Sunday, August 9, 2020

धनुरातनोमि (भारतीय-आदिवासी-कविता)

कृृति - धनुरातनोमि (भारतीय-आदिवासी-कविता)

विधा - अनुवाद

अनुवादक एवं सम्पादक - डॉ. ऋषिराज जानी

प्रकाशक - गोविन्द गुरु प्रकाशन, गोधरा, अहमदाबाद 9033451409

संस्करण - प्रथम, 2020

पृष्ठ संख्या -156

अंकित मूल्य - 160/-


           संस्कृत में मौलिक रचनाओं के साथ-साथ अनुवाद भी निरन्तर हो रहे हैं। न केवल भारतीय भाषाओं से अपितु विदेशी भाषाओं से भी उत्कृष्ट साहित्य का अनुवाद संस्कृत में होता रहा है। धनुरातनोमि अनुवाद संकलन दो विशेषताओं के कारण विशेष रूप से उल्लेखनीय है। प्रथम तो यह कि इस संकलन में सर्वप्रथम भारतीय आदिवासी कविताओं का संस्कृत में अनुवाद किया गया है एवं द्वितीय विशेषता यह कि इस संकलन में हिन्दी, गुजराती, मराठी, अंग्रेजी आदि भाषाओं के  साथ- साथ ऐसी विभिन्न भाषाओं के साहित्य से किया गया अनुवाद भी है, जो भाषाएं आदिवासियों द्वारा ही बोली जाती है,यथा-मुण्डारी, कुखुड, सन्ताली, हो, कुंकुणा, धोडी, गामीत इत्यादि। यह भी प्रथम बार ही हुआ है कि इस प्रकार की आदिवासी भाषाओं के साहित्य का रसास्वादन संस्कृत भाषा के माध्यम से किया Kकेजा सकेगा।  

             आदिवासी किसी भी देश के मूल निवासी को कहा जाता है। भारत में ये आदिवासी मुख्य धारा से कटकर जंगलों एवं पहाडी प्रदेशों में रहा करते हैं। आदिवासी विमर्श की कविताएं इन्हीं आदिवासियों के भोगे हुए यथार्थ एवं उनकी समस्याओं को बयां करती है। इस प्रकार की कविताओं में यह वर्णन दो प्रकार के कवि करते हैं, एक वे जो स्वयं आदिवासी के रूप में इन अनुभवों से गुजरते हैं और दूसरे वे जो इन्हें देखकर अपनी कविता का विषय बनाते हैं। प्रस्तुत संकलन धनुरातनोमि में दोनों ही प्रकार की आदिवासी विमर्श की कविताएं हैं। धनुरातनोमि के अनुवादक एवं सम्पादक डॉ. ऋषिराज जानी हैं, जो स्वयं युवा संस्कृत कवि के रूप में अपनी विशिष्ट पहिचान बना चुके हैं।  इससे पूर्व डॉ. जानी भारतीय दलित विमर्श की कविताओं का संस्कृत में अनुवाद सूर्यगेहे तमिस्रा के रूप में कर चुके हैं। आदिवासी विमर्श की कविताएं अनुवाद के रूप में संस्कृत में क्यों उतारी जा रही हैं, इस विषय में स्वयं अनुवादक पुरो वाक् में अपनी बात रखते हुए कहते हैं- यद्यपि संस्कृता भगवती जनसाधारणानां वेदनां शब्दबद्धाम् अकरोत्, तथापि ये जनाः संस्कृतं न जानन्ति स्म ते दूरकक्ष एव स्थिता आसन्। संस्कृता वाक् तु लोकमाता आसीत् अस्ति च युगे युगे सर्वेषां जननी अस्त्येव। सा राजपुरुषाणाम् अनुचरी कथं भवेत्? उद्योगीकरणं, नगरीकरणं, भौतिकवादः-इत्यादिभिः शनैः शनैः वनानि, वनजीवनं, वनसंवेदना,वनवासिनः - एते सर्वे प्रभ्रष्टा जाताः। तेषां वेदनां संवेदनां च प्रकटीकर्तुं भगवत्या वाग्देवतया अहं प्रेरितः अपि च मया भारतीय-आदिवासी-कविताम् अनूदितां कर्तुं संकल्पः कृतः।


        इस संग्रह में 17 भाषाओं की कविताओं का अनुवाद किया गया है। ये कविताएं 33 कवियों की हैं। ये कविताएं आदिवासियों की व्यथा के साथ नागरी सभ्यता के दुष्प्रभावों का भी आकलन करती हैं। झारखण्ड प्रदेश की मुण्डारी भाषा की एक कविता में कवि पण्डुक पक्षी (कपोत की एक जाति) के साथ, मत्स्य के साथ वार्तालाप करते हुए कहता है-

पर्वतः तु प्रज्वालितः, पण्डुकः!

