Sunday, November 3, 2024

ग़ज़ल के मूल संविधानक से भटकता ग़ज़लसंग्रह _ काव्यपीयूषम्

कृति - काव्यपीयूषम्

रचयिता - डॉ. के. सुधाकरराव

प्रधानसम्पादक - आचार्य के. नीलकण्ठम्

विधा - ग़ज़लसंग्रह

प्रकाशक - संस्कृत अकादमी, उस्मानिया विवि, हैदराबाद

प्रकाशन वर्ष - 2020 प्रथम संस्करण

पृष्ठ संख्या - 87

अंकित मूल्य - 100 रू 



   अर्वाचीन संस्कृत की नवीन विधाओं में सबसे लोकप्रिय विधा ग़ज़ल है। मंजुनाथ उपनाम से ग़ज़ल लिखने वाले भट्ट मथुरानाथ शास्त्री से प्रारम्भ हुई यह विधा 21 वीं सदी के युवा रचनाकारों की रचनाओं में भी प्राप्त होती है। भारत सरकार के दूरदर्शन वार्ता विभाग में उपनिदेशक पद पर कार्यरत  डॉ. के. सुधाकरराव ने संस्कृत, तेलगु, कन्नड, हिन्दी, अंग्रेजी आदि भाषाओं में 80 से अधिक ग्रन्थ रचे हैं, ऐसा इस पुस्तक से लेखक का परिचय प्राप्त होता है। संस्कृत में आपके 20 से अधिक ग्रन्थ हैं। 

          डॉ. के. सुधाकरराव द्वारा संस्कृत में रची गई नवीन संस्कृत कविताओं को आचार्य के. नीलकण्ठम् के प्रधान सम्पादकत्व में संस्कृत अकादमी, उस्मानिया विवि, हैदराबाद से प्रकाशित किया गया है। आवरण पृष्ठ सहित अन्य कई स्थानों पर इस संकलन की विधा ग़ज़ल बतलाई गई है। संकलन का आमुख अकादमी के अध्यक्ष आचार्य नीलकण्ठ ने लिखा है, जो इस ग्रन्थ के प्रधान सम्पादक भी हैं। यहां 42 शीर्षकों में कविताएं प्रस्तुत की गई हैं। 



                         पुनर्जीवितोऽहम् शीर्षकयुक्त प्रथम कविता में  प्रेम केे भाव निबद्ध किये गये हैं-

तया स्वप्नहम्र्ये समालिङ्गितोऽहम्

 न जानेऽब्जनेत्र्या भृशं चुम्बितोऽहम् । 

तया चन्द्रिकायां मुहुर्वीक्षितोऽहम् 

वियोगाग्निदग्धो पुनर्जीवितोऽहम् ।।

              मतला में रदीफ एवं काफिए का प्रयोग किया गया है किन्तु  ग़ज़ल के एक शेर में कवि से उसमें चूक हुई है_

सदा सैकते सागरस्योपकण्ठम् 

तदीयं च शङ्खोपमं वीक्ष्य कण्ठम् ।

 नवं गानमाकर्ण्य रोमाञ्चितोऽहम् 

वियोगाग्निदग्धो पुनर्जीवितोऽहम् ।।

         कण्ठम्  यह रदीफ़ सही नहीं हैं क्योंकि  ग़ज़ल में हम् यह रदीफ है| 

            यहां कवि प्रेयसी के विरह से पीडित दिखलाई देता है। वह उससे जुडी बातों को याद करता हुआ बार-बार कहता है कि वह उसके विरह की अग्नि में जल कर फिर से जीवित हो गया है। ग़ज़ल को पढते हुए यहां वियोग शृंगार की अभिव्यक्ति प्रतीत होती है किन्तु मक्ते अर्थात् ग़ज़ल के अन्तिम शेर में यह वियोग शृंगार करुण में परिवर्तित हो जाता है-

कृशाङ्गयाः वियोगेन दुःषावृतोऽहम्

तदीयोक्तिभिर्नर्मगर्भेस्तुतोऽहम् ।

समाधेः प्रियायाः समीपं गतोऽहम्

मृतो नाभवं किं पुनर्जीवितोऽहम् ।।

            संकलन की तीसरी गजल तक आते-आते कवि ग़ज़ल के संविधानक से भटक जाता है, जहां पाठक रदीफ और काफिए को खोजता ही रहता है-

       प्रियोच्छिष्टं जगत्


प्रिये ! ब्रूहि किं देयमस्मिन् क्षणे ते ? 

दत्तं मदीयं हृदब्जं त्वदर्थम् ? । 

प्रिये ! ब्रूहि किं भाषणीयं मयाऽद्य ? 

