Sunday, May 31, 2020

एकविंशशताब्द्याः राजस्थानस्य संस्कृतसाहित्यम्

कृति - एकविंशशताब्द्याः राजस्थानस्य संस्कृतसाहित्यम्

लेखक - डॉ. कमलकान्त बालाण
सम्पर्क सूत्र - 9694611696
विधा - समीक्षा
प्रकाशक - आइडियल पब्लिकेशन, जयपुर
संस्करण - प्रथम, 2016
पृष्ठ संख्या - 272
अंकित मूल्य - 350
           अर्वाचीन संस्कृत साहित्य का फलक अत्यन्त विशाल है। संस्कृत की एक विशिष्टता यह है कि यह भाषा किसी एक प्रान्त से सम्बद्ध न होकर समूचे भारत की भाषा है। यही कारण है कि प्रत्येक प्रान्त के रचनाकारों ने संस्कृत के भाण्डागार को अपनी प्रतिभा से समृद्ध किया है। वर्तमान में होने वाले शोध कार्यों की एक प्रवृत्ति यह भी देखने को मिलती है कि आधुनिक संस्कृत साहित्य की किसी कृति या कृतिकार को लेकर शोधकार्य किया जा रहा है। साथ ही किसी एक प्रान्त के संस्कृत साहित्य में योगदान को लेकर भी शोधकार्य होते हैं। राजस्थान प्रदेश के संस्कृत साहित्यकारों ने सदैव संस्कृत साहित्य की श्रीवृद्धि की है। यहां न केवल काव्य रचे गये अपितु काव्यशास़्त्र भी उस काव्य की समालोचना के लिये लिखे जाते रहे। पत्र-पत्रिकाओं यथा भारती, स्वरमंगला आदि के द्वारा भी सतत संस्कृत साहित्य का प्रचार प्रसार किया गया तथा नवांकुरों को भी अपनी प्रतिभा दिखाने का यथेष्ट अवसर प्रदान किया गया। यहां होन वाली गोष्ठियां समूचे भारत में प्रसिद्ध रही हैं। यही कारण हैं जो राजस्थान की राजधानी जयुपर के अपरा काशी नाम को सार्थक सिद्ध करते हैं।
       डॉ. कमलकान्त बालान युवा लेखक हैं और आधुनिक संस्कृत साहित्य के क्षेत्र में बहुत परिश्रम कर रहे हैं।
डॉ. बालान ने 21 वीं सदी के राजस्थान प्रदेश के संस्कृत साहित्य पर शोधकार्य किया है। आपका यह शोध कार्रू प्रमुख रूप  से 21 वीं सदी के प्रथम दशक (2001 से 2010) पर आधारित है। यही शोध कार्य 2016 में ग्रन्थाकार रूप  में प्रकाशित हुआ है। लेखक ने इसे 12 भागों में विभक्त किया है-

1. भूमिका - लेखक ने इस में सर्वप्रथम आधुनिक संस्कृत साहित्य का संक्षिप्त परिचय दिया है। महाकाव्य, खण्डकाव्य, उपन्यास, कथा, नाट्यसाहित्य आदि विधाओं का उल्लेख करते हुए आधुनिक संस्कृत साहित्य की प्रवृत्तियों को रेखांकित किया है। ये प्रवृत्तियां विषय और शैली की दृष्टि से भिन्न-भिन्न प्रदर्शित की गई हैं।

2. कालखण्डस्यास्य प्रमुखकवीनां परिचयः - इस भाग में सर्वप्रथम राजस्थान को 8 मण्डलों में विभक्त कर प्रत्येक मण्डल के रचनाकार का संक्षिप्त परिचय एवं उनकी रचनाओं का नाम से उल्लेख किया गया है|

3. कालखण्डेऽस्मिन् प्रणीतानां ग्रन्थानां वर्गीकरणम् - इस भाग में काव्य के भेदों के अर्वाचीन लक्षणों को प्रस्तुत करते हुए लेखक के लिये अपेक्षित कालखण्ड की रचनाओं को इस काव्य के भेदों को वर्गीकृत किया गया है।

4. महाकाव्यानि - इस भाग में राजस्थान के कवियों द्वारा लिखित और 21 वीं सदी के प्रथम दशक में प्रकाशित 15 महाकाव्यों की समालोचना की गई है। यथा- राजलक्ष्मीस्वयंवरम्, श्रीकरणीचरितामृतम्, सुभद्रार्जुनीयम्।

5. खण्डकाव्यानि - इस भाग में 37 खण्डकाव्यों का परिचय दिया गया है, यथा- नवोढाविलासम्, परिखायुद्धम्, नचिकेतकाव्यम् आदि। साथ ही 7 मुक्तककाव्यों (सारस्वतसौरभम्, संस्कृतकवितावल्लरी आदि) तथा 2 मुक्तछन्दकाव्यों (ज्योतिर्ज्वालनम् तथा उद्बाहुवामनता) को पृथक् से निर्दिष्ट करते हुए खण्डकाव्यों के भाग में ही समालोचित किया गया है।

6. गद्यकाव्यानि - इस भाग में 9 कथासंग्रहों (यथा आख्यानवल्लरी, संस्कृतकथाशतकम्) तथा 1 उपन्यास  (जीवनस्यपाथेयम्) का वर्णन है।

7. नाट्यकाव्यानि - यहां 7 नाट्यसंग्रहों की समालोचना हैं, जिनमें पूर्वशाकुन्तलम् प्रमुख रूप से उल्लेखनीय है। हरिराम आचार्य द्वारा लिखित यह नाट्यसंग्रह रेडियो नाटकों का सर्वोत्तम निदर्शन है, जिनका प्रसारण समय-समय पर आकाशवाणी केन्द्र जयपुर से हुआ है।

8. बहुविधपत्रिकासु प्रकाशितप्रकीर्णकाव्यानि- भारती,   स्वरमंगला तथा जयन्ती राजस्थान से प्रकाशित होने वाली संस्कृत पत्रिकाएं हैं। लेखक ने अत्यन्त परिश्रम से 10 वर्षों में इन पत्रिकाओं में प्रकाशित सामग्री का ंसकलन कर उसे विभाजित किया  है।

9. सम्पादितसमीक्षितानूदितकाव्यानि - अभीष्ट कालावधि में प्रकाशित सम्म्पादित, अनूदित एवं समीक्षित ग्रन्थों के उल्लेख से यह ग्रन्थ और उपादेय हो गया है। सम्पादित ग्रन्थों में 19 ग्रन्थों (कलानाथ शास्त्री सम्पादित जयपुरवैभवम्, रमाकान्त पाण्डेय सम्पादित अभिनवकाव्यालंकारसूत्रम्) तथा समीक्षितग्रन्थों में 6 ग्रन्थों का परिचय है (यथा रमाकान्त पाण्डेय कृत आधुनिकसंस्कृतकाव्यशास्त्रसमीक्षणम्, कलानाथ शास्त्री कृत आधुनिकसंस्कृतसाहित्येतिहासः)। अनूदित ग्रन्थों के क्रम में 8 ग्रन्थों का परिचय दिया गया है, जिनमें 6 ग्रन्थ श्रीरामदवे द्वारा अनूदित किये गये हैं, यथा- गीतांजलिः, निर्मला, यवनीनवनीतम्, धु्रवस्वामिनी। पद्म शास्त्री कृत कबीरशतकम् भी विशेष रूप से उल्ल्ेखनीय है।

10. उपसंहृतिः - इस भाग में उपसंहार के रूप् में महत्त्वपूर्ण सूचनाएं दी गई हैं।

11. राजस्थाने एकविंशशताब्द्याः प्रथमदशके प्रकाशितग्रन्थानां सूची - इस में प्रकाशित ग्रन्थों की सूची प्रकाशन  वर्ष तथा प्रकाशक के साथ दी गई है।

12. राजस्थाने एकविंशशताब्द्याः प्रथमदशके प्रकाशितकाव्यानां सूची - इस में प्रकाशित काव्यों की सूची प्रकाशन  वर्ष तथा प्रकाशक के साथ दी गई है
 
      यदि इस प्रकार के शोधकार्य भारत के सभी राज्यों में हो और वह शोधकार्य हमारे समक्ष प्रकाशित होकर आये तो ऐसे अनेक ग्रन्थों की जानकारी हमें मिलेगी जो प्रायः हमें उपलब्ध नहीं हो पाती। साथ ही इनमें से प्रत्येक विधा पर किसी राज्य विशेष के योगदान को लेकर भी पृथक् से शोधकार्य किया जाना अपेक्षित हैं।

Saturday, May 30, 2020

आर्याओं का सागर - आर्यार्णवः

कृति - आर्यार्णवः 

विधा - काव्य
रचयिता - डॉ. शिवदत्तशर्मा चतुर्वेदी
प्रकाशक - देववाणी परिषद्, दिल्ली
संस्करण - प्रथम, 2014
पृष्ठ संख्या - 882
अंकित मूल्य - 500 
       
डॉ. शिवदत्तशर्मा चतुर्वेदी का जन्म 16 अपैल 1934 को जयपुर में हुआ। इनके पिता गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी स्वयं संस्कृत के प्रसिद्ध कवि रहे हैं। डॉ. शिवदत्तशर्मा चतुर्वेदी के प्रकाशित ग्रन्थों में चर्चामहाकाव्यम्, स्फूर्तिसप्तशती विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

                                आर्या छन्द संस्कृत का पारम्परिक छन्द है। आर्यासप्तशती प्रसिद्ध ग्रन्थ है। अर्वाचीन संस्कृत साहित्य में जगन्नाथ पाठक आर्या सम्राट के रूप में प्रसिद्ध हैं। डॉ. शिवदत्त शर्मा चतुर्वेदी कृत आर्यार्णवः इस दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है कि इसमें 8 हजार से अधिक आर्याओं में कवि ने अपने कथ्य को प्रस्तुत किया है। आर्यार्णवः का विभाजन 18 वर्गों में किया गया है, जिनमें 224 शीर्षकों में 8453 आर्याएं संकलित हैं। कवि ने भूमि शीर्षक के द्वारा  अपना और आर्यार्णवः की यात्रा का परिचय दिया है। देवर्षि कलानाथ शास्त्री द्वारा अंग्रेजी भाषा में  भूमिका लिख गई है। ग्रन्थ के आरम्भ में अर्वाचीनसंस्कृतम् पत्रिका के प्रधान सम्पादक आचार्य रमाकान्त शुक्ल के सम्पादकीय से ज्ञात होता है कि इस ग्रन्थ के वृहत् कलेवर को देखते हुए दो विश्वविद्यालयों ने इसके प्रकाशन में असमर्थता प्रकट की ।  अतः देववाणी परिषद् की पत्रिका अर्वाचीनसंस्कृतम् के द्वारा इसका प्रकाशन किया गया। पत्रिका के 141 वें अंक से लेकर 158 वें अंक तक संयुक्तांक के रूप में प्रकाशित हुआ, इसी में यह काव्य निबद्ध है।
        कवि ने इसके वर्गो का शीर्षक द्वीप किया है, इस तरह इसमें 18 द्वीप हैं। प्रत्येक द्वीप में भिन्न- भिन्न शीर्षकों के अन्तर्गत कविताएं संकलित है | प्रारम्भ में गणपति की 21 आर्याओं के माध्यम से स्तुति की है-

गणपतिरस्तु नितान्तं शान्तो दान्तो हृदन्तरे कान्तः।
त्रैलोक्याभराणां सारा स्तुतिरेतदीयैव।।

साथ ही राधा, महालक्ष्मी, सरस्वती, जगदम्बा आदि की भी स्तुति है। आर्या के लिए कहते हैं-

आर्या सैषा रम्या यदि प्रसादं करोति तन्मन्ये।
भावाऽभावाऽभावः सत्वरमेवाऽत्र जागर्ति।।
प्रातः सुषमाकाले कापि नवीना स्मृतिः स्फुरति।
रात्रावथ काऽप्यन्या काले काले नवीनाऽऽर्या।।

वाल्मीकिः, तुलसिदासः, श्रीचन्द्रशर्मागुलेरिः, कालिदासः, भारविः, भवभूतिः, कबीरः पाणिनिः, श्री गोपीनाथकविराजः, भारतेन्दुः आदि के द्वारा संस्कृत, हिन्दी आदि के रचनाकारों पर आर्याएं निबद्ध हैं तो श्रीगिरिधरशर्माणः, कविशिरोमणिः (भट्ट मथुरानाथ शास्त्री), देवर्षिकलानाथाः, बटुकनाथाः आदि के द्वारा आधुनिक संस्कृत कवियों पर भी आर्याएं संकलित हैं। यहां सी.वी. रमणः, श्रीराजेन्द्रप्रसादः, श्रीनेहरुः, डॉ. राधाकृष्णः, वसुसुभाषचन्द्रः, श्रीकरपात्रस्वामी आदि के द्वारा विभिन्न क्षेत्रों में प्रसिद्ध विभूतियों का भी परिचय है। कार्लमार्क्सः पर लिखी गई 100 आर्याएं, जिसे हम कार्लमार्क्सशतक कह सकते हैं, इस संकलन का विशिष्ट भाग है, जो यह प्रकट करता है कि कवि अपने देश से इतर स्थानों/महापुरुषों का भी संज्ञान अपने काव्य में लेता है-

स जयति कार्लो मार्क्सः पीडितजनबन्धुतामाप्तः।
श्रमधनतत्वविवेचनपाण्डित्यं यज्जगद्विदितम्।।
शोषितजनताहृदयस्पन्दमन्दाकिनीस्नातः।
कार्लो मार्क्सः श्वासान् सर्वान् तस्यै समर्पयामास।।

