कृति - अर्वाचीन संस्कृत साहित्य
लेखक - डॉ. श्रीधर भास्कर वर्णेकर (मूल मराठी)
हिन्दी अनुवाद - डॉ. लीना रस्तोगी
प्रधान सम्पादक - आचार्य मधुसूदन पैन्ना
विधा - समीक्षा
प्रकाशक -कविकुलगुरू कालिदास संस्कृत विश्वविद्यालय, रामटेक
प्रकाशन वर्ष - 2022, प्रथम संस्करण
पृष्ठ संख्या - 502
अंकित मूल्य - 1095/- रू.
अर्वाचीन संस्कृत साहित्य में प्रभूत मात्रा में लिखा जा रहा है। साहित्य की प्राचीन एवं नूतन विधाओं में अनेक ग्रन्थ रचे व पढे जा रहे हैं। इन सब का परिचय देने के लिए साहित्य के इतिहास से सम्बन्धित ग्रन्थ भी लिखे जा रहे हैं। हीरालाल शुक्ल, केशवराव मुसलगावरकर, देवर्षि कलानाथ शास्त्री, राधावल्लभ त्रिपाठी आदि ने समय-समय पर अपने ग्रन्थों में अर्वाचीन संस्कृत साहित्य पर लिखा है। श्रीधर भास्कर वर्णेकर ने अर्वाचीन संस्कृत साहित्य की 1960 तक की रचनाओं का परिचय अपने शोधप्रबन्ध में दिया था। यह शोधप्रबन्ध हांलाकि प्रकाशित है, किन्तु इसकी मूल भाषा मराठी होने से संस्कृत या हिन्दी भाषा के पाठकों को समस्या आती थी। हाल ही में डॉ. लीना रस्तोगी ने इस मराठी ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद किया है, जिसे कविकुलगुरू कालिदास संस्कृत विश्वविद्यालय, रामटेक के प्रकाशन विभाग द्वारा अर्वाचीन संस्कृत साहित्य शीर्षक से ग्रन्थाकार में प्रकाशित किया गया है।
प्रस्तुत ग्रन्थ को 31 अध्यायों में विभक्त किया गया है। प्रथम अध्याय में वर्णेकर जी ने अर्वाचीन संस्कृत का परिचय देते हुए बतलाया है कि इस ग्रन्थ में 17 वीं सदी से 1960 तक की रचनाओं का परिचय देने की आवश्यकता क्यों हुई-
ऐसी दशा में, जब आधुनिक संस्कृत साहित्य का सर्वत्र अभाव दिखाई देता हो, तो यदि संस्कृत न जाननेवाले लोग तथा संस्कृत से मुँह मोडनेवाले नवशिक्षित लोग संस्कृत भाषा को 'मृत भाषा' मानने लगे, तो उसमें उनका कोई विशेष अपराध नहीं। "अमराणां भाषा मृता इति वदतोव्याघातः एवं' इस प्रकार के शब्दच्छलात्मक युक्तिवाद से संस्कृत की सजीवता सिद्ध नहीं हो सकती। संस्कृत को 'मृत भाषा' कहने का साहस ये लोग इसीलिए कर सकते हैं क्यों कि विगत ३०० वर्षों में उन्होंने संस्कृत साहित्य की निर्मिति देखी ही नहीं। प्रत्यक्ष प्रमाण के आधार पर ही उनके मतों का खण्डन करना उचित होगा। उसके लिए सोलहवीं शती के पश्चात् निर्मित साहित्य का, और उन साहित्यकर्मियों का यथोचित परिचय कराना आवश्यक है। इस कालखण्ड में अन्य प्रादेशिक भाषाओं में जो साहित्यिक विधाएँ, विशेषताएँ अथवा विचारधाराएँ दीखती र्थी, वे संस्कृत में र्थी या नहीं - यह भी प्रदर्शित करना आवश्यक है। यही नहीं यह भी सप्रमाण बताना होगा कि कालिदास, भट्टि, जयदेव, बैंकटाध्वरि आदि लेखकों ने जो विविध काव्यविधाएँ प्रवर्तित की थीं, वे इस आधुनिक कालखण्ड में अक्षुण्ण रहीं या खण्डित हुई। अंग्रेजी वाङ्मय के साथ संपर्क होने के कारण आधुनिक साहित्यक्षेत्र में कुछ नये वादों का जन्म हुआ। सो यह भी सप्रमाण सिद्ध करना पडेगा कि संस्कृत में वे उत्पन्न हुए या नहीं।
द्वितीय अध्याय में आधुनिक साहित्य के प्रयोजनों पर प्रकाश डाला गया है। यहां संस्कृत में श्रद्धा, लोक जागृति, समाजहित, स्वाध्याय आदि को विभिन्न साहित्यकारों के कथन के माध्यम से प्रयोजन के रूप मंे प्रस्तुत किया गया है। तृतीय एवं चतुर्थ अध्याय में महाकाव्यात्मक चरित्रग्रन्थों एवं साधुजनों केे चरित्र ग्रन्थों का परिचय दिया गया है। पंचम अध्याय में राजपुरुषों के चरित्र को आधार बनाकर रचे गये काव्यों का वर्णन है।
