कृृति - धनुरातनोमि (भारतीय-आदिवासी-कविता)
विधा - अनुवाद
अनुवादक एवं सम्पादक - डॉ. ऋषिराज जानी
प्रकाशक - गोविन्द गुरु प्रकाशन, गोधरा, अहमदाबाद 9033451409
संस्करण - प्रथम, 2020
पृष्ठ संख्या -156
अंकित मूल्य - 160/-
संस्कृत में मौलिक रचनाओं के साथ-साथ अनुवाद भी निरन्तर हो रहे हैं। न केवल भारतीय भाषाओं से अपितु विदेशी भाषाओं से भी उत्कृष्ट साहित्य का अनुवाद संस्कृत में होता रहा है। धनुरातनोमि अनुवाद संकलन दो विशेषताओं के कारण विशेष रूप से उल्लेखनीय है। प्रथम तो यह कि इस संकलन में सर्वप्रथम भारतीय आदिवासी कविताओं का संस्कृत में अनुवाद किया गया है एवं द्वितीय विशेषता यह कि इस संकलन में हिन्दी, गुजराती, मराठी, अंग्रेजी आदि भाषाओं के साथ- साथ ऐसी विभिन्न भाषाओं के साहित्य से किया गया अनुवाद भी है, जो भाषाएं आदिवासियों द्वारा ही बोली जाती है,यथा-मुण्डारी, कुखुड, सन्ताली, हो, कुंकुणा, धोडी, गामीत इत्यादि। यह भी प्रथम बार ही हुआ है कि इस प्रकार की आदिवासी भाषाओं के साहित्य का रसास्वादन संस्कृत भाषा के माध्यम से किया Kकेजा सकेगा।
आदिवासी किसी भी देश के मूल निवासी को कहा जाता है। भारत में ये आदिवासी मुख्य धारा से कटकर जंगलों एवं पहाडी प्रदेशों में रहा करते हैं। आदिवासी विमर्श की कविताएं इन्हीं आदिवासियों के भोगे हुए यथार्थ एवं उनकी समस्याओं को बयां करती है। इस प्रकार की कविताओं में यह वर्णन दो प्रकार के कवि करते हैं, एक वे जो स्वयं आदिवासी के रूप में इन अनुभवों से गुजरते हैं और दूसरे वे जो इन्हें देखकर अपनी कविता का विषय बनाते हैं। प्रस्तुत संकलन धनुरातनोमि में दोनों ही प्रकार की आदिवासी विमर्श की कविताएं हैं। धनुरातनोमि के अनुवादक एवं सम्पादक डॉ. ऋषिराज जानी हैं, जो स्वयं युवा संस्कृत कवि के रूप में अपनी विशिष्ट पहिचान बना चुके हैं। इससे पूर्व डॉ. जानी भारतीय दलित विमर्श की कविताओं का संस्कृत में अनुवाद सूर्यगेहे तमिस्रा के रूप में कर चुके हैं। आदिवासी विमर्श की कविताएं अनुवाद के रूप में संस्कृत में क्यों उतारी जा रही हैं, इस विषय में स्वयं अनुवादक पुरो वाक् में अपनी बात रखते हुए कहते हैं- यद्यपि संस्कृता भगवती जनसाधारणानां वेदनां शब्दबद्धाम् अकरोत्, तथापि ये जनाः संस्कृतं न जानन्ति स्म ते दूरकक्ष एव स्थिता आसन्। संस्कृता वाक् तु लोकमाता आसीत् अस्ति च युगे युगे सर्वेषां जननी अस्त्येव। सा राजपुरुषाणाम् अनुचरी कथं भवेत्? उद्योगीकरणं, नगरीकरणं, भौतिकवादः-इत्यादिभिः शनैः शनैः वनानि, वनजीवनं, वनसंवेदना,वनवासिनः - एते सर्वे प्रभ्रष्टा जाताः। तेषां वेदनां संवेदनां च प्रकटीकर्तुं भगवत्या वाग्देवतया अहं प्रेरितः अपि च मया भारतीय-आदिवासी-कविताम् अनूदितां कर्तुं संकल्पः कृतः।
इस संग्रह में 17 भाषाओं की कविताओं का अनुवाद किया गया है। ये कविताएं 33 कवियों की हैं। ये कविताएं आदिवासियों की व्यथा के साथ नागरी सभ्यता के दुष्प्रभावों का भी आकलन करती हैं। झारखण्ड प्रदेश की मुण्डारी भाषा की एक कविता में कवि पण्डुक पक्षी (कपोत की एक जाति) के साथ, मत्स्य के साथ वार्तालाप करते हुए कहता है-
पर्वतः तु प्रज्वालितः, पण्डुकः!
आवां कुत्र तृणानि मार्गयिष्यावः?
जलं मार्गयिष्यावः?
वापिका तु भग्ना कृता मुग्धमत्स्य!
