Sunday, August 9, 2020

धनुरातनोमि (भारतीय-आदिवासी-कविता)

कृृति - धनुरातनोमि (भारतीय-आदिवासी-कविता)

विधा - अनुवाद

अनुवादक एवं सम्पादक - डॉ. ऋषिराज जानी

प्रकाशक - गोविन्द गुरु प्रकाशन, गोधरा, अहमदाबाद 9033451409

संस्करण - प्रथम, 2020

पृष्ठ संख्या -156

अंकित मूल्य - 160/-


           संस्कृत में मौलिक रचनाओं के साथ-साथ अनुवाद भी निरन्तर हो रहे हैं। न केवल भारतीय भाषाओं से अपितु विदेशी भाषाओं से भी उत्कृष्ट साहित्य का अनुवाद संस्कृत में होता रहा है। धनुरातनोमि अनुवाद संकलन दो विशेषताओं के कारण विशेष रूप से उल्लेखनीय है। प्रथम तो यह कि इस संकलन में सर्वप्रथम भारतीय आदिवासी कविताओं का संस्कृत में अनुवाद किया गया है एवं द्वितीय विशेषता यह कि इस संकलन में हिन्दी, गुजराती, मराठी, अंग्रेजी आदि भाषाओं के  साथ- साथ ऐसी विभिन्न भाषाओं के साहित्य से किया गया अनुवाद भी है, जो भाषाएं आदिवासियों द्वारा ही बोली जाती है,यथा-मुण्डारी, कुखुड, सन्ताली, हो, कुंकुणा, धोडी, गामीत इत्यादि। यह भी प्रथम बार ही हुआ है कि इस प्रकार की आदिवासी भाषाओं के साहित्य का रसास्वादन संस्कृत भाषा के माध्यम से किया Kकेजा सकेगा।  

             आदिवासी किसी भी देश के मूल निवासी को कहा जाता है। भारत में ये आदिवासी मुख्य धारा से कटकर जंगलों एवं पहाडी प्रदेशों में रहा करते हैं। आदिवासी विमर्श की कविताएं इन्हीं आदिवासियों के भोगे हुए यथार्थ एवं उनकी समस्याओं को बयां करती है। इस प्रकार की कविताओं में यह वर्णन दो प्रकार के कवि करते हैं, एक वे जो स्वयं आदिवासी के रूप में इन अनुभवों से गुजरते हैं और दूसरे वे जो इन्हें देखकर अपनी कविता का विषय बनाते हैं। प्रस्तुत संकलन धनुरातनोमि में दोनों ही प्रकार की आदिवासी विमर्श की कविताएं हैं। धनुरातनोमि के अनुवादक एवं सम्पादक डॉ. ऋषिराज जानी हैं, जो स्वयं युवा संस्कृत कवि के रूप में अपनी विशिष्ट पहिचान बना चुके हैं।  इससे पूर्व डॉ. जानी भारतीय दलित विमर्श की कविताओं का संस्कृत में अनुवाद सूर्यगेहे तमिस्रा के रूप में कर चुके हैं। आदिवासी विमर्श की कविताएं अनुवाद के रूप में संस्कृत में क्यों उतारी जा रही हैं, इस विषय में स्वयं अनुवादक पुरो वाक् में अपनी बात रखते हुए कहते हैं- यद्यपि संस्कृता भगवती जनसाधारणानां वेदनां शब्दबद्धाम् अकरोत्, तथापि ये जनाः संस्कृतं न जानन्ति स्म ते दूरकक्ष एव स्थिता आसन्। संस्कृता वाक् तु लोकमाता आसीत् अस्ति च युगे युगे सर्वेषां जननी अस्त्येव। सा राजपुरुषाणाम् अनुचरी कथं भवेत्? उद्योगीकरणं, नगरीकरणं, भौतिकवादः-इत्यादिभिः शनैः शनैः वनानि, वनजीवनं, वनसंवेदना,वनवासिनः - एते सर्वे प्रभ्रष्टा जाताः। तेषां वेदनां संवेदनां च प्रकटीकर्तुं भगवत्या वाग्देवतया अहं प्रेरितः अपि च मया भारतीय-आदिवासी-कविताम् अनूदितां कर्तुं संकल्पः कृतः।


        इस संग्रह में 17 भाषाओं की कविताओं का अनुवाद किया गया है। ये कविताएं 33 कवियों की हैं। ये कविताएं आदिवासियों की व्यथा के साथ नागरी सभ्यता के दुष्प्रभावों का भी आकलन करती हैं। झारखण्ड प्रदेश की मुण्डारी भाषा की एक कविता में कवि पण्डुक पक्षी (कपोत की एक जाति) के साथ, मत्स्य के साथ वार्तालाप करते हुए कहता है-

पर्वतः तु प्रज्वालितः, पण्डुकः!

आवां कुत्र तृणानि मार्गयिष्यावः?

जलं मार्गयिष्यावः?

वापिका तु भग्ना कृता मुग्धमत्स्य!

आवां कुत्र तीर्त्वा

जिविष्यावो निवत्स्यावश्च? (मूल-दुलायचन्द्र मुण्डा)


    यहां यह स्वतः प्रकट हो जाता है कि किस प्रकार एक आदिवासी प्रकृति से सीधा जुडाव रखता है और यह भी कि नागरी सभ्यता प्रकृति और मनुष्य के इस अकृत्रिम सम्बन्ध को छिन्न भिन्न कर रही है। झारखण्ड प्रदेश की ही कुडुख भाषा में ही कवि व्यंग्य करते हुए कहता है कि 26 जनवरी को तो ये आदिवासी आपको अच्छे लगते हैं किन्तु तत्पश्चात् आपकी दृष्टि परिवर्तित हो जाती है, आप उन्हें उग्रवादी, बुद्धिहीन मानने लग गये हो क्योंकि उन आदिवासी जनों में अब एक दुर्गुण आ गया है कि वे अब सोचने लगे है-

जनवरीमासस्य षड्विंशतितमायां तारिकायां

राजधान्या मार्गेषु नृत्यपर्यन्तं

प्रतिभान्ति ते जनाः

अतिनिर्दोषा अपि च अतिभद्राः

किन्तु

अधुना ते तव दृष्टौ

जाता दुष्टाः,

उग्रवादिनः, सन्त्रासवादिनः,

दिग्भ्रान्ताः, बुद्धिहीनाः

अपि च न जाने

के के ते जाताः सन्ति।

आम्! अधुना तेषु आगत एको दुर्गुणः।

ते किञ्चित् किञ्चिद्

विचारयन्ति,

किञ्चित् किञ्चिद् वदन्ति।

किञ्चित् किञ्चिद् याचन्ते। (मूल-महादेव टोप्पो)


   ढूंढाडी भाषा राजस्थान प्रदेश की आदिभाषा है। इस भाषा का कवि कहता है कि हम आदिवासी आदिम थे तो अन्त में भी हम ही रहेंगे-

एतस्यां धरित्र्यांI

मानवस्य प्रथमांशाः स्मो वयम्।

आदिमा अपि स्मो वयम्।

अपि च अन्तेऽपि वयं स्थास्यामः। (मूल-हीरा मीणा)

        आदिवासी महिलाओं की पीडा को, भय को प्रकट करते हुए हिन्दी भाषा का कवि कहता है कि अकेली आदिवासी कन्या घने सुनसान जंगल में जाने से नही डरती किन्तु वह शहर के हाट (साप्ताहिक बाजार) में जाने से डरती है-

एकाकिनी आदिवासीकन्या

निबिडं वनं गन्तुं न बिभेति,

व्याघ्रसिंहेभ्यो न बिभेति,

किन्तु

मधूकपुष्पाणि नीत्वा ‘गीदमप्रदेशविपणीं’ गन्तुं बिभेति। (मूल-विनोद कुमार शुक्ल)