नेत्राञ्चलैः व्यक्तमेवेङ्गितं नः ।।


प्रिये ! ब्रूहि कुत्रास्ति गन्तव्यमद्य ?

 स्वप्ने जगत् दृष्टमेवाखिलं तत् । 

प्रिये ! ब्रूहि किं वाञ्छसे माक्षिकं त्वं 

बिम्बाधरं चुम्बितं ते मयाऽद्य ।।


सुधाकर ! प्राप्य तत्साहचर्यम् 

जगत्सर्वमेतद् प्रियोच्छिष्टमेव ।


​         चतुर्थ ग़ज़ल की हर पंक्ति में रदीफ की अनुपस्थिति में (गैर-मुरद्दफ ग़ज़ल में)  काफिए का संयोजन करने के प्रयास के पश्चात् नेता शीर्षक वाली पांचवी ग़ज़ल में रदीफ की अनुपस्थिति में इतनी बार काफिया परिवर्तित होता है कि इसे समूची एक ग़ज़ल कहना ही उचित प्रतीत नहीं होता। समुचित यह होता कि अगर इन शब्दों को काफिया बनाकर पूरी ग़ज़ल  नहीं रची जा रही थी तो उन्हें पृथक् से शेर कह कर संकलन में मुक्तक के रूप में रखा जा सकता था-

निर्वाचने नायको कोऽपि घुष्टः 

पूर्णोदरो श्वेतवस्त्रोऽतिपुष्टः । 

कालेन वित्तेन भृशं विशिष्टः 

नृणां विनाशं विदधाति दुष्टः ।।


पत्नी मृता मारिता वा न जाने 

लसत्यब्जनेत्री समीपे विमाने । 

कार्यालये काचन स्त्री चकास्ति 

लज्जा भृशं मानसे तस्य नास्ति ।।


सदा मद्यपाने निमग्नोऽस्ति नेता 

क्वचित् धूमपानेऽवलग्नोऽस्ति भ्राता । 

चलच्चित्रगीतावलीनां च श्रोता 

खलानां कृते भाग्यदोऽसौ विधाता ।।

         छठी ग़ज़ल हे पयोद! में पयोद शब्द रदीफ है किन्तु काफिया गायब है। बिना रदीफ के ग़ज़ल कही जा सकती है किन्तु बिना काफिया की ग़ज़ल को अच्छी ग़ज़ल के रूप में  आचार्य स्वीेकार नहीं करते हैं।



            यहां यह भी ध्यातव्य है कि अभिराज राजेन्द्र मिश्र के नवीन काव्यशास्त्र अभिराजयशोभूषणम् में ग़ज़ल का जो लक्षण दिया गया है, उसमें शेर के अन्त में दुहराए जाने वाले एक जैसे अन्तिम शब्द को काफिया कहा है‌ _

शब्द आरम्भिकाबन्धवाक्ययोरन्तिमोऽथ सः। 

एक एव भवेद् गीते काफियाख्योऽनुवर्तितः ।।८१ ।।

                 अभिराज  जी का यह कथन सही नहीं है क्योंकि इसे काफिया न कहकर रदीफ कहा जाता है। रदीफ काफिए के बाद आने वाला शब्द या शब्द समूह होता है। जैसा कि मद्दाहकोश के नाम से प्रसिद्ध उर्दू-हिन्दी शब्द कोश कहता है- 

रदीफ  ردیف अ.वि.-पीछे चलनेवाली; (स्त्री.) ग़ज़ल में काफिए के बाद आनेवाला शब्द या शब्द-समूह।



        काफिया किसी ग़ज़ल के शेर में रदीफ से पहले आने वाले तुकान्त को कहा जाता है। अभिराज जी ने आचार्य बच्चूलाल अवस्थी जी की इस ग़ज़ल को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है-

पिकाः कूजन्ति माकन्देषु कूजेयुः किमायातम् ? 

समीरा दाक्षिणात्या मन्दमञ्चेयुः किमायातम् ?

इदं पाणौ सुरापात्रं सुरा कुम्भेऽन्तिके रामा 

उदन्वन्तः समे सर्वत्र शुष्येयुः किमायातम् ? 

अतन्त्रं लोकतन्त्रं वा विवादो नामनि व्यर्थः 

सुमन्त्रा यान्त्रिके तन्त्रे न सिध्येयुः किमायातम् ?