यहां सत्यम्, शिवम्,  सुन्दरम् को कविता के माध्यम से बताने का प्रयास किया गया है तो काव्यकारणम्, काव्यप्रयोजनम् जैसे शीर्षकबद्ध कविताओं से काव्यशास्त्र के विषयों पर भी विचार प्रकट किये गये हैं। कामः, धैर्यम्, उपेक्षा, क्रोधशक्तिः, कुण्ठा, विवशता जैसे मनोवैज्ञानिक विषयों पर भी कवि की लेखनी चली है-

कामात्मता प्रशस्ता नाभिमता जीवने काचित्।
नो लभ्यं संसारे निखिलेऽस्मिन् कामशून्यत्वम्।।

गालीप्रथा कविता में हास्य-व्यंग्य का पुट है। गाली हमारे समाज व संस्कृति का अविभाज्य व महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। गाली की परिभाषा देते हुए कहते हैं-

मनसः स्वतन्त्रता यदि वाण्यां निखिला समागता भवति।
तत्रैव काऽपि धारा सैषा परिकथ्यते गाली।। 

गाली की महिमा गाते हुए कहते हैं कि यदि गाली न हो तो यह समूचा संसार ही सूना हो जायेगा-

निखिलोऽयं संसारः शून्यः सर्वः प्रजायेत।
सा यदि मानसमध्ये नो रचयेद्वाटिकां गाली।।

कवि द्वारा इतनी विपुल मात्रा में रचे गये ये आर्याकाव्य यह सिद्ध कर देते हैं कि पारम्परिक छन्दों में भी विविध विषयों को निबद्ध किया जा सकता है।

Thursday, May 28, 2020

पत्रालयः - बांग्ला से अनूदित नाटक

आधुनिक संस्कृत का एक पक्ष अनुवाद का भी है, जिस पर हम यथासम्भव चर्चा करते आये हैं | विदेशी और भारतीय भाषाओं की अनुपम कृतियों का रसास्वादन हम अनुवाद के माध्यम से कर रहे हैं | कन्नड़, ओड़िया, हिंदी, मराठी, राजस्थानी आदि भाषाओं के साथ बांग्ला जैसी समृद्ध भाषा की रचनाएं संस्कृत में रूपांतरित हुई हैं | नारायण दाश ने "संस्कृतसाहित्ये पश्चिम वंगस्यावदानम्" ग्रन्थ में बंगाल के योगदान को वर्णित किया  है | कथा भारती द्वारा प्रकाशित "अनूदितं रवींद्रसाहित्यम्" में रवींद्र नाथ टैगौर रचित साहित्य के संस्कृत अनुवाद को 29 आलेखों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है | इन दोनों पुस्तकों का यथासम्भव परिचय ब्लॉग पर उपलब्ध करवाया जाएगा| रवींद्र नाथ टैगौर के एक नाटक डाकघर का संस्कृत अनुवाद पत्रालय: नाम से प्रकाशित हुआ है | यह अनुवाद बनमाली बिश्वाल ने किया है | इसका परिचय प्रस्तुत कर रही हैं पराम्बा श्रीयोगमाया, जो स्वयं भी एक अच्छी अनुवादक हैं |




कृति - पत्रालयः 
विधा - अनूदित संस्कृत नाटक

मूल रचना – विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर
संस्कृत अनुवाद – प्रोफेसर बनमाली बिश्वाल
सम्पर्क सूत्र - 7839908471
प्रकाशक – पद्मजा प्रकाशन, 57, वसन्त विहार, झूसी, इलाहाबाद 211019,
मूल्य – Rs. 300/-
प्रथम संस्करण – 2015
पृष्ठ संख्या – 90 

             प्रोफेसर बनमाली बिश्वाल कवि, कथाकार, अनुवादक तथा समीक्षक के रूप में संस्कृत जगत् में सुपरिचित हैं, जो की मूलतः वैयाकरण हैं । सहज व सरल संस्कृत में संवेदनाओं को उतारना उनके लेखन का विशेषत्व रहा है । समकालिक संस्कृत रचनाओं पर उन्होंने अपने छात्र-छात्राओं से शोध कार्य भी करवाया है । एक कवि के हिसाब से उनका काव्य सङ्गमेनाभिरामा (1996)  छन्दों में छन्दायित है वैसे व्यथा (1997), ऋतुपर्णा (1999), प्रियतमा (1999) आदि मुक्तछन्द से अनुरणित है । कथा साहित्य में संवेदनाओं से धनी उनकी रचनायें पाठक को समाज की स्थिति पर सोचने के लिए विवश कर देती हैं । वर्तमान में प्रोफेसर बिश्वाल राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान के श्रीरघुनाथ कीर्त्ति परिसर, देवप्रयाग में व्याकरण विभाग के आचार्य और विभागाध्यक्ष के रूप में कार्यरत है । उनके और उनके सहयोगिओं के निरन्तर प्रयास और अदम्य उद्योग से समकालिक संस्कृत सर्जनाओं की पहली अनूठी समीक्षा पत्रिका 1999 जनवरी से प्रकाशित होती आ रही थी ।  इसका प्रकाशन फिर से हो ऐसी संस्कृत सर्जकों की आशा है ।


    प्रोफेसर बिश्वाल के रचना संसार में अनूदित नाटक भी सम्मिलित है । रवीन्द्रनाथ टैगोर की बंग्ला रचना ‘डाकघर’  का  संस्कृत अनुवाद एक भिन्न स्वाद की पाठकीय रुचि जगाता है । नाटक का सविशेष तथ्य स्वयं अनुवादक द्वारा प्रारम्भ में दे रखा है । एक चपल और चञ्चल मति बालक का मनोविज्ञान कैसे गम्भीर दार्शनिकता की ओर संकेत करता है – यह विषय इस नाटक में मुख्य रूप से वर्णित है । अमल नाम का एक किशोर अस्वस्थता के कारण घर में बन्द रहने के लिए वैद्य से निर्देशित है । पितृ - मातृ हीन अमल पालक पिता माधवदत्त और उनकी पत्नी के स्नेह से प्रतिपालित है । पर सूर्य किरण और बाहर की वायु उसके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है । वैद्य के द्वारा वह निषिद्ध है बाहर जाने के लिए । उसका शिशु मन तरसता है प्राङ्गण में घुमने के लिए , दही बेचने वाले से दही बेचना सीखने के लिए, मित्रों के साथ खेलने के लिए, फकीर से भिक्षाटन सीखने के लिए, पुलिस से नागरिकों को सचेत कराने की कला सीखने के लिए, उसकी बालिका मित्र सुधा के साथ फूल संग्रह के लिए और अन्त में राजा का पत्रवाहक बनने के लिए । जिन जिन पात्रों के साथ उसकी बात होती है उन पात्रों की गति को वह चाहता है क्योंकि उसकी गति निषिद्ध है ।

   यद्यपि यह एक सामान्य बातचीत और एक व्याधित बालक का मृत्यु का उपस्थापन है पर इस नाटक का अन्तर्निहित अर्थ कुछ गम्भीर है । यहाँ अमल का मन पर्वत, नदी, सुनील आकाश, नक्षत्र और ध्रुव तारा पर निबद्ध है । इस मर्त्य में एक क्षणभङ्गुर शरीर को धारण कर के जी रहा है कब उसको राजा से पत्र मिलेगा । यहाँ राजा शब्द परमात्मा का प्रतीक है । जब संसार से क्रमशः उसका दिन कम होते जा रहे हैं वह सबको पूछता है कि क्या आज पत्रालय में राजा से मेरे नाम का कोई पत्र आया है । आरक्षियों का मुखिया यह बात जानकर ईर्ष्या से भर जाता  है कि एक सामान्य परिवार राजा से सम्पर्क रख रहा है ! बुद्ध को जैसे   सन्यासी  का  चरित्र ने प्रभावित किया था वैसे ही अमल को इस नाटक में एक फकीर प्रभावित करता है । वह उसके साथ अचिन्त्य भ्रमण करके, नदी से पानी पीकर फिर नदी के आर पार जाने की प्रबल इच्छा जताता है । फकीर की तरह संसार बन्धन शून्य है उसका मन । उसका शिशु मन कितना गहन तथ्य बोलता है जिसको अनुवादक ने कहा है –

अस्माकं गृहस्य समीपे उपवेशनेन सः दूरस्थः पर्वतः दृश्यते । मम महती इच्छा भवति यदहं तमुल्लङ्घ्य गच्छेयम् ।... ... अहं तु एतत् सर्वं सम्यग् जानामि यत् पृथिवी भाषितुं न शक्नोति । अतः एवमेव नील-गगनमुद्दिश्य हस्तौ उत्थाय आह्वयति । बहुदूरे ये जनाः गृहाभ्यन्तरे उपविशन्ति तेऽपि निःसङ्ग – मध्याह्ने वनोपान्ते  उपविश्य  एतमाह्वानं  श्रोतुं  शक्ष्यन्ति । अहं  तु विचारयामि यत् पण्डिताः एतत् श्रोतुं न शक्नुवन्ति । (प्रथमदृश्यम्, पृ. सं. 38)

आरक्षी के साथ अपने कमरा जे झरोके से बात करते समय कहता है कि –

कश्चन वदति समयः अतिक्रामन्नस्ति इति । कश्चन अपरो वदति समयः न सञ्जातः । वस्तुतः तव घण्टानादेनैव समयो भविष्यति किल ! (द्वितीयदृश्यम्, पृ. सं. 49) ... तं देशमहं मन्ये न कोऽपि दृष्ट्वा आगतोऽस्ति । मम महती इच्छा भवति यदहं तेन समयेन साकं गच्छेयम् । यस्य देशस्य तथ्यं न कोऽपि जानाति । स देशस्तु बहुदूरे ... ...... ......( द्वितीयदृश्यम्, पृ. सं. 50)

अमल की बालिका मित्र कैसे उसकी मनोयात्रा में सहायिका बनती है, यह भी नाटक में प्रस्तुत किया गया है | उसके साथ जब बाहर जाने के लिए अमल इच्छा प्रकट करता है तब सुधा कहती है -

अहा .. तर्हि त्वं बहिर्न आगच्छ । वैद्यस्य निर्देशः पालयितव्यः । चपलता न करणीया । अन्यथा जनास्त्वा दुष्ट इति वदिष्यन्ति । बहिर्दृष्ट्वा ते मनः व्याकुलितमस्ति । अतः तव अर्धं पिहितं द्वारं पूर्णरूपेण पिदधामि । (द्वितीयदृश्यम्, पृ. सं. 57) 

 बाल सुलभ वचनों से जीव को अंतर्मुखी करके चंचल मन को रोकने का संकेत यहां दिया गया है|

अपनें प्रकोष्ठ में सम्पूर्ण बन्द रहने की अवस्था में वह केवल राजा के पत्र और पत्रवाहक की प्रतीक्षा करता है । फकीर से मिलने के लिए अधीर हो उठता है । अन्त में उसके पितामह फकीर का वेष धारण करके उससे वार्तालाप करते हैं । अन्तिम समय में पत्र आता है शून्य अक्षर होकर साथ साथ राजा उससे मिलने आएंगे यह खबर भी आती है  और वह कहता है की मेरे लिए अब सब उन्मुक्त हो गया । मुझे  कोई कष्ट नहीं है । मैं अन्धकार के उस पार नक्षत्रों को देख रहा हूँ । (तृतीयदृश्यम्, पृ. सं. 86) अन्त में अमल को अमर बनाने के लिए सुधा बोलती है कि उसके कान में एक बात आप लोग बाल दीजिए, सुधा उसे नहीं भूली हैं ।

तदा यूयमेतस्य कर्णयोः एकां वार्तां वदिष्यथ । ... कथयथ यत् सुधा त्वां न विस्मृतवती इति । (तृतीयदृश्यम्, पृ. सं. 90) यहाँ पर सुधा जो शशि नामक मालाकार की पुत्री है अमरता का प्रतीक है ।

यद्यपि नाट्यकार कुछ अंश में पाश्यात्य नाटकों से प्रभावित है जो प्रायः दुःखान्त ही होते हैं फिर भी भारतीयता  को  विश्वकवि नहीं भूले हैं । अतः उनके नाटक का अन्तः विभु प्राप्ति में सुखान्त को दर्शाता है । सांसारिक मिलना न मिलना के छायावाद के साथ साथ सृष्टि के राजा के साथ मिलने की वार्ता रहस्यवाद को भी उजागर करता है इस नाटक में ।

डॉ. पराम्बा श्रीयोगमाया


सहायक आचार्य, स्नातकोत्तर वेद विभाग, श्रीजगन्नाथ संस्कृत   विश्वविद्यालय, श्रीविहार, पुरी 752003, ओडिशा 
सम्पर्क सूत्र - 8917554392


संस्कृत काव्यशास्त्र - आधुनिक आयाम

कृति - संस्कृत काव्यशास्त्र - आधुनिक आयाम

विधा - समीक्षा
प्रधान सम्पादक - प्रो. आनन्दप्रकाश  त्रिपाठी
सम्पादक - डॉ. नौनिहाल गौतम, डॉ. संजय कुमार, डॉ. रामहेत गौतम, डॉ. शशिकुमार सिंह, डॉ. किरण आर्या
प्रकाशक- अनुज्ञा बुक्स, शाहदरा, दिल्ली - 110032
पृष्ठ संख्या - 199
अंकित मूल्य - 500 