                     शहर ने आदिवासी संस्कृति का नाश तो किया ही है। हमने आदिवासियों की सुरक्षा के नाम से कदाचित् उनका शोषण भी किया है। हिन्दी भाषा का कवि इस पीडा को व्यंग्य में इस प्रकार प्रकट करता है-

चिपिटा नासिका,

स्थूलोष्ठौ,

मशीसदृशो वर्णः,

कुरूपता,

एतत् सर्वं तेषां परिचायकमासीत्।

(तव दृष्टौ)

अधुना तेषां  सन्ततयः

गौरववर्णाः,

दीर्घनासाः

तन्वोष्ठाः

अपि च सुरूपाः भवन्त्यः सन्ति।

पुलिसरक्षकदलमेकम् आगत्य

निवसदस्ति

तेषां वसतेः समीपे

तेषां रक्षणार्थम्। (मूल-तरुण मित्तल)

  इस संकलन के परिशिष्ट में डॉ. हर्षदेव माधव, कौशल तिवारी और ऋषिराज जानी की मूल रूप से संस्कृत भाषा में ही निबद्ध कविताएं भी सम्मिलित की गई हैं, जिससे प्रमाणित हो जाता है कि संस्कृत भाषा में आदिवासी विमर्श की कविताएं भी लिखी जा रही हैं। डॉ. हर्षदेव माधव की अपरिचिता मार्गाः कविता आदिवासी जनों के लिये वर्तमान विडम्बना को वर्णित करती है-

कोऽयं रोगः खलु

येन

वनवासिनो वयं

वनेभ्यो बिभीमः?

कस्माज्जाताः

सुहृदो नो व्याघ्राः

शत्रवः?

कस्मान्न दृश्यन्ते

परिचिताः जना

ये

गता नगरमायाबद्धाः?


   आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी प्रस्तुत संकलन की शुभाशंसा में  इन कविताओं को आरण्यकगीतों का नवीन रूप बतलाते हुए कहते हैं कि प्रकृति से ऐसा तादात्म्य अब दुर्लभ हो गया है-  एताः कविताः क्वचित् ऋग्वेदस्य अरण्यानीसूक्तं स्मारयन्ति क्वचित् पर्जन्यसूक्तम्। वन्यजीवनेन एतादृशं तादात्म्यं साम्प्रतिके जीवने सर्वथा स्पृहणीयं जातम्। वनवासिनो जानाति यदहं वनस्यैवविस्तारोऽस्मि-एतादृश्यः अनुभूतयोऽन्यत्र दुर्लभाः सन्ति।

    संग्रह का नामकरण अनुवादक ने सम्भवतः ऋग्वेद के वाक्सूक्त के एक मंत्र के आधार पर किया है- अहं रुद्राय धनुरातनोमि-----आदिवासियों का धनुष से गहन सम्बन्ध है|  आदिवासी कविता वाग्देवी के बाण है । वाग्देवी ही कदाचित् प्रकृति के रूप में कल्पित है और आदिवासी उसके रक्षक| प्रकृति  विकृत किये जाने पर रौद्र रूप भी धारण कर लेती है|

        इस संग्रह में कविताओं के साथ उनके भावों के अनुरूप  कुछ चित्र भी दिये गये हैं, जो स्वयं अनुवादक ने बनाये हैं। ये चित्र वारली चित्रशैली में है, जो महाराष्ट्र की वारली जनजाति में प्रचलित है। निश्चित ही यह संग्रह संस्कृत साहित्य में विमर्श के नवीन वातायन उद्घाटित करेगा।

Saturday, August 1, 2020

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का संस्कृत को योगदान

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का संस्कृत को योगदान


भारतेन्दु हरिश्चन्द्र हिन्दी साहित्य में प्रसिद्ध हैं ही, किन्तु भारतेन्दु गाहे-बगाहे संस्कृत में भी लिखते रहे। भारतेन्दु की संस्कृत रचनाएं अत्यल्प हैं किन्तु वे व्यंग्य की शैली में लिखे गये संस्कृत काव्यों से अपनी एक अलग पहचान संस्कृत काव्य जगत् में बनाते हैं। आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी भारतेन्दु के संस्कृत कृतित्व के विषय में लिखते हैं कि - ‘‘स्तोत्र की विधा में उपहास या उत्प्रास की शैली मिलाकर भारतेन्दु ने    संस्कृत रचना में भी प्रतिभा की प्रत्यग्रता का परिचय दिया।’’

 1874 से 1878 के मध्य रचे गये स्तोत्रपंचरत्न में संकलित पांच स्तोत्रों में से तीन स्तोत्र वेश्यास्तवराज, मदिरास्तवराज तथा अंग्रेजस्तव संस्कृत में निबद्ध हैं। कवि ने इन स्तोत्रों में व्याज निन्दा शैली का प्रयोग किया है। हरिश्चन्द्र इन स्तोत्रों के विषय में आरम्भ में लिखते हैं-यद्यपि ये स्तोत्र हास्यजनक है तथापि विज्ञ लोग इनसे अनेकहों उपदेश निकाल सकते हैं। वेश्यास्तवराज को वे महासंस्कृत में  लिखा हुआ बताते हैं-
(महासंस्कृत)
ओं अस्य श्री वेश्यास्तवराज महामाला मंत्रस्य भण्डाचार्यः श्री हरिश्चन्द्रो ऋषिः द्रव्यो बींज मुखं कीलकं वारवधू महादेवता सर्वस्वाहार्थं जपे विनियोगः।अथ अंगन्यासः। द्रव्य हारिण्यै हृदयाय नमः जेरपायी धारिण्यै शिरसे स्वाहाचोटी काटिन्यै शिखायै वषट् प्रत्यंगालिंगन्यै कवचाय हुं कामान्ध कारिण्यै नेत्राभ्यां विषयार्थिन्यै अस्त्र त्रयाय फट्

स्तोत्र प्रारम्भ करते हुए कहते हैं-

नौमि नौमि  नौमि देवि रण्डिके।
लेाकवेदसिद्धपंथखण्डिके।।

     कवि ने इन व्यंग्यात्मक स्तोत्रों में असंस्कृत शब्दों का प्रयोग बहुधा किया है-

मद्यप प्रमोद पुष्ट पीढिका।
एनलाइटेंड पंथ सीढिका।।
पेशवाज अंग शोभितानना।
गिलटभूषणा प्रमोद कानना।।

मदिरास्तवराज में मदिरा की महिमा का परिचय कुछ यूं प्रस्तुत करते हैं-

कायस्थकुलसंपूज्याऽऽभीराभिल्लजनप्रिया।
शूद्रसेव्या राजपेया  घूर्णाघूर्णितकारिणी।।

मदिरा के बहुरूपों का वर्णन करते हुए भारतेन्दु कहते हैं-

मुजेल ह्विस्की मार्टल औल्डटाम हेनिसी शेरी।
बिहाइव वैडेलिस् मेनी रम् बीयर बरमौथुज।।
दुधिया दुधवा दुद्धी दारु मद दुलारिया।
कलवार-प्रिया काली  कलवरिया निवासिनी।।

इस प्रकार के स्तोत्रों के पाठ का फल भी अन्त में वर्णित करते हैं-


यः पठेत् प्रातरुत्थाय नामसार्द्धशतम्मुदा ।
धनमानं परित्यज्य ज्ञातिपंक्त्या च्युतो भवेत्।।
निन्दितो बहुभिर्लोकैर्मुखस्वासपरांगमुखैः।
बलहीनो क्रियाहीनो मूत्रकृत् लुण्ठते क्षितौ।
पीत्वा पीत्वा पुनः पीत्वा यावल्लुंठति भूतले।
उत्थाय च पुनः पीत्वा नरो मुक्तिमवाप्नुयात्।।
   
