विविधकाव्यसङ्ग्रहः - पं. प्रेमनारायणद्विवेदिरचनावलिः
पुस्तक- विविधकाव्यसङ्ग्रहः (पं. प्रेमनारायणद्विवेदिरचनावलिः चतुर्थो भागः)
रचयिता- पं. प्रेमनारायण द्विवेदी (राष्ट्रपति पुरस्कृत)
जन्मतिथि- 05 जून 1922
ब्रह्मलीन- 28 अप्रैल 2006
जन्मस्थान- पूर्व्याऊ टौरी, जनता स्कूल के पास, सागर (म.प्र.)
सम्पर्क- श्री सूर्यकान्त द्विवेदी (कवि के पौत्र, संस्कृत शिक्षक) मो. 88273 18716
प्रकाशक- राष्ट्रिय संस्कृत संस्थानम्, नई दिल्ली
सम्पादक- डॉ. ऋषभ भारद्वाज
आईएसबीएन- 978-93-85791-02-4
पृष्ठ संख्या- 238
अंकित मूल्य- 180रू.
संस्करण- 2017 प्रथम
कवि- सत्साहित्य के अध्येता और अनुवाद विधा के पारंगत कवि पं. प्रेमनारायण द्विवेदी ने 21000 संस्कृत पद्यों की रचना कर संस्कृत साहित्य को समृद्ध किया है। उन्होंने हिन्दी के प्रायः सभी बड़े कवियों की रचनाओं को संस्कृत में अनूदित किया है। पं. द्विवेदी संस्कृत काव्य परम्परा के गंभीर अध्येता थे लेकिन उन्होंने विदेशी सत्साहित्य को पढ़ा, समझा और परखा था। काशी वास के समय उन्होंने स्वामी करपात्री जैसी विभूतियों को देखा-सुना था। विभिन्न शास्त्रों का उन्होंने जिन गुरुओं से ज्ञान प्राप्त किया उनके प्रति वे आजीवन कृतज्ञ बने रहे। कुछ समय उन्होंने विरक्त संसार से विरक्त होकर यायावर जीवन जिया था। संस्कृत में अनुवाद करना उन्हें अच्छा लगता था, यही उन्होंने जीवन भर किया भी। उनकी रचनाएं विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं। वे पारम्परिक पण्डित थे किन्तु आधुनिकता को निरखते, परखते और भली-भाँति बूझते थे। भारतीय ज्ञान-परंपरा के मौन साधक द्विवेदी जी की अनुवाद कार्य में प्रवृत्ति ‘स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा’ की तरह थी। उनका अधिकतर साहित्य मृत्यूपरांत प्रकाशित हुआ। राष्ट्रपति पुरस्कार (2005 ई.) और साहित्य अकादमी, दिल्ली का अनुवाद पुरस्कार (2009 ई.) प्रमुख पुरस्कार हैं जो उन्हें मिले।
पुस्तक- राष्ट्रिय संस्कृत संस्थानम्, नई दिल्ली की लोकप्रिय साहित्य ग्रन्थमाला के अन्तर्गत क्रमांक-83 पर विविधकाव्यसङ्ग्रहः ग्रन्थ प्रकाशित है। भूमिका के रूप में संस्थान के कुलपति और प्रधान संपादक प्रो. परमेश्वर नारायण शास्त्री का पुरोवाक्, कवि-परिचय और सम्पादक डॉ. ऋषभ भारद्वाज का प्रास्ताविक है। इस ग्रन्थ में चार खण्ड हैं जिनमें भारतीय और विदेशीय कवियों के काव्यों के संस्कृत पद्यानुवाद प्रकाशित हैं। द्विवेदी जी ने प्रतिष्ठित कवियों के काव्यों का ही अनुवाद किया है जो उनकी साहित्यिक रुचि का भी परिचायक है। अनुवाद के लिए चुने गये काव्य भी अनुवादक की साहित्यिक रुचि को प्रकट करते हैं। द्विवेदी जी के अनुवाद में मूल काव्य का रसास्वाद किया जा सकता है। कहीं कहीं मूलकाव्य की लय में ही अनुवाद को भी पढ़ा जा सकता है। अनुवाद करने का उद्देश्य लोकप्रसार है अतः भाषा इतनी सरल है कि जिन पाठकों को प्रसंग पहले से ज्ञात है, वे संस्कृत में मूलकाव्य के अर्थ तक पहुँच सकते हैं। कहीं तो अनुवाद मूल से भी बेहतर प्रतीत होता है। सहृदय स्वयं मूल व अनुवाद का एक साथ आस्वाद कर इसका अनुभव कर सकते हैं। संस्कृत के विशाल शब्दकोष के ज्ञान से द्विवेदी जी के लिए अनुवाद कार्य सुकर रहा।