           आधुनिक संस्कृत साहित्य की समालोचना के लिये आधुनिक काव्यशास्त्र की आवश्यकता होना स्वाभाविक है। 17 वीं सदी में पण्डितराज जगन्नाथ कृत रसगंगाधर पर ही काव्यशास्त्र पूर्णता प्राप्त कर विश्राम नहीं लेता है अपितु वह तो नित नई सम्भावनाओं के अनुरूप अपने को परिवर्तित करता रहता है। रेवाप्रसाद द्विवेदी कृत काव्यलंकारकारिका, ब्रह्मानन्द शर्मा कृत काव्यसत्यालोक, शिवजी उपाध्याय कृत साहित्यसन्दर्भ, राधावल्लभ त्रिपाठी कृत अभिनवकाव्यालंकारसूत्रम्, अभिराज राजेन्द्र मिश्र कृत अभिराजयशोभूषणम्, रहस बिहारी द्विवेदी कृत नव्यकाव्यतत्त्वमीमांसा, हर्षदेव माधव कृत वागीश्वरीकण्ठसूत्रम् आदि अनेक आधुनिक काव्यशास्त्रों के माध्यम से आधुनिक आचार्यों ने अपने काव्यशास्त्रीय विचार हमारे समक्ष रखे हैं। रेवाप्रसाद द्विवेदी एवं राधावल्लभ त्रिपाठी द्वारा अलंकार को पुनः काव्य की आत्मा स्वीकार किया गया है तथा अलंकार पद में अलम् का अर्थ पूर्णता से लिया गया है-अलं ब्रह्म। अभिराज राजेन्द्र मिश्र ने प्रयोजन आदि पर अपने विचार प्रकट करते हुए साहित्य की नवीन विधाओं के लक्षण करने का स्तुत्य कार्य किया है। हर्षदेव माधव ने साहित्य में प्रचलित वादों को प्रथमतया संस्कृतबद्व करके सोदाहरण प्रस्तुत किया है। ब्रह्मानन्द शर्मा ने सत्य को काव्य की आत्मा माना है। इन काव्यलक्षण, काव्यहेतु, काव्यभेद, अलंकार आदि पर सर्वथा मौलिक विचारों की समीक्षा भी समय समय किया जाना आवश्यक है।

             संस्कृत काव्यशास्त्र - आधुनिक आयाम नामक पुस्तक में आधुनिक काव्यशास्त्र के सिद्धान्तों पर प्रकाश डाला गया है। इस पुस्तक में कुल 19 लेख संकलित हैं। पहला लेख प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी का है, जो स्वयं काव्यशास्त्र के महनीय आचार्य हैं। ‘‘सौन्दर्यशास्त्र की भारतीय परम्परा’’-लेख में प्रो. त्रिपाठी ने इस धारणा को निर्मूल सिद्ध किया है कि सौन्दर्यशास्त्र पर भारतीय परम्परा में विचार ही नहीं किया गया। वे ये तोे स्वीकारते हैं कि हमारे यहां पृथक् से कोई सौन्दर्यशास्त्र नहीं रहा किन्तु साथ ही सप्रमाण यह भी कहते हैं कि अनेक शास्त्रों में प्रसंगवश सौन्दर्य पर बहुत गहनता से विचार किया गया है। उनके अनुसार अलंकार नामक एक समग्र सौन्दर्यशास्त्र प्राचीन भारत में था, जिसे आगे चलकर साहित्यशास़्त्र एवं कलाशास्त्रों में समाहित कर लिया गया। यह एक 48 पृष्ठों का विस्तृत महत्त्वपूर्ण लेख है, जिसमें वैदिक सौन्दर्यशास्त्र, वात्स्यायन का सौन्दर्यविमर्श, नाट्यशास्त्र में सैन्दर्यविमर्श, शैवशास्त्र में सौन्दर्यविमर्श, कवियों तथा आचार्यो की परम्परा में सौन्दर्यविमर्श बिन्दुओं के माध्यम से भारतीय सौन्दर्य विचारधारा को प्रकट किया है।

  •             काव्यप्रयोजन पर स्वतन्त्र रूप से दो लेख हैं- नारायण दाश लिखित - ‘‘आधुनिककाव्यशास्त्रे काव्यप्रयोजनम्’’ और बाबूलाल मीना लिखित - ‘‘आधुनिक संस्कृत साहित्यशा़स्त्र में काव्यप्रयोजन’’। दोनों ही लेखकों ने विस्तारपूर्वक आधुनिक काव्यशास्त्र में वर्णित काव्यप्रयोजनों का वर्णन किया है। अभिनवकाव्यालंकारसूत्रम् ग्रन्थ में मुक्ति को काव्य का प्रयोजन माना गया है- मुक्तिस्तस्य प्रयोजनम्। इस मुक्ति की अवधारणा पर धर्मेन्द्र  कुमार सिंह देव ने ‘‘मुक्तेः काव्यप्रयोजनत्वम्’’ में तथा ऋषभ भारद्वाज ने ‘‘अभिनवकाव्यालंकारसूत्र में मुक्ति’’ लेख में अपने विचार रखे हैं। काव्य से मुक्ति सर्वथा नवीन अवधारणा है, जिसकी अनेक लेखों से  समालोचना भी की जा रही है।

               पूर्णचन्द्र उपाध्याय ने ‘‘आचार्यराधावल्लभीयकाव्यहेतोरभिनवत्वम्’’ लेख के माध्यम से अभिनवकाव्यालंकारसूत्र में वर्णित काव्यहेतुओं की चर्चा की है। काव्यलक्षण पर दो महत्त्वपूर्ण लेख हैं, प्रथम लेख नौनिहाल गौतम का है- ‘‘आधुनिक संस्कृत काव्यशास्त्र का काव्यलक्षण-गत वैशिष्ट्य’’ तथा द्वितीय लेख जयप्रकाश नारायण का है -‘‘प्रमुख अर्वाचीन काव्यलक्षण’’, जिन में काव्य के अर्वाचीन  लक्षणों की समीक्षा की गई है।
            रहस बिहारी द्विवेदी का लेख ‘‘काव्याधिकरणानुभूतिविमर्शः’’, रामहेत गौतम का लेख ‘‘लोकानुकीर्तनं काव्यम्’’, शिवपूजन चौरसिया का लेख ‘‘अभिराजयशोभूषणम् में काव्यस्वरूप’’ तथा प्रदीप दुबे का लेख ‘‘काव्यालंकारकारिका के आलोक में अलंकार की काव्यात्मकता’’ अपने-अपने विषयों की पडताल बेहतर तरीके से करते हैं। काव्यसत्यालोक पर दो लेख संकलित हैं - शशि कुमार सिंह का लेख ‘‘काव्यसत्यालोक में व्यंजना’’ एवं माधवी श्रीवास्तव का लेख ‘‘काव्यसत्यालोक में प्रतिपादित सत्य’’। आचार्य ब्रह्मानन्द शर्मा ने प्राकृत, आर्थ  और हृदयज भेद से तीन प्रकार का सत्य बताते हुए आर्थ सत्य को काव्य में प्रमुख माना है। संजय कुमार ने ‘‘संस्कृत की अभिनवरचनाधर्मिता: काव्यशास्त्रीय पक्ष’’ के द्वारा  विभिन्न काव्यशास्त्रीय पक्षों को उकेरा है। नीरज कुमार का लेख ‘‘अभिराजयशोभूषणम् में लोकगीत’’ तथा सत्यप्रकाश का लेख ‘‘अभिराजयशोभूषणम् में गलज्जलिका’’ साहित्य की नवीन विधाओं का परिचय प्रस्तुत करते हैं । हर्षदेव माधव के काव्यशास्त्र का परिचय कौशल तिवारी ने ‘‘वागीश्वरीकण्ठसूत्रम्’’ में प्रस्तुत किया है। राघवेन्द्र शर्मा ने ‘‘विंशशताब्द्यां विरचिताः काव्यशास्त्रीय-शोधप्रबन्धाःः’’ के द्वारा भामह से मम्मट पर्यन्त आचार्यों के काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों पर हुए शोधकार्यों का परिचय दिया गया है।
            अपने 19 लेखों के द्वारा यह ग्रन्थ संस्कृत काव्यशास्त्र के आधुनिक आयामों की विवेचना करता है और चिन्तन के नये द्वारों की सम्भावना भी बनाए रखता है।

Wednesday, May 27, 2020

ग़ालिब की ग़ज़लों का रसास्वादन संस्कृत में - आनन्दग़ालिबीयम्

ग़ालिब की ग़ज़लों का रसास्वादन संस्कृत में - आनन्दग़ालिबीयम्

उर्दू फारसी शायरी का संस्कृत में अनुवाद होता आया है | जगन्नाथ पाठक द्वारा किया गया  ग़ालिब की शायरी का अनुवाद ग़ालिबकाव्यम् के रूप में  प्रकाशित है | देवर्षि कलानाथ शास्त्री ने  भी अपने काव्यसंग्रह कवितावल्लरी में   ग़ालिब, बहादुर शाह जफ़र आदि की शायरी के  कुछ अनुवाद किये हैं| बलराम शुक्ल के काव्यसंग्रहों में भी ऐसे अनुवाद दृष्टिगोचर होते हैं, वे स्वयं फारसी के अच्छे जानकार हैं और फारसी में काव्य भी लिखते हैं | डॉ परमानंद शास्त्री ने दीवान ए ग़ालिब का संस्कृत अनुवाद किया जो उनके निधन के पश्चात प्रकाशित हुआ है | संस्कृत के रसज्ञों के द्वारा इस अनुवाद को सराहा गया है | ब्लॉग के लिए इसका परिचय डॉ सारिका वार्ष्णेय प्रस्तुत कर रही हैं  | हम उनके आभारी हैं-

ग़ालिब की ग़ज़लों का रसास्वादन संस्कृत में - आनन्दग़ालिबीयम्

कृति -आनन्दग़ालिबीयम्

रचनाकार - डॉ. परमानन्द शास्त्री
विधा- अनुवाद
प्रकाशक- हंसा प्रकाशन, जयपुर
संस्करण-प्रथम, 2018
पृष्ठ संख्या - 481

         डॉ. परमानन्द शास्त्री (31/01/1926-08/01/2007) अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय में संस्कृत विभागाध्यक्ष रहे। आपने संस्कृत साहित्य की विविध विधाओं में रचनाएं लिखी। रा. संस्कृत संस्थान से प्रकाशित परमानन्दशास्त्रिरचनावली से ज्ञात होता है कि डॉ. परमानन्द शास्त्री ने जनविजयम् एवं चीरहरणम् (महाकाव्य), गन्धदूतम् (गीतिकाव्य), परिवेदनम् (शोककाव्य), भारतशतकम् (मुक्मतककाव्य), सरसैयदअहमदखांचरितम् (गद्यकाव्य) आदि की रचना की।

     संस्कृत और हिन्दी के साथ डॉ. परमानन्द शास्त्री का  उर्दू और फारसी पर भी समान अधिकार था। आनन्दग़ालिबीयम् मिर्जा ग़ालिब की शायरी के मशहूर संकलन दीवान-ए-ग़ालिब का संस्कृत अनुवाद है। डॉ. परमानन्द शास्त्री ने यह अनुवाद उसी छन्द में किया है जिसमें ग़ालिब की ग़ज़लें निबद्ध हैं। यह अनुवाद एक और दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है कि शायरी का सौन्दर्य बरकरार रखने के लिये अनुवादक ने कई स्थानों पर उर्दू के शब्दों को संस्कृत में यथावत् ले लिया है। इसके कुछ उदाहरण द्रष्टव्य है-


न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता। 
डुबाया मुझको होने ने न होता मैं तो क्या होता ।।

किमपि नासीत् ‘ख़ुदा’ऽऽसीत् चेन्न किञ्चित् ‘ख़ुदा’ अभविष्यत्।
हतोऽहं हन्त भवनात् नोऽभविष्यं चेत् किम् अभविष्यत्।।

यहां ख़ुदा शब्द का यथावत् प्रयोग किया गया है। इसी तरह निम्न शेर में बुलबुल शब्द का संस्कृतीकरण किया जा सकता थ किन्तु उन्होंने इसे यथावत् ले लिया है-

बुलबुल के काराबोर पै है खन्दाहाए गुल
कहते हैं जिसको इश्क खलल है दिमाग का।।

कुसुमानि बुलबुलस्य क्रियाभारमुपहसन्ति।
यत् प्रेम कथ्यतेऽस्ति विक्षेपः स मस्तिष्कस्य।।

डॉ. परमानन्द शास्त्री ने ग़ज़लों के अनुवाद के साथ साथ  उनकी संस्कृत व्याख्या भी की है। यथा-

नक्श फरियादी है किसकी शोखिये-तहरीर का
काग्जी है पैरहन हर पैकरे तस्वीर का ।।

कस्य रचनाचपलताया वादिचित्रं वर्तते।
कार्गदिकपरिधानधृत् प्रत्येकमिह यद् वर्तते।।

‘‘जन्मैव समस्तभवतापानां कारणं भवति। विधिरपि जन्म प्रदाय न शरीधारिणां भद्रं करोति तस्मादेव दुःखार्ता जना विधिं क्रोशन्ति। स्वीयमिदं मन्तव्यं गालिबश्चित्रं प्रतीकं मत्वा अनुपस्थितं तस्य स्रष्टारं चित्रकारमुपालभ्यते। कथयति, कस्य रचनाचपलताया अस्तित्वमागतं दुःखार्तं चित्रं तस्य विरुद्धं न्यायं याचते? तदर्थमेवानेन कार्गदं परिधानं धृतमस्ति। पुराकाले पारसीकदेशे न्यायं याचमाना वादिनः कर्गदरचितवसनं परिधाय न्यायाधीशसम्मुखं गच्छन्ति स्म इति तदानीन्तनः तत्राचारः। सर्वमस्तित्वं दुःखमित्यर्थः।’’


डॉ. परमानन्द शास्त्री ने अनुवाद इतनी सरल प्रवाहपूर्ण रोचक भाषा में किया है कि साधारण संस्कृत जानने वाला भी इसका आस्वादन ले लेता है-

न सुनो गर बुरा कहे कोई
न कहो गर बुरा करे कोई।।

मा श्रुणु चेद् दुर्वदेत् कश्चित्
न कथय दुश्चरेच्चेत् कश्चित्।।

ग़ालिब का संस्कृत अनुवाद स्वागत योग्य है। यह अनुवाद संस्कृतज्ञों को उन ग़ालिब की शायरी का रसास्वादन करा देता है जिन ग़ालिब के लिये स्वयं ग़ालिब कहते हैं-

होगा कोई ऐसा भी कि ग़ालिब को न जाने
शायर तो वो अच्छा है पर बदनाम बहुत है।।

अपि कश्चिदस्ति तादृशो यो ग़ालिबं न वेत्ति।
कविरूत्तमोऽस्ति किन्तु दुर्नामास्ति बहुतरम्।।

परिचायिका- डॉ. सारिका वार्ष्णेय

प्रवक्ता एवं विभागाध्यक्षा-संस्कृत विभाग, वूमेन्स कॉलेज, अलीगढ मुस्लिम वि.वि.
सम्पर्क सूत्र-9719177049

Tuesday, May 26, 2020

शाम्भवी

कृति - शाम्भवी

विधा- काव्यसंग्रह
रचयित्री - पुष्पा दीक्षित
प्रकाशक- रा. संस्कृत संस्थान, दिल्ली
संस्करण - प्रथम, 2012
पृष्ठ संख्या -77
मूल्य- 100 रु.