आवां कुत्र तृणानि मार्गयिष्यावः?

जलं मार्गयिष्यावः?

वापिका तु भग्ना कृता मुग्धमत्स्य!

आवां कुत्र तीर्त्वा

जिविष्यावो निवत्स्यावश्च? (मूल-दुलायचन्द्र मुण्डा)


    यहां यह स्वतः प्रकट हो जाता है कि किस प्रकार एक आदिवासी प्रकृति से सीधा जुडाव रखता है और यह भी कि नागरी सभ्यता प्रकृति और मनुष्य के इस अकृत्रिम सम्बन्ध को छिन्न भिन्न कर रही है। झारखण्ड प्रदेश की ही कुडुख भाषा में ही कवि व्यंग्य करते हुए कहता है कि 26 जनवरी को तो ये आदिवासी आपको अच्छे लगते हैं किन्तु तत्पश्चात् आपकी दृष्टि परिवर्तित हो जाती है, आप उन्हें उग्रवादी, बुद्धिहीन मानने लग गये हो क्योंकि उन आदिवासी जनों में अब एक दुर्गुण आ गया है कि वे अब सोचने लगे है-

जनवरीमासस्य षड्विंशतितमायां तारिकायां

राजधान्या मार्गेषु नृत्यपर्यन्तं

प्रतिभान्ति ते जनाः

अतिनिर्दोषा अपि च अतिभद्राः

किन्तु

अधुना ते तव दृष्टौ

जाता दुष्टाः,

उग्रवादिनः, सन्त्रासवादिनः,

दिग्भ्रान्ताः, बुद्धिहीनाः

अपि च न जाने

के के ते जाताः सन्ति।

आम्! अधुना तेषु आगत एको दुर्गुणः।

ते किञ्चित् किञ्चिद्

विचारयन्ति,

किञ्चित् किञ्चिद् वदन्ति।

किञ्चित् किञ्चिद् याचन्ते। (मूल-महादेव टोप्पो)


   ढूंढाडी भाषा राजस्थान प्रदेश की आदिभाषा है। इस भाषा का कवि कहता है कि हम आदिवासी आदिम थे तो अन्त में भी हम ही रहेंगे-

एतस्यां धरित्र्यांI

मानवस्य प्रथमांशाः स्मो वयम्।

आदिमा अपि स्मो वयम्।

अपि च अन्तेऽपि वयं स्थास्यामः। (मूल-हीरा मीणा)

        आदिवासी महिलाओं की पीडा को, भय को प्रकट करते हुए हिन्दी भाषा का कवि कहता है कि अकेली आदिवासी कन्या घने सुनसान जंगल में जाने से नही डरती किन्तु वह शहर के हाट (साप्ताहिक बाजार) में जाने से डरती है-

एकाकिनी आदिवासीकन्या

निबिडं वनं गन्तुं न बिभेति,

व्याघ्रसिंहेभ्यो न बिभेति,

किन्तु

मधूकपुष्पाणि नीत्वा ‘गीदमप्रदेशविपणीं’ गन्तुं बिभेति। (मूल-विनोद कुमार शुक्ल)


                     शहर ने आदिवासी संस्कृति का नाश तो किया ही है। हमने आदिवासियों की सुरक्षा के नाम से कदाचित् उनका शोषण भी किया है। हिन्दी भाषा का कवि इस पीडा को व्यंग्य में इस प्रकार प्रकट करता है-

चिपिटा नासिका,

स्थूलोष्ठौ,

मशीसदृशो वर्णः,

कुरूपता,

एतत् सर्वं तेषां परिचायकमासीत्।

(तव दृष्टौ)

अधुना तेषां  सन्ततयः

गौरववर्णाः,

दीर्घनासाः

तन्वोष्ठाः

अपि च सुरूपाः भवन्त्यः सन्ति।

पुलिसरक्षकदलमेकम् आगत्य

निवसदस्ति

तेषां वसतेः समीपे

तेषां रक्षणार्थम्। (मूल-तरुण मित्तल)