   अंग्रेजस्तव में कवि हिन्दी मे व्याजनिन्दा करके संस्कृत में तीन श्लोक रचता है-


दीक्षा दानं तपस्तीर्थं ज्ञानयागादिकाः क्रिया।
अंग्रेजस्तवपाठस्य कलां नार्हति षोडशीम्।।
विद्यार्थी लभते विद्यां धनार्थी लभते धनम्।
स्टारार्थी लभते स्टारम् मोक्षार्थीं लभते गतिम्।।
एककालं द्विकालं च त्रिकालं नित्यमुत्पठेत्।
भवपाशविनिर्मुक्तः अंग्रेजलोकं संगच्छति।।

  यहां यह भी ध्यातव्य है कि भारतेन्दु ने अंगेजों की प्रशंसा में लिखे गये दो काव्यसंकलनों के प्रकाशन में महत्त्वपूर्ण भूमिका भी निभाई। 1870 में प्रकाशित सुमनोंजलिः An Offering Of Flowers में 14 कवियों की संस्कृत रचनाएं तथा दो कवियों की हिन्दी कविताएं संकलित हैं। इसका प्रकाशन ड्यूक ऑफ एडिनबरा के भारत आगमन के अवसर पर हुआ था। मानसोपायन 1888 में प्रिंस ऑफ वेल्स के भारतवर्ष में आगमन पर भारतेन्दु के सम्पादन में प्रकाशित हुआ। जिसमें संस्कृत सहित विविध भाषाओं के कवियों की कविताएं संकलित थी। इसके आरम्भ में स्वयं भारतेन्दु हरिश्चन्द्र लिखते हैं- ‘‘युवराज श्री प्रिंस ऑफ वेल्स के भारतवर्ष में शुभागमन के महोत्सव में हिन्दी, महाराष्ट्री, बंगाली आदि विविध देश भाषा फारसी, अंगरेजी आदि विदेश भाषा और संस्कृतछन्दों में अनेक कवि पंडित चतुर उत्साही  राजभक्त जन निर्मित कविता संग्रह रूपी उपायन भारत राजराजेश्वरी नन्दन युवराज कुमार प्रिंस ऑफ वेल्स के चरणकमलों में संस्कृत भाषादि अनेक कविता ग्रन्थाकार तथा श्रीयुत राजकुमार ड्युक ऑफ एडिनबरा को सुमनोंजलिः समर्पणकर्ता हरिश्चन्द्र समर्पित तथा तद्वारैव संग्रहीत और प्रकाशित।’’ दरअसल भारतेन्दु सेठ अमीचन्द के वंश में हुए थे, जो अंग्रेजों के विविध स्तरों पर सहायक रहे। भारतेन्दुसमग्र में सम्पादक हेमन्त शर्मा के कथन से स्पष्ट हो जाता है कि भारतेन्दु एक तरफ तो अपने वंश की निष्ठा के कारण मजबूर थे तो दूसरी तरफ वे अपने देश की दुर्दशा देख कर व्यथित भी थे, उनकी कई कविताओं में यही कसमसाहट दिखाई देती है। एक तरफ तो वे प्रिंस के भारत आगमन पर प्रशस्तिपरक कविता लिखते हैं-

दृष्टि नृपति बलदल दली दीना भारत भूमि।
लहि है आज अनंद अति तव पंकज चूमि।।

तो दूसरी ओर वे अंग्रेजियत के विरोधी भी हैं-

भीतर भीतर सब रस चूसै
बहर से तन मन धन मूसै
जहिर बातन में अति तेज
क्यों सखि साजन, नहिं अंग्रेज।।

                भारतेन्दु ने हिन्दी आदि भाषाओं में साहित्य की अनेक विधाओं में लिखा। प्रहसनपंचक का चौथा प्रहसन संड भंडयोः संवादः संस्कृत में रचित प्रहसन है। संड और भंड नामक दो पात्रों के  संवाद के द्वारा हास्य की सृष्टि की है-

संड- कः कोऽत्र भोः?
भंड-अहमस्मि भंडाचार्यः।
सं.-कुतो भवान्?
भं.-अहं अनादियवनसमाधित उत्थितः।
सं.-विशेषः?
भं.-कोऽभिप्रायः?
सं.-तर्हि तु भवान् वसंत एव।
भं.-अत्र कः संदेहः केवलं वसन्तो वसन्तनन्दनः।
सं.-मधुनन्दनो वा माधवनन्दनो वा?
भं.-आः! किं मामाक्षिपसि! नाहं मधोः कैटभाग्रजस्य नंदनः।अहं तु हिंदूपदवाच्य अतएव माधवननदनः।

          यहां भंड मधु का अन्य अर्थ  राक्षस ले लेता है। यहां भारतेन्दु तात्कालीन भारत की दुर्दशा को भी पात्रों के मुख से व्यक्त करवाते हैं-

सं.-हहा! अस्मिन् घोरसमयेऽपि भवादृशा होलिका रमणमनुमोदयति न जानासि नायं समयो होलिकारमणस्य? भारतवर्षधने विदेशगते क्षुत् क्षामपीडिते च जनपदे किं होलिकारमणेन?

     भारतेन्दु ने भक्तिपरक काव्य भी रचे हैं। 1871 में लिखी गई प्रेममालिका  नामक हिन्दी की रचना का आरम्भ वे इन दो पद्यों से करते हैं-

संचिन्त्येद्भगवतश्चरणारविन्दं,
वज्रांकुशध्वजसरोरुहलांछनाढ्यम्।
उत्तुंगरक्तविलाससन्नखचक्रवाल,
ज्योतस्नाभिराहरमहद्धृदयान्धकारम्।।
यच्छौचनिसृतसरित्प्रवरोदकेन,
तीर्थेन मूर्ध्न्यधिकृतेन शिवः शिवोभूत्।
ध्यातुर्मनश्शमलशैलनिसृष्टवज्रं,
ध्यायेच्चिरं भगवतश्चरणारविन्दम्।। 

        भारतेन्दु ने श्री राज-राजेश्वरी देवी की स्तुति में पांच संस्कृत पद्य रचे । 1879 में रचित श्री सीतावल्लभ स्तोत्र मे 30 पद्य निबद्ध हैं। कवि सीता की वन्दना करते हुए कहते हैं -


श्रीमद्राममनः कुरंगदमने या हेमदामात्मिका
मंजूषा सुमणे रघूत्तममणेश्चेतो लिनः पद्मिनी।
या रामाक्षिचकोरपोषणकरी  चान्द्रीकला निर्मला 
सा श्रीरामवशीकरी जनकजा सीताऽस्तु मे स्वामिनी।।

    अष्टपदी हिन्दी में गीत परम्परा में प्रसिद्ध है, जिसमें आठ पद होते हैं । भारतेन्दु ने कृष्ण व राधा को आधार बनाकर सुन्दर अष्टपदी की रचना की है, जिसकी सुन्दर पदावली आकर्षित करती है-

सीमन्तिनी कोटिशतमोहनसुन्दरगोकुलभूपं
स्वालिंगनकण्टकिततनुस्पर्शोदितमदनविकारं

       भारतेन्दु ने संस्कृत में कजली/कजरी गीत भी लिखे। कजरी पूर्वी उत्तरप्रदेश में प्रसिद्ध लोकगीत है। इसे विशेष रूप से सावन माह में गाया जाता है। प्रायः कजरी गीतों में वर्षा ऋतु का विरह वर्णन तथा राधा-कृष्ण की लीलाओं का वर्णन अधिक मिलता है। भारतेन्दु लिखित संस्कृत की कजली कृष्ण-राधा की लीला पर आधारित है-

हरि हरि हरिरिह विहरत कुंजे मन्मथ मोहन बनमाली।
श्री राधाय समेतो शिखिशेखर शोभाशाली।
गोपीजन-विधुबदन-वनज-वन मोहन मत्ताली।
गायति निजदासे ‘हरिचंदे’गल-जालक माया-जाली।।
हरि हरि धीरसमीरे विहरति राधा कालिंदी-तीरे।
कूजति कलकलरवकेकावलि-कारंडव-कीरे।
वर्षति चपला चारु चमत्कृत सघन सुघन नीरे।
गायति निजपद-पद्मरेणु-रत कविवर ‘हरिश्चन्द्र’ धीरे।।