षष्ठ अध्याय का शीर्षक है परकीय राजस्तुति। इस अध्याय में भारत पर शासन करने वाले मुगल शासकों यथा अकबर, जहांगीर आदि पर रचे गये काव्यों का वर्णन प्राप्त होता है। पाण्डुरंग कवि द्वारा रचित विजयपुरकथा में बीजापुर के मुस्लिम बादशाहों की जीवनियां चित्रित हैं। इसी अध्याय में आंग्ल राजाओं के चरित्र पर आधारित काव्यों का भी उल्लेख किया गया है। सर्वाधिक काव्य पंचम जार्ज पर लिखे गये, ऐसा उल्लेख मिलता है। यहां लेखक परकीय राजस्तुति को एक विचित्र बात बतलाते हुए इसे प्राचीन परम्परा की राजस्तुतिपरक काव्यरचना की एक दुःखद विकृति कहते है और इसे आजीविका से जोडते हुए इसका समाधान खोजने का प्रयत्न करते हैं।
सप्तम अध्याय में क्लिष्ट काव्यों का परिचय है तो 8 वें अध्याय में शास्त्रनिष्ठ काव्यों का वर्णन किया गया है। नवें अध्याय में चम्पू वांग्मय का परिचय दिया गया है। 10 वें अध्याय में ऐतिहासिक काव्यों का वर्णन प्राप्त होता है- यथा औरंगजेब और मराठा वीरों मध्य हुए युद्ध को आधार बनाकर रचा गया राजारामचरितम्।
11 वें अध्याय में छत्रपति शिवाजी महाराज की प्रत्यक्ष प्रेरणा से लिखे गये ग्रन्थों का परिचय दिया गया है, यथा - रघुनाथपण्डित रचित राजव्यवहार कोश, जो भाषाशुद्धि को लेकर रचा गया था। 12 वें अध्याय से लेकर 21 वें अध्याय तक अर्वाचीन संस्कृत के शतककाव्यों, स्तोत्र साहित्य, दूतकाव्यों, सुभाषितसंग्रहों, नाटकों एवं गद्य साहित्य का परिचय निबद्ध है।
22 वें अध्याय में अनूदित संस्कृत साहित्य का परिचय दिया गया है, जो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यहां अनुवाद में होने वाली समस्याओं का वर्णन करते हुए तमिल, तेलगु, हिन्दी, मराठी, बांगला आदि भारतीय भाषाओं से संस्कृत में किये गये अनुवाद का उल्लेख है। यही पर फारसी भाषा से संस्कृत मे हुए अनुवादों का भी वर्णन किया गया है। उमर खय्याम की रुबाईयों के तीन अनुवादों का परिचय यहां प्राप्त होता है। साथ ही अंग्रेजी से संस्कृत में हुए अनुवादों का भी परिचय विशेष रूप से उल्लेखनीय है। 23 वां अध्याय अन्य भाषीय शब्दों के संस्कृतीकरण पर आधारित है। जब संसकृत के कवियों ने विभिन्न नवीन विषयों पर कविता रची तो उन्हें नये शब्दों की आवश्यकता हुई। उन्होंने इसके लिए उन नये शब्दों का संस्कृतीकरण कर दिया जो, अन्य भाषाओं में तो हैं किन्तु संस्कृत में नहीं थे। यथा-
श्री रामावतार शर्मा ने 'भारतीयं वृत्तम्' नामक पद्यात्मक इतिहासग्रन्थ की रचना की है। उसमें परकीय शब्दों के स्थान पर नवनिर्मित संस्कृत रूप प्रचुर मात्रा में प्रयुक्त हैं। वे यहाँ दिये जा रहे हैं-
नेपोलियन = नयपाल्यः । (नयपाल्योऽभवद्द्वीरः सम्राट् फ्रान्सनिवासिनाम् ।)
व्हिक्टोरिया = व्यक्तोर्जा । (आङ्ग्लवंशधरा राज्ञी व्यक्तोर्जा वसुधामशात् ।) (पृ.५१)
बाष्पानस् = रेल्वे ट्रेन। (बाष्पानसा च पोतैश्च सुगमास्ता भुवोऽभवन् ।) (पृ.५१) टेलिग्राफी = विद्युत्संवादशैली ।
आद्यव्रत = एडवर्ड (आद्यव्रतेन राज्ञाऽथ व्यक्तोर्जासूनुनाभवत् ।) (पृ.५२) कर्पूरद्वीप = जपान। (समयेऽस्याऽभवद्युद्धं कर्पूरद्वीपवासिनाम् ।)
रुष्य = रशियन । (जिगीषूणां समं रुष्यै रुष्या यत्र पराजिताः ।।) (पृ.५२)
शर्मण्यः = जर्मन.