कवयित्री पुष्पा दीक्षित रचित अग्निशिखा काव्यसंग्रह चर्चित रहा है। इसके कई वर्षों पश्चात् शाम्भवी काव्यसंग्रह रा. संस्कृत संस्थान, दिल्ली की योजना लोकप्रिय साहित्य ग्रन्थमाला -46 के अन्तर्गत प्रकाशित हुआ है। इस काव्यसंग्रह में 33 कविताएं संकलित हैं। प्रथम कविता में कवयित्री कहती हैं-

धरणी विशालमञ्चो नीलं नभो वितानम्।
सूत्रं दधाति शम्भुर्नरिनर्ति शाम्भवीयम्।।
गगनेऽनिले वा सलिलेऽथवा स्थले वा।
प्रतिकणमहो जगत्यां वरिवर्ति शाम्भवीयम्।।


प्रस्तुत काव्यसंग्रह में कवयित्री भारतभूमि की चिन्ता प्रकट करती हैं तो कहीं वर्तमान समय की विडम्बनाओं को अभिव्यक्त करती हैं। कहीं हमारे पौराणिक पात्र नई अर्थवत्ता को लिये पाठक के समक्ष आते हैं तो कहीं विलुप्त होती जा रही विश्वबन्धुता की भावना की गवेषणा का प्रयास किया जाता हैै।
         पुष्षा दीक्षित व्याकरण पर असाधारण अधिकार रखती हैं। वे व्याकरण के विशिष्ट प्रयोगों से काव्य को अलंकृत कर देती हैं |नामधातुओं का कितना सुन्दर उपयोग इस अन्त्यानुप्रास युक्त कविता में किया गया है-

वीतरागता यदा तदा गृहं वनायते।
त्वं प्रतीयसे यदा तदा जगत् तृणायते।।
ये कषायवाससोऽपि मानसे कषायिताः।
ते विशन्ति यत्र तत् तपोवनं रणायते।।

यङ्  प्रत्यय में सभी धातुएं ङित्वात् आत्मनेपदता को प्राप्त होती हैं, वैसे ही भाव व कर्म में भी सभी धातुएं आत्मनेपदी में प्रयुक्त होती हैं। वैसे ही लोक में भी व्यक्ति आत्मार्थ पद ग्रहण करते हैं-

यङ्लुकं प्रपद्य धातुभिः परार्थमाप्यते।
आत्मनः पदं तथैव किञ्जनैन्र हीयते।। 

प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी काव्यसंग्रह के पुरोवाक् में कहते हैं- ‘‘दीक्षितमहोदयानां गीतिषु तीक्ष्णव्यंग्यसंवलिता काव्यार्थसुषमा, वक्रोक्तिविच्छितिः, संस्कृतिमूलार्थसंक्रान्तिः, सांस्कृतिकोऽनुरागः, प्राचीनताप्रीतिः, भाषासौष्ठवं, काकुर्वैदग्ध्यभंगीभणितिश्चेति नैके विशेषा विलसन्ति, प्रथयन्ति च तद्वैशिष्ट्यं साम्प्रतिकसाहित्यसंसारे।’’




Monday, May 25, 2020

संस्कृत ग़ज़लसंग्रह - काक्षेण वीक्षितम्

संस्कृत ग़ज़लसंग्रह - काक्षेण वीक्षितम्
कृति - काक्षेण वीक्षितम्

लेखक - महराजदीन पाण्डेय ‘विभाष’
मोबाइल नम्बर-9451027704
पता-गोण्डा-उत्तरप्रदेश
विधा - ग़ज़ल-काव्य संग्रह
प्रकाशक -ज्ञान भारती पब्लिकेशन, दिल्ली
संस्करण - प्रथम -2004, द्वितीय-2016
पृष्ठ संख्या -119
अंकित मूल्य - 395

         संस्कृत में ग़ज़ल विधा की शुरुआत भट्ट मथुरानाथ शास्त्री से मानी जाती है। इसे गज्जल, गज्जलिका, गलज्जलिका, गीतिका, गजलगीति, द्विपदिका आदि संज्ञाएं भी दी गई हैं। संस्कृत के नये काव्यशास्त्र अभिनवकाव्यालंकारसूत्रम्, अभिराजयशोभूषणम् तथा नव्यकाव्यतत्त्वमीमांसा में इसका लक्षण भी प्रस्तुत किया गया है। महराजदीन पाण्डेय वर्तमान समय के सशक्त ग़ज़लकार हैं।  आप विभाष तखल्लुस से गजले लिखते हैं। महराजदीन पाण्डेय की ग़ज़लों का प्रथम संकलन मौनवेधः 1991 में प्रकाशित हुआ था। काक्षेण वीक्षितम् आपकी ग़ज़लों का द्वितीय संग्रह है।  हाल ही में मध्ये मेघयक्षयोः संवाद काव्य प्रकाशित हुआ है। यहां काक्षेण वीक्षितम् (कनखी से देखना) का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत है-
     महराजदीन पाण्डेय की 32 संस्कृत ग़ज़लों का संकलन काक्षेण वीक्षितम् के रूप में प्रकाशित हुआ है। यहां इन ग़ज़लों का हिन्दी अनुवाद भी स्वयं द्वारा प्रस्तुत कर दिया गया है। साथ ही इन ग़ज़लों के अतिरिक्त 9 कविताएं भी संकलित हैं। महराजदीन पाण्डेय ने उर्दू छन्दशास्त्र में प्रचलित सात बह्रों में ये ग़ज़ले कही हैं, यथा- मफाईलुन मफाईलुन मफाईलुन मफाईलुन। महराजदीन पाण्डेय प्रेम पर आधारित ग़ज़ल ही नहीं कहते, वे ग़ज़ल को सामाजिक सरोकारों से सम्बद्ध करते हुए उसे आज के समय से भी जोड देते हैं। इसका कारण वह पहली ही ग़ज़ल के मतले (गजल का प्रारम्भिक शेर) में कहते हैं-

औरसेनासृजा पोषिता लेखनी।
लोकरागोष्मणा शोधिता लेखनी।। (पृ.सं.12)

अर्थात् लेखनी को हृदय के रक्त से पोसा है। लोकराग की ऊष्मा से इसका शोधन किया है। जिसकी लेखनी हृदय के रक्त से पोषित होगी वह केवल इश्क की बातें नहीं करेगी और न ही हिज्र की रातों के आंसू टपकायेगी। जब दो जून की रोटी के जुगाड में सारी जिन्दगी रीती जा रही हो तो चालाकी कहां से आयेगी-

चिन्तया रोटिकाया हता चातुरी।
तैल लवणस्य योगे गता चातुरी।। (पृ.सं.20)

परमात्मा का अस्तित्व बहस का मुद्दा रहा है, जिस पर दार्शनिक विचारधाराएं अपने अपने मत रखती हैं। लेकिन कवि को इन दार्शनिक विवादों से क्या मतलब, वह तो सीधा सपाट कह देता है कि जो परमात्मा हमारे काल्पनिक प्रमाणों पर टिका हुआ है वह अन्धे की लकडी मात्र है, अतः उसकी चर्चा व्यर्थ है-

अलं तच्चर्चया लगुडो भवेदन्धस्य परमेशः,
श्रितो नः कल्पनासूते प्रमाणे किं त्वया बुद्धम्! (पृ.सं.22)

महराज दीन पाण्डेय राजनीति पर करारा व्यंग्य करते हुए कहते हैं कि गाओ  क्योंकि गाने से दो लाभ होंगे,  गाने से राजा खुश तो होगा ही साथ ही उस निर्दयी राजा को सहन करने की शक्ति भी मिलेगी-

गाय गानेन हृष्यते राजा ।
कालकुटिलोऽपि मृष्यते राजा।।
मतान्यदाम सेवकं चेतुं
संसदा नः प्रदिश्यते राजा।। (पृ.सं.70)

हमने वोट तो दिया था समाज सेवक चुनने के लिये लेकिन संसद ने हमे दिया राजा। इस प्रकार की ग़ज़ले हमें हिन्दी के मशहूर शायर दुष्यन्त का स्मरण कराती हैं। अपने उपनाम (तखल्लुस) विभाष का एक ग़ज़ल के मक़ते में बखूबी प्रयोग करते हुए कहते हैं विभाष की वह भाषा ही क्या जो छीले नहीं, शब्द के हिंडोले को झुलाने वाला भी भला कवि होता है-

या न तक्षति विभाषस्य भाषास्ति का
किं कविः शब्दहिन्दोलकं दोलयन्।। (पृ.सं.24)

Saturday, May 23, 2020

अनूठी अनूदित रचना - आंग्लरोमांचम्



अनुवाद के माध्यम से हम अन्य भाषाओं की रचनाओं का आस्वादन ले सकते हैं | अनेक आलोचक तो यहां तक कहते हैं कि अनुवाद का कार्य मौलिक से कठिन है |  दर असल अनुवाद पुनः सृजन जैसा कर्म है | विश्व की प्रायः सभी भाषाओं में अनुवाद होता आया है | संस्कृत  की कृतियों ने तो अंग्रेजी, जर्मन आदि अनेक भाषाओं में अनूदित होकर सम्पूर्ण विश्व को चमत्कृत कर दिया  | संस्कृत में अब अन्य भाषाओं से अनुवाद भी हो रहा है | साहित्य अकादेमी द्वारा 24 भाषाओं में प्रतिवर्ष अनुवाद पुरस्कार भी दिया जाता है, जिनमे संस्कृत भी सम्मिलित है | यहां अंग्रेजी के कुछ प्रसिद्ध कवियों की कविताओं के अनुवाद के संकलन का परिचय दिया जा रहा है| हमारा प्रयास यह रहेगा कि आपको मौलिक कृतियों के साथ यथा सम्भव अनूदित कृतियों का भी परिचय देते चलें-
अनूठी अनूदित रचना - आंग्लरोमांचम्
कृति- आंग्लरोमांचम्
अनुवादक-डॉ. हरिहर त्रिवेदी
मूल भाषा- अंग्रेजी
मूल लेखक - विविध
प्रकाशक - चौखम्भा ओरियन्टालिया, वाराणसी
संस्करण-प्रथम 1974
पृष्ठ संख्या -81
अंकित मूल्य-15 रू.


अर्वाचीन संस्कृत साहित्य में जहां एक ओर मौलिक कृतियां सर्वादृत एवं समादृत हो रही हैं, वहीं अनूदित कृतियों के माध्यम से भी संस्कृत पुराणी युवती उषा की भांति नित नवीन सुशेाभित होती है। अगर हम विश्व की नहीं केवल भारत की अन्य भाषाओं कि ओर भी देखें तो हम पाते है कि संस्कृत में उतना अनुवाद कार्य नहीं हो रहा जितना अन्य भाषाओं में होता आया है। सम्भवतः इसके दो कारण रहे, पहला यह कि अनेक कारणो के चलते संस्कृत साहित्यकार अन्य भाषायी साहित्य के बहुत कम सम्पर्क में आये, दूसरा यह कि हमने यह सोचा कि हम ही क्यों अनुवाद करें, हमारे ही ग्रन्थों का अनुवाद अन्य भाषाओं में हो। किन्तु कुछ समय से इस क्षेत्र पर साहित्यकारों का ध्यान गया है। न केवल भारतीय भाषाओं की श्रेष्ठ कृतियों का संस्कृत में अनुवाद हो रहा है अपितु विदेशी भाषाओं की रचनाएं भी संस्कृत में रूपान्तरित होती दिखाई देती हैं।
             सन् 1974 में डॉ. हरिहर त्रिवेदी एवं उनके सहायक लक्ष्मीनारायण जोषी ने नौ अंग्रेजी कवियों यथा कीट्स, शैले, वर्ड्सवर्थ, बायरन  आदि की बाईस कविताओं का संस्कृत के पारम्परिक छन्दों यथा द्रुतविलम्बित,  स्रग्धरा, वसन्ततिलका, मन्दाक्रान्ता, शार्दूलविक्रीडित आदि में अनुवाद किया  है। यहां छन्दों के स्वभाव के अनुरूप ही उनका प्रयोग भी किया गया है। इसमें संस्कृत अनुवाद के साथ मूल भाषा में भी कविताएं दी गई हैं|
यहां इन कवियों और उनकी अनूदित कविताओं की सूची भी प्रस्तुत की जा रही है।



कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं-

in a drear-nighted December,
Too happy, happy tree,
Thy branches ne"er remember
Their green felicity

धन्योऽसि यद्धिमऋतावपि निष्प्रभायां
रात्रावपि प्रमुदितोऽसि महीरुह! त्वम्।
यन्नो स्मरन्ति विषमे ह्यधुना तवैताः
शाखा वसन्तसुषमामनुभूतपूर्वाम्।।
(मूल - कीट्स)

Life ! i~ know not what thou art,
But know that thou and i~ must part,
And when, or how, or where we met
i~ own to me"s a secret yet"