  इस संकलन के परिशिष्ट में डॉ. हर्षदेव माधव, कौशल तिवारी और ऋषिराज जानी की मूल रूप से संस्कृत भाषा में ही निबद्ध कविताएं भी सम्मिलित की गई हैं, जिससे प्रमाणित हो जाता है कि संस्कृत भाषा में आदिवासी विमर्श की कविताएं भी लिखी जा रही हैं। डॉ. हर्षदेव माधव की अपरिचिता मार्गाः कविता आदिवासी जनों के लिये वर्तमान विडम्बना को वर्णित करती है-

कोऽयं रोगः खलु

येन

वनवासिनो वयं

वनेभ्यो बिभीमः?

कस्माज्जाताः

सुहृदो नो व्याघ्राः

शत्रवः?

कस्मान्न दृश्यन्ते

परिचिताः जना

ये

गता नगरमायाबद्धाः?


   आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी प्रस्तुत संकलन की शुभाशंसा में  इन कविताओं को आरण्यकगीतों का नवीन रूप बतलाते हुए कहते हैं कि प्रकृति से ऐसा तादात्म्य अब दुर्लभ हो गया है-  एताः कविताः क्वचित् ऋग्वेदस्य अरण्यानीसूक्तं स्मारयन्ति क्वचित् पर्जन्यसूक्तम्। वन्यजीवनेन एतादृशं तादात्म्यं साम्प्रतिके जीवने सर्वथा स्पृहणीयं जातम्। वनवासिनो जानाति यदहं वनस्यैवविस्तारोऽस्मि-एतादृश्यः अनुभूतयोऽन्यत्र दुर्लभाः सन्ति।

    संग्रह का नामकरण अनुवादक ने सम्भवतः ऋग्वेद के वाक्सूक्त के एक मंत्र के आधार पर किया है- अहं रुद्राय धनुरातनोमि-----आदिवासियों का धनुष से गहन सम्बन्ध है|  आदिवासी कविता वाग्देवी के बाण है । वाग्देवी ही कदाचित् प्रकृति के रूप में कल्पित है और आदिवासी उसके रक्षक| प्रकृति  विकृत किये जाने पर रौद्र रूप भी धारण कर लेती है|

        इस संग्रह में कविताओं के साथ उनके भावों के अनुरूप  कुछ चित्र भी दिये गये हैं, जो स्वयं अनुवादक ने बनाये हैं। ये चित्र वारली चित्रशैली में है, जो महाराष्ट्र की वारली जनजाति में प्रचलित है। निश्चित ही यह संग्रह संस्कृत साहित्य में विमर्श के नवीन वातायन उद्घाटित करेगा।

Saturday, August 1, 2020

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का संस्कृत को योगदान

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का संस्कृत को योगदान


भारतेन्दु हरिश्चन्द्र हिन्दी साहित्य में प्रसिद्ध हैं ही, किन्तु भारतेन्दु गाहे-बगाहे संस्कृत में भी लिखते रहे। भारतेन्दु की संस्कृत रचनाएं अत्यल्प हैं किन्तु वे व्यंग्य की शैली में लिखे गये संस्कृत काव्यों से अपनी एक अलग पहचान संस्कृत काव्य जगत् में बनाते हैं। आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी भारतेन्दु के संस्कृत कृतित्व के विषय में लिखते हैं कि - ‘‘स्तोत्र की विधा में उपहास या उत्प्रास की शैली मिलाकर भारतेन्दु ने    संस्कृत रचना में भी प्रतिभा की प्रत्यग्रता का परिचय दिया।’’

