ललद्यद के वाख और उनके संस्कृत रूपान्तरण
ललद्यद कश्मीर की बहुचर्चित सन्त कवयित्री हैं। इन्हें वहां आदि कवयित्री भी कहा जाता है। ललद्यद के कई नाम प्रचलित रहे हैं, यथा लल, लला, ललारिफा, ललेश्वरी, ललयोगेश्वरी। पं. गोपीनाथ रैना ने अपने ग्रन्थ ललवाक्य में ललद्यद के जन्म का नाम पद्मावती माना है। लल कश्मीरी भाषा में तोंद को कहते हैं और द्यद वहां दादी या आदर योग्य वृद्धा को कहा जाता है। कथाओं के अनुसार लल प्रायः अर्धनग्नावस्था में घूमती रहती थी और उनकी तोंद इतनी विकसित थी कि उनके गुप्तांग उस तोंद से ढके रहते थे, अतः उनका नाम ललद्यद, ऐसा प्रसिद्ध हो गया। ललद्यद का समय 14 वीं सदी माना जाता है। अपने गुरु सिद्धकोल से लल ने धर्म, दर्शन, योग आदि की शिक्षा प्राप्त की थी। लल का मन विवाह पश्चात् भी संसार में नहीं रमा। वे विरक्त भाव से रहती थी। लल से सम्बन्धित कई चमत्कारिक घटनाएं भी कश्मीर प्रदेश में प्रचलित हैं। लल काश्मीर शैव दर्शन की मर्मज्ञ हैं।
ललद्यद ने अपनी अभिव्यक्ति को काश्मीरी भाषा में वाखों के रूप में प्रकट किया। वाक्य का ही नाम यहां वाख है। ये प्रायः छन्दमुक्त वाख हैं, जो चार-चार पदों में हैं। गेय रूप ये वाख प्रारम्भ में मौखिक रूप में थे। डॉं शिबनकृष्ण रैना के अनुसार 1914 में ग्रियर्सन ने इन वाखों को एकत्रित कर प्रकाशित करने का विचार किया। पं. मुकुन्दराम शास्त्री ने सन्त धर्मदास से सुने हुए वाखों का संग्रह कर ग्रियर्सन को सौंप दिया। यह भी जानकारी मिलती है कि पं. मुकुन्दराम शास्त्री ने यह संग्रह संस्कृत व हिन्दी रूपान्तरण के साथ दिया था। 1920 में यह रोयल एशियाटिक सोसाइटी, लन्दन से प्रकाशित हुआ, इस संकलन में मूल वाख 1 के साथ अंग्रेजी अनुवाद भी है । यह नागरीलिपि में है। पद्मभूषण बनारसी दास चतुर्वेदी के अनुसार यद्यपि कश्मीरी भाषा की मौजूदा लिपि फारसी है किन्तु स्वरों के उच्चारण एवं प्रयत्नों में कश्मीरी भाषा के कुछ अपने रूप हैं। अनुवाद के साथ मिलान करने पर स्पष्ट पता चलता है कि अधिकांश शब्दों का मूल उद्गम संस्कृत भाषा ही है। अलबत्ता कालान्तर में फारसी, अरबी शब्दों का सन्निवेश होता रहा है। यहां यह भी ध्यातव्य है कि ललद्यद को संस्कृत भाषा का पूर्ण ज्ञान था किन्तु उन्होंने अभिव्यक्ति के लिये कश्मीरी भाषा को चुना।
त्रिलोकीनाथ धर ‘कुन्दन’ के अनुसार सब से प्राचीन प्रति जो मिलती है वह भास्कराचार्य कृत संस्कृत अनुवाद की है। इसके पश्चात् हिन्दी, अंग्रेजी आदि कई भाषाओं में अनुवाद प्रकाशित हुए। त्रिलोकीनाथ धर का कथन सही भी है क्योंकि स्वयं ग्रियर्सन द्वारा प्रकाशित संग्रह में भास्कराचार्य (पूरा नाम राजानक भास्कराचार्य) द्वारा किया गया संस्कृत अनुवाद भी दिया गया हैै किन्तु यह अनुवाद नागरी लिपि में न होकर रोमन लिपि में है। यह अनुवाद लगभग 42 वाखों का है, किन्तु वही पर संकेत भी किया गया है कि यह अनुवाद 60 वाखों पर है।
ललद्यद के वाखों के संस्कृत रूपान्तरण -
जैसा कि पूर्व में बतलाया गया है कि इन वाखों का संस्कृत अनुवाद सबसे पहले राजानक भास्कराचार्य द्वारा किया गया था। इसके अतिरिक्त आचार्य रामजी शास्त्री द्वारा भी वाखों का संस्कृत रूपान्तरण किया गया है|