            भारतेन्दु ने संस्कृत में लावनी गीत भी लिखा, जो 1874 में हरिश्चन्द्र मैगजीन में प्रकाशित हुआ। लावनी महाराष्ट्र की लोकप्रिय कला शैली है, जिसमें संगीत, कविता, नृत्य और नाट्य सभी सम्मिलित हो जाते हैं। लावनी शब्द सम्भवतः संस्कृत के लावण्या शब्द से बना है, जो सौन्दर्य के अर्थ में प्रयुक्त होता है-

कुंज कुंज सखि सत्वरम्
चल चल दयितः प्रतीक्षते त्वां तनोति बहु-आदरम्।...........
परित्यज्य चंचलमंजीरं
अवगुण्ठ्य चन्द्राननमिह सखि धेहि नीलचीरं
रमय रसिकेश्वरमाभीरम्

         भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने अनुवाद के द्वारा भी संस्कृत क्षेत्र में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। आपने श्रीहर्ष कृत रत्नावली के कुछ अंशों का हिन्दी में अनुवाद किया। कृष्ण मिश्र के प्रबोधचन्द्रोदय नाटक के तीसरे अंक का अनुवाद पाखंडविडम्बन नाम से तथा मुद्राराक्षस नाटक का अनुवाद भी किया। भारतेन्दु ने संस्कृत के धनंजयविजय नामक नाटक का भी हिन्दी अनुवाद किया, जिसके रचयिता का नाम कांचन पंडित बताया गया है। भारतेन्दु ने संस्कृत व अंग्रेजी के नाट्यशास्त्रीय ग्रन्थों के आधार पर नाटक अथवा दृश्य काव्य सिद्धान्त विवेचन नामक ग्रन्थ भी लिखा। साथ ही शांडिल्य ऋषि के भक्तिपरक सौ संस्कृतसूत्रों पर हिन्दी भाष्य तथा नारद कृत सूत्रों पर बृहत् भाष्य की भी रचना की। 



Tuesday, July 21, 2020

सुहासिका

कृति - सुहासिका 

विधा - हास्य व्यंग्य काव्य
लेखक - डॉ. शिवस्वरूप तिवारी 
प्रकाशक - कुमार प्रकाशन, हरदोई, उ.प्र..
संस्करण - प्रथम, 2010
पृष्ठ संख्या -88
अंकित मूल्य - 150 रू.

         
     संस्कृत साहित्य में हास्य- व्यंग्य काव्यों की दीर्घ परम्परा उपलब्ध है। अर्वाचीन काव्यकारों में प्रशस्यमित्र शास्त्री, इच्छाराम द्विवेदी प्रणव, हर्षदेव माधव इत्यादि उल्लेखनीय हैं। डॉ. शिवस्वरूप तिवारी रचित सुहासिका काव्यसंकलन भी इसी परम्परा को आगे बढाने वाला काव्य है। प्रस्तुत काव्यसंग्रह के तीन भाग किये गये हैं-
प्रथम भाग - हास्यव्यंग्यकाव्यम्
                    हास्यव्यंग्यकाव्यम् भाग में 29 शीर्षकों में निबद्ध हास्य एवं व्यंग्य परक कविताएं हैं। कवि मंगलाचरण में गणेश का स्मरण  हास्य की शैली में ही करते हैं-

नमस्तस्मै गणेशाय योऽतिभीतः पलायते।
मूषकं वाहनं वीक्ष्य प्लेगाशंकाप्रपीडितः।।


        जब चूहों से होने वाला प्लेग महामारी के रूप में फैला तो गणेश भी अपने वाहन मूषकराज से सम्भावित रोग की आशंका से डर कर भाग लिये। यह संस्कृत कवि की विनोदप्रियता ही है, जिसके दायरे में वह अपने ईश को भी ले आता है और उससे भी परिहास कर लेता है। चायस्तोत्र 11 पद्यों में चाय देवी की स्तुति है। चाय तो सब को आनन्द, ज्ञान, शक्ति देने वाली देवी है। ऐसी चाय जहां बनाई और पिलाई जाती हो ऐसी चायशाला टीस्टॉल को अगर कवि एकता बढाने वाली और भेदभाव मिटाने वाली कहते हैं तो इसमें कैसी अतिशयोक्ति-

चायशाला महाधन्याराष्ट्रियैक्यविधायिनी।
भेदभावहरे नित्यं चायदेवि! नमोऽस्तु ते।।


     16 पद्यों में निबद्ध मत्कुणस्तोत्र आपके मुख पर हास्य की लकीर खींच देता है। कवि को मच्छर का डंक इंजेक्शन की तरह  प्रतीत होता है, अतः वह उसे चिकित्सक के समान मानता है-

यस्य मनोहरस्तुण्डो इन्जेक्शनमिव शोभते।
तस्मै त्रैलोक्यजेतारं मत्कुणाय नमो नमः।।

सूक्तिसौन्दर्यम् कविता के 15 पद्यों में कवि ने संस्कृत में प्रचलित प्राचीन सूक्तियों को हास्य-व्यंग्य से पूर्ण कर परिवर्तित कर दिया है। यथा-

येषां न कुर्सी न पदं न कारम्
बैंकेषु क्षिप्तं प्रचुरं धनं वा ।
ते  राजमार्गेषु विनैव बीमां 
मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति।।

यहां कुर्सी, बैंक आदि शब्दों को संस्कृत में यथावत लिया गया है। हास्य-व्यंग्य की कविताओं में यह प्रवृत्ति प्रायः देखने को मिलती है क्योंकि इनका संस्कृतीकरण किये जाने पर हास्य रस के आस्वादन की प्रक्रिया में वह तीव्रता नहीं रह पाती है।
       विद्यार्थी के पंच लक्षण अब पुराने हो चुके हैं। वर्तमान युग के विद्यार्थी के लक्षण भी युगानुरूप दिये गये है-

बसट्रेनेषु फिल्मेषु त्यक्त्वा स्वाध्यायन्तु यो
विनैव टिकटं याति विद्यार्थीति निगद्यते।
नकलं योग्यता यस्य चन्दा चैव धनार्जनम्
कट्टाधारी मनुष्योऽयं विद्यार्थीति निगद्यते।।


हास्य कवि का परिचय कुछ यूं प्रस्तुत किया गया है-

मम काव्यधारायां निमज्जनेन शीघ्रमेव
मृृत्युलोकतस्तु मुक्तिमेव परिलभ्यते।
रोगिणो हसन्ति स्वस्थमानवा म्रियन्ते चैव
पण्डितेष्वपण्डितेष्वभेदो परिलक्ष्यते।।

द्वितीय भाग - काव्यविविधा
               काव्यविविधा भाग में 14 शीर्षकों में निबद्ध विविध विषयक कविताएं हैं। प्रारम्भ में बालकृष्ण को प्रणाम किया गया है। राष्ट्रीय एकता की बात करते हुए कवि कहते हैं कि -

यत्र घण्टाध्वनिर्मन्दिरे-मन्दिरे
मस्जिदेष्वप्यजानध्वनिः श्रूयते।
गान्धिनो रामराज्यस्य संकल्पना
यत्र सम्भाव्यते नौमि तं भारतम्।।

यहां संस्कृत की स्तुति की गई है तो वाल्मीकि को भी नमन किया गया है। यहां प्राकृतिक सौन्दर्य का भी वर्णन सूर्योदयः, प्रावृट्-गीतम्, शारद-शोभा आदि कविताओं में प्राप्त होता है।

तृतीय भाग - वार्ताः
                वार्ताः भाग में मूर्ख-लक्षणानि एवं संस्कृतवांग्मये राष्ट्रैक्यभावना ये दो गद्य निबन्ध संकलित हैं।

Sunday, July 19, 2020

भ्रष्टाचारसप्तशती

कृति - भ्रष्टाचारसप्तशती

विधा - सप्तशती काव्य 
कवि - डॉ. शिवसागर त्रिपाठी
प्रकाशक - जगदीश संस्कृत पुस्तकालय, जयपुर
संस्करण - प्रथम, 2005
पृष्ठ संख्या - 119
अंकित मूल्य - 200 रू.

