविजयम्

                         यह महाकाव्य विधा में रचा गया है| स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारत में हुई कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं को लेकर कवि ने महाकाव्य का कथानक रचा है| यह 15 सर्गों का महाकाव्य है, जिसमें भारत में लागू हुए आपातकाल के समय की घटनाओं का वर्णन मुख्य रूप से किया गया है| इसका प्रथम प्रकाशन 1978 में हुआ था| अंतिम सर्ग में कवि का उद्बोधन भी है_

'रे पीडकाः ! क्रीडथ राजनीत्या, सभासु चाश्वासनदानदक्षाः! 

नेतार आलक्ष्यमतान्धमुग्धाः !, निबोधतादेष जनो ब्रवीति  ।


कियच्चिरं वेत्स्यथ मूढकं मां, कियच्चिरं लुण्ठथ मे मतानि ? 

भाग्येन खेला च कियच्चिरं मे, कियच्चिरं ब्रूत विशोषणं च ॥

                   कवि ने हड़ताल के लिए हठतालम्, नसबंदी के लिए शिराबन्धः, बंकर के लिए गुप्तसैन्यकक्ष शब्दों का प्रयोग किया है| 


2 चीरहरणम्

                       12 सर्गों का यह महाकाव्य यूं तो महाभारत के द्रौपदी के चीरहरण की घटना पर आधारित है किंतु इसमें हमारा वर्तमान समाज भी प्रतिबिंबित होता है| 11 वें सर्ग में द्रौपदी के मुख से भारतीय नारी की दशा दिखलाई गई है-

दृढतरं कुशलं पुरुषा व्यधुर्यदबलाचरणे बहुशृङ्खलाः।

 शिथिलयन्ति गतः किमुदारतामतितरां कतिचिन्न तदुत्सवे ।।

                         पुरुषों ने नारी के पाँव में कुशलता और दृढता के साथ जो बहुत सी शृङ्खलाएँ डाली हैं, उनमें से कुछ को वे उदार (?) बनकर उत्सवों में किसी प्रकार शिथिल कर देते हैं|


'प्रकृतिहीनगुणास्म्यबला मृदुः पुरुषसेव्यतया विधिना कृता।'

 इति बलादनुभावयताङ्गना बत नरेण कदा नहि वञ्चिता।॥

                                  'मैं स्वभाव से ही हीनगुण हूँ, अबला हूँ, विधि ने मुझे पुरुष की सेवा के लिए ही बनाया है' बलात् इस प्रकार का अनुभव कराते हुए पुरुष ने नारी को कब नहीं ठगा? 


3 गन्धदूतम्

                     मेघदूत की शैली में लिखे गए इस दूतकाव्य में पूर्वगंध और उत्तरगंध नाम से दो भाग हैं|  इनमें क्रमशः 78 और 82 श्लोक हैं| प्रथम भाग में किसी पति के विषम चरित्र को देख कर पत्नी पीहर चली जाती है| पति आत्मग्लानि से भरकर वाराणसी में स्थित अपनी पत्नी के पास संदेश भेजने के लिए गंध को दूत बनाता है_ 

सौम्यामोद ! त्वमसि विदितो मोददायीति लोके 

सर्वत्रापि प्रसरसि मरुद्द्यानरूढो जगत्याम्। 

वाराणस्यां वसति दयिता मानिनी मन्मदीया

 सन्देशं मे नय घटयितुं द्वन्द्वमद्यावयोस्त्वम्।।

               अर्थात् सौम्य आमोद ! तुम संसार में प्रसन्नता प्रदान करने वाले (के रूप में) प्रसिद्ध हो। वायु पर सवार होकर संसार में सर्वत्र विचरण करते हो। मेरी रूठी हुई प्रियतमा वाराणसी में रह रही है। हम दोनों का मिलन करने के लिए तुम मेरा संदेश ले जाओ ।। 

                     यहां पति के निवास स्थान से वाराणसी की यात्रा का मार्ग बतलाया गया है| फरीदाबाद, आगरा, फिरोजाबाद, कानपुर, प्रयाग होते हुए गंध को वाराणसी पहुंचना है| मार्ग में आए ताजमहल का वर्णन कवि कुछ यूं करता है_