राजानक भास्कराचार्य कृत संस्कृत रूपान्तरण -
राजानक भास्कराचार्य ने ललेश्वरी के वाखों का अनुष्टुप् छन्द में संस्कृत में पद्य अनुवाद किया था। कालान्तर में यह प्रायः अप्राप्य हो गया। ग्रियर्सन ने राजानक कृत अनुवाद में से लगभग 42 वाखों के अनुवाद को रोमन लिपि में अपने संकलन में प्रस्तुत किया किन्तु वस्तुतः राजानक ने 60 वाखों का अनुवाद किया था, यह भी स्पष्ट कर दिया। यह अनुवाद नागरी लिपि में किया गया है। राजानक ने नागरी लिपि में मूल वाख को भी प्रस्तुत किया है। 1977 में हिन्दी अनुवाद के साथ लखनऊ से प्रकाशित एक ग्रन्थ में राजानक के द्वारा किये गये अनुवाद के 49 पद्य ही दिये गये। 2011 में जम्मू से लल पर प्रकाशित एक अन्य ग्रन्थ में इस अनुवाद के 39 ही पद्य संकलित हैं।
राजानक भास्कराचार्य द्वारा किये गये 60 वाखों का अनुवाद लगभग अप्राप्य सा हो गया था, इसी को ध्यान में रखते हुए हाल ही में साहित्य अकादेमी, दिल्ली से राजानक द्वारा अनूदित वाखों को सम्पादित करके प्रकाशित किया गया है। ग्रंथ का शीर्षक है लल्लेश्वरी के वाख़| इस ग्रन्थ के सम्पादन का महत् कार्य आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी ने किया है।
आचार्य त्रिपाठी जी ने ग्रन्थ के प्रारम्भ में 23 पृष्ठात्मक सम्पादकीय में लल्लेश्वरी का परिचय देते हुए काश्मीर शैव दर्शन के आलोक मे लल्लेश्वरी के वाखों पर प्रकाश डाला है। प्रो. त्रिपाठी जी ने लल्ल का काल 14 वीं सदी मानते हुए बतलाया है कि उनके समय काश्मीर में मुस्लिम शासक राज्य कर रहे थे। भाषायी दृष्टि से फारसी और संस्कृत के मध्य आदान-प्रदान की प्रक्रिया तेज हो रही थी। प्रो. त्रिपाठी यह भी मानते हैं कि लल्ल के काव्य पर शैव दर्शन की संक्रान्ति के साथ पूर्ववर्ती सूफी कवि यथा अमीर खुसरो आदि का भी प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। प्रो. त्रिपाठी लल् या लड् धातु से निष्पन्न मानते हुए कहते हैं कि लल्लद्वद यह नाम गुरूजनों की लाडली या प्रीतिपात्र होने के कारण दिया गया था।
यहां स्पष्ट किया गया है कि राजानक ने यह अनुवाद 18 वीं सदी में किया था। प्रस्तुत संस्करण के लिए श्रीनगर स्थित जम्मू कश्मीर शोध विभाग द्वारा 1930 में प्रकाशित राजानकभास्करकृतलल्लेश्वरीवाक्यानि पाठ को आधार बनाया गया है।
इस संस्करण की एक और विशेषता यह है कि प्रो. अद्वैतवादिनी कौल ने इन वाखों का हिन्दी में पद्यानुवाद भी किया है, जो इस में सम्मिलित है। साथ ही प्रो. कौल में 36 पृष्ठों में इस ग्रन्थ की विस्तृत भूमिका भी लिखी हैं
अनुवाद के प्रारम्भ में राजानक भास्कराचार्य ने श्रीगणेश को प्रणाम करके गुरु की पादुका का स्मरण किया है-
नुत्वा देवं श्रीगणेशं सुरेशं स्मृत्वा चित्ते श्रीगुरोः पादुकां च।
लल्लादेवीप्रोदितं वाक्यजातं पद्यैर्दृब्धं रच्यते भास्करेण ॥
श्रीगणेश और सुरो के ईश (शिव) को नमन कर
श्रीगुरुपादुका का चित्त में ध्यान धर।
देवी लल्ला से उदित वाखों की
सुघटित पद्यों में भास्कर द्वारा हो रही रचना ॥
(हिंदी अनुवाद प्रो कौल)
लल्लाहं निर्गता दूरमन्वेष्टुं शंकरं विभुम् ।
भ्रान्त्वा लब्धो मया स्वस्मिन्देहे देवो गृहे स्थितः ||
हिंदी अनुवाद -
प्रेम दीवानी लल्ल मैं निकली