    संस्कृत काव्य परम्परा मे सात सौ पद्यों  के समूह को सप्तशती कहा जाता है। प्राकृत भाषा में हाल कवि कृत गाहासतसई (गाथासप्तशती) प्रसिद्ध है। 12  वीं सदी मेें गोवर्धनाचार्य ने आर्यासप्तशती की रचना की, जिसमें आर्या छन्द में 700 पद्य संकलित हैं। इससे भी प्राचीन साहित्य की ओर देखें तो गीता में 700 पद्य हैं किन्तु महाभारत का अंश होने से उसे पृथक् रूप से सप्तशती नहीं कहा गया। मार्कण्डेय पुराण का एक अंश दुर्गासप्तशती के नाम से प्रसिद्ध है। शिवदत्त शर्मा चतुर्वेदी कृत स्फूर्तिसप्तशती, गिरिधर शर्मा नवरत्न कृत गिरिधरसप्तशती, अभिराज राजेन्द्र मिश्र कृत अभिराजसप्तशती, पं. गोपीनाथ दाधीच कृत कृष्णार्यासप्तशती, शिवकुमार मिश्र कृत गान्धीसूक्तिसप्तशती आदि अर्वाचीन संस्कृत साहित्य में प्रसिद्ध सप्तशती काव्य हैं। हिन्दी में लिखी बिहारीसतसई के दो संस्कृत अनुवादों का पता लगता है-पं. परमानन्द कृत शृंगारसप्तशतिका तथा पं. प्रेमनारायण द्विवेदी कृत सौन्दर्यसप्तशती। 

      सप्तशती काव्य परम्परा में डॉ. शिवसागर त्रिपाठी कृत भ्रष्टाचारसप्तशती अन्यतम है। यहां भ्रष्टाचार को आधार बनाकर कवि ने 725 पद्य रचे हैं, जो 17 सर्गों में निबद्ध हैं। कवि ने सर्वप्रथम भ्रष्टोपनिषत् नाम से भ्रष्टाचार पर कविताएं लिखी, जो संस्कृत की मासिक पत्रिका भारती में प्रकाशित हुई। बाद में कवि ने इसमें परिवर्धन किया और इसका कलेवर बढकर 725 पद्यों का हो गया। इसका कुछ अंश कानपुर से प्रकाशित पारिजात पत्रिका में प्रकाशित हुआ। यही काव्य भ्रष्टाचारसप्तशती के रूप में पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ। इसमें पद्यों के साथ हिन्दी अनुवाद भी भी दिया गया है। यहां प्रमुख प्रयुक्त छन्द अनुष्टुप है। भ्रष्टाचार का वर्णन हमें वैदिक सूक्तोें से लेकर अभिज्ञानशाकुन्तल, मुद्राराक्षस जैसे काव्यों में भी प्राप्त होता है। कौटिलीय अर्थशास्त्र में भी इस पर विचार किया गया है। 
        उक्त सप्तशती काव्य में उपनिषदों की शैली में कवि भ्रष्टाचार का का बखान करते हुए कहते हैं-

भ्रष्टमदो भ्रष्टमिदं भ्रष्टोऽसौ भ्रष्टसंहतिः।
भ्रष्टाचारस्य साम्राज्यं प्रसृतमद्य दृश्यते।। 


भ्रष्टाचार तो आज हमारे समाज के प्रत्येक भाग में विद्यमान है। उसे सर्वशक्तिमान् कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। यही कारण  है कि कवि कहते हैं कि यह गूंगे को वाचाल बना देता है, असमर्थ को समर्थ कर देता है-

मूकं करेाति वाचालमशक्तं शक्तमेव च।
सर्वदुःखप्रहन्ता यो भ्रष्टाचारः स नम्यते।।

 भ्रष्टाचार को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि कोई भी ऐसा कार्य, आचरण, व्यवहार या बात जो व्यक्तिगत लाभ के लिये किया जाए और साथ ही वह व्यक्ति, समाज और देश के लिए पीडापरक, अहितकारी और कष्टप्रद हो तो वह भ्रष्टाचार कहलाता है-

कार्यमाचरणं वापि व्यवहारोऽपि वृत्तकम्।
व्यक्तिगतस्वलाभाय यदि सम्पाद्यते तथा।।
व्यक्तिसमाजराष्ट्रेभ्यः यच्च पीडाकरं भवेत्।
अहितं कष्टदं वापि भ्रष्टाचारो निरूच्यते।।


यद्यपि भ्रष्टाचार हमें सुखी दिखाई देता है, किन्तु उसका परिणाम भयंकर होता है। कवि के अनुसार भ्रष्टाचारी जीवन के दिन भाग में खाता है, खिलाता है, गाता है, नाचता है, पर अन्त में जीवन की सन्ध्या में विलाप करता है-

जीवनेऽहनि तैः भ्रष्टैः भुज्यते भोज्यते पुनः।
गीयते नृत्यते चैवान्ततः सायं विलप्यते।।

प्रस्तुत काव्य में भ्रष्टाचार की महिमा मात्र नहीं बताई गई है अपितु भ्रष्टाचार के निवारण हेतु उपायों पर भी चर्चा की गई है। वस्तुतः यह सप्तशती काव्य भ्रष्टाचार की व्यंग्यपरक व्याख्या करता हुआ उसके उन्मूलन का मार्ग भी सूझाता है।

Friday, July 17, 2020

लोकनाट्य परम्परा में संस्कृत नुक्कड नाटक-चतुष्पथीयम्

कृति - चतुष्पथीयम्

विधा - संस्कृतनुक्क्डनाटक
लेखक - अभिराज राजेन्द्र मिश्र
प्रकाशक - वैजयन्त प्रकाशन, इलाहबाद
संस्करण - प्रथम, 1983


आधुनिक संस्कृत नाट्य प्राचीन सीमाओं का अतिक्रमण करके सर्वथा मुक्ताकाश में विचरण कर रहा है। वर्तमान में संस्कृत नाट्य में रूपक व उपरूपक के प्राचीन भेदों के साथ-साथ ध्वनिरूपक, छायानाटक, एकांकी, नुक्कडनाटक इत्यादि विधाओं में प्रभावशाली लेखन हो रहा है। हम कह सकते है कि संस्कृतसाहित्य सतत अद्यतन हो रहा है। आचार्य भरत ने नाट्यशास्त्र में दो प्रकार की परम्पराओं का उल्लेख किया है- नाट्यधर्मी व लोकधर्मी। लोक के जीवन का अनुकरण करने वाला अभिनय जब लौकिक उपयोगी तथा सामयिक परम्पराओं का अनुसंधान करता हो तो उसे लोकधर्मी नाट्य कहते हैं। लोकधर्मी नाट्य या यूं कहे कि लोकनाट्य कृत्रिमता से रहित, जनसामान्य के आचार को प्रदर्शित करने वाला नाट्य है। इस लोकनाट्य के भिन्न - भिन्न प्रदेशों में भिन्न-भिन्न रूप उपलब्ध होते हैं, यथा - नौटंकी,  तमाशा, स्वांग, जात्रा आदि।
              इन लोकनाट्यों में नुक्कडनाटक सर्वाधिक प्रसिद्ध लोकनाट्य रूप है। नव्य काव्यशास्त्री आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी उपरूपक के एक प्राचीन भेद प्रेक्षणक का ही नवोत्थान नुक्कडनाटक को मानते हैं। नुक्कडनाटक को गली के किसी कोने या चौराहों आदि खुले स्थानों पर , अल्पव्यय व अल्पश्रम में अभिनीत किया जा सकता है। इन नुक्कडनाटकों में हास्य एवं व्यंग्य के पुट के साथ भाषा और शैली के देशज चरित्र की रोचक प्रस्तुति होती है।  ये नुक्क्डनाटक प्रायः संवादबहुल होते हैं। समाज में व्याप्त विसंगतियों, रूढियों, कुप्रथाओं, भ्रष्ट-आचरणों  आदि पर यहां करारा प्रहार किया जाता है। मार्मिक व्यंग्य इन नाटकों का प्राणस्वरूप होता है।