 1874 से 1878 के मध्य रचे गये स्तोत्रपंचरत्न में संकलित पांच स्तोत्रों में से तीन स्तोत्र वेश्यास्तवराज, मदिरास्तवराज तथा अंग्रेजस्तव संस्कृत में निबद्ध हैं। कवि ने इन स्तोत्रों में व्याज निन्दा शैली का प्रयोग किया है। हरिश्चन्द्र इन स्तोत्रों के विषय में आरम्भ में लिखते हैं-यद्यपि ये स्तोत्र हास्यजनक है तथापि विज्ञ लोग इनसे अनेकहों उपदेश निकाल सकते हैं। वेश्यास्तवराज को वे महासंस्कृत में  लिखा हुआ बताते हैं-
(महासंस्कृत)
ओं अस्य श्री वेश्यास्तवराज महामाला मंत्रस्य भण्डाचार्यः श्री हरिश्चन्द्रो ऋषिः द्रव्यो बींज मुखं कीलकं वारवधू महादेवता सर्वस्वाहार्थं जपे विनियोगः।अथ अंगन्यासः। द्रव्य हारिण्यै हृदयाय नमः जेरपायी धारिण्यै शिरसे स्वाहाचोटी काटिन्यै शिखायै वषट् प्रत्यंगालिंगन्यै कवचाय हुं कामान्ध कारिण्यै नेत्राभ्यां विषयार्थिन्यै अस्त्र त्रयाय फट्

स्तोत्र प्रारम्भ करते हुए कहते हैं-

नौमि नौमि  नौमि देवि रण्डिके।
लेाकवेदसिद्धपंथखण्डिके।।

     कवि ने इन व्यंग्यात्मक स्तोत्रों में असंस्कृत शब्दों का प्रयोग बहुधा किया है-

मद्यप प्रमोद पुष्ट पीढिका।
एनलाइटेंड पंथ सीढिका।।
पेशवाज अंग शोभितानना।
गिलटभूषणा प्रमोद कानना।।

मदिरास्तवराज में मदिरा की महिमा का परिचय कुछ यूं प्रस्तुत करते हैं-

कायस्थकुलसंपूज्याऽऽभीराभिल्लजनप्रिया।
शूद्रसेव्या राजपेया  घूर्णाघूर्णितकारिणी।।

मदिरा के बहुरूपों का वर्णन करते हुए भारतेन्दु कहते हैं-

मुजेल ह्विस्की मार्टल औल्डटाम हेनिसी शेरी।
बिहाइव वैडेलिस् मेनी रम् बीयर बरमौथुज।।
दुधिया दुधवा दुद्धी दारु मद दुलारिया।
कलवार-प्रिया काली  कलवरिया निवासिनी।।

इस प्रकार के स्तोत्रों के पाठ का फल भी अन्त में वर्णित करते हैं-


यः पठेत् प्रातरुत्थाय नामसार्द्धशतम्मुदा ।
धनमानं परित्यज्य ज्ञातिपंक्त्या च्युतो भवेत्।।
निन्दितो बहुभिर्लोकैर्मुखस्वासपरांगमुखैः।
बलहीनो क्रियाहीनो मूत्रकृत् लुण्ठते क्षितौ।
पीत्वा पीत्वा पुनः पीत्वा यावल्लुंठति भूतले।
उत्थाय च पुनः पीत्वा नरो मुक्तिमवाप्नुयात्।।
   
   अंग्रेजस्तव में कवि हिन्दी मे व्याजनिन्दा करके संस्कृत में तीन श्लोक रचता है-


दीक्षा दानं तपस्तीर्थं ज्ञानयागादिकाः क्रिया।
अंग्रेजस्तवपाठस्य कलां नार्हति षोडशीम्।।
विद्यार्थी लभते विद्यां धनार्थी लभते धनम्।
स्टारार्थी लभते स्टारम् मोक्षार्थीं लभते गतिम्।।
एककालं द्विकालं च त्रिकालं नित्यमुत्पठेत्।
भवपाशविनिर्मुक्तः अंग्रेजलोकं संगच्छति।।

