Friday, May 15, 2020

तुलसीसूरकाव्यसङ्ग्रहः

तुलसीसूरकाव्यसङ्ग्रहः


पुस्तक- तुलसीसूरकाव्यसङ्ग्रहः (पं. प्रेमनारायणद्विवेदिरचनावलिः तृतीयो भागः)
रचयिता- पं. प्रेमनारायण द्विवेदी (राष्ट्रपति पुरस्कृत)
जन्मतिथि- 05 जून 1922
ब्रह्मलीन- 28 अप्रैल 2006
जन्मस्थान- पूर्व्याऊ टौरी, जनता स्कूल के पास, सागर (म.प्र.)
सम्पर्क- श्री सूर्यकान्त द्विवेदी (कवि के पौत्र, संस्कृत शिक्षक) मो. 88273 18716
प्रकाशक- राष्ट्रिय संस्कृत संस्थानम्, नई दिल्ली
सम्पादक- डॉ. ऋषभ भारद्वाज 
आईएसबीएन- 978-93-82091-76-9
पृष्ठ संख्या- 333
अंकित मूल्य- 208रू.
संस्करण- 2013 प्रथम

कवि- भक्ति साहित्य के मर्मज्ञ और अनुवाद विधा के पारंगत कवि पं. प्रेमनारायण द्विवेदी ने 21000 संस्कृत पद्यों की रचना रचना कर संस्कृत साहित्य को समृद्ध किया है। उन्होंने हिन्दी के प्रायः सभी बड़े कवियों की रचनाओं को संस्कृत में अनूदित किया है। संस्कृत काव्य परम्परा के गंभीर अध्येता पं. द्विवेदी ने गोस्वामी तुलसीदास के साहित्य को तो जैसे हृदयंगम ही कर लिया था। कुछ समय उन्होंने विरक्त का जीवन जिया था। अध्यापन उनकी वृत्ति थी और अनुवाद उनका सहज कर्म जो उन्होंने जीवन भर किया भी। उनकी रचनाएं अर्वाचीनसंस्कृतम् आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं। वे पारम्परिक पण्डित थे। भक्त कवियों के प्रति उनके मन में आत्मीय भाव था। उनकी भी ईश्वर के प्रति गहरी आस्था थी। राष्ट्रपति पुरस्कार (2005 ई.) और साहित्य अकादमी, दिल्ली का अनुवाद पुरस्कार (2009 ई.) प्रमुख पुरस्कार हैं जो उन्हें मिले।


पुस्तक- राष्ट्रिय संस्कृत संस्थानम्, नई दिल्ली की लोकप्रिय साहित्य ग्रन्थमाला के अन्तर्गत क्रमांक-70 पर तुलसीसूरकाव्यसङ्ग्रहः ग्रन्थ प्रकाशित है। भूमिका के रूप में संस्थान के कुलपति और प्रधान संपादक आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी का पुरोवाक् और डॉ. ऋषभ भारद्वाज का सम्पादकीय है। इस ग्रन्थ में दो खण्ड हैं जिनमें हिन्दी कवि तुलसीदास और सूरदास के काव्यों के संस्कृत पद्यानुवाद प्रकाशित हैं। मूल काव्य के तत्सम शब्दों को ग्रहण करने से द्विवेदी जी के अनुवाद में मूल काव्य का रसास्वाद किया जा सकता है। कहीं कहीं मूलकाव्य की लय में ही अनुवाद को भी पढ़ा जा सकता है। अनुवाद करने का उद्देश्य लोकप्रसार है अतः भाषा इतनी सरल है कि जिन पाठकों को प्रसंग पहले से ज्ञात है, वे संस्कृत में मूलकाव्य का भाव समझ सकते हैं।

प्रथम खण्ड- तुलसीकाव्यसङ्ग्रहः
इस खण्ड में भक्तकवि गोस्वामी तुलसीदास की रचनाओं के पं. प्रेमनारायण द्विवेदी कृत संस्कृत पद्य अनुवाद विनयपत्रिका, कवितावलिः, श्लोकावलिः, श्रीजानकीमङ्गलम्, श्रीपार्वतीमङ्गलम्, वैरागयसन्दीपनी, वरवैरामायणम् और श्रीमद्हनुमद्बाहुकम् प्रकाशित हैं।

राम बाम दिसि जानकी लखन दाहिनी ओर।
ध्यान सकल कल्यानमय सुरतरु तुलसी तोर।।
राम नाम मणि दीप धरु जीह देहरी द्वार।
तुलसी भीतर बाहिरै जो चाहसि उजियार।।

पं. प्रेमनारायण द्विवेदी कृत अनुवाद-

श्रीजानकी यस्य विभाति वामतः, श्रीलक्ष्मणो दक्षिणतश्च राजते।
ध्यातश्च यो मङ्गलमोदशान्तिदः, स एव रामस्तुलसीसुरद्रुमः।। 
रामनाममणिदीपं दधत स्वरसनाद्वारदेहल्याम्।
अन्तर्बहिः प्रकाशं यदि वाञ्छथ तद् वदति तुलसी।। श्लोकावलिः, श्लोक 1, 6

त्वया सह वृषारूढो यदा यास्यति धूर्जटिः।
हसिष्यन्ति नरा नार्यो मुखमाच्छाद्य पाणिभिः।।
कुतर्ककोटिभिश्चेत्थं वटुर्वक्ति यथारुचि।
न शैल इव वातेन चचालाऽद्रिसुतामनः।। श्रीपार्वतीमङ्गलम्, श्लोक 57-58

द्वितीय खण्ड- सूरकाव्यसङ्ग्रहः
इस खण्ड में भक्तकवि सूरदास की रचनाओं के पं. प्रेमनारायण द्विवेदी कृत संस्कृत पद्य अनुवाद सूररामचरितावलिः और सूरविनयपत्रिका प्रकाशित हैं।

प्रभु मोरे अवगुण चित न धरो।
समदरसी है नाम तिहारो चाहे तो पार करो।
एक लोहा पूजा में राखत एक घर बधिक परो।
पारस गुण अवगुण नहीं चितवत कंचन करत खरो।

पं. प्रेमनारायण द्विवेदी कृत अनुवाद-

चित्ते कदाप्यवगुणान् न निधेहि मे त्वं
ख्यातो यथाऽसि समदृक् च तथा विधेहि।
पूजास्थले प्रणिहितं खलु लोहमेकं
दृष्टं जनैर्बधिकगेहगतं तथान्यत्।।
न स्पर्शरत्नमिह नाथ करोति भेदं 
स्वर्णं करोति सकलं सममेव सद्यः। तुलसीसूरकाव्यसङ्ग्रहः, पृ. 329

असिस्टेंट प्रोफेसर -डॉ हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय 
मोबाइल नम्बर - 9826151335
मेल आईडी - dr.naunihal@gmail.com

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