      अभिराज राजेन्द्र मिश्र रचित चतुष्पथीयम् संस्कृत में नुक्कड नाटकों का संकलन है। ये नाटक प्रहसन की शैली में रचे गये हैं। चतुष्पथीयम् के प्रत्येक पथ पर एक-एक नाटक अवस्थित है-

इन्द्रजालम् - हमारे आसपास के वातावरण में हम कई बार जादूगरों को मार्ग के बीच में खेल दिखाते हुए पाते हैं। ऐसा ही वातावरण यहां पर निर्मित किया गया है। नाटक के प्रारम्भ में जादूगर डमरु बजाकर भीड एकत्रित करता है-

डिम् डिम् डिम् डिम् डिमिक् डिमिक् डिम्
डिम् डिम् डिम् डिम् डिमिक् डिमिक् डिम्
बन्धो रे बन्धो रे शृणु वचनम्
इन्द्रजाले मदीये विधेहि नयनम्।।

               यहां जादूगर एवं जमूरे के मध्य तीखे सवालों-जवाबों  के माध्यम से समाज के तथाकथित सफेदपोश नेताओं, तस्करों, वकीलों, प्राध्यापकों आदि पर कटाक्ष के माध्यम से पर्दाफाश किया गया है। यथा- अयं जननेता बन्धुबान्धवस्नेहशीलाचारभेत्ता, मतपत्राणां क्रेता, मानपदप्रतिष्ठाविक्रेता, समाचारपत्रांकितकोणवृत्तैकवेत्ता, राष्टगौरवरज्जुच्छेत्ता, आसन्दिकावधूपरिणेता च। अस्यैव कृपया दीनो देशः, पीनो मेषः, नवीनः क्लेशः, मलीनो वेषः अजीर्णो निदेशश्च। यहां वकील मृषाजीवी है तो इंजीनियर बालुकापुरुष है।

निर्गृहघट्टम् - इस प्रहसन में मध्यमवर्गीय परिवार की कथा को आधार बनाया गया है। यहां पत्नीविरोध समिति के सदस्य अपनी अपनी पीडाओं को अभिव्यक्त करते हैं- पत्नयोऽस्माकं साकारपीडा एव। एवंविधेयं पीडा या न सोढुं शक्या न निवेदयितुं शक्या। इमाः कृष्णाक्षराणि महिषनिभानि मन्यमाना रूपाश्वतर्यो बी.ए. एम.ए. परीक्षोत्तीर्णान् लब्धस्वर्णपदकांश्चापि सर्वानस्मान् प्रशासितुं समीहन्ते। समिति के अध्यक्ष व कथा के नायक गिरीश भी पत्नी-पीडित हैं। किसी चुगलखोर सहकर्मी द्वारा  कार्यालय की स्टेनो के साथ उनका प्रेम-प्रसंग उनकी पत्नी को बता दिया जाता है, तब से ही वे पत्नी के अत्याचार से परेशान रहते हैं।  इधर कार्यालय में अधिकारी भी परेशान करते हैं। वे सोचते हैं- हन्त भो! प्रातर्वेलात् एवं निकृतिं प्रहारंच सहमानोऽस्मि। तदासीत् गृहम्। अयमस्ति घट्टः। गृहे पत्नी वैरिणी। घट्टे चायं दानवोऽधक्षको वैरी। उभयत्रापि अशरणोऽस्मि। रजकसारमेयो न गृहस्य न वा घट्टस्य। सत्यमेव निर्गृहघट्टोऽस्मि सञ्जातः।


वैधेयविक्रमम् - यहां निर्धनता, बढती जनसंख्या जैसी सामाजिक समस्याओं का यथार्थ चित्रण किया गया है। एक निर्धन परिवार का स्वामी यहां मुख्य पात्र है, जो अधिकाधिक सन्नति उत्पन्न करके स्वयं को प्रजापति मानता है-न जाने पुनरपि जन्मनि मिथः साहचर्यं भवेत् न वेति सम्प्रधार्येव युगपदेकादशमितान् पुत्रान् उत्पादितवान् अस्मि। पुत्रोत्पादनदक्षत्वादेव मे प्रजापतित्वम्।उसकी पत्नी कर्मशीला है, जो किसी तरह गृहस्थी का भार वहन कर रही है। किन्तु पति द्वारा बच्चों को पीटे जाने पर वह उसे उसकी अकर्मण्यता एवं गलतियों का भान करवाती है।


मोदकं केन भक्षितम् -   यह हास्य से परिपूर्ण रूपक है, जिसमें तीन भिन्न-भिन्न धर्म के तीन पुरुष हैं। वे धर्म की श्रेष्ठता के प्रश्न पर किसी विश्वस्त आप्त पुरुष की खोज में हैं। मार्ग में ब्राह्मण के पास रखी मोदक की पेटी पर अन्यों का जी ललचा जाता है। ब्राह्मण कहता है कि जिसका स्वप्न श्रेष्ठ होगा उसे ही सारे मोदक मिलेंगे। अब किसका स्वप्न श्रेष्ठ रहा, इसे जानने के लिये यह नाटक पढा जाना अपेक्षित है।

        अभिराज राजेन्द्र मिश्र स्वयं कुशल अभिनेता हैं। ये रूपक भी सर्वथा अभिनेय हैं। यहां
               दैनिक व्यवहार में प्रचलित अनेक शब्दों का संस्कृतीकरण भी किया गया है, यथा- कॉलगर्ल-कालगरला, टमेटोसूप-ताम्रतरसूपम्, छोलाभटूरा-छविल्लभर्तारम्, मेहंदी-महेन्द्री। साथ ही प्रो. मिश्र ने अनेक वाक्यों का भी संस्कृतीकरण किया है, यथा-
जयतु वज्रांगवली त्रुटयतु द्विषतां नली

सर्वम् अपि गुडगोमयं विधाय तुष्णीमुपगतोऽसि

मयाऽपि नाम अपक्वगुलिकाः न क्रीडिताः

विटपे विटपे सा पत्रे पत्रे पुनरहम्

हस्ती गच्छति कुक्कुराः बुक्कन्त्येव

यह संग्रह संस्कृत में नुक्कडनाटकों का उत्तम निदर्शन है।


डॉ. सरिता भार्गव
निवर्तमान प्राचार्य
कोटा, राजस्थान

Wednesday, July 15, 2020

ब्रह्मनाभिः

कृति – ब्रह्मनाभिः 

विधा - मुक्तछन्द में लिखित संस्कृत काव्यसंग्रहः
कवि – प्रफुल्ल कुमार मिश्र,
प्रकाशक – श्रीमती स्वर्णलता मिश्र, स्वर्ण प्रकाशन, 331 – A, तपस्या, श्रीअरविन्द नगर, चन्द्रशेखरपुर, भुवनेश्वर   751016, ओडिशा, 
प्रथम प्रकाश – विक्रम संवत् 2056, 2000 A. D.,
मूल्य – Rs. 70/- (soft binding) तथा Rs. 85/- (hard binding),
पृष्ठ संख्या – v + 57 