  यहां यह भी ध्यातव्य है कि भारतेन्दु ने अंगेजों की प्रशंसा में लिखे गये दो काव्यसंकलनों के प्रकाशन में महत्त्वपूर्ण भूमिका भी निभाई। 1870 में प्रकाशित सुमनोंजलिः An Offering Of Flowers में 14 कवियों की संस्कृत रचनाएं तथा दो कवियों की हिन्दी कविताएं संकलित हैं। इसका प्रकाशन ड्यूक ऑफ एडिनबरा के भारत आगमन के अवसर पर हुआ था। मानसोपायन 1888 में प्रिंस ऑफ वेल्स के भारतवर्ष में आगमन पर भारतेन्दु के सम्पादन में प्रकाशित हुआ। जिसमें संस्कृत सहित विविध भाषाओं के कवियों की कविताएं संकलित थी। इसके आरम्भ में स्वयं भारतेन्दु हरिश्चन्द्र लिखते हैं- ‘‘युवराज श्री प्रिंस ऑफ वेल्स के भारतवर्ष में शुभागमन के महोत्सव में हिन्दी, महाराष्ट्री, बंगाली आदि विविध देश भाषा फारसी, अंगरेजी आदि विदेश भाषा और संस्कृतछन्दों में अनेक कवि पंडित चतुर उत्साही  राजभक्त जन निर्मित कविता संग्रह रूपी उपायन भारत राजराजेश्वरी नन्दन युवराज कुमार प्रिंस ऑफ वेल्स के चरणकमलों में संस्कृत भाषादि अनेक कविता ग्रन्थाकार तथा श्रीयुत राजकुमार ड्युक ऑफ एडिनबरा को सुमनोंजलिः समर्पणकर्ता हरिश्चन्द्र समर्पित तथा तद्वारैव संग्रहीत और प्रकाशित।’’ दरअसल भारतेन्दु सेठ अमीचन्द के वंश में हुए थे, जो अंग्रेजों के विविध स्तरों पर सहायक रहे। भारतेन्दुसमग्र में सम्पादक हेमन्त शर्मा के कथन से स्पष्ट हो जाता है कि भारतेन्दु एक तरफ तो अपने वंश की निष्ठा के कारण मजबूर थे तो दूसरी तरफ वे अपने देश की दुर्दशा देख कर व्यथित भी थे, उनकी कई कविताओं में यही कसमसाहट दिखाई देती है। एक तरफ तो वे प्रिंस के भारत आगमन पर प्रशस्तिपरक कविता लिखते हैं-

दृष्टि नृपति बलदल दली दीना भारत भूमि।
लहि है आज अनंद अति तव पंकज चूमि।।

तो दूसरी ओर वे अंग्रेजियत के विरोधी भी हैं-

भीतर भीतर सब रस चूसै
बहर से तन मन धन मूसै
जहिर बातन में अति तेज
क्यों सखि साजन, नहिं अंग्रेज।।

                भारतेन्दु ने हिन्दी आदि भाषाओं में साहित्य की अनेक विधाओं में लिखा। प्रहसनपंचक का चौथा प्रहसन संड भंडयोः संवादः संस्कृत में रचित प्रहसन है। संड और भंड नामक दो पात्रों के  संवाद के द्वारा हास्य की सृष्टि की है-

संड- कः कोऽत्र भोः?
भंड-अहमस्मि भंडाचार्यः।
सं.-कुतो भवान्?
भं.-अहं अनादियवनसमाधित उत्थितः।
सं.-विशेषः?
भं.-कोऽभिप्रायः?
सं.-तर्हि तु भवान् वसंत एव।
भं.-अत्र कः संदेहः केवलं वसन्तो वसन्तनन्दनः।
सं.-मधुनन्दनो वा माधवनन्दनो वा?
भं.-आः! किं मामाक्षिपसि! नाहं मधोः कैटभाग्रजस्य नंदनः।अहं तु हिंदूपदवाच्य अतएव माधवननदनः।

          यहां भंड मधु का अन्य अर्थ  राक्षस ले लेता है। यहां भारतेन्दु तात्कालीन भारत की दुर्दशा को भी पात्रों के मुख से व्यक्त करवाते हैं-

सं.-हहा! अस्मिन् घोरसमयेऽपि भवादृशा होलिका रमणमनुमोदयति न जानासि नायं समयो होलिकारमणस्य? भारतवर्षधने विदेशगते क्षुत् क्षामपीडिते च जनपदे किं होलिकारमणेन?

     भारतेन्दु ने भक्तिपरक काव्य भी रचे हैं। 1871 में लिखी गई प्रेममालिका  नामक हिन्दी की रचना का आरम्भ वे इन दो पद्यों से करते हैं-

संचिन्त्येद्भगवतश्चरणारविन्दं,
वज्रांकुशध्वजसरोरुहलांछनाढ्यम्।
उत्तुंगरक्तविलाससन्नखचक्रवाल,
ज्योतस्नाभिराहरमहद्धृदयान्धकारम्।।
यच्छौचनिसृतसरित्प्रवरोदकेन,
तीर्थेन मूर्ध्न्यधिकृतेन शिवः शिवोभूत्।
ध्यातुर्मनश्शमलशैलनिसृष्टवज्रं,
ध्यायेच्चिरं भगवतश्चरणारविन्दम्।। 