प्रथम खण्ड- रहीमकाव्यसुषमा
इस खण्ड में रहीम की रचनाओं के पं. प्रेमनारायण द्विवेदी कृत संस्कृत पद्य अनुवाद दोहावली, रहीम-सोरठा, रहीमशृङ्गारसोरठा, रहिमनवरवै, नगरशोभा, घनाक्षरीछन्दांसि प्रकाशित हैं। रहीमकाव्यसुषमा पर द्विवेदी द्वारा लिखित पाँच पृष्ठ का निवेदनम् भी आरम्भ में छपा है। मूलकाव्य और अनुवाद का एक साथ पाठ साहित्यरसिकों को अपूर्व मनस्तोष प्रदान करता है।
कहु रहीम कैसे बने, केर बेर को संग।
वे रस डोलत आपने, इनके फाटत अंग।।
पं. प्रेमनारायण द्विवेदी कृत अनुवाद-
कदलीबदरीसङ्गः कथं क्षेमाय कल्पते।
दोलायते रसेनैका विदीर्णाङ्गी तथापरा।।
रहीमदोहावली, श्लोक 34
द्वितीय खण्ड- अश्रुकाव्यम्
इस खण्ड में जयशंकर प्रसाद के ‘आँसू’ काव्य का पं. प्रेमनारायण द्विवेदी कृत संस्कृत पद्य अनुवाद अश्रुकाव्यम् प्रकाशित है। घनीभूत पीड़ा का काव्य के माध्यम से प्रकटीकरण है- आँसू काव्य। अनुवादक द्विवेदी जी मूलकाव्य में विद्यमान भावप्रवणता को संस्कृत में उतारने में सफल रहे हैं।
जो घनीभूत पीड़ा थी, मस्तक में स्मृति सी छाई।
दुर्दिन में आँसू बनकर, वह आज बरसने आई।।
पं. प्रेमनारायण द्विवेदी कृत अनुवाद-
सा मे पीडा घनीभूता, मस्तके स्मृतिवत् स्थिता।
दुर्दिने बाष्पधारेवाधुना वर्षितुमागता।
अश्रुकाव्यम्, 20
तृतीय खण्ड- स्फुटकाव्यानि
इस खण्ड में मीरा, सुन्दरदास, जगन्नाथ, कबीर, महादेवीवर्मा, नारायण स्वामी, रसखान, हठी, आनन्दघन, रविदास, बुद्ध, सुकरात, कन्फ्युशियस, आंगस्टाइन और एमरसन के काव्य और सद्वचनों के पं. प्रेमनारायण द्विवेदी कृत संस्कृत पद्य अनुवाद प्रकाशित हैं।
निंदक नियरे राखिए आँगन कुटी छवाय।
बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।।
पं. प्रेमनारायण द्विवेदी कृत अनुवाद-
समीपं निन्दकं रक्ष कारयित्वाङ्गणे कुटीम्।
विना तोयं विना फेनं स्वभावं क्षालयत्यसौ।।
विविधकाव्यसङ्ग्रहः, पृ. 104
चतुर्थ खण्ड- गद्यम्
इस खण्ड में सात आलेख हैं। इनमें पं. प्रेमनारायण द्विवेदी का साहित्य-समीक्षक रूप दृष्टिगोचर होता है। आलोचना पर उनकी लेखनी कम ही चली किन्तु उनके समीक्षा के मानदण्ड उच्च थे। वे रामायण को काव्य का आदर्श रूप मानते थे। उन्होंने ‘भारतीयकाव्यशास्त्रपरम्परा प्रयोजनं सौन्दर्यञ्च’ लेख में रामायण के लिए लिखा है-
‘काव्यमिदं गभीरं समग्रकाव्यगुणसम्पन्नम् अतिमधुरं च वर्तते।’ विविधकाव्यसङ्ग्रहः, पृ. 224
असिस्टेंट प्रोफेसर -डॉ हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय
मोबाइल नम्बर - 9826151335
मेल आईडी - dr.naunihal@gmail.com
पुस्तक- विविधकाव्यसङ्ग्रहः (पं. प्रेमनारायणद्विवेदिरचनावलिः चतुर्थो भागः)
रचयिता- पं. प्रेमनारायण द्विवेदी (राष्ट्रपति पुरस्कृत)
जन्मतिथि- 05 जून 1922
ब्रह्मलीन- 28 अप्रैल 2006
जन्मस्थान- पूर्व्याऊ टौरी, जनता स्कूल के पास, सागर (म.प्र.)
सम्पर्क- श्री सूर्यकान्त द्विवेदी (कवि के पौत्र, संस्कृत शिक्षक) मो. 88273 18716
प्रकाशक- राष्ट्रिय संस्कृत संस्थानम्, नई दिल्ली
सम्पादक- डॉ. ऋषभ भारद्वाज
आईएसबीएन- 978-93-85791-02-4
पृष्ठ संख्या- 238
अंकित मूल्य- 180रू.
संस्करण- 2017 प्रथम
कवि- सत्साहित्य के अध्येता और अनुवाद विधा के पारंगत कवि पं. प्रेमनारायण द्विवेदी ने 21000 संस्कृत पद्यों की रचना कर संस्कृत साहित्य को समृद्ध किया है। उन्होंने हिन्दी के प्रायः सभी बड़े कवियों की रचनाओं को संस्कृत में अनूदित किया है। पं. द्विवेदी संस्कृत काव्य परम्परा के गंभीर अध्येता थे लेकिन उन्होंने विदेशी सत्साहित्य को पढ़ा, समझा और परखा था। काशी वास के समय उन्होंने स्वामी करपात्री जैसी विभूतियों को देखा-सुना था। विभिन्न शास्त्रों का उन्होंने जिन गुरुओं से ज्ञान प्राप्त किया उनके प्रति वे आजीवन कृतज्ञ बने रहे। कुछ समय उन्होंने विरक्त संसार से विरक्त होकर यायावर जीवन जिया था। संस्कृत में अनुवाद करना उन्हें अच्छा लगता था, यही उन्होंने जीवन भर किया भी। उनकी रचनाएं विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं। वे पारम्परिक पण्डित थे किन्तु आधुनिकता को निरखते, परखते और भली-भाँति बूझते थे। भारतीय ज्ञान-परंपरा के मौन साधक द्विवेदी जी की अनुवाद कार्य में प्रवृत्ति ‘स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा’ की तरह थी। उनका अधिकतर साहित्य मृत्यूपरांत प्रकाशित हुआ। राष्ट्रपति पुरस्कार (2005 ई.) और साहित्य अकादमी, दिल्ली का अनुवाद पुरस्कार (2009 ई.) प्रमुख पुरस्कार हैं जो उन्हें मिले।
पुस्तक- राष्ट्रिय संस्कृत संस्थानम्, नई दिल्ली की लोकप्रिय साहित्य ग्रन्थमाला के अन्तर्गत क्रमांक-83 पर विविधकाव्यसङ्ग्रहः ग्रन्थ प्रकाशित है। भूमिका के रूप में संस्थान के कुलपति और प्रधान संपादक प्रो. परमेश्वर नारायण शास्त्री का पुरोवाक्, कवि-परिचय और सम्पादक डॉ. ऋषभ भारद्वाज का प्रास्ताविक है। इस ग्रन्थ में चार खण्ड हैं जिनमें भारतीय और विदेशीय कवियों के काव्यों के संस्कृत पद्यानुवाद प्रकाशित हैं। द्विवेदी जी ने प्रतिष्ठित कवियों के काव्यों का ही अनुवाद किया है जो उनकी साहित्यिक रुचि का भी परिचायक है। अनुवाद के लिए चुने गये काव्य भी अनुवादक की साहित्यिक रुचि को प्रकट करते हैं। द्विवेदी जी के अनुवाद में मूल काव्य का रसास्वाद किया जा सकता है। कहीं कहीं मूलकाव्य की लय में ही अनुवाद को भी पढ़ा जा सकता है। अनुवाद करने का उद्देश्य लोकप्रसार है अतः भाषा इतनी सरल है कि जिन पाठकों को प्रसंग पहले से ज्ञात है, वे संस्कृत में मूलकाव्य के अर्थ तक पहुँच सकते हैं। कहीं तो अनुवाद मूल से भी बेहतर प्रतीत होता है। सहृदय स्वयं मूल व अनुवाद का एक साथ आस्वाद कर इसका अनुभव कर सकते हैं। संस्कृत के विशाल शब्दकोष के ज्ञान से द्विवेदी जी के लिए अनुवाद कार्य सुकर रहा।