              प्रोफेसर प्रफुल्ल कुमार मिश्र के नाम को आधुनिक संस्कृत साहित्य जगत् में रहस्यवादी कवि के रूप में उल्लिखित करे तो अतिरञ्जित नहीं होगा । प्रोफेसर मिश्र उत्कल विश्वविद्यालय, भुवनेश्वर के संस्कृत विभाग में 33 साल अध्यापन करके 2014 फरवरी में अध्यापन कार्य से मुक्त हुए हैं । आप उत्कल विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर परिषद् के अध्यक्ष; राष्ट्रीय पाण्डुलिपि मिशन (नासानाल् मिशन फॉर मेनुस्क्रिप्टस्), नई दिल्ली के निर्देशक; उत्तर ओडिशा विश्वविद्यालय, वारिपदा  के कुलपति के रूप में काम कर चुके हैं तथा वर्तमान डा. राजेन्द्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, समस्तिपुर, पुसा, बिहार के कुलाधिपति के रूप में कार्यरत है । शैक्षिक और प्रशासनिक कार्य में व्यस्त रहकर भी प्रोफेसर मिश्र कभी काव्य को नहीं भूले हैं । संस्कृत काव्य, अलङ्कारशास्त्र और वैदिक साहित्य प्रोफेसर मिश्र के विषय हैं । प्रो. मिश्र के पास प्रत्यक्ष रूप से पढने का और उनके निर्देशन में शोध कार्य करने का अवसर मुझे प्राप्त हुआ था । कवि की अन्तर्दृष्टि गंभीर है । ओडिशा की आध्यात्मिक और पर्यटन नगरी पुरी में 1954 फरवरी में जन्मे कवि प्रो. मिश्र श्रीअरविन्द दर्शन के अनुगामी है । प्रतिदिन कुछ ना कुछ लिखने का अभ्यास  कवि प्रफुल्ल कुमार मिश्र के भावोच्छ्वास और कवि गुण को दर्शाता है । उत्कल विश्वविद्यालय के सवुजिमा से भरे प्राङ्गण में जब आकाश में मेघ उमड आते थे और शीतल हवा से जब पेडों की पत्तियां झुमती थी तब कवि बोला करते थे की देखो कैसे यह सारे पेड आकाश के साथ संवाद कर रहे हैं । कवि ही प्रकृति को वैसे देख सकता है । अभी तक प्रो. मिश्र के  संस्कृत में 15 काव्य संग्रह (1. चित्रकुरङ्गी - 1995, 2. तव निलये - 1998, 3. ब्रह्मनाभिः-2000, 4. कोणार्के - 2001, 5. चित्रङ्गदा - 2005, 6. ऋतायनी (संपादित काव्य संग्रह) - 2005, 7. कविताभुवनेश्वरी (संपादित काव्य संग्रह) - 2005, 8. काव्यवैतरणी (संपादित काव्य संग्रह) - 2006, 9. चत्वारि शृङ्गाः - 2009,  10. मनोजङ्गमे – 2010, 11. तथापि सत्यस्य मुखम् – 2011, 12. गोधूलिः – 2011, 13. चैत्ररजनी – 2016, 14. धर्मपदीयम् – 2016 तथा 15. कुशभद्रामहाकाव्यम् – 2019), एक पत्र कथा (पत्रप्रिया – 2014), अंग्रेजी में 07 शैक्षिक और शोध पुस्तक तथा ओडिआ भाषा में 08 पुस्तक प्रकाशित हैं।


                     ‘ब्रह्मनाभिः’ एक रहस्यात्मक काव्य संग्रह है । रहस्यवाद संस्कृत कवियों का परिचय होता है । लगभग सारे संस्कृत भाषा के कवि रहस्यवाद को छूते हैं। कवि मिश्र अपने काव्य में रहस्य को बिम्ब, प्रतिबिम्ब और रूपचित्रों से सजाते हैं। ‘ब्रह्मनाभिः’ शब्द सूचक है ‘नाभौ ब्रह्म यस्य’ या फिर ‘ब्रह्म एव नाभिः’ का । भगवान् जगन्नाथ के नाभि स्थान में ब्रह्म नामक सांकेतिक वस्तु संस्थापित है यह विश्वास जगन्नाथ संस्कृति में है । वास्तव में मनुष्य जीवन में भी यही होता है । शिशु नाभि से ही खाद्य ग्रहण करके माता की कोख में पुष्ट होता है । नीरव और निःशब्दता से भगवान् अपने नाभि से स्पन्दित हैं और बाहर दारुमय हैं| इस तथ्य को रूपचित्र में उपजीव्य बनाकर कवि संसार के दुःख और अन्तःस्थ सुख कर सन्धान में काव्य लिखते हैं। जैसे ‘विज्ञप्तिः(preface)’ में कवि ने कहा है –

पूर्वसमुद्रतटस्थितस्य पुरुषोत्तमक्षेत्रस्य भगवतो जगन्नाथस्य महिमानं विश्वविश्रुतं मन्ये । दारुरूपेण स्पन्दनं गभीरे नाभिब्रह्मणि जायते । बहिः दारुरूपे वयं पश्यामः समस्तं दुःखं प्राणीनां श्रुत्वा तूष्णीं तिष्ठति । मनुष्योऽपि स्वस्य सुकुमारभावनां किमर्थं बहिः प्रकाशयेत् ? यतो हि इह लोके तस्य भावनामभिज्ञातुं न कश्चिद् वर्तते । हृदि सुखस्य दुःखस्य वा गणनं चलतु । प्रत्यूत बहिः स्पन्दनहीनतायाः दारुजीवनं प्रसरतु चेत् न कश्चित् तस्य सुकुमारभावनायाः हासं जनयिष्यति । हृदि गोपनेन स्वकीयां भावनां निधाय आत्मरतौ रमते । तत्र का क्षतिः । संसारे कुत्र वा सहृदयता लभ्यते ? स्वस्वगानप्रमत्तः न कश्चित् शृणोति क्रन्दनमपरस्य । स्वप्नार्जिते सुखे कस्यचिदपि न वर्तते किमपि नेतुम् । अन्योन्यभावनाविरहितत्वात् नाभिब्रह्मणि स्पन्दनवत् स्पन्दनं भवतु । कालो ह्ययं निरवधिः विपुला च पृथ्वी । अतः स्पन्दमानस्य ध्वनेः श्रवणं पुनः कथञ्चित् भवतु । चिदाकाशे हृदन्धकारे एतान्यपि वस्तूनि दृष्टिपथारूढानि भवन्ति । अतः तेषां मननं प्रकटनञ्च काव्यस्तवकेऽस्मिन् ग्रथितम् । अन्तःस्थलं हृदाकाशस्य विस्तारं विज्ञाय यदि कश्चित् तत्रस्थानां चित्राणां प्रकाशं कुर्यात् तर्हि तेषां स्वरूपं किं भवेत् ? इति धिया शून्यतायाः चित्रणमपि कृतम् ।” (पृ. सं. iii)
        वास्तव में मनुष्य जब शून्य होता है तव पूर्ण को ढूंढता है और ब्रह्म तो सदा पूर्ण है । ‘ब्रह्मनाभिः’ काव्य संग्रह में सूचीपत्र के अनुसार कुल 20 कवितायें हैं। पर प्रथम काव्य ‘ब्रह्मनाभिः’ शीर्षक के अन्तर्गत 14 कवितायें, द्वितीय काव्य ‘शिवः’ के अन्तर्गत 12 कवितायें, अष्टम काव्य तिमिरः शीर्षक के अन्तर्गत 22 कवितायें संकलित हैं । श्रीजगन्नाथ का ब्रह्मतत्त्व, शिव का विषपान करके जगत् का कल्याण करना, माता त्रिपुरविमोहिनी का वर्णन, गङ्गा की पावनता, मनुष्य जीवन की विपलता और नैराश्य, सावित्री – सत्यवान् की कथा में सावित्री का सत्यान्वेषण, ओडिशा के मन्दिर गात्रों में शिला में अङ्कित चन्द्रावली, एकावली नाम की नायिकायों का वर्णन, कलिङ्ग भूमि में युद्ध के लिए आये हुए सम्राट् अशोक का धर्माशोक में रूपान्तरण और बुद्ध की अहिंसा प्रचार आदि सामाजिक, ऐतिहासिक, धार्मिक और आध्यात्मिक तथ्यों को लेकर यहां कविताएं चित्राङ्कित हुई हैं।
                      योगदर्शन के अनुसार ब्रह्मप्राप्ति का साधन षड् चक्र साधन या कुण्डलिनी जागरण है । इडा पिङ्गला के माध्यम से मूलाधार से लेकर सहस्रार चक्र भेदन ही ब्रह्मप्राप्ति की क्रमिक अवस्थायें हैं । इस तथ्य का संकेत हुए कवि ने लिखा है कि –