बलियम = विल्यम् । (शर्मण्यानां बलियमो रुष्याणां निचुलो नृपः ।)
कुलुम्बः = कोलम्बस. (कुलुम्बो भारतान्वेषी प्राप्ते पञ्चदशे शते ।)
तुङ्ङ्गान्धिः = अटलांटिकसागर। तुङ्गाब्धेरपरे पारे धीरः प्रापदमेरिकाम् ।। (पृ.४८)
वस्का = वास्को डि गामा। (वस्काभिधः पुर्तुगलाभिजनश्च ततः परम् । आगाद् भारतमन्विष्यन् दक्षिणाम्बुनिधेस्तटम् ।।
किन्तु यहां ग्रन्थकार यह भी कहते हैं कि ऐसे शब्दों के संस्कृतीकरण के लिए नियम भी निर्धारित किये जाने चाहिए-
इस प्रकार, विगत सौ वर्षों में (कदाचित् उसके पूर्व भी) ऐसे बहुत से संस्कृत शब्द निर्माण हुए जो प्राचीन संस्कृत को परिचित नहीं थे। परंतु उनमें एकसूत्रता नहीं है। ऐसे शब्द आगामी काल में भी बनते ही रहेंगे, क्यों कि आधुनिक व्यवहार में जो शब्द उपयुक्त हैं वे न प्राचीन साहित्य में पाये जाते हैं न शब्दकोशों में। अतः इन नवनिर्मित शब्दों के विषय में नियमनिर्धारण अत्यंत आवश्यक है। मिन्त्र संस्कृति के ग्रन्थों का संस्कृत में अनुवाद करने वाले तथा आधुनिक विषयों पर संस्कृत में ग्रन्थरचना करनेवाले लेखकों को नये शब्दों का निर्माण करना ही पड़ता है। अतः आधुनिक संस्कृत लेखकों का पथप्रदर्शन करने हेतु आवश्यकता प्रतीत होती है कि पण्डित-परिषदों द्वारा कुछ नये नियम निर्धारित किये जावें। किन्तु उसमें ऐसी दक्षता हो कि पाणिनीय शास्त्र अथवा वैयाकरण सम्मत त्रिमुनिप्रामाण्य का किसी प्रकार का विरोध उसमें न हो।
25 वें अध्याय में संस्कृत पत्रकारिता पर प्रकाश डाला गया है। यहां संस्कृत की पहली मासिक पत्रिका विद्योदय को बतलाया गया है, जिसका प्रारम्भ हृषीकेश भट्टाचार्य ने किया था। 26 वें अध्याय में हास्य रस से सम्बन्धित रचनाओं तथा 27 वें अध्याय में संस्कृत साहित्य में राष्ट्रवाद पर अलग से सामग्री दी गई है, जो अत्यन्त उपयोगी है।
शोधकर्ताओं एवं जिज्ञासुओं के लिए यह ग्रन्थ उपादेय है। अनुवादिका एवं प्रकाशक इस प्रकाशन के लिए साधुवाद के पात्र हैं।
ग्रंथ के बारे में जानकर अच्छा लगा। अनेक रोचक और महत्त्वपूर्ण शोध है, यह इस समीक्षा से ज्ञात हुआ। अनुवाद अभिनंदनीय है।
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