जानामि नाहमयि जीवित ते स्वरूपम्
जाने तथापि भविता ननु नौ वियोगः।
आवां कदा क्व च कथं च समागतौ स्वो
ह्येतत् तु सर्वमधुनापि रहस्यमेव।।
(मूल - बारबाल्ड)
  



Wednesday, May 20, 2020

विविधकाव्यसङ्ग्रहः - पं. प्रेमनारायणद्विवेदिरचनावलिः

विविधकाव्यसङ्ग्रहः - पं. प्रेमनारायणद्विवेदिरचनावलिः

पुस्तक- विविधकाव्यसङ्ग्रहः (पं. प्रेमनारायणद्विवेदिरचनावलिः चतुर्थो भागः)
रचयिता- पं. प्रेमनारायण द्विवेदी (राष्ट्रपति पुरस्कृत)
जन्मतिथि- 05 जून 1922
ब्रह्मलीन- 28 अप्रैल 2006
जन्मस्थान- पूर्व्याऊ टौरी, जनता स्कूल के पास, सागर (म.प्र.)
सम्पर्क- श्री सूर्यकान्त द्विवेदी (कवि के पौत्र, संस्कृत शिक्षक) मो. 88273 18716
प्रकाशक- राष्ट्रिय संस्कृत संस्थानम्, नई दिल्ली
सम्पादक- डॉ. ऋषभ भारद्वाज 
आईएसबीएन- 978-93-85791-02-4
पृष्ठ संख्या- 238
अंकित मूल्य- 180रू.
संस्करण- 2017 प्रथम

कवि- सत्साहित्य के अध्येता और अनुवाद विधा के पारंगत कवि पं. प्रेमनारायण द्विवेदी ने 21000 संस्कृत पद्यों की रचना कर संस्कृत साहित्य को समृद्ध किया है। उन्होंने हिन्दी के प्रायः सभी बड़े कवियों की रचनाओं को संस्कृत में अनूदित किया है। पं. द्विवेदी संस्कृत काव्य परम्परा के गंभीर अध्येता थे लेकिन उन्होंने विदेशी सत्साहित्य को पढ़ा, समझा और परखा था। काशी वास के समय उन्होंने स्वामी करपात्री जैसी विभूतियों को देखा-सुना था। विभिन्न शास्त्रों का उन्होंने जिन गुरुओं से ज्ञान प्राप्त किया उनके प्रति वे आजीवन कृतज्ञ बने रहे। कुछ समय उन्होंने विरक्त संसार से विरक्त होकर यायावर जीवन जिया था। संस्कृत में अनुवाद करना उन्हें अच्छा लगता था, यही उन्होंने जीवन भर किया भी। उनकी रचनाएं विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं। वे पारम्परिक पण्डित थे किन्तु आधुनिकता को निरखते, परखते और भली-भाँति बूझते थे। भारतीय ज्ञान-परंपरा के मौन साधक द्विवेदी जी की अनुवाद कार्य में प्रवृत्ति ‘स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा’ की तरह थी। उनका अधिकतर साहित्य मृत्यूपरांत प्रकाशित हुआ। राष्ट्रपति पुरस्कार (2005 ई.) और साहित्य अकादमी, दिल्ली का अनुवाद पुरस्कार (2009 ई.) प्रमुख पुरस्कार हैं जो उन्हें मिले।




पुस्तक- राष्ट्रिय संस्कृत संस्थानम्, नई दिल्ली की लोकप्रिय साहित्य ग्रन्थमाला के अन्तर्गत क्रमांक-83 पर विविधकाव्यसङ्ग्रहः ग्रन्थ प्रकाशित है। भूमिका के रूप में संस्थान के कुलपति और प्रधान संपादक प्रो. परमेश्वर नारायण शास्त्री का पुरोवाक्, कवि-परिचय और सम्पादक डॉ. ऋषभ भारद्वाज का प्रास्ताविक है। इस ग्रन्थ में चार खण्ड हैं जिनमें भारतीय और विदेशीय कवियों के काव्यों के संस्कृत पद्यानुवाद प्रकाशित हैं। द्विवेदी जी ने प्रतिष्ठित कवियों के काव्यों का ही अनुवाद किया है जो उनकी साहित्यिक रुचि का भी परिचायक है। अनुवाद के लिए चुने गये काव्य भी अनुवादक की साहित्यिक रुचि को प्रकट करते हैं। द्विवेदी जी के अनुवाद में मूल काव्य का रसास्वाद किया जा सकता है। कहीं कहीं मूलकाव्य की लय में ही अनुवाद को भी पढ़ा जा सकता है। अनुवाद करने का उद्देश्य लोकप्रसार है अतः भाषा इतनी सरल है कि जिन पाठकों को प्रसंग पहले से ज्ञात है, वे संस्कृत में मूलकाव्य के अर्थ तक पहुँच सकते हैं। कहीं तो अनुवाद मूल से भी बेहतर प्रतीत होता है। सहृदय स्वयं मूल व अनुवाद का एक साथ आस्वाद कर इसका अनुभव कर सकते हैं। संस्कृत के विशाल शब्दकोष के ज्ञान से द्विवेदी जी के लिए अनुवाद कार्य सुकर रहा।

प्रथम खण्ड- रहीमकाव्यसुषमा
इस खण्ड में रहीम की रचनाओं के पं. प्रेमनारायण द्विवेदी कृत संस्कृत पद्य अनुवाद दोहावली, रहीम-सोरठा, रहीमशृङ्गारसोरठा, रहिमनवरवै, नगरशोभा, घनाक्षरीछन्दांसि प्रकाशित हैं। रहीमकाव्यसुषमा पर द्विवेदी द्वारा लिखित पाँच पृष्ठ का निवेदनम् भी आरम्भ में छपा है। मूलकाव्य और अनुवाद का एक साथ पाठ साहित्यरसिकों को अपूर्व मनस्तोष प्रदान करता है।

कहु रहीम कैसे बने, केर बेर को संग।
वे रस डोलत आपने, इनके फाटत अंग।। 

पं. प्रेमनारायण द्विवेदी कृत अनुवाद-

कदलीबदरीसङ्गः कथं क्षेमाय कल्पते।
दोलायते रसेनैका विदीर्णाङ्गी तथापरा।। 

रहीमदोहावली, श्लोक 34

द्वितीय खण्ड- अश्रुकाव्यम्
इस खण्ड में जयशंकर प्रसाद के ‘आँसू’ काव्य का पं. प्रेमनारायण द्विवेदी कृत संस्कृत पद्य अनुवाद अश्रुकाव्यम् प्रकाशित है। घनीभूत पीड़ा का काव्य के माध्यम से प्रकटीकरण है- आँसू काव्य। अनुवादक द्विवेदी जी मूलकाव्य में विद्यमान भावप्रवणता को संस्कृत में उतारने में सफल रहे हैं।

जो घनीभूत पीड़ा थी, मस्तक में स्मृति सी छाई।
दुर्दिन में आँसू बनकर, वह आज बरसने आई।।

पं. प्रेमनारायण द्विवेदी कृत अनुवाद-

सा मे पीडा घनीभूता, मस्तके स्मृतिवत् स्थिता।
दुर्दिने बाष्पधारेवाधुना वर्षितुमागता।

अश्रुकाव्यम्, 20

तृतीय खण्ड- स्फुटकाव्यानि
इस खण्ड में मीरा, सुन्दरदास, जगन्नाथ, कबीर, महादेवीवर्मा, नारायण स्वामी, रसखान, हठी, आनन्दघन, रविदास, बुद्ध, सुकरात, कन्फ्युशियस, आंगस्टाइन और एमरसन के काव्य और सद्वचनों के पं. प्रेमनारायण द्विवेदी कृत संस्कृत पद्य अनुवाद प्रकाशित हैं।

निंदक नियरे राखिए आँगन कुटी छवाय।
बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।।

पं. प्रेमनारायण द्विवेदी कृत अनुवाद-

समीपं निन्दकं रक्ष कारयित्वाङ्गणे कुटीम्।
विना तोयं विना फेनं स्वभावं क्षालयत्यसौ।। 

विविधकाव्यसङ्ग्रहः, पृ. 104

चतुर्थ खण्ड- गद्यम्
इस खण्ड में सात आलेख हैं। इनमें पं. प्रेमनारायण द्विवेदी का साहित्य-समीक्षक रूप दृष्टिगोचर होता है। आलोचना पर उनकी लेखनी कम ही चली किन्तु उनके समीक्षा के मानदण्ड उच्च थे। वे रामायण को काव्य का आदर्श रूप मानते थे। उन्होंने ‘भारतीयकाव्यशास्त्रपरम्परा प्रयोजनं सौन्दर्यञ्च’ लेख में रामायण के लिए लिखा है-
 ‘काव्यमिदं गभीरं समग्रकाव्यगुणसम्पन्नम् अतिमधुरं च वर्तते।’ विविधकाव्यसङ्ग्रहः, पृ. 224


असिस्टेंट प्रोफेसर -डॉ हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय 
मोबाइल नम्बर - 9826151335
मेल आईडी - dr.naunihal@gmail.com

Tuesday, May 19, 2020

संस्कृत में भूत प्रेत कथाओं की अवतारणा - नरेन्द्रपुरीयं रेलस्थानकम्

संस्कृत में भूत प्रेत कथाओं की अवतारणा - नरेन्द्रपुरीयं रेलस्थानकम्
कृति - नरेन्द्रपुरीयं रेलस्थानकम्

विधा -कथा
रचयिता - नारायण दाश
मोबाइल नम्बर - 9432469547
प्रकाशक - कथा भारती , प्रयाग
संस्करण - प्रथम 2015
अंकित मूल्य -200
पृष्ठ संख्या -87

मानव-जाति का सम्पूर्ण वाङ्मय आद्यन्त कथा-साहित्य से भरा पडा है। इसका कारण यह रहा है कि जहां कथा-साहित्य भरपूर मनोरञ्जन करता है वहीं दैनिक व्यवहार में उदाहरण बनकर पथप्रदर्शन भी करता है। कथा कहने-सुनने की हमारी प्रवृत्ति इतनी प्रबल, इतनी लोकप्रिय रही है कि प्रत्येक मनुष्य के स्मृति-पटल पर आज भी दादी-नानी की कहानियां अङ्कित हैं। कभी गावों में चौपालों पर कथाश्रावक एवं उनके इर्द-गिर्द बैठे श्रोताओं के दृश्य आम थे। राजा तो अपने दरबार में किसी एक कथावाचक-विशेष की भी नियुक्ति करता था। संस्कृत साहित्य में जिस ‘विदूषक’ का उल्लेख नाटकों में होता आया है, वह तथा ऐंग्लो-सैक्सन राजसभाओं में ‘ग्लीमैन’ नामक विनोदी स्वभाव के व्यक्ति कथाओं को राजसभाओं में सुनकर अन्यों को सुनाते थे।
          जहां तक कथा-साहित्य की उत्पत्ति का प्रश्न है, तो इसका श्रेय भी अन्य साहित्य रूपों के समान ही भारत को जाता है। भारत में प्रचलित कथा कहने की शैली असीरिया हाती हुई यूनान तक पहुंची थी, इस के प्रमाण उपलब्ध हैं। बौद्धसाहित्य में प्रचलित ‘अवदान’ नामक नीतिकथाओं का प्रसार सम्पूर्ण विश्व में हुआ। संस्कृत भाषा के समृद्ध कथा साहित्य से कौन कथा-रसिक परिचित नहीं होगा? प्राचीन समय में कथा के दो ही रूप प्रचलित हुए थे- आख्यायिका एवं कथा, जो उसके इतिहास पर अथवा कल्पना पर आधारित होने के कारण निर्धारित किये गये थे। कालान्तर में कथा-साहित्य के अन्य भेद भी प्रचलित हुए, यथा- पौराणिककथा, दृष्टान्तकथा, लोककथा, परीकथा, नीतिकथा, हास्यकथा, जातककथा, दन्तकथा, धूर्तकथा आदि। ये कथा-भेद विषय-वस्तु पर आधारित रहे हैं।  कथा-साहित्य ने पौराणिककथाओं के माध्यम से विश्वोत्पत्ति से सम्बन्धित जटिल प्रश्नों आदि का समाधान करने का प्रयास किया तो परीकथाओं के माध्यम से दादी-नानी ने बालकों का मनोरञ्जन भी किया। नीतिकथाओं के द्वारा नैतिक उपदेश दिये तो ऐतिहासिककथाओं के द्वारा हमारे गौरवमयी इतिहास पर पुनर्दृष्टि भी डाली।
                 कथा-साहित्य के क्षेत्र में संस्कृत भाषा के योगदान से सभी आलोचक, प्रशंसक परिचित हैं। साहित्य के आदिम युग से वर्तमान युग तक संस्कृत भाषा का कथा साहित्य पाठकों, श्रोताओं के स्मृति-पटल पर अपनी अमिट छाप छोडने में सक्षम रहा है। इधर, अर्वाचीन संस्कृत कथा साहित्य में प्रयोगधर्मी गद्यकारों के द्वारा  नवीन प्रयोग किये जा रहे हैं, जिससे अर्वाचीन संस्कृत कथा-साहित्य संस्कृतेतर भाषायी कथासाहित्य के साथ प्रतिस्पर्धा कर रहा है। ऐसे ही प्रयोगधर्मी गद्यकारों में डॉ नारायण दाश का नाम अग्रगण्य है। ‘गङ्गे च यमुनैव च’ तथा ‘लज्जा’ नामक कथासंग्रहों से अर्वाचीनसंस्कृतकथासाहित्य में अपनी पहिचान बनाने वाले डा. नारायण दाश अनुवाद-कार्य के द्वारा भी संस्कृतकथासाहित्य को समृद्ध करते आये है। आपके मौलिक संस्कृत कथा संग्रह ‘हत्याकारी कः’ को संस्कृत कथा साहित्य का प्रथम स्पशकथासंग्रह ;जासूसी कथा संग्रह होने का गौरव प्राप्त है।