           यहां किमायातम् इस अंश विशेष को अभिराज जी काफिया कहते हैं_

'काफिया' यथोपर्युदाहृते गीत एव किमायातम् इत्यंशः। अयमेवांशः प्रतिबन्धमनुवर्त्यते गलज्जलिकायाम्।

              जबकि ग़ज़ल के संविधानक की दृष्टि से यह काफिया न होकर रदीफ है। इसी ग़ज़ल में किमायातम् के पहले आने वाले कूजेयुः, मंचेयुः, शुष्येयुः, सिध्येयुः आदि तुकान्त शब्द काफिया कहलायेंगे। 

                   अस्तु, ग़ज़ल के मूल संविधानक से जुडी हुई ऐसी कई त्रुटियां प्रस्तुत संकलन में अखरती हैं, जिससे इसे ग़ज़ल विधा का संग्रह कहना सही नहीं जान पडता है। संग्रह के आमुख में ग़ज़ल के संविधानक की चर्चा तो की गई है किन्तु वहां इसी संकलन में उसी संविधानक में हुई चूकों का कोई उल्लेख नहीं किया गया है।  कवि के सुधाकर राव ने अपने संग्रह की भूमिका में लिखा है कि ग़ज़ल सम्प्रदाय का अनुसरण सबसे पहले संस्कृत में त्रिवेणी कवि अभिराज राजेन्द्र मिश्र ने किया है- गज़ल संप्रदायस्य अनुसरणं संस्कृते प्रप्रथमतया त्रिवेणीकविभिः शताधिकग्रन्थकर्तृभिः अभिराजराजेन्द्रमहोदयैः कृतम् । यह कथन सही नहीं है क्योंकि त्रिवेणी कवि के बहुत पहले जयपुर निवासी भट्ट मथुरानाथ शास्त्री ने संस्कृत में ग़ज़ल लिखी थी, ऐसे साक्ष्य विद्यमान हैं ही। कवि के प्रस्तुत संकलन के प्रास्ताविक में पैन्ना मधुसूदन जी ने इस का स्पष्ट उल्लेख करते हुए आचार्य बच्चूलाल अवस्थी आदि का नाम लिया है_

यथा महाकविना राजेन्द्रमिश्रमहाभागेन विवृतम् -

गलञ्जलिका पुरा फारसीभाषायामुत्पन्ना क्रमेण विकासमाप्य उर्दूभाषायामपि नको समवातरत् । ततश्च जयपुरवास्तव्यः फारसीसंस्कृतभाषाद्वयोद्भटः मथुरानाथशास्त्रीति प्रथितयशा संस्कृतेऽपि गजलगीतं सर्वप्रथमतया ससर्ज इति । नूनमेव मथुरानाथ- शास्त्रिवर्येण श्लाघनीयरीत्या संस्कृतेऽपि गजलरीतिमवलम्ब्य रचना कृता । स एव संस्कृतगजलस्य प्रथमः उद्गाता 

         संस्कृत अकादमी, जहां से यह संकलन प्रकाशित हुआ है, के निदेशक ने इस संग्रह के आमुख में हर्षदेव माधव द्वारा सम्पादित जिस द्राक्षावल्ली ग़ज़लसंग्रह का उल्लेख किया है, अगर उस पर संक्षिप्त दृष्टिपात् कर लिया जाए तो भी यह भ्रान्ति बडी सरलता से दूर हो सकती है कि संस्कृत में ग़ज़ल लिखना सबसे पहले किसने आरम्भ किया।   

                   कथ्य की दृष्टि से विचार किया जाए तो संग्रह की प्रायः आधी कविताओं में प्रणय के विविध चित्र उकेरे गये हैं। कुछ कविताओं को सामाजिक कुरूतियों, विडम्बनाओं आदि के चित्रण के साथ समसामयिक बनाया गया है। नेता कविता में आधुनिक राजनेता पर व्यंग्य किया गया है तो भाटकमाता कविता में किराए की कोख को आधार बनाया गया है। स्वयं लेखक ने इन कविताओं का हिन्दी अनुवाद भी यहां प्रस्तुत किया है किन्तु अनुवाद के मुद्रण में इतनी त्रुटियां  हैं कि कई बार मन खिन्न हो जाता है।



            साहित्य में किसी नवीन विधा का प्रवेश सदैव स्वागत योग्य होता है किन्तु यह उस विधा में रचना करने वाले कवियों का कर्तव्य है किवे उस विधा के मूल संविधानक का पालन करना सुनिश्चित करें और उसमें उतनी ही छूट ले जितनी ग्राह्य है। इस संग्रह को बलात् ग़ज़लसंग्रह न कहकर केवल काव्य संग्रह कह दिया जाता तो कुछ बेहतर होता| ग़ज़ल कह देने मात्र से कोई रचना ग़ज़ल नहीं हो जाती है| अंत में कवि की ही कुछ पंक्तियों से अपनी बात को विराम देता हूं_


सत्यं समाजे यदि त्वं ब्रवीषि 

सत्यं ! प्रहारैः ! परितप्तदेहः । 

जीवच्छवत्वं समवाप्य शीर्णो 

हे मानव ! त्वं भविता शृणुष्व ! ।।


               


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