आवां कुत्र तीर्त्वा
जिविष्यावो निवत्स्यावश्च? (मूल-दुलायचन्द्र मुण्डा)
यहां यह स्वतः प्रकट हो जाता है कि किस प्रकार एक आदिवासी प्रकृति से सीधा जुडाव रखता है और यह भी कि नागरी सभ्यता प्रकृति और मनुष्य के इस अकृत्रिम सम्बन्ध को छिन्न भिन्न कर रही है। झारखण्ड प्रदेश की ही कुडुख भाषा में ही कवि व्यंग्य करते हुए कहता है कि 26 जनवरी को तो ये आदिवासी आपको अच्छे लगते हैं किन्तु तत्पश्चात् आपकी दृष्टि परिवर्तित हो जाती है, आप उन्हें उग्रवादी, बुद्धिहीन मानने लग गये हो क्योंकि उन आदिवासी जनों में अब एक दुर्गुण आ गया है कि वे अब सोचने लगे है-
जनवरीमासस्य षड्विंशतितमायां तारिकायां
राजधान्या मार्गेषु नृत्यपर्यन्तं
प्रतिभान्ति ते जनाः
अतिनिर्दोषा अपि च अतिभद्राः
किन्तु
अधुना ते तव दृष्टौ
जाता दुष्टाः,
उग्रवादिनः, सन्त्रासवादिनः,
दिग्भ्रान्ताः, बुद्धिहीनाः
अपि च न जाने
के के ते जाताः सन्ति।
आम्! अधुना तेषु आगत एको दुर्गुणः।
ते किञ्चित् किञ्चिद्
विचारयन्ति,
किञ्चित् किञ्चिद् वदन्ति।
किञ्चित् किञ्चिद् याचन्ते। (मूल-महादेव टोप्पो)
ढूंढाडी भाषा राजस्थान प्रदेश की आदिभाषा है। इस भाषा का कवि कहता है कि हम आदिवासी आदिम थे तो अन्त में भी हम ही रहेंगे-
एतस्यां धरित्र्यांI
मानवस्य प्रथमांशाः स्मो वयम्।
आदिमा अपि स्मो वयम्।
अपि च अन्तेऽपि वयं स्थास्यामः। (मूल-हीरा मीणा)
आदिवासी महिलाओं की पीडा को, भय को प्रकट करते हुए हिन्दी भाषा का कवि कहता है कि अकेली आदिवासी कन्या घने सुनसान जंगल में जाने से नही डरती किन्तु वह शहर के हाट (साप्ताहिक बाजार) में जाने से डरती है-
एकाकिनी आदिवासीकन्या
निबिडं वनं गन्तुं न बिभेति,
व्याघ्रसिंहेभ्यो न बिभेति,
किन्तु
मधूकपुष्पाणि नीत्वा ‘गीदमप्रदेशविपणीं’ गन्तुं बिभेति। (मूल-विनोद कुमार शुक्ल)
शहर ने आदिवासी संस्कृति का नाश तो किया ही है। हमने आदिवासियों की सुरक्षा के नाम से कदाचित् उनका शोषण भी किया है। हिन्दी भाषा का कवि इस पीडा को व्यंग्य में इस प्रकार प्रकट करता है-
चिपिटा नासिका,
स्थूलोष्ठौ,
मशीसदृशो वर्णः,
कुरूपता,
एतत् सर्वं तेषां परिचायकमासीत्।
(तव दृष्टौ)
अधुना तेषां सन्ततयः
गौरववर्णाः,
दीर्घनासाः
तन्वोष्ठाः
अपि च सुरूपाः भवन्त्यः सन्ति।
पुलिसरक्षकदलमेकम् आगत्य
निवसदस्ति
तेषां वसतेः समीपे
तेषां रक्षणार्थम्। (मूल-तरुण मित्तल)
इस संकलन के परिशिष्ट में डॉ. हर्षदेव माधव, कौशल तिवारी और ऋषिराज जानी की मूल रूप से संस्कृत भाषा में ही निबद्ध कविताएं भी सम्मिलित की गई हैं, जिससे प्रमाणित हो जाता है कि संस्कृत भाषा में आदिवासी विमर्श की कविताएं भी लिखी जा रही हैं। डॉ. हर्षदेव माधव की अपरिचिता मार्गाः कविता आदिवासी जनों के लिये वर्तमान विडम्बना को वर्णित करती है-
कोऽयं रोगः खलु
येन
वनवासिनो वयं
वनेभ्यो बिभीमः?
कस्माज्जाताः
सुहृदो नो व्याघ्राः
शत्रवः?
कस्मान्न दृश्यन्ते
परिचिताः जना
ये
गता नगरमायाबद्धाः?
आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी प्रस्तुत संकलन की शुभाशंसा में इन कविताओं को आरण्यकगीतों का नवीन रूप बतलाते हुए कहते हैं कि प्रकृति से ऐसा तादात्म्य अब दुर्लभ हो गया है- एताः कविताः क्वचित् ऋग्वेदस्य अरण्यानीसूक्तं स्मारयन्ति क्वचित् पर्जन्यसूक्तम्। वन्यजीवनेन एतादृशं तादात्म्यं साम्प्रतिके जीवने सर्वथा स्पृहणीयं जातम्। वनवासिनो जानाति यदहं वनस्यैवविस्तारोऽस्मि-एतादृश्यः अनुभूतयोऽन्यत्र दुर्लभाः सन्ति।
संग्रह का नामकरण अनुवादक ने सम्भवतः ऋग्वेद के वाक्सूक्त के एक मंत्र के आधार पर किया है- अहं रुद्राय धनुरातनोमि-----आदिवासियों का धनुष से गहन सम्बन्ध है| आदिवासी कविता वाग्देवी के बाण है । वाग्देवी ही कदाचित् प्रकृति के रूप में कल्पित है और आदिवासी उसके रक्षक| प्रकृति विकृत किये जाने पर रौद्र रूप भी धारण कर लेती है|
इस संग्रह में कविताओं के साथ उनके भावों के अनुरूप कुछ चित्र भी दिये गये हैं, जो स्वयं अनुवादक ने बनाये हैं। ये चित्र वारली चित्रशैली में है, जो महाराष्ट्र की वारली जनजाति में प्रचलित है। निश्चित ही यह संग्रह संस्कृत साहित्य में विमर्श के नवीन वातायन उद्घाटित करेगा।