                       प्रस्तुत कथा संग्रह ‘नरेन्द्रपुरीयं रेलस्थानकम्’ के माध्यम से आप संस्कृत कथा साहित्य में भूत-प्रेत कथाओं का प्रवेश करवा रहे हैं, जिन्हें आंग्ल भाषा में हाॅरर स्टोरिज या घोस्ट स्टोरिज के नाम से जाना जाता है। यद्यपि प्राचीन संस्कृत कथाओं में कहीं-कहीं भूत-प्रेतों  का वर्णन उपलब्ध हो जाता है किन्तु जिस रूप में आज विश्व के अन्य भाषायी कथासाहित्य में हाॅरर स्टोरिज प्रचलित है, वैसा रूप देखने का नहीं  मिलता है।
             हाॅरर स्टोरिज में या तो भूत-प्रेत सम्मिलित होते हैं या फिर उन पर विश्वास दिखलाया जाता है। आम बोलचाल की भाषा में हम इन्हें डरावनी कहानियां कहते हैं। ये कथाएं ऐसे वातावरण की सृष्टि करती हैं कि पाठक, श्रोता को भय सा अनुभव होने लग जाता है। भूतों में विश्वास प्रायः विश्व की सभी सभ्यताओं, संस्कृतियों में पाया जाता रहा है। अतः यह स्वाभाविक ही है कि भूत-प्रेत कथाएं भी मौखिक या लिखित किसी न किसी रूप में प्रत्येक कालखण्ड में प्रचलित रहीं। सर वाल्टर स्काॅट का नाम हाॅरर स्टोरिज के लिये आदर के साथ लिया जाता है। जैन सुलिवन की हाॅरर स्टोरिज को तो कई आलोचकों ने ‘‘भूत की कहानी का स्वर्ण युग’’ तक कहा है। सन् 1900 में लुगदी पत्रिकाओं के प्रारम्भ के साथ विदेशों में भूत कथाओं के प्रकाशन का नवीन मार्ग प्रशस्त हुआ। 20 वीं सदी में हाॅरर स्टोरिज के लिये प्रभावशाली कथाकार के रूप में जेम्स का नाम लिया जाता है।
          संस्कृत   कथा साहित्य  में 10 कथाओं के माध्यम से डा. नारायण दाश ने भूत-प्रेतकथाओं की अवतारणा कर अर्वाचीन कथाकारों के लिये नवीन मार्ग प्रशस्त किया है।  संग्रह की सभी दस कथाएं अपने उद्देश्य में सफल होती हैं। इनको पढते हुए पाठक के मन-मस्तिष्क में भय का वातावरण निर्मित हो जाता है। कहीं सुनसान रेलवे स्टेशन का वर्णन भय उत्पन्न करता है तो कहीं मारकर जल में फैंकी गई युवती की प्रेतात्मा का प्रतिशोध पाठक को न केवल भय के वातावरण में ले जाता है अपितु पीडिता के साथ सहानुभूति की भावना भी उत्पन्न करता है। एक कथा में चित्रकार के चित्र के कारण विचित्र स्थिति का वर्णन है तो एक कथा में तान्त्रिक साधना पर आस्था की विजय वर्णित की गई है। ‘चालकहीनं यानम्’ कथा चलचित्र की भांति पाठक के समक्ष चलती है। एक -दो उदाहरण द्रष्टव्य हैं-

द्वितीयवारं प्रश्नं श्रुत्वा छाया स्थगिता | तस्या: कृष्णमुखे अन्धकारस्य आभा विलग्ना | सा अहसत् | हतवाग् जातः श्रीनाथ: | अज्ञाता, अपरिचिता, पुनश्चास्मिन् निर्जनप्रान्तरे रात्रे: गाढ़ान्धकारे  परपुरुषं दृष्ट्वा विहसति | किमिवैषा कन्या ? नष्टा तु नास्ति | अथवा डाकिनी काचिदेवमेवं पुरुषान् आहरति | मस्तिष्कं तस्य अज्वलत् | अन्तत: किमनेन कन्याभ्रमेण रात्रिर्यापनीया स्यात् |
(पृष्ठ संख्या - 31) 

पुनश्च रात्रौ द्वादशवादनम् | ऋता जागरिता एव शयानासी त् | दूरतः श्रूयमाण: करुणरव: क्रमशः निकटायते | भीता सा मनाक् नेत्रे उन्मीलितवती | आम्, सैव कन्या अद्यापि तस्या: पिहितप्रकोष्ठे प्रविष्टास्ति | सकरुणं रुदती सा शय्यालग्ना जाता |
 (पृष्ठ संख्या -39)

               डा. नारायण दाश अपनी कथा शैली के माध्यम से पाठक को कथा के साथ बांधे रखते हैं, जो कि उनकी सफलता है। कथा के आरम्भ के साथ ही पाठक उससे जुड जाता है और कथा में आगे क्या होने वाला है, इसके प्रति उसकी उत्सुकता बराबर बनी रहती है।  इस कथा संग्रह के माध्यम से संस्कृत कथा साहित्य में नये वातायन उद्घाटित होंगे। 

Monday, May 18, 2020

मूको रामगिरिर्भूत्वा - आधुनिक संस्कृत उपन्यास

मूको रामगिरिर्भूत्वा - आधुनिक संस्कृत उपन्यास

हर्षदेव माधव संस्कृत के प्रयोगधर्मी कवि हैं | उनकी कविताएं इस का प्रमाण हैं | पद्य काव्य के साथ साथ माधव जी ने नाट्य और गद्य में भी अभिनव प्रयोग किये  हैं | मूको रामगिरिर्भूत्वा उपन्यास संस्कृत उपन्यास परम्परा में अनूठा है |  इस उपन्यास में कालिदास के काव्य मेघदूत की कहानी को आधार बनाया गया है  किंतु इसका यक्ष माधव जी का अपना यक्ष है, जो उनकी मौलिक कल्पना शक्ति से उद्भूत है | प्रो राधावल्लभ त्रिपाठी ने इसे अन्यच्छाया सौंदर्य का अनुपम उदाहरण बताया है |  यह डायरी शैली में लिखा गया है , जिसमें तिथियां भारतीय मासानुसार अंकित हैं | माधव जी ने डायरी के लिए वासरिका शब्द का प्रयोग किया है, इस उपन्यास का एक नाम यक्षस्य वासरिका भी प्रचलित है | पुस्तक में डॉ मंजुलता शर्मा जी द्वारा किया गया हिन्दी अनुवाद भी साथ में दिया गया है, जो इसकी सहृदयसंवैद्यता में वृद्धि करता है | डॉ रीता त्रिवेदी जी इस उपन्यास का परिचय हमारे लिए प्रस्तुत कर रही हैं, एतदर्थ हम उनके आभारी हैं | वस्तुतः उन्होंने इस उपन्यास में निहित नारी विमर्श को बहुत सूक्ष्मता से स्पर्श करते हुए रेखांकित किया है |

कृति - मूको रामगिरिर्भूत्वा (यक्षस्य वासरिका)

विधा - उपन्यास
रचयिता - डॉ. हर्षदेव माधव  
Isbn 81-86111-64-6
संस्करण - प्रथम 2008
मूल्य - 110
पृष्ठ संख्या- 198
प्रकाशक- राष्टीय संस्कृत संस्थान, दिल्ली

             आधुनिक संस्कृत साहित्य में यक्षस्य वासरिका (मूको रामगिरिर्भूत्वा) का महत्त्वपूर्ण स्थान है। डॉ हर्षदेव माधव रचित यह उपन्यास दैनन्दिनी (डायरी) के रूप में लिखा गया है जो 165 पृष्ठों में निबद्ध है। डॉ. हर्षदेव माधव संस्कृत कविता में विशिष्ट सार्थक प्रयोगों के लिए प्रसिद्ध है, किन्तु इस उपन्यास में कवि की गद्यलीला पद्य के मनोहारी शिखरों को छू कर चलती है।
                           कालिदास कृत मेघदूत की कथा के अनुसार शापग्रस्त यक्ष पृथ्वी पर आता है। एक साल पृथ्वी पर रहता है। लेकिन इस एक साल में यक्ष की संवेदना या कार्य का आलेखन अप्राप्य है, जो इस उपन्यास में प्राप्त होता है। समग्र कथा चार विभागों में फैली है- श्याममेघ, अरुणमेघ, रक्तमेघ और सुवर्णमेघ

          यहां देव, असुर, प्रेत, प्राकृतिकसत्ता, मानव, पशु सब पात्र स्वरूप बन कर प्रकट हुए हैं। नायक की संवेदनाओं का निराशा से आशा और आशा से विजय तक का अभूतपूर्व आलेखन हुआ है, साथ ही नायक के पुरुषार्थ और अन्तर्द्वन्द्व का मनोवैज्ञानिक चित्रण भी किया गया है।
यथा -
कार्तिकशुक्लद्वितीया-
अधुना नास्ति मम समीपे पृथ्वी, नास्ति अलका। त्रिशंकुवद् अन्तराले स्थितोऽस्मि। अलकां त्यक्त्वा मया न किंचिद् हारितम्, ऋते तव प्रीतेः, किन्तु अर्जितं बहु बहु। भोगपरायणे मे जीवने परमसुखं प्राप्तम्। अधुना त्वलकां गत्वा  किं करिष्यामि? यत् स्वातन्त्र्यं मया प्राप्तं तत् नाशयितुं मम मनीषा नास्ति। 
पुनरपि चक्रवाकचीत्कारयुक्ता रात्रिः समागताः। 
 
      नायक के पात्र से लेखक यह सन्देश देने में सफल रहे हैं कि सबसे बडा पराक्रम, सबसे बडा पुरुषार्थ है अपने मन को जीतना।
                             नायिका के पात्र लेखन में लेखक ने भारतीय नारी का विशिष्ट चित्रण किया है, जिससे यह कथा भारतीय संस्कृति गान की कथा बन जाती है। नायिका पार्थिवी मानवकन्या है। उसे अपना पूर्वजन्म याद है और वह यक्ष को अपने पूर्वजन्म के पति के रूप में पहचानती है। पृथ्वी पर दुःखी होकर घूम रहे यख को पार्थिवी शनैः शनैः सहारा देती है। लेकिन अपनी पहचान वह प्रकट नही होने देती। अपना परिचय वह बहुत देर बात देती है। वेदना के कारण अपाहिज जैसे यक्ष को नायिका पृथ्वी का महत्त्व, जीवन का सौन्दर्य, श्रेय और प्रेय तथा स्वतंत्रता का महत्त्व सीखाती है। यक्ष को वह सतत अप्राप्त की प्राप्ति के लिये प्रेरित करती है। फिर भी वह अपना व्यक्तित्व मुखरित नहीं होने देती जैसे भारतीय नारी। अन्त में यक्ष पृथ्वी को, पृथ्वी पर व्याप्त मानव जीवन के महत्त्व को पहचान कर अलका नगरी में नहीं जाता, पृथ्वी पर ही रह जाता है।
    इस तरह प्राचीन परिवेश, प्राचीन कथानक के माध्यम से लेखक ने एक विशिष्ट कथा का निर्माण किया है।

डॉ. रीता त्रिवेदी

गुजराती, संस्कृत, हिन्दी भाषाओं में कविता, कथा, समीक्षा आदि में विशेष लेखन
मोबाइल नम्बर- 9429089552

Sunday, May 17, 2020

मलालाचरितम् - स्त्री-शिक्षा के महत्त्व का काव्य

मलालाचरितम् - स्त्री-शिक्षा के महत्त्व का काव्य
कृति - मलालाचरितम्
कृतिकार – प्रो. रवीन्द्र कुमार पण्डा 
प्रकाशक – अर्वाचीन संस्कृत परिषद्, बडोदरा  
प्रथम संस्करण 2017 
मूल्य- 150  रू.
पृष्ठ-70

प्रतिभा किसी किसी की मोहताज नहीं होती । इसके लिए धर्म जाति, लिंग और आयु  कोई मायने  नहीं रखता । समय उसे ही स्मरण करता है जो लोगों द्वारा बने बनाए मार्ग से हटकर कुछ अलग करते हैं । मलाला युसुजई इसी प्रकार की एक बालिका है जिसने लीक से हटकर कुछ अलग किया । इसलिए अफगानिस्तान ही नहीं संपूर्ण विश्व उसे जानता और पहचानता है । उसी निडर और निर्भीक बालिका के जीवनचरित्र पर आधारित काव्य का प्रणयन किया है डॉ. रवीन्द्र कुमार पण्डा ने अपने ‘मलालाचरितम्’ काव्य में ।
  इस काव्य में कवि ने अपनी काव्य प्रतिभा का बहुत ही सुंदर परिचय दिया है । कवि ने कहीं पर विद्या की अधिष्ठात्री माँ सरस्वती की वंदना की है, तो कहीं मित्रता के महत्व को बताया है । कवि ने नारी शिक्षा पर भी जोर दिया है । उसने ऐसे माता-पिता की प्रशंसा की है जो अपने बच्चे को शिक्षित तथा निडर बनाते हैं । कहा भी गया है

माता शत्रु: पिता वैरी येन बालो न पाठित:
न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा ॥

स्त्रियों को कुछ रूढिवादी आज भी पुरुष के हाथ की कठपुतली के रुप में देखना पसन्द करते हैं । उनको लगता है कि अगर नारी ने घर के बाहर कदम निकाला तो हमारा वर्चस्व समाप्त हो जाएगा ।  हमारे उस झूठ का पर्दाफाश हो जाएगा जिसकी आड़ में हम अनैतिक कृत्य करते हैं । कवि ने स्त्री को हाशिए से उठाकर मुख़्यधारा में लाने का प्रयास किया है और इसमें वह सफल भी हुआ है ।