पाषाणेषु स्फुटविलसनं शिल्पिनां कल्पनायाः 

स्नेहव्यक्तेः प्रणयिमनसो व्योमचुम्बि-प्रकारम्। 

सौन्दर्यस्य प्रसभमचलोद्‌भेदमुद्यत्प्ररोहम्

 मृत्योर्जेत्रं कुमुदविशदं चाट्टहासं कलायाः ।



गत्वा ताजं तत उपवने शीतकुल्या विगाह्य 

मोदस्पन्दं सुभग ! विहरेर्वाटिकायां सुमानाम्। 

प्राप्ते सर्वः परममुदितो जायते ज्ञातिबन्धौ 

पाराध्यैकव्रतिनि ललिते किं पुनस्त्वादृशे तु ॥

                         अर्थात् ताजमहल जहाँ पत्थरों में शिल्पियों की कल्पना का विलास फूट पड़ा है, जो प्रेमी-हृदय का स्नेह व्यक्त करने का एक आकाशचुम्बी ढंग है, अटल पृथ्वी को फोड़कर निकलता हुआ सौन्दर्य का अङ्‌कुर है और कुमुद के समान निर्मल मृत्युञ्जय अट्टहास है-उस ताजमहल में जाकर (वहाँ) उपवन की शीतल नहरों का अवगाहन कर सुगन्ध और आनन्द की थिरकन के साथ पुष्पवाटिका में विहार करना। अपने जाति-बन्धुओं के आने पर सभी प्रसन्न होते हैं फिर सदा परोपकार का ही व्रत धारण करने वाले तुम जैसे ललित व्यक्ति के आने की तो बात ही क्या

           उत्तरगंध में वाराणसी का वर्णन करते हुए पति अपना संदेश पत्नी को सुनाता है और अपने कृत्य की क्षमा याचना करता है| यहां कवि शराबी लोगों की दुर्दशा का वर्णन भी करते हैं|  यहां प्रसिद्ध संस्कृत विश्वविद्यालय और हिंदू विश्वविद्यालय का भी वर्णन प्राप्त होता है| लंका नामक प्रसिद्ध मुहल्ले का भी वर्णन है| 



4 परिवेदनम् _

                     ‌‌यह खंड काव्य शोकगीत elegy की श्रेणी में आता है| इसकी रचना 1980 में उस  समय की गई थी जब इंदिरा गांधी के पुत्र संजय गांधी की एक हवाई दुर्घटना में मृत्यु हुई थी| प्रस्तुत काव्य में 105 श्लोक हैं_

अयि राष्ट्रविचिन्तनामते ! 

तव शोको न ममैव केवलम्।

 इह कोऽपि मृतो गृहे गृहे

 सकलो लोक इवाद्य रोदिति ।


5 वानरसंदेश:_

                      दूतकाव्य (संदेश काव्य) की विधा में लिखा गया यह काव्य एक तरफ तो कालिदास की शैली का स्मरण करवाता है तो दूसरी और वर्तमान राजनीतिक वातावरण की विडंबना पर प्रहार करता हुआ उसे आईना दिखाता है|  काव्य का नायक  वानर को दूत बनाकर उसे अलीगढ़ से दिल्ली भेजना चाह रहा है और उसकी प्रेयसी है कुर्सी_ 


आस्ये हास्यं कथमिह सखे प्रेयसीत्थं निशम्य 

बाढं साऽऽस्ते मम खलु, वदाम्येहि, भूयः शृणुष्व। 

आसन्दीति प्रकृतिपुरुषैरद्य नव्यैश्च कुर्सी- 

त्याख्याता सा खलु मयि रता स्यान्नवा ऽहं रतोऽस्याम् ।।


           आज की राजनीति का एक चित्र इस प्रकार खींचा गया है_


शास्यो लोकः कपिवर ! सदा भेदनीतिं प्रयुज्य 

मीनानां संतरणमिव नो जन्मजातः स्वभावः । 

देशप्रेम्णो बहु विदधतो गीतगानं समन्तात् 

स्वार्थेप्साया विकटघटनामादधाना अटामः ||

             प्रस्तुत संकलन में 187श्लोक हैं| 



6 मन्थनम्

                   प्रस्तुत खण्ड काव्य का विभाजन 5 चक्रों में किया गया है| इसका प्रथम प्रकाशन 2001 में हुआ था| यह खण्डकाव्य शकुंतला की कथा पर आधारित है किंतु कवि की कुशलता कथा के बुनावट में साफ दिखलाई देती है| स्त्री विमर्श  का स्पर्श भी इसमें प्राप्त होता है| देवता अप्सराओं को एक अस्त्र की तरह प्रयुक्त करते हैं_

अहो समाजे पुरुषप्रधाने नार्यास्तु काचिद्गतिरेव नास्ति ।

 भेदे प्रयुक्ता छलिराजनीत्यां सदाऽसहाया प्रभुसत्सहाया ।


स्वार्थाय देवैरपि कूटनीत्यां विलासकार्ये च वयं प्रयुक्ताः।

 प्रयुक्तभुक्तं स्वमनोविरुद्धं महाभिशापश्चिरयौवनं नः ॥


प्रवर्तितः श‌िङ्कभिरेव देवै- यौनप्रयोगो भुवि कूटनीत्याम्। 

गतास्ततोऽग्रे मनुजाः कृतं यत् सुधाधराणां विषकन्यकात्वम्  ॥


7 कौन्तेयम् ॒-

                     यह खंडकाव्य भी महाभारत के कथानक पर आधारित है| इसमें 4 भाग हैं_ कर्णः, कुन्ती, अर्जुनः‌ और कृष्णः| 