        भारतेन्दु ने श्री राज-राजेश्वरी देवी की स्तुति में पांच संस्कृत पद्य रचे । 1879 में रचित श्री सीतावल्लभ स्तोत्र मे 30 पद्य निबद्ध हैं। कवि सीता की वन्दना करते हुए कहते हैं -


श्रीमद्राममनः कुरंगदमने या हेमदामात्मिका
मंजूषा सुमणे रघूत्तममणेश्चेतो लिनः पद्मिनी।
या रामाक्षिचकोरपोषणकरी  चान्द्रीकला निर्मला 
सा श्रीरामवशीकरी जनकजा सीताऽस्तु मे स्वामिनी।।

    अष्टपदी हिन्दी में गीत परम्परा में प्रसिद्ध है, जिसमें आठ पद होते हैं । भारतेन्दु ने कृष्ण व राधा को आधार बनाकर सुन्दर अष्टपदी की रचना की है, जिसकी सुन्दर पदावली आकर्षित करती है-

सीमन्तिनी कोटिशतमोहनसुन्दरगोकुलभूपं
स्वालिंगनकण्टकिततनुस्पर्शोदितमदनविकारं

       भारतेन्दु ने संस्कृत में कजली/कजरी गीत भी लिखे। कजरी पूर्वी उत्तरप्रदेश में प्रसिद्ध लोकगीत है। इसे विशेष रूप से सावन माह में गाया जाता है। प्रायः कजरी गीतों में वर्षा ऋतु का विरह वर्णन तथा राधा-कृष्ण की लीलाओं का वर्णन अधिक मिलता है। भारतेन्दु लिखित संस्कृत की कजली कृष्ण-राधा की लीला पर आधारित है-

हरि हरि हरिरिह विहरत कुंजे मन्मथ मोहन बनमाली।
श्री राधाय समेतो शिखिशेखर शोभाशाली।
गोपीजन-विधुबदन-वनज-वन मोहन मत्ताली।
गायति निजदासे ‘हरिचंदे’गल-जालक माया-जाली।।
हरि हरि धीरसमीरे विहरति राधा कालिंदी-तीरे।
कूजति कलकलरवकेकावलि-कारंडव-कीरे।
वर्षति चपला चारु चमत्कृत सघन सुघन नीरे।
गायति निजपद-पद्मरेणु-रत कविवर ‘हरिश्चन्द्र’ धीरे।।


            भारतेन्दु ने संस्कृत में लावनी गीत भी लिखा, जो 1874 में हरिश्चन्द्र मैगजीन में प्रकाशित हुआ। लावनी महाराष्ट्र की लोकप्रिय कला शैली है, जिसमें संगीत, कविता, नृत्य और नाट्य सभी सम्मिलित हो जाते हैं। लावनी शब्द सम्भवतः संस्कृत के लावण्या शब्द से बना है, जो सौन्दर्य के अर्थ में प्रयुक्त होता है-

कुंज कुंज सखि सत्वरम्
चल चल दयितः प्रतीक्षते त्वां तनोति बहु-आदरम्।...........
परित्यज्य चंचलमंजीरं
अवगुण्ठ्य चन्द्राननमिह सखि धेहि नीलचीरं
रमय रसिकेश्वरमाभीरम्

         भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने अनुवाद के द्वारा भी संस्कृत क्षेत्र में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। आपने श्रीहर्ष कृत रत्नावली के कुछ अंशों का हिन्दी में अनुवाद किया। कृष्ण मिश्र के प्रबोधचन्द्रोदय नाटक के तीसरे अंक का अनुवाद पाखंडविडम्बन नाम से तथा मुद्राराक्षस नाटक का अनुवाद भी किया। भारतेन्दु ने संस्कृत के धनंजयविजय नामक नाटक का भी हिन्दी अनुवाद किया, जिसके रचयिता का नाम कांचन पंडित बताया गया है। भारतेन्दु ने संस्कृत व अंग्रेजी के नाट्यशास्त्रीय ग्रन्थों के आधार पर नाटक अथवा दृश्य काव्य सिद्धान्त विवेचन नामक ग्रन्थ भी लिखा। साथ ही शांडिल्य ऋषि के भक्तिपरक सौ संस्कृतसूत्रों पर हिन्दी भाष्य तथा नारद कृत सूत्रों पर बृहत् भाष्य की भी रचना की।