स्त्रीणां मनोदशामनोदशां दृष्ट्वा तथा च निनिकबप्रथाम् ।
कृष्णांगकृष्णांगवरणं चैव स भवति स्म कातर: ॥

कवि कहता है कि शिक्षित नारी एक नहीं बल्कि दो कुलों का उद्धार करती है । इसी बात को  राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने अपने शब्दों में इस प्रकार कहा था कि – “एक आदमी को पढाओगे तो एक व्यक्ति शिक्षित होगा | एक स्त्री  को पढ़ाओगे तो पूरा परिवार शिक्षित होगा ।’’

अस्माकं  संस्कृते शास्त्रे तनयां दुहितेति च ।
कथ्यते कारणं यस्मात् सा कुलद्वयतारिणी ॥

कवि का मानना है कि शिक्षा सबके लिए आवश्यक है वह जितना पुरुष के लिए आवश्यक है उतना ही स्त्री के लिए भी ।
        पाकिस्तान और अफगानिस्तान की स्त्रियों की दशा का वर्णन करते हुए कवि ने लिखा है कि वहाँ पर स्त्री शिक्षा आज भी न के बराबर है । अशिक्षा के कारण वहाँ की स्त्रियाँ अपनी आवाज नहीं उठा सकती । पुरातंपथी और रूढिवादी धर्मगुरु उनको जितना बताते हैं वे उतना ही जानते समझते हैं । उनकी अपनी स्वयं की कोई नहीं सोच है और न ही स्वयं का कोई विचार । तालिबानी आतंकियों के कारण वे अपने घरों में सदैव कैद रहती हैं ।

बन्दिनीव गृहे स्थित्वा या यापयन्ति ।
पुरुषाणां बलैर्बद्धा भवन्ति स्म प्रतिक्षणम् ॥ 
जीवन्ति कुदशापन्ना: शोषिताश्चापमानिता ।
अशिक्षिता रमण्यो या भयव्याघ्रविदारिता: ॥ 
 तालिबानभयव्याघ्रो यथा गर्जति भूतले ।
प्रभावेण सदा यस्य दु:खिन्य: सन्ति बालिका ॥ 

‘शिक्षक उस मोमबत्ती के समान है जो स्वयं जलकर दूसरों को प्रकाश देता है’ इसका उदाहरण मलाला की शिक्षिका मैडम मरियम हैं । लोग आज शिक्षक को चाहे जो कहें परंतु आज भी यह सत्य है कि समाज में अच्छे शिक्षकों की कमी नहीं है । मलाला के इस समाज सेवा रुपी कार्य में अप्रत्यक्ष रुप से मरियम का बहुत बड़ा योगदान रहा है । 

उच्चविद्यालये तस्या आसीच्चोत्तमशिक्षिका ।
स्वतन्त्रा शेमिषीयुक्ता मरियंनामधारिणी ॥  

विद्या की महत्ता बताते हुए कवि कहता है कि विद्या के बिना इस जगत में कुछ भी संभव नहीं है । इसलिए प्रत्येक मनुष्य को विद्या अवश्य ग्रहण  करनी चाहिए । विद्या ही सारे सुख और ऐश्वर्य की प्राप्ति का साधन है ।

वित्तं विद्यासमं नास्ति न वै विद्यासमो मणि: ।
नहि विद्यासमा शक्तिर्विद्या परमदेवता ॥ 
विद्यासमो न शोभते निर्गन्धा  इव किंशुका ।
आहारभोगनिद्रासु नित्यं ये सन्ति संयुता: ॥    

मलाला ने सदैव पर्दा प्रथा तथा रूढ़िवादिता और दकियानूसी विचारधारा का  हमेशा विरोध किया । इस परिणाम यह हुआ कि उसे गोली तक मारा गया । परन्तु ईश्वर की कृपा से वह बच गयी ।
अनुष्टुप्, शार्दूलविक्रीडित, त्रोटक, युग्मकम् आदि छ्न्दों में निबद्ध यह काव्य पाठक को शुरू से अन्त तक बाँधे रखने की सामर्थ्य रखता है ।  इसके लिए कवि साधुवाद के पात्र हैं । उन्हें भविष्य के लिए अशेष शुभकामनायें । 

डॉ अरुण कुमार निषाद

सम्पर्क -08318975118
Mail id- arun.ugc@gmail.com



Saturday, May 16, 2020

प्रो. विश्वनाथभट्टाचार्यस्य विचारबिन्दवः

प्रो. विश्वनाथभट्टाचार्यस्य विचारबिन्दवः


पुस्तक- प्रो. विश्वनाथभट्टाचार्यस्य विचारबिन्दवः
लेखक- प्रो. विश्वनाथ भट्टाचार्य (राष्ट्रपति पुरस्कृत)
जन्म- 19 अगस्त 1930
मृत्यु - 04 दिसंबर 2019
जन्मस्थान- काशी (उ.प्र.)
प्रकाशक- किशोर विद्या निकेतन, वाराणसी
सम्पादक- डॉ. वत्सला, एसो.प्रोफेसर, राजकीय महाविद्यालय, झालावाड़ (राज.) 
आईएसबीएन- 978-93-84299-80-4
पृष्ठ संख्या- 406
अंकित मूल्य- 800रू.
संस्करण- 2016 प्रथम

लेखक-
      सर्वविद्या की राजधानी काशी में पारंपरिक पण्डित परिवार में जन्मे, संस्कृत वाङ्मय के गंभीर अध्येता और हिन्दी, बांग्ला, संस्कृत और अंग्रेजी के ज्ञाता प्रो. विश्वनाथ भट्टाचार्य सागर विश्वविद्यालय सागर (म.प्र.) और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी (उ.प्र.) में संस्कृत के आचार्य रहे। प्रो. भट्टाचार्य युवावय में विश्वविद्यालय में नियुक्त हुए और प्रिय शिक्षक के रूप में आजीवन शिष्यों के ‘गुरुजी’ बने रहे। वे ‘‘आचार्य’’ होकर जिये। कालिदास की ‘आकारसदृशप्रज्ञः प्रज्ञया सदृशागमः’ यह उक्ति उन पर चरितार्थ होती थी। उन्होंने पैतृकपरंपरा से, विद्यार्थी जीवन में गुरुजनों से और बाद में स्वाध्याय से जो ज्ञान पाया, उसको सरल से सरल रूप में अपने विद्यार्थियों को हृदयंगम करा देने का उनका सामर्थ्य अद्भुत था। मर्यादित हास्य के साथ उदाहरणों और संस्कृतेतर साहित्य के कथानकों से पाठ्य का दृश्य उपस्थित कर देने की उनकी अध्यापन शैली अनुकरणीय है। साहित्य लेखन की अपेक्षा उनका सहज रुचिकर कार्य अध्यापन था। अध्ययन और अध्यापन की सहज प्रक्रिया के अन्तराल में जो कुछ लेखन के द्वारा व्यक्त हुआ है, वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है और उस पर भी शिक्षकीय प्रभाव झलकता है। उनके निर्देशन में साठ से अधिक शोधार्थियों ने शोधकार्य किया। नाट्य एवं रंगमंच से भी उन्हें लगाव रहा। संस्कृत सेवा के लिए उन्हें 2016 ई. में राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त हुआ।



पुस्तक-
 प्रो. विश्वनाथ भट्टाचार्य ने अर्जित ज्ञान को सरल रूप में विद्यार्थियों तक पहुँचाया और यथावसर लेखनी से निबद्ध भी किया। उनके लेखन कार्य को पुस्तकाकार में सम्पादित करने का महनीय कार्य करने वाली डॉ. वत्सला ने उनके निर्देशन में पीएच. डी. उपाधि प्राप्त की है। पुस्तक के आरम्भ में प्रो. भट्टाचार्य के ही शिष्य प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी, पूर्व कुलपति का नान्दीवाक्, प्रो. रमेशकुमार पाण्डेय, कुलपति, दिल्ली की प्ररोचना, प्रो. गोपबन्धु मिश्र, कुलपति श्रीसोमनाथ वि.वि. का पुरोऽभिमत और संपादिका की भूमिका हैं। संपादिका ने मोतियों की तरह बिखरे पड़े अपने श्रद्धेय गुरुजी के आलेखों को श्रमपूर्वक पिरोकर संस्कृत जगत् के लिए यह पुस्तक रूपी एकावली समर्पित की है, इसके लिए वे अभिनन्दनीय हैं। इस पुस्तक में पाँच अध्याय हैं। प्रथम अध्याय में प्रो. विश्वनाथ भट्टाचार्य का वैयक्तिक एवं साहित्यिक परिचय है। द्वितीय अध्याय में हिन्दी भाषा में लिखित नौ शोधपत्र हैं। इनमें से चार कालिदास, भवभूति, बाणभट्ट और रवीन्द्रनाथ टैगोर कवियों पर हैं। अन्य रस सम्प्रदाय, नाट्य साहित्य के मूल तत्त्व, पुराण चिन्तन, गोपीनाथ कविराज और चैतन्य महाप्रभु पर हैं। तृतीय अध्याय में संस्कृत में लिखित बारह शोधपत्र हैं। इनमें सात साहित्यशास्त्रीय विषयों पर, दो कालिदास पर, दो जवाहरलाल और गोपीनाथ कविराज पर और एक संस्कृत विद्या पर हैं। चतुर्थ अध्याय में अंग्रेजी भाषा में लिखित तेरह शोधपत्र हैं। इनमें से छः काव्यशास्त्रीय विषयों पर, तीन कालिदास पर, दो संस्कृत भाषा पर, एक गोपीनाथ कविराज पर और एक काशी में बंगाली उत्सवों का परिचय कराने वाला है। पंचम अध्याय में तीन भाग हैं। प्रथम भाग ग्रन्थसमालोचन के अन्तर्गत डॉ. वेंकट राघवन् के नौ ग्रन्थों और सोलह अन्य ग्रन्थों की समीक्षा की गयी है। द्वितीय भाग में संस्कृत कविता हैं। कालिदास पर दो कविताएं, अन्य कविताओं में- संस्कृतदिवसोत्सवः, काशीहिन्दूविश्वविद्यालये स्वतन्त्रताभवनस्थापनम्, नलिन्याः प्रार्थना, कविभारत्याः स्वागतमङ्गलम्, ऊर्जस्वि-उपदेशः, काश्यां ज्ञानप्रवाहः और गुरु गोपीनाथ कविराज की स्मृति में रचित ‘गुरुस्मरणम्’ हैं। महाकवि रवीन्द्रनाथ की एक कविता का बंगला से संस्कृत में सॉनेट छन्द में अनुवाद है। तृतीय भाग में दैनिक समाचार पत्र ‘हिन्दुस्तान’ में प्रकाशित साक्षात्कार है। पुस्तक के अन्त में प्रो. भट्टाचार्य के विभिन्न अवसरों से संबंधित चित्र भी दिये गये हैं। बहुश्रुत विद्वान् द्वारा सरल रूप में प्रस्तुत साहित्य व साहित्यशास्त्रीय आलेखों का संग्रह इस पुस्तक में है। साहित्य के अध्येताओं को इस पुस्तक का अनुशीलन अवश्य  करना चाहिए।

डॉ नौनिहाल गौतम 
असिस्टेंट प्रोफेसर -डॉ हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय 
मोबाइल नम्बर - 9826151335
मेल आईडी - dr.naunihal@gmail.com

Friday, May 15, 2020

तुलसीसूरकाव्यसङ्ग्रहः

तुलसीसूरकाव्यसङ्ग्रहः


पुस्तक- तुलसीसूरकाव्यसङ्ग्रहः (पं. प्रेमनारायणद्विवेदिरचनावलिः तृतीयो भागः)
रचयिता- पं. प्रेमनारायण द्विवेदी (राष्ट्रपति पुरस्कृत)
जन्मतिथि- 05 जून 1922
ब्रह्मलीन- 28 अप्रैल 2006
जन्मस्थान- पूर्व्याऊ टौरी, जनता स्कूल के पास, सागर (म.प्र.)
सम्पर्क- श्री सूर्यकान्त द्विवेदी (कवि के पौत्र, संस्कृत शिक्षक) मो. 88273 18716
प्रकाशक- राष्ट्रिय संस्कृत संस्थानम्, नई दिल्ली
सम्पादक- डॉ. ऋषभ भारद्वाज 
आईएसबीएन- 978-93-82091-76-9
पृष्ठ संख्या- 333
अंकित मूल्य- 208रू.
संस्करण- 2013 प्रथम

कवि- भक्ति साहित्य के मर्मज्ञ और अनुवाद विधा के पारंगत कवि पं. प्रेमनारायण द्विवेदी ने 21000 संस्कृत पद्यों की रचना रचना कर संस्कृत साहित्य को समृद्ध किया है। उन्होंने हिन्दी के प्रायः सभी बड़े कवियों की रचनाओं को संस्कृत में अनूदित किया है। संस्कृत काव्य परम्परा के गंभीर अध्येता पं. द्विवेदी ने गोस्वामी तुलसीदास के साहित्य को तो जैसे हृदयंगम ही कर लिया था। कुछ समय उन्होंने विरक्त का जीवन जिया था। अध्यापन उनकी वृत्ति थी और अनुवाद उनका सहज कर्म जो उन्होंने जीवन भर किया भी। उनकी रचनाएं अर्वाचीनसंस्कृतम् आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं। वे पारम्परिक पण्डित थे। भक्त कवियों के प्रति उनके मन में आत्मीय भाव था। उनकी भी ईश्वर के प्रति गहरी आस्था थी। राष्ट्रपति पुरस्कार (2005 ई.) और साहित्य अकादमी, दिल्ली का अनुवाद पुरस्कार (2009 ई.) प्रमुख पुरस्कार हैं जो उन्हें मिले।