प्रथम खण्ड- रहीमकाव्यसुषमा
इस खण्ड में रहीम की रचनाओं के पं. प्रेमनारायण द्विवेदी कृत संस्कृत पद्य अनुवाद दोहावली, रहीम-सोरठा, रहीमशृङ्गारसोरठा, रहिमनवरवै, नगरशोभा, घनाक्षरीछन्दांसि प्रकाशित हैं। रहीमकाव्यसुषमा पर द्विवेदी द्वारा लिखित पाँच पृष्ठ का निवेदनम् भी आरम्भ में छपा है। मूलकाव्य और अनुवाद का एक साथ पाठ साहित्यरसिकों को अपूर्व मनस्तोष प्रदान करता है।
कहु रहीम कैसे बने, केर बेर को संग।
वे रस डोलत आपने, इनके फाटत अंग।।
पं. प्रेमनारायण द्विवेदी कृत अनुवाद-
कदलीबदरीसङ्गः कथं क्षेमाय कल्पते।
दोलायते रसेनैका विदीर्णाङ्गी तथापरा।।
रहीमदोहावली, श्लोक 34
द्वितीय खण्ड- अश्रुकाव्यम्
इस खण्ड में जयशंकर प्रसाद के ‘आँसू’ काव्य का पं. प्रेमनारायण द्विवेदी कृत संस्कृत पद्य अनुवाद अश्रुकाव्यम् प्रकाशित है। घनीभूत पीड़ा का काव्य के माध्यम से प्रकटीकरण है- आँसू काव्य। अनुवादक द्विवेदी जी मूलकाव्य में विद्यमान भावप्रवणता को संस्कृत में उतारने में सफल रहे हैं।
जो घनीभूत पीड़ा थी, मस्तक में स्मृति सी छाई।
दुर्दिन में आँसू बनकर, वह आज बरसने आई।।
पं. प्रेमनारायण द्विवेदी कृत अनुवाद-
सा मे पीडा घनीभूता, मस्तके स्मृतिवत् स्थिता।
दुर्दिने बाष्पधारेवाधुना वर्षितुमागता।
अश्रुकाव्यम्, 20
तृतीय खण्ड- स्फुटकाव्यानि
इस खण्ड में मीरा, सुन्दरदास, जगन्नाथ, कबीर, महादेवीवर्मा, नारायण स्वामी, रसखान, हठी, आनन्दघन, रविदास, बुद्ध, सुकरात, कन्फ्युशियस, आंगस्टाइन और एमरसन के काव्य और सद्वचनों के पं. प्रेमनारायण द्विवेदी कृत संस्कृत पद्य अनुवाद प्रकाशित हैं।
निंदक नियरे राखिए आँगन कुटी छवाय।
बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।।
पं. प्रेमनारायण द्विवेदी कृत अनुवाद-
समीपं निन्दकं रक्ष कारयित्वाङ्गणे कुटीम्।
विना तोयं विना फेनं स्वभावं क्षालयत्यसौ।।
विविधकाव्यसङ्ग्रहः, पृ. 104
चतुर्थ खण्ड- गद्यम्
इस खण्ड में सात आलेख हैं। इनमें पं. प्रेमनारायण द्विवेदी का साहित्य-समीक्षक रूप दृष्टिगोचर होता है। आलोचना पर उनकी लेखनी कम ही चली किन्तु उनके समीक्षा के मानदण्ड उच्च थे। वे रामायण को काव्य का आदर्श रूप मानते थे। उन्होंने ‘भारतीयकाव्यशास्त्रपरम्परा प्रयोजनं सौन्दर्यञ्च’ लेख में रामायण के लिए लिखा है-
‘काव्यमिदं गभीरं समग्रकाव्यगुणसम्पन्नम् अतिमधुरं च वर्तते।’ विविधकाव्यसङ्ग्रहः, पृ. 224
असिस्टेंट प्रोफेसर -डॉ हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय
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