संस्कृत के युवा कवियों में ऋषिराज जानी अन्यतम है और उनको अन्यतम कहने का कारण यह है कि वे पाम्परिक रूप से संस्कृत के छात्र नहीं रहे हैं और ना ही उनकी आजीविका का क्षेत्र संस्कृत से जुडा हुआ है ऋषिराज सहायक वैज्ञानिक के रूप में कार्यरत हैं संस्कृत के साथ साथ गुजराती में भी काव्य रचते हैं आपको साहित्य अकादेमी से प्रतिष्ठित युवा पुरस्कार और बाल साहित्य पुरस्कार प्राप्त है ऋषिराज जानी के प्रथम काव्य संग्रह समुद्रे बुद्धस्य नेत्रे का संक्षिप्त परिचय वागर्थ के लिए डॉ तारेश शर्मा ने लिखा है आप आधुनिक संस्कृत साहित्य में ही शोध कार्य कर चुके हैं
यह पुस्तक परिचय बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर आप सबके लिए प्रस्तुत है
समुद्रे बुद्धस्य नेत्रे
रचयिता - ऋषिराज जानी
जन्मतिथि - 03-04-1988
जन्मस्थान - अहमदाबाद io
विधा - मुक्तछंदोंबद्धकाव्य
पृष्ठसंख्या - 80
अंकित मूल्य - 70
प्रकाशक - श्रीवाणी अकादेमी, अहमदाबाद
संस्करण - 2014 प्रथम
मोबाइल नम्बर- 9712375112
मेल आईडी - rushpharma@yahoo.co.in
इस काव्य में 'समुद्रे बुद्धस्य नेत्रे', 'मार्गा:', 'नामरहितानि मुखानि', 'घातकानां मुखानि', 'एकस्य स्थाने शून्यम्', 'दलितस्य संवेदनम्', 'रुग्णवृक्ष:' आदि ४२ कविताओं का संकलन है। धर्म, पाखण्ड, भौतिक दुनिया की बढ़ती विलासिता, कामुकता, भ्रूणहत्या, अध्ययन से विमुख छात्र , आलस्य और प्रमाद में डूबा शिक्षक, चन्द्र ग्रहण के माध्यम से दान की प्रवृत्ति में चढ़ता चोखा अंधविश्वास का रंग, गंगा के उपमान से नदियों की दीन-दशा, भ्रष्टाचार, चिकित्सकों की वृकोदर सदृश धन लोलुपता, अनेकों प्रकार के स्थूल एवं सूक्ष्म मानवीकरण आदि का सांगोपांग वर्णन इस काव्य के कलेवर को अनुपम बनाते हैं।
प्रस्तुत ग्रन्थ में सामाजिक, राजनैतिक व कार्यालयीन परिवेश में ग्रन्थकार ने व्यवस्थाजन्य दोषों को यथार्थ के धरातल की चाशनी में आप्लावित कर स्वकीय अनुभूतियों को सहजता से परोस दिया है। जिससे कवि के कवित्व में प्रौढ़ पाण्डित्य के होने का आभास होता है।
आधुनिक संस्कृत के युवा कवि ऋषिराज जानी का नाम संस्कृत जगत् में किसी परिचय का मोहताज नहीं है। कवि की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि संस्कृत विषय का विद्यार्थी न होकर भी संस्कृत में अर्थ गाम्भीर्य सम्पृक्त काव्य की रचना करना। लेखक की लेखनी हिंदी, गुजराती, अंग्रेज़ी के साथ-साथ संस्कृत के लेखन में भी अपनी गरिमा सिद्ध कर रही है।
संग्रह से एक कविता दर्शनीय है---
"समुद्रे बुद्धस्य नेत्रे"
एकस्माद् बौद्धस्तूपात्
निपतिते बुद्धनेत्रे।
ते गृहीत्वा केनापि नेत्रशल्यचिकित्साय दत्ते।
स ते गृहीत्वा गतो
देवालयम्
किन्तु
देवा नैच्छत् संसार-दु:खं द्रष्टुम्।
स गतो धर्मात्मानं प्रति
किन्तु
पिहितनेत्रो धर्मगुरुस्तु धर्मापणवणिक आसीत्।
तत: पश्चात्
स गत: देशशासकस्य गृहम्
किन्तु
प्रभुत्वमदवशात्
स तु धृतराष्ट्रतां गत:।
तेन दृष्टा का९पि स्त्री
तेन तस्यां मातृत्वं दृष्टम्,
किन्तु
सा तु गर्भपातं कारयितुं गच्छति स्म
भ्रूण-चिकित्सालयम्।
सभायां सर्वे वादमग्ना आसन्।
शालासु चौर्येण साफल्यं प्राप्तुकामा छात्रा:
अलसबलीवर्दकल्पा अध्यापका आसन्।
श्रान्तेन तेन
क्षिप्ते ते लोचने
समुद्रे....
अतएव
समुद्राज्जायन्ते मेघा:,
बुद्धस्य करुणासन्तप्ते नेत्रे
सान्त्वयितुम्
गच्छन्ति सरित:
बुद्धनेत्रयोरश्रूबिन्दवो
भवन्ति
मौक्तिकानि...।
(समुद्रे बुद्धस्य नेत्रे)
डॉ तारेश कुमार शर्मा
मोबाइल नम्बर - 9810869055
मेल आई डी - kumartaresh82@gmail.com
बहु शोभनम्
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteअत्यंत शुभ कार्य किए हैं
ReplyDeleteआभार
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