ढूँढते बीते दिन और रात।
पाया भीतर ही प्रभु को अपने
क्षण वह शुभ नक्षत्र बना ॥
(हिंदी अनुवाद प्रो कौल)
निंदन्तु वा मामथ वा स्तुवन्तु कुर्वतु वार्चा विविधैः सुपुष्पैः।
न हर्षमायाम्यथ वा विषादं विशुद्धबोधामृतपानस्वस्था॥
अवमान करें या स्तुति पढ़ें
बोले वही जिसकी जैसी रुचि।
सहज कुसुमों से मेरी पूजा करें
मैं अमलिन किसका क्या शेष बचे ॥
(हिंदी अनुवाद प्रो कौल)
यहां नागरी लिपि में निबद्ध मूल वाख के साथ कुछ संक्षिप्त तो कुछ विस्तृत टिप्पणियां भी दी गई हैं, जो पूर्व कृत विभिन्न भाषाओं के अनुवादों के आलोक में वाख को समझने के लिए सहायक हैं।
आचार्य रामजी शास्त्री कृत संस्कृत रूपान्तरण -
मध्यप्रदेश के मुरैना जिले में जन्मे आचार्य रामजी शास्त्री ने 130 वाखों का संस्कृत अनुवाद किया है, जिनमें राजानक द्वारा किये गये अनुवाद वाले वाखों का पुनः अनुवाद नहीं किया गया है। अतः यह संस्कृत अनुवाद राजानक वाले 60 वाखों से भिन्न 130 वाखों का है | इन 130 अनूदित वाखों के साथ यहां राजानक द्वारा अनूदित 60 वाख में से 49 वाख भी दिए गए हैं| इस प्रकार यहां कुल 179 वाख हो जातें हैं| इन 179 वाखों का हिंदी भाषा में गद्य अनुवाद शिबन कृष्ण रैना द्वारा किया गया है| इसका प्रकाशन भुवन वाणी ट्रस्ट, लखनऊ द्वारा 1977 में किया गया है|
इस अनुवाद से कुछ उदाहरण द्रष्टव्य है-
बहिरंगाद् अन्तरंगं स्वं, प्रविशेति गुरुर्जगौ।
कायान्तरम् अनेनाभूद्, विवस्त्रा नर्तने रता।।
गुरु ने कहा मुझ से
चली जा बाहर से भीतर
काया ही पलट गई इससे मेरी
नाच उठी मैं होकर विवस्त्र।।
अवाच्यानां सहस्राणि, कथयन्तु न मन्मनः।
मालिन्यम् एत्युदासीनं, रजोभिर् मुकुरो यथा।।
दे हजारों गालियां कोई
नहीं होता मन खिन्न मेरा
जब हूं मैं शंकर की भगतन
भला मनदर्पण पर धूल कैसी?
यहां मूल में आया शंकरभक्त शब्द (बो योद सहजु शंकरु बखुच आसा) संस्कृत अनुवाद में नहीं आ पाया है। किसी का ललद्यद हो जाना आसान तो नहीं, उसके क्या कुछ नहीं करना पडता-
ततोऽत्र दृष्ट्वावरणानि भूयो, ज्ञातं मयात्रैव भविष्यतीति।
भंक्त्वा यदा तानि च संप्रविष्टा, लल्लेति लोके प्रथिता तदाऽहम्।।
जब जला डाला सारा मैल दिल का
जिगर को भी मारा
और बैठ गई द्वार पर उसके
तब जाकर प्रसिद्ध हुआ लल नाम मेरा।।
यहां भी संस्कृत अनुवाद में मैल जलाने, जिगर को मारने का भाव नहीं उतर पाया है। (मल वोदि जालुम/जिगर मोरुम/तेलि लल नाव द्राम/येलि दल्यत्राव्यमस तत्या)
इस तरह ललद्यद के कश्मीरी भाषा के वाखों के दो संस्कृत रूपान्तरण किये गये हैं, जिनमें कुल संख्या में 190 (60 राजानक कृत+ 130 रामजी शास्त्री कृत) वाखों का संस्कृत अनुवाद हो जाता है।
कौशल जी, बहुत सुन्दर समीक्षा। लल्लदेवी या ललदेन की वाखों का परिचय। एक नहीं अपितु तीन तीन संस्कृत अनुवादों के साथ इसका एक हिन्दी अनुवाद का भी आपने उल्लेख किया है।👍👍👍👌👌👌 कोई English की कश्मीरी शोध छात्रा ललदेन के उपर शोध कार्य कर रही थी २०१२-१३ में भगत फूल सिंह महिला विश्वविद्यालय, सोनिपथ, हरियाणा में । अपना कार्य करते दौरान सुना थाई वहां।
ReplyDeleteआज आपने ललदेन के साहित्य के साथ परिचित कराया संस्कृत और हिन्दी अनूवाद साहित्य के साथ। पढने के लिए प्रैरित किया।अशेष धन्यवाद ।