Thursday, June 20, 2024

माटी के पुतले की कहानी _ मृत्कूटम्

कृति _ मृत्कूटम् 

कृतिकार -डाॅ भास्कराचार्य त्रिपाठी

विधा _ खण्डकाव्य 

प्रकाशक_गंगानथ झा केन्द्रीय विद्यापीठ, इलाहाबाद 

संस्करण_ 1992 प्रथम

पृष्ठ संख्या _ 50 (+भूमिका और चित्र)

अंकित मूल्य_ मूल्य  अंकित नहीं




         डाॅ भास्कराचार्य त्रिपाठी अर्वाचीन संस्कृत  साहित्य जगत के प्रसिद्ध हस्ताक्षर हैं| दूर्वा के संपादन के साथ साथ आपके लघु रघु, अजाशती, स्नेहसौवीरम्‌ जैसे काव्यों की रचना से आपने महती ख्याति अर्जित की | मृत्कूटम् आपके काव्यों में मुख्य है| यह एक शतक काव्य है, जिसमें 100 श्लोक निबद्ध हैं| इसका अपर नाम मानवशतक भी है| कवि ने इसमें मानव जीवन की भ्रूण अवस्था से लेकर उसके मृत्यु के द्वार तक पहुंचने की यात्रा को दस भागों में बांटकर श्लोकों की रचना की है| प्रत्येक भाग में दस श्लोक हैं_ भ्रूण,  शिशु, किशोर, तरुण, गृहस्थ, प्रवासी, भृतक, प्रौढ़, जरठ,‌मुमूर्षु


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           जब जीवात्मा इस संसार में आती है तब उसे एक शरीर की आवश्यकता होती है| इस हेतु वह भ्रूण के रूप को ग्रहण कर मां के गर्भ में अवस्थित हो जाती है| कवि ने गर्भ में भ्रूण की स्थिति का वर्णन करते हुए अदभुत कल्पना की है कि वह मां के गर्भ में रहता हुआ मानों दस अवतारों को ही ग्रहण कर लेता है_


मीनो नीरप्रचारी निचुलितकमठः कम्रघोणो वराहः 

कालेनाविद्धरोमा नरहरिरपरो विग्रही वामनश्च, 

मातुः पीडाप्रदायी परशुनखधरः प्रीणनो रामभद्रः 

कृष्णो दामोदरश्रीरयमिह सुगतः कल्किरेको विभाति ।

        यह अकेला ही दस अवतारों का बाना अपनाता है-पानी में तिरता मीन, खोल में दुबका कछुआ, भड़कीली नासिका वाला शूकर, रोम-राजियों से युक्त नरसिंह, एक बौना आदमी, उपजते नाखूनों से माँ के लिए कष्टदायी परशुराम, उसके अन्तर्मन में हुलास भरने वाला राम, पेट में रस्सियों से जकड़ा बढ़ता आ रहा कृष्ण, सर्वज्ञ बुद्ध और (शस्त्रपाणि) साक्षात् कल्कि । (अनुवाद स्वयं कवि कृत)

              यहां कवि ने भ्रूण को सात परत के गर्भजाल में बंधने। वाला कहा है_ कामं सप्तच्छदान्तः प्रवलितगुरुणा गर्भजालेन बद्ध:| 

            भ्रूण  रूप से जब मानव इस पृथ्वी पर जन्म लेकर आता है तब शिशु  रूप में वह सब का मन मोह लेता है| वह सब का दुलारा बन जाता है किंतु  उसके लिए पूरा विश्व ही मां के रूप में सिमट आता है_



मात्रा वाङ्नेत्रमैत्री सहजपरिचितो मातृवात्सल्यगन्धः

 संलापो मातृभाषा-प्रचलितवचनच्छायया कम्रकाकुः, 

मात्रङ्के स्तन्यपानं कपिकुलकलया सर्पणं मातृभूमौ

 विश्वं मातुः स्वरूपे भवति परिणतं गर्भरूपाय तस्मै ।


        माँ से बतियाने और टुकुर टुकुर निहारने की लगन, अपने आप चोन्ही गई उसकी दुलार-सुगन्ध, बोलने में मातृभाषा के ही आरोह-अवरोह, माँ की गोद में दूध पीना और मातृभूमि पर बंदर की तरह सरकना... नन्हें बालक के लिए सारा विश्व ही माँ के स्वरूप में सिमट आता है। 

           जब मनुष्य युवा होता है तब वह अपने यौवन के मद्य में मस्त रहता है | उसे संसार की अन्य वस्तुओं को अपेक्षा नहीं रहती| वह एक मदमत्त गज के समान अपनी गर्वयुक्त चाल से दूसरों की उपेक्षा करते हुए  चलता है| मानव की तरुण अवस्था का चित्रण करते हुए कवि कहते हैं कि यदि कुबेर यौवन और धन में से एक का चयन करने के लिए कहे तो वह निश्चित ही यौवन का वरण करेगा| _



साक्षादग्रेऽवतीर्णो यदि नवयुवकं राजराजोऽनुयुङ्‌क्ते

 किन्ते प्रेयो नितान्तं वद भयरहितो यौवनं वा धनं वा, 

तत्तूर्णं सोऽभिदध्यात् प्रथमचयनिका रोचते देव मह्यं

 यत्ते वस्तु द्वितीयं तदु निजवसतौ किन्नरेभ्यः प्रदेयाः ।


            यदि कभी कुबेर सामने आकर नवयुवक से पूछे कि निर्भय होकर बताना - तुम्हें क्या अधिक प्रिय है, यौवन या धन ? तो बह शीघ्र ही कह देगा-देव मुझे पहले का चयन अच्छा लगता है, जो आपकी दूसरी बस्तु है- उसे अपनी बस्ती में किन्नरों को बाँट दीजिए ।

‌‌                     किंतु यही तरुण जब गृहस्थ बन जाता है तो वह एक तरह से अपनी नववधू के समक्ष आत्म समर्पण ही कर देता है_


एकाकिन्या भ्रुवाऽयं वरयति तरुणो भाविनीमंकलक्ष्मी- 

मेकस्मात् कम्प्रशब्दाद् भवति च विजितो निष्प्रतीकार एव, 

एकान्तस्वप्नशीलः प्रथमयुगलिका-कौतुकाकृष्टचेता 

एकस्मिन् ग्राम्यगीते गतिमयचरणो जायतेऽसौ गृहस्थः ।


         एकान्त-स्वप्नदर्शी तरुण एक भौंह के इशारे से भावी अंकलक्ष्मी का वरण करता है, एक लरजते शब्द से बेबस आत्म-समर्पण कर देता है और (आदि मानव के) युगलकौतूहल से आकर्षित एक देसी धुन पर पैर चलाता हुआ गृहस्थ बन जाता है।



         क्रमशः जीवित रहता हुआ मनुष्य जब वृद्धावस्था  से जब मुमूर्षु अवस्था में पहुंचता है तब उसका प्रभाव पूरे शरीर पर पड़ने लगता है| एक श्लोक में कवि ने शरीर को वेदनाओं का छंद शास्त्र कहते हुए वंशस्थ , मंदाक्रांता भुजंगप्रयात आदि छंदों का नाम श्लेष के माध्यम से लिया है| तो एक स्थान पर कवि ने मुमूर्षु अवस्था को सर्वाहारी लोप वाले क्विप प्रत्यय के समान बताया है क्योंकि इसके एक एक करके सब साथ छोड़ने लगते हैं_

ज्ञानं प्राज्याभिमानं भजति भिदुरतां सन्धिभिः कीकसानां 

कोषस्थं स्वापतेयं व्रजति ननु समं श्लेष्मभिर्नालिकासु, 

सम्पन्ना मित्रमाला त्यजति परिचयं कृच्छ्रनिःश्वासकम्पैः

 कालोऽयं क्विप्चरित्रो यजति न किमरे विश्वजित् सत्रमेव ।



        अस्थि-सन्धियाँ और अभिमान भरे ज्ञान एक साथ दरक रहे हैं, कोष- संचित धन और कफ आदि विकार नालियों में बह रहे हैं, मित्र मण्डली और बीवा भरी साँसें संग-संग पहचान छोड़ रही हैं। (सर्वापहारी लोप वाले) निवषु प्रत्यय की तरह, लगता है, यह अवस्था (नशेष दान का) विश्वजित् यज्ञ कर डालेगी ।

‌ ‌ ‌ ‌                     आखिर में माटी का पुतला माटी में में ही मिल जाता है_

मृत्स्नायाः संप्रजातः सुचिरमवकलन्मृत्तिकाभिर्विनोदं 

मृत्सार्थं सस्पृहोऽभूदुचितमनुचितं सर्वमर्थं व्यतार्षीत्, 

सम्प्रत्येवंच लोष्टैरपिहितविवरे चत्वरेऽसौ मृदायाः 

शेते विश्रान्तबोधो निपतति नियतं मृत्तिकायां मृदंशः ।


माटी से उपजा, माटी के खेल खेले। एक चिकनी मिट्टी पर ललचाया । अपनी-पराई धन-संपदाएँ लुटा दीं। अब तो ढेलों से ढंकी गई खाई पर बने माटी के ही चबूतरे में यह संज्ञाहीन होकर लेट गया है। मिट्टी का प्रत्येक आकल्पन मिट्टी में मिलने को बाध्य होता है।



       माटी के पुतले की यह कथा कवि के कथ्य में आकर कविता का रूप ले लेती है| यह ही मानव जीवन की विभिन्न दशाओं का सत्य है, जिसे कवि ने बखूबी अपने काव्य में प्रकट किया है| 



   

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