पुस्तक- राष्ट्रिय संस्कृत संस्थानम्, नई दिल्ली की लोकप्रिय साहित्य ग्रन्थमाला के अन्तर्गत क्रमांक-70 पर तुलसीसूरकाव्यसङ्ग्रहः ग्रन्थ प्रकाशित है। भूमिका के रूप में संस्थान के कुलपति और प्रधान संपादक आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी का पुरोवाक् और डॉ. ऋषभ भारद्वाज का सम्पादकीय है। इस ग्रन्थ में दो खण्ड हैं जिनमें हिन्दी कवि तुलसीदास और सूरदास के काव्यों के संस्कृत पद्यानुवाद प्रकाशित हैं। मूल काव्य के तत्सम शब्दों को ग्रहण करने से द्विवेदी जी के अनुवाद में मूल काव्य का रसास्वाद किया जा सकता है। कहीं कहीं मूलकाव्य की लय में ही अनुवाद को भी पढ़ा जा सकता है। अनुवाद करने का उद्देश्य लोकप्रसार है अतः भाषा इतनी सरल है कि जिन पाठकों को प्रसंग पहले से ज्ञात है, वे संस्कृत में मूलकाव्य का भाव समझ सकते हैं।

प्रथम खण्ड- तुलसीकाव्यसङ्ग्रहः
इस खण्ड में भक्तकवि गोस्वामी तुलसीदास की रचनाओं के पं. प्रेमनारायण द्विवेदी कृत संस्कृत पद्य अनुवाद विनयपत्रिका, कवितावलिः, श्लोकावलिः, श्रीजानकीमङ्गलम्, श्रीपार्वतीमङ्गलम्, वैरागयसन्दीपनी, वरवैरामायणम् और श्रीमद्हनुमद्बाहुकम् प्रकाशित हैं।

राम बाम दिसि जानकी लखन दाहिनी ओर।
ध्यान सकल कल्यानमय सुरतरु तुलसी तोर।।
राम नाम मणि दीप धरु जीह देहरी द्वार।
तुलसी भीतर बाहिरै जो चाहसि उजियार।।

पं. प्रेमनारायण द्विवेदी कृत अनुवाद-

श्रीजानकी यस्य विभाति वामतः, श्रीलक्ष्मणो दक्षिणतश्च राजते।
ध्यातश्च यो मङ्गलमोदशान्तिदः, स एव रामस्तुलसीसुरद्रुमः।। 
रामनाममणिदीपं दधत स्वरसनाद्वारदेहल्याम्।
अन्तर्बहिः प्रकाशं यदि वाञ्छथ तद् वदति तुलसी।। श्लोकावलिः, श्लोक 1, 6

त्वया सह वृषारूढो यदा यास्यति धूर्जटिः।
हसिष्यन्ति नरा नार्यो मुखमाच्छाद्य पाणिभिः।।
कुतर्ककोटिभिश्चेत्थं वटुर्वक्ति यथारुचि।
न शैल इव वातेन चचालाऽद्रिसुतामनः।। श्रीपार्वतीमङ्गलम्, श्लोक 57-58

द्वितीय खण्ड- सूरकाव्यसङ्ग्रहः
इस खण्ड में भक्तकवि सूरदास की रचनाओं के पं. प्रेमनारायण द्विवेदी कृत संस्कृत पद्य अनुवाद सूररामचरितावलिः और सूरविनयपत्रिका प्रकाशित हैं।

प्रभु मोरे अवगुण चित न धरो।
समदरसी है नाम तिहारो चाहे तो पार करो।
एक लोहा पूजा में राखत एक घर बधिक परो।
पारस गुण अवगुण नहीं चितवत कंचन करत खरो।

पं. प्रेमनारायण द्विवेदी कृत अनुवाद-

चित्ते कदाप्यवगुणान् न निधेहि मे त्वं
ख्यातो यथाऽसि समदृक् च तथा विधेहि।
पूजास्थले प्रणिहितं खलु लोहमेकं
दृष्टं जनैर्बधिकगेहगतं तथान्यत्।।
न स्पर्शरत्नमिह नाथ करोति भेदं 
स्वर्णं करोति सकलं सममेव सद्यः। तुलसीसूरकाव्यसङ्ग्रहः, पृ. 329

असिस्टेंट प्रोफेसर -डॉ हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय 
मोबाइल नम्बर - 9826151335
मेल आईडी - dr.naunihal@gmail.com

Wednesday, May 13, 2020

मृत्यु: चन्द्रमस: - अनूदित गद्य काव्य


मृत्यु : चन्द्रमस: - अनूदित गद्य काव्य
जब यह वागर्थ ब्लॉग शुरू किया गया था तब यह सोचा गया था कि मौलिक कृतियों के साथ अनूदित कृतियां भी प्रकाश में आये | संस्कृत से अन्य भाषाओं में तो अनुवाद होता आया ही है किंतु साथ में अन्य भारतीयेतर भाषाओं और विदेशी भाषाओं से भी संस्कृत में अनुवाद कार्य हो रहा है | इससे संस्कृत के पाठक को संस्कृतेतर साहित्य का आस्वादन हो जाता है | पराम्बा श्री योगमाया आधुनिक संस्कृत साहित्य की उभरती कवयित्री हैं | आपको साहित्य अकादेमी का युवा पुरस्कार भी प्राप्त है | मौलिक रचनाओं के साथ आपने कई महत्त्वपूर्ण अनुवाद किये हैं| योगमाया के द्वारा अनूदित एक ऐसी ही कृति का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत कर रहे हैं हेमराज सैनी | यह भी प्रसन्नता का विषय है कि नए समीक्षक ब्लॉग के साथ जुड़ रहे हैं |

मृत्यु: चन्द्रमस: - अनूदित गद्य काव्य
कृति- मृत्यु: चन्द्रमस: 
रचयिता -डा. गोकुलानंद महापात्र (ओडियामूलम्)
संस्कृतानुवाद: - पराम्बा श्रीयोगमाया
प्रकाशन - संस्कृतभारती देहली)
पृष्ठ संख्या-१३९
मूल्य-50.00   
प्रथम प्रकाशन-२००९-१०


प्रस्तुत कथाग्रन्थ में लेखक द्वारा पृथ्वीलोक के आधुनिक अमेरिकी एवं भारतीय समाज तथा प्राचीन मोहनजोदड़ो सभ्यता के साथ साथ चन्द्रलोक की मानव सभ्यता का अत्यंत विलक्षण एवं सुंदर वर्णन किया गया है।कथा का प्रारंभ अमेरिकी देश के न्यूयॉर्क प्रांत स्थित केंद्रीय उद्यान के रमणीय वातावरण में प्रधान पात्र रमेशचंद्र एवं नायिका सेंडी मनोरम वार्तालाप से होता है।इसी वक्त नेभाड प्रांत में अमेरिकी सामरिक अधिकारियों द्वारा चन्द्रलोक से अवतरित किसी 'नवागत'के पकड़ लिया जाता है।वह नवागत केवल वैदिक संस्कृत भाषा जानता है ।आंग्ल भाषा के जानकार अमेरिकी अधिकारी इस प्राचीन आर्य भाषा से अनभिज्ञ थे। अतः नवागत की भाषा के अवबोध हेतु प्रिंसटन विश्वविद्यालय के प्रो.मेकगिल के सुझाव पर योजनान्तर्गत बनारस स्थित हिन्दू विश्वविद्यालय से उत्तीर्ण एवं वर्तमान में अमेरिका के भिन्न-भिन्न विश्वविद्यालयों में अध्ययनरत रमेशचंद्र, वेंकटरमण तथा देशपांडेय नामक शोधार्थियों को एक साथ नेभडा राज्य स्थित सामरिक केंद्र लाया जाता है। वस्तुत: यह तीनों संस्कृत भाषा के अच्छे जानकार थे तथा नवागत की भाषा को समझने में सक्षम थे। रमेशचंद्र द्वारा नवागत से वार्तालाप करने पर ज्ञात होता है कि वह (नवागत)आज से पांच हजार वर्ष पूर्व सिंधु नदी के किनारे विकसित मोहनजोदड़ो सभ्यता का अधिवासी था।उसका मूल नाम'उत्कलावर्त' है।उस समय चन्द्रलोक पर सभ्य एवं विकसित मानव सभ्यता विद्यमान थी। अचानक जल एवं वायु की अल्पता के कारण चन्द्रलोक मृत के समान हो गया।अतः जल एवं वायु के संचय हेतु विशेष विमान से एक वैज्ञानिक दम्पती सैन्धव प्रदेश पर आते हैं।वह  मोहनजोदड़ो के राष्ट्राध्यक्ष की स्वीकृति से दो वर्ष के अथक प्रयास एवं उत्कलावर्त की सहायता से जल एवं वायु का संग्रहण करके चन्द्रलोक को चले जाते हैं।  चन्द्रलोक के राष्ट्राध्यक्ष की अनुमति मिलने पर उत्कलावर्त भी वैज्ञानिक दम्पती (केवलप्राय-शार्ङिना) के साथ चन्द्रलोक को चला जाता है।
               कथा के प्रवाह के साथ ही रोचक शैली में बालकों के ज्ञानवर्धन हेतु दार्शनिक जानकारी उपस्थापित की गई है,यथा 'वस्तु' शब्द के साथ ही वायु तत्व को परिभाषित किया गया है-" यत् दर्शनार्हं स्पर्शनार्हं च,यस्य स्थिति:अनुभवगोचरतां यायात् तदेव वस्तु।भवन्त: किं वायुं न जानन्ति ? भवद्भि: श्वासोच्छवासाय य:उपयुज्यते ,से: एव वायु: नाम।"(पृ.४१) लेखक आनुवंशिक विज्ञान की परखनली निषेचन प्रक्रिया का भी उल्लेख करता है। लेखक गुरुत्वाकर्षण शक्ति को ही सम्पूर्ण मानव संस्कृति एवं चराचर जगत की उत्पत्ति का एक मात्र कारण मानता है।यथा- " यत: पृथिव्या: पुरुषस्य शुक्राणु:स्त्रिया: डिम्बाणु: वा पृथिव्या: गुरुत्वाकर्षण बलस्य अनुगुणं वर्धनं प्राप्तुम् अर्हति। "(पृ.९२) इसी प्रकार पृथ्वी की आयु ज्ञात करने वाली रेडियो एक्टिव विधि से भी बालकों को अवगत करवाता है-"आयुष:निर्द्धारणे सुदक्षा: पच्चविंशत्यधिका: वैज्ञानिका: परीक्षा कृत्वा स्वाभिप्रायम् अवदन् यत् अस्य आयु: चत्वारिंशत् नाधिकम् ।"(पृ.१८) कथा में न्यूयॉर्क के केंद्रीय उद्यान,सैन्धव प्रदेश एवं चन्द्रलोक स्थित ' नन्दन वन' के प्राकृतिक वातावरण का मनोहर वर्णन किया गया है ।सैन्धव प्रदेश के सूर्योदय की आभा को देखकर मनुष्य प्रमादित  प्राणी के समान व्यवहार करने लगता है-" उषस: अपूर्वेण सौन्दर्येण  विमोहिता इव जाताऽस्ति इति।पृथिव्याम् एष: सूर्योदय: वस्तुत: पृथिव्या: अधिवासिन: एव भाग्यशालिन:।"(पृ.४७) इसी तरह नन्दन वन स्वर्णमयी नगरी के समान अत्यंत विलक्षण एवं आकर्षक है-" विद्यते चन्द्रलोकस्य श्रेष्ठं रमणीयं तपोवनं नन्दनवनम्।तत्र गमनात् दार्शनिक: कवि भूत्वा   प्रत्यागच्छति।......... तत् स्वपननगरी इव प्रतीयते स्म । (पृ.८१) कथा में वेदों के अपौरुषेय को भी उल्लेखित किया है-"वेद: तु संकलित: न तु रचित: । स: च अपौरुषेय: ।"(पृ.१४) भाषा को अलंकृत करने के लिए उपमा अलंकार की छटा सर्वत्र बिखरी हुई दिखाई देती है-" तस्य नासिका करवालस्य धारा इव तीक्ष्णा " । ( पृ.२७) इसी प्रकार कथा के गूढ़ भावों को अभिव्यक्त करने वाली गागर में सागर भरने वाली सूक्तियों का प्रयोग भी कथा की विलक्षणता को द्योतित करती है-"समयस्त्रोत: न कमपि प्रतीक्षते इति ।"( समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता) । ," प्रमाणं विना कथ्यमाने वचने को विश्वस्यात् ?" अतः हे रमेश! तुम्हारे द्वारा कहीं हुईं बात पर बिना प्रमाण के कैसे विश्वास किया जाए? " (पृ.५) लेखक द्वारा लिखित यह पुस्तक सरल सरस एवं मनोरंजक तरीके से बालकों को विज्ञान के गूढ़ ज्ञान को उपलब्द करवाने में पूर्णतया सक्षम है।

प्रो. गोकुलानंद महापात्र- उत्कल प्रदेश में जन्में (सन् १९२२) प्रो महापात्र मूलतः रसायन शास्त्र के विद्वान् है । आपके द्वारा उड़िया भाषा में विज्ञान की पृष्ठभूमि आधारित दश से अधिक बालोपयोगी  कथा ग्रंथों की रचना की गई।

पराम्बा श्रीयोगमाया - वाराणसी से स्नातकोत्तर एवं भूवनेश्वर से कलाभूषण पदवी प्राप्त श्रीयोगमाया द्वारा उड़िया भाषा की अनेकों कविता, कथा एवं काव्यो का संस्कृत में अनुवाद किया है ।
मोबाइल नम्बर - 8917554392

हेमराज सैनी - आप वर्तमान में राजस्थान में  असिस्टेंट प्रोफेसर के रूप में कार्यरत हैं तथा संस्कृत बाल साहित्य पर शोध कार्य कर रहे हैं|
मोबाइल नम्बर -  9660755441