8 भारतशतकम् -

                                114 श्लोकों में विभक्त यह खंडकाव्य प्राचीन भारत के गौरव का स्मरण करवाता है, वर्तमान की उपलब्धियों का वर्णन करता है और साथ ही भविष्य की आशा भी जगाता है_



नेतारो जनसेवका अपि जनश्चारित्र्यसन्नागर- 

श्चारित्र्यं विनयान्वितं च विनयो विद्याविलासैः कृतः। 

विद्या चार्थकरी तथार्थगरिमा त्यागानुविद्धः पुन-

 स्त्यागो दम्भमृतेऽत्युदारमनसा भूयान्नृणां भारते ॥


9 परमानन्दसूक्तिशतकम् -

                                     इस शतक काव्य में  कवि रचित 108 सूक्तियों का संकलन कवि कृत अनुवाद के साथ किया गया है| 


10 अन्योक्तितूणीरम् -

                                  आचार्य बच्चूलाल अवस्थी जी से प्रेरित होकर कवि ने जिन अन्योक्तियों की रचना की, उनका संकलन कर अन्योक्तितूणीरम् के नाम से 2008 में प्रकाशित करवाया था| यहां साथ में कवि कृत पद्य अनुवाद भी दिया गया है_


भ्रातर्हंस जनैर्वकेषु गणितः किं तावता खिद्यते 

नीर-क्षीर-विवेकि ! हेम तुलितं लोकेन गुंजाफलैः । 

यत्रान्धो नृपतिः पुरी तिमिरिता, भेदो न कृष्णे सिते 

मध्ये काककुलस्य यन्न गणितः श्रेष्ठं हि ते तत् कियत् ? ॥


बगुलों में गिनते लोग तुम्हें इससे मत हंस ! दुखी होना 

हे नीर-क्षीर-मर्मज्ञ ! यहाँ गुंजाफल से तुलता सोना

 अन्धेर नगर चौपट राजा, काला सफेद सब एक जहाँ, 

फिर भी कौओं में नहीं गिना क्या यह कम है उपकार यहाँ ।।


11 विप्रश्निका -

                 कवि ने परमानंद शास्त्री ने एक नूतन काव्य विधा का सृजन किया है, जिसे देवर्षि कलानाथ शास्त्री जी ने प्रश्नकाव्य कहा है| कवि ने प्रति पद्य एक प्रश्न प्रस्तुत करके पाठक को सोचने के लिए प्रेरित किया है_


संस्थासु ये शीर्षगताः स्वबन्धून् बलादयोग्यानपि योजयन्ति।

 त्यजन्ति योग्यानपरांश्छलेन ते केन वाच्याः सुधियां पदेन ?।।


12  सन्तोषसुरतरुः_

                        प्रस्तुत कृति में 108 पद्य हैं, जो अनुष्टुप् छंद में हैं| इसमें कवि  कृत ब्रज भाषा दोहा अनुवाद भी साथ में दिया गया है_


नाना कामाः प्रजायन्ते कल्पवृक्षस्य सेवया।

 निष्कामं जायते चेतः संतोषतरुसेवया


कल्पवृक्ष की सेव तें उपजत नाना काम।

 तरु संतोस सेवा कियें चित्त सदैव अकाम 


13 स्वरभारती ( प्रथम भाग) _ 

                                       इस भाग में संकलित कविताएं संस्कृत के पारंपरिक छंद में नही हैं| कहीं हिंदी_ उर्दू के छंदों का प्रभाव है तो कहीं लोकगीतों की लय का| यहां 123 शीर्षको में कविताएं संकलित हैं_ 


उपालम्भः कस्य केन च दीयताम्, 

पातिता कूपेऽत्र विजया विद्यते।

हन्त ! 'आनन्दः' खपुष्पमजायत। 

वाङ् निरुद्धा हृदयमन्तः खिद्यते।


यहां उर्दू कविता का प्रभाव देखा जा सकता है| पातिता कूपेऽत्र विजया विद्यते भाषा में प्रचलित उक्ति  कुएं में भांग पड़ी है का संस्कृत रूपांतरण है| 



14 स्वरभारती ( द्वितीय भाग) _  

                     इसका अन्य शीर्षक आनन्दगीतिका भी दिया गया है| इसमें 15 कविताएं संकलित हैं| 






           


                          

 



No comments:

Post a Comment