कृति _ समष्टि:
कृतिकार - आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी
विधा _ मुक्तक काव्य
प्रकाशक_ देववाणी परिषद् दिल्ली
संस्करण_ 2014 प्रथम
पृष्ठ संख्या _ 110
अंकित मूल्य_ 200
आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी का सारस्वत कार्य बहुमुखी है| साहित्य की प्रायः प्रत्येक विधा में आपकी रचनाएं हैं ही, साथ ही शास्त्रों में भी आपकी समान गति है| संस्कृत साहित्य के समग्र इतिहास के द्वारा आपने हाल ही में वैदिक युग से लेकर 21 वीं सदी के प्रारंभ तक के संस्कृत साहित्य के इतिहास को ग्रंथबद्ध किया है| समष्टि: नाम से आचार्य त्रिपाठी जी का छठा काव्य संग्रह प्रकाशित है, जिसमें 30 कविताएं हैं| प्रायः ये कविताएं मुक्तछंदोबद्ध हैं, किंतु कुछ कविताएं पारंपरिक छंदों में भी हैं|
संग्रह का नामकरण प्रथम कविता समष्टि: के आधार पर किया गया है| लहरों, भंवरों, विवर्तों की समष्टि में कभी कभी एक बुलबुला बन जाता है| बुलबुले के आत्मकथन के माध्यम से कवि कहते हैं_
बुद्बुदस्य जीवनमेव कियत्
वीचीनामावर्तानां विवर्तानां समष्टौ
बुद्बुदो बुभूषति
परन्तु भवति वा न भवति वा
भवत्यपि यदि, क्षणाय तिष्ठति
तिष्ठति च एतैः सर्वैः धारितः
अथ स्फुटति लीयते च ।
कदाचित् क्वचित् एवमपि भवति यत्
एकस्मै क्षणाय स्थिते बुद्बुदे
निमेषमात्रं स्वकरैः स्पर्शच्छरणं विधत्ते रविः
तेन क्षणार्धं विरच्यते बुद्ध्दान्तः
सप्तवर्णच्छवि इन्द्रधनुः ।
बुलबुले का जीवन ही कितना
लहर से लहर
आवर्त से आवर्त
विवर्त से विवर्त
इन सबके मिलने से
वह बन सकता है,
नहीं भी बन सकता है
बन भी जाये तो एक क्षण ठहरता है बस
इन सब के बीच
फिर फूट कर विलीन हो जाता है।
कदाचित् कभी ऐसा भी हो जाता है
कि एक क्षण के लिये टिक गये बुलबुले को
पलक की झपक के बराबर समय के लिये
सूरज अपनी किरणों से छू भर देता है
तब आधे क्षण के लिये बुलबुले के भीतर रच जाता है
सतरंगी आभा वाला इंद्रधनुष। (कविताओं का अनुवाद स्वयं कवि द्वारा)
मनुष्य जीवन भी तो बुलबुले के समान ही है, क्षणभंगुर है| लेकिन कभी कभी किसी मनुष्य को एक क्षण के लिए उस परम शक्ति का स्पर्श मिल जाता है और उसका पूरा अस्तित्व बुद्ध के समान खिल उठता है| शब्दालंकार: कविता में शब्दों के लिए कहा गया है कि वे देहली दीप न्याय से कार्य करते हुए अंदर और बाहर दोनों तरफ उजाला करते हैं| बीजानि कविता एक तरफ तो बीजों की अवस्था का चित्रण करती है तो दूसरी तरफ वह मानवों का भी प्रकारान्तर से वर्णन करती दिखती है| मानव भी तो बीजों की जी भांति होता है, हर मानव अपना पूरा विकास चाहता है किंतु कुछ मानवों को प्रतिभा अनुकूल वातावरण के अभाव में विकसित नही होती तो कुछ की प्रतिभा बचपन से ही बलात दबा दी जाती है तो कुछ की प्रतिभा जैसे ही निखरने लगती है वैसे ही उसे दमित कर दिया जाता है_
कानिचिद् बीजानि
कुशूलकोणे शिष्टानि
उत्कायन्ते स्म -
किमर्थं न वयं क्षिप्ताः कस्मिश्चित् केदारे
कश्चिदस्मान् स्वहस्ते उत्थापयेद्
अस्मानपि उच्छाल्य उच्छाल्य वपेत् क्षेत्रे
वयमपि अङ्कुरायामहे, पल्लवायामहे, पत्रायामहे,
वयमपि शस्यनिवहे आत्मानं विकिरामः
भवामश्च पुनरपि बीजमेव।
तेषां स्वप्नाः दिवास्वप्नायिताः।
कुछ ऐसे बीज थे जो गोदाम में पडे पड़े
अकुलाते रह गये कि
हमें भी डाल दिया होता किमी क्यारी में
कोई हमें हाथ में उठाता
और खेत में उछाल कर फैंकता,
हम भी अँकुरा लेते
हम में होते नये पात
हम अपने आप को फसलों में बिखेर पाते
और हम फिर से बीज हो जाते।
उनके सपने दिवा स्वप्न बन कर रह गये।