नाभिब्रह्म !
नाभौ सञ्चरतः हृदि स्पन्दतः
अनन्तकालकवलिते जडप्राणावस्थिते ते
मूलाधारतः स्वाधिष्ठानपर्यन्तं 
तस्मात् मणिपुरकमनाहतं निष्पीड्य निष्पीड्याज्ञा
मारुतं हृद्युद्भिद्य ब्रह्मरन्ध्रं
हंसमिथुनावेव रंरमते
सहस्रारे ।।
 (ब्रह्मनाभिः, 5, पृ. सं. 3)

देवता ने सृष्टि को सुन्दर बनाने के लिए कठिन श्रम किया है । पर उस श्रम को कौन देखता है ? यह भावना श्रीरविन्द की ‘A God’s Labour’ [Collected Poems from Sri Aurobindo Birth Centenary Library (Volumn 5) with Odia Translation, p. 44] कविता में अङ्कित है । उस की छाया में कवि  ‘शिवः’ कविता में लिखते हैं कि–

जीर्णः हलाहलस्य प्रकोपः
वर्द्धते शिवस्य कोपः
विषादोऽसौ दग्धः पुष्पशरः
शोभनेशः, हृदि दुःखं
येषां सुखार्थं विषपानदग्धः
क्व गतास्ते सुरासुराः ??
(शिवः (गरलपानम्), 2, पृ. सं. 13)


फिर शिव की शान्त मूर्त्ति विषज्वाला से घोर तनु में परिणत होती है -

विषपानानलस्य देहस्य
ज्वालायाः नीलेषु
शिवतनूः घोरायते ।
घोरतरेण रुद्रायते
रुद्ररूपेण सर्वमत्ति ।। 
(शिवः (गरलपानम्), 3, पृ. सं. 14)

शिव का शिवत्व मङ्गलमय रूप स्वर्ग से लेकर पाताल तक मङ्गल ही वर्षाता है । विपरीत भाव वाले उनके प्रभाव से मित्रता से उनके परिवार में एकत्रित निवास करते हैं । शुद्ध सत् चरितों का प्रभाव के बारे में यहां संकेत किया गया है -

पुत्रस्ते क्रीडति मयूरस्योपरि
त्वदलंकाराः सर्पाः भीताः
तदर्थं कनिष्ठस्य मूषकः रक्षितः
वृषभश्च सिंहात् सुरक्षितः ।।
परस्परं स्पर्धमानाः
जन्तुभिः निर्लिप्तः
त्वद्भावना कैलासस्य
हिमाङ्कलेखामतिरिच्य 
पातालं शीतलायते ।।
(शिवः शवः, 5, 2-3, पृ. सं. 14-15)

सम्राट् खारबेल (ख्री. पू. द्वितीय या प्रथम शतक) द्वारा  निर्मित कलिङ्ग प्रदेश की खण्डगिरि की गुफायें आज भी प्राचीन ओडिशा की बौद्ध कीर्तियों की मूक साक्षी हैं-

धर्मकीर्त्तिदिङ्नागानां
शून्यकोटरा अपि
थेरावादस्य माध्यमिककारिकायाः
साक्षरं वहन्ति ।।
व्याघ्रस्य गर्जने सा गुहा
करालायते
शोणितविन्दुपातेन
सर्वं शून्यायते ।। 
(तृतीयनेत्रम्, 11, 4-5, पृ. सं. 20)

गङ्गा का सुन्दर वर्णन काव्य को सरस बनाता है –

घर्घर-निनादिनी
कुलु-कुलु-प्लाविनी
मतङ्गजगामिनी
निःसरति भामिनी
अनन्तलोक-पावनी
वनान्त-गुल्म-तोषिणी ।।
(गङ्गा, 1, पृ. सं. 23)

उत्कल की पुराणी वैभव पूर्ण गाथा को याद करके, उसकी कला नैपुण्य को याद करके या फिर प्रतिभावान् चित्रकार को न पहचानने के दुःख को आज का कवि व्यक्त करता है –

चित्रवीथौ शून्यायिते चित्रे
तूलिका रुदति रङ्गलोतकैः ।
अन्धः कर्षति वर्णविभवं
चित्रकारस्य का दशा ??
 (चन्द्रवली, 2, पंक्ति 5, पृ. सं. 28)

दूरदर्शन आज कर समाज को कहीं पठन से, अध्यात्म से और आत्मचिन्तन से दूर तो नहीं कर रहा हैं  ? इस को व्यंजित करके कवि  कहते हैं -

अहर्निशं बोधयति
किं कर्म किमकर्मेति ।
हासयति त्रासयति
मोदयति मोहयति 
रोषयति रोदयति
टिभिं वन्दे महागुरुम् ।। 
(तिमिरः, 5 – टिभिं वन्दे महागुरुम्, पृ. सं. 35)

हम लोग भगवान् के कितने करीब है, वह अन्तःकरण की स्वच्छता, श्रद्धा, विश्वास,  गभीरता,  नीरवता और समर्पण संकेत करता है । प्रचार से लोकप्रियता कुछ क्षण के लिए रहती है । कवि व्यंजना भरते हैं –

इदानीं देवदेवस्य
घोषयात्रा प्रवर्त्तते ।
प्रचारः दूरदर्शने
प्रसारः दूरसंचारे
भक्ति-भावना कुत्र गता ??
 (तिमिरे मे मनः, 19, पृ. सं. 39)

सावित्री – सत्यवान् की कथा महाभारत के आदिपर्व में आख्यायित है । सावित्री कथा को उपजीव्य बनाकर श्रीअरविन्द ने विश्व का सबसे बडा अंग्रेजी महाकाव्य लिखा है । आज भी ओडिशा में ज्येष्ठ अमावस्या की तिथि में पत्नी अपने पति की दीर्घायु कामना करके व्रत रखती है, सावित्री कथा पाठ करती है और सावित्री को देवी मानती है । महाभारत की कथा ओडिशा के जन जीवन में रूपायित होने का उत्स अनुसन्धान सापेक्ष है । एकनिष्ठ प्रेम और सत्य संकल्प मृत्यु को भी पराजित कर सकता है, यह इस कथा का अन्तर्मर्म है -


अन्वेषणं सावित्र्याः
किं जनयति जागरणं
सत्यवता किं ज्ञातम् ?
सावित्र्याः नेत्रं कोरकितं
तारके तारकायते
अभिज्ञाय स्वस्य
प्रियं मित्रम् ।
जीवनस्य 
विवक्षितं
लक्ष्यम् ।।
 (अन्वेषणं सावित्र्याः, पृ. सं. 45)

समय से वृष्टि न होने का चित्र भी कवि ने व्यथित चित्त से लिखा है । श्रीजगन्नाथ के दो पार्श्व में रत्नसिंहासन के उपर दो देवीयां अधिष्ठित हैं । वामपार्श्व में श्रीदेवी जो श्रीलक्ष्मी जी की प्रतिनिधि है और दक्षिणभाग में भूदेवी जो भूमि या पृथ्वी को प्रतिनिधित्व करती हैं । श्रीजगन्नाथ की रथयात्रा पर्व अक्षय तृतीया से प्रारम्भ होता है जिस दिन रथ निर्माण की प्रक्रिया शुरू होती है । ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन ग्रीष्म उत्ताप के कारण भगवान् 108 कुम्भ के सुवासित जल से स्नान करते है और 14 दिन तक ज्वर पीडित होते हैं । इस समय भक्तों को दर्शन नहीं देते हैं । आषाढ अमावास्या में फिर नवयौवