Saturday, May 9, 2020

भृत्याभरणम्


श्रीराम दवे बैंक में मैनेजर रहे लेकिन साहित्यिक रुचि इतनी थी कि संस्कृत में उन्होंने कई  काव्य रचे और साथ ही अनुवाद भी किये | आपके संस्कृत काव्य पारम्परिक विषयों से हटकर हैं | परिखायुध्द एक ऐसा खण्डकाव्य है जो खाड़ी युद्ध की पृष्ठभूमि में लिखा गया है तो राजलक्ष्मीस्वयम्वर महाकाव्य पारम्परिक नायक नायिका पर आधारित न होकर वर्तमान राजनीति पर आधारित है | 
दवे जी ने गीतांजलि का संस्कृत अनुवाद किया तथा प्रेमचंद के प्रसिद्ध उपन्यास को भी संस्कृत में उतारा |
आपके ही एक और संस्कृत महाकाव्य भृत्याभरण का परिचय दे रहे हैं डॉ तारेश कुमार शर्मा | आप सम्प्रति दिल्ली में निवास करते हैं और संस्कृत अध्यापन से जुड़े हुए हैं |

भृत्याभरणम्

रचयिता - पं० श्रीराम दवे
जन्मस्थान - बाड़मेर, राजस्थान
जन्मतिथि - 22/09/1922
विधा - महाकाव्य
अंकित मूल्य - 120
संस्करण - प्रथम वर्ष 1993
प्रकाशक - राजस्थान संस्कृत अकादेमी, जयपुर


पं० श्रीराम दवे का जन्म दिनांक २२-०९-१९२२ आश्विन कृष्ण प्रतिपदा गुरुवार संवत् १९७९ को राजस्थान प्रदेश के बाड़मेर जिला स्थित  समदड़ी गाँव में श्रीमाली ब्राह्मण समाज के एक सामान्य परिवार में हुआ। आपके पिता पं० श्री शंकर लाल बहुत ही सरल एवं साधारण व्यक्ति थे। आपकी माता श्रीमती मथुरा देवी बहुत ही मेधावी एवं सात्त्विक वृत्ति की थीं।
   पं० दवे कराची में संस्कृत के शिक्षक रहे थे। देश विभाजन के बाद जोधपुर आ गए थे। जहाँ स्टेट बैंक अॉफ बीकानेर एण्ड जयपुर--जोधपुर शाखा से वर्ष १९८० में सेवानिवृत्त होने के बाद लेखन कार्य को प्राथमिकता दी। नौकरी की मनोवृत्ति के कारण समाज एवं शिक्षा में आये परिवर्तन अर्थात् लार्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति के बुरे परिणाम को लेकर एवं अपने बैंक सेवा काल में प्राप्त अनुभवों के आधार पर आपने "भृत्याभरणम्" नामक महाकाव्य लिखा।
     पं० श्रीराम दवे आधुनिक संस्कृत के श्रेष्ठ कवि माने जाते हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में स्वतंत्र भारत की साम्प्रतिक स्थिति को पौराणिक कथानक के माध्यम से चित्रित किया गया है। ३७ सर्गात्मक इस काव्य में नायिका प्रधान भृत्या को उद्देश्य बनाकर जो कुछ भी वर्णित किया गया है वह सब तथ्यात्मक रूप से विवेचित है। पूर्णतः व्यंग्य प्रधान व्यंजनामूलक रचना में सुश्री  भृत्या कुमारी नायिका के रूप में विलसित है जो भगवान विश्वेश्वर विष्णु की मायारूपिणी विचित्रवीर्या शक्ति है।
     "भृत्याभरणम्" युग प्रवृत्ति बोधक महाकाव्य है। नायिका प्रधान इस काव्य में भृत्या अर्थात् नौकरी प्राप्त करना ही मानव मात्र का लक्ष्य बन गया है। यह भृत्या कुमारी अवस्था में(कौमार्य भंग किये बिना) ही अपने उत्कोच नामक रिश्वत पुत्र को जन्म देती है। उत्कोच से मानव अपने जीवन में क्या क्या हासिल कर सकता है का अनेक रूपकों, उपमानों, अन्योक्तियों और मानवीकरण के साथ सुगमतापूर्वक वर्णन करना कवि का ध्येय रहा है। इस कृति पर लेखक को १९९२ में राजस्थान संस्कृत अकादमी से "माघ" पुरस्कार मिल चुका है।
     महाकाव्य के प्रथम सर्ग में नारद का भारत की वर्तमान स्तिथि को देखकर भ्रमण करने से लेकर अन्तिम सर्ग में उत्कोच वध भरतवाक्य पर्यन्त वर्णन सहृदयजनों को हठात् आकर्षित  करता है। कवि की कल्पना बहुत ही विशद है। रिश्वत के प्रभाव से बलहीन व्यक्ति भी बलशाली बन जाता है। उसके आधिपत्य को कुचलने में यदि भीम और प्रशासनिक व्यवस्था में राष्ट्रपति भी आ जाए तो वह मौका पाकर संकट में भी भाग जाता है-

मशत्यसौ राष्ट्रभृत: किरीटे
सुनोत्ययं भीममपि प्रचण्डम्।
चोपत्यवाप्ते विषम प्रहारे
स्थलत्यभीत: प्रबले च पक्षे।।

मशति-भिनभिनाना, सुनोति-दबाना,  चोपते-दबे पाँव चलना, स्थलति-स्थिर रहना।
   लार्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति पर करारा व्यंग्य करता हुआ कवि कहता है कि विषकन्या की तरह राष्ट्र में प्रविष्ट ,गौरांगपुत्री भृत्या भारत के प्राण हरण कर रही है। यह भाषा वाराङ्गना की तरह नानाविध छल-कपटों के द्वारा कुलधर्म नष्ट कर रही है-

श्वित्राभिभूतवदना    कृतकाङ्गरागा
लज्जा-प्रसाद-करुणादिगुणानभिज्ञा।
वाराङ्गनेव जषते कुल-जातिधर्मान्
नाना-विलासचतुरा छलन-प्रवीणा।

हिन्दी साहित्य में पढ़ा था "भोलाराम का जीव"-साहब फाईल के पन्ने क्यों उड़ रहे हैं? इन पर बजन रखना होता है। कथानक से याद आया कि ये अधीक्षक कितना भी जोर लगा दें, यदि भृत्यापुत्र का अनुग्रह न हो तो सारी योजनाएं पत्रगर्भ में रह जाती हैं। कवि के शब्दों में-

कुर्वन्तु कामं  नवयोजनानां
संकल्पमेते कतिशोप्यधीशा:।
अस्मिन् मनागानुरतां प्रयाते
वसन्ति सर्वा अपि पत्र-गर्भे।।

अन्तिम ३७ वें सर्ग में शारदा के ओजस्वी उपदेशों से कुपिता जनता द्वारा उत्कोच के मारे जाने पर भृत्या विलाप करती है। वह बहुत व्यथित होकर अपने उद्गारों को इस प्रकार प्रकट करती है --मेरे माता-पिता तो बचपन में ही मुझे छोड़कर चले गये थे, मुझ कुवाँरी को तुमने ही मातृत्व का सौभाग्य प्रदान किया था-

पितरस्तनु -पोषका   इतो
मम हा ! शैशव एव निर्गता।
अनवाप्त-विवाह-बन्धनाsप्युप
 लेभे तव गर्भ-सौभाग्यम्।।

अन्तिम समय में भृत्या अपने पुत्र के वियोग में विलाप करती हुई अपने अवसान हेतु हिमालय की ओर चली गई। अन्ततः वह भगवान विष्णु की माया में विलुप्त होकर विष्णुधाम  को प्राप्त हो गई। इस प्रकार भरत वाक्य के अनुसार ग्रन्थ का समापन होता है।

डॉ तारेश कुमार शर्मा
मोबाइल नम्बर - 9810869055
मेल आई डी - kumartaresh82@gmail.com



1 comment:

  1. इस महाकाव्य की हिन्दी व्याख्या कहां मिल सकती है।

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