शनै: शनै: कविता ग़ज़ल गीत की शैली में रची गई है| वार्धक्यम् कविता एक दीर्घ कविता है जिसमें कवि बुढ़ापे की स्थिति का एक अलग ही तरह का वर्णन करते हुए कहते हैं कि बुढ़ापा अभिशाप नहीं है| वे देवताओं को अभागा मानते हैं क्योंकि वे चिर युवा होने से बुड्ढे नही हो सकते हैं_
यक्षाणाम् अलकाया
अतिशेरते
अस्माकम् इयं पृथिवी
यस्यां वार्धक्यभावापत्तिः
अद्यापि सम्भावना वर्तते।
अपक्वानि फलानि पच्यन्ते
त्यजन्ति वृन्तं स्वं
यौवनवृन्तं त्यक्त्वा
मधुरतरं जायते जीवनफलं
वार्धक्ये स्वीये पर्यवसाने।
यक्षों की अलका से
कितनी अच्छी है यह धरा हमारी
जिसमें बूढा हो पाना
अभी भी संभावना है
कच्चे फल पक कर
छोड़ देते हैं
अपना वृंत
यौवन का वृंत छोड़ कर
और मधुर होता जाता है
जीवन का फल
बुढापे के पकाव में
मालवी शीर्षक वाली कविता में कवि इस बात से हैरान हो जाते हैं कि पत्नी से बात करते हुए उनके मुंह से अचानक उनकी मातृभाषा मालवी (जो मध्यप्रदेश के मालव अंचल में बोली जाती है) के कुछ एक वाक्य कैसे फूट पड़ते हैं? भवनस्य छदौ वाटिका कविता में महानगरों में स्थान की कमी के कारण घर की छतों पर बनाए जाने वाले बगीचों का वर्णन है तो प्रस्तरस्थले नगरे कविता पत्थर हो चुकी सभ्यता में पत्थरों के नगरों की विडंबना से भरी दशा का चित्रण करती है_
प्रस्तरस्य उद्यानानि
प्रस्तरस्य प्रासादाः
प्रस्तरशरीराणि
प्रस्तरस्य मनांसि
प्रस्तर इव अहङ्कारः
यत्र गम्यते तत्र प्रस्तराः
प्रतिमानिर्माणाय स्थापिताः
प्रस्तराणां निचयाः
प्रस्तराणां प्रतिमाः
प्रस्तराणां समाधयः
प्रस्तरायितानि मनांसि
प्रस्तरायिता बुद्धिः
प्रस्तरनिचये
क्रन्दन्ती पृथिवी।
पत्थरों के उद्यान
पत्थरों के मकान
पत्थरों के शरीर
पत्थरों के मन
जहाँ देखो पत्थर
पड़े हुए बुद्धि पर, मन पर
पत्थरों की प्रतिमाएँ
पत्थरों की समाधियाँ
बुत बनाने के लिये पत्थरों के ढेर
पत्थरों के भार तले
कराहती धरती
देहल्यां मेट्रोयाने – दृश्यचतुष्टयी कविता में चार दृश्य हैं| दिल्ली में मेट्रो के सफ़र के माध्यम से कवि वर्तमान के किसी बिंदु पर खड़े हुए भूतकाल और भविष्य दोनों का चित्रण करते हैं शायद कवि इसलिए ही क्रांतदर्शी कहे गए हैं| यहां संवेदना शून्य हो चुके हमारे समाज का यथार्थ वर्णन है|
संस्कृत को कवि एक अगाध सरोवर की भांति मानते हैं जिसमें वे स्वयं एक छोटी सी मछली जैसे हैं जो कभी कभी अपनी मुंडी बाहर निकाल कर उन्मुक्त आकाश को देख लेते हैं| किंतु कितने है ऐसे? संस्कृतस्य अगाधे सरसि कविता में इसी का वर्णन करते हुए कवि ठहरे हुए प्रवाह वाले संस्कृत सरोवर के लिए बेबाकी से जो कहते हैं शायद वह तथाकथित पंडितों को पसंद नहीं आए पर कवि तो निरंकुश कहे गए हैं_
संस्कृतस्य अगाधे सरसि
अवरुद्धः प्रवाहः
क्वचिद् उत्तिष्ठते शीर्णो दुर्गन्धः
केचन अस्य सरोवरस्य तटे
स्थिताः
गणयन्ति शास्त्रविवर्तान्
केचन मापयन्ति अस्य गहनताम्
केचन उत्तानं मुखं कृत्वा
अनवलोक्य सरोवरं
सरोवरविषये कुर्वन्ति प्रवचनम्।
अपरे लग्नाः
मुहूर्तगवेषणे
श्रीसत्यनारायणकथावाचने
तानसौ दुर्गन्धो न प्रतिभाति।
संस्कृत के अगाध इस सरोवर में
ठहरा हुआ प्रवाह
फूटती है सड़ी दुर्गंध
कुछ लोग इसके किनारे खड़े
शास्त्रों के विवर्त गिन रहे हैं
कुछ माप रहे हैं इसकी गहराई
कुछ इसे देखे बिना
ऊपर मुख किये
कर रहे हैं प्रवचन
देख रहे हैं मुहूर्त
या बाँच रहे हैं श्रीसत्यनारायणकथा
उन्हें यह दुर्गंध नहीं आती।
कवि ने परंपरा और समसामयिकता को अपने काव्यों में इस तरह गूंथा है कि वे आधुनिकता की प्रतिनिधि कविताएं बन जाती हैं| कवि कृत हिन्दी अनुवाद भी इसमें साथ में प्रकाशित किया गया है| इस काव्य का प्रकाशन देववाणी परिषद की पत्रिका अर्वाचीनसंस्कृतम् में भी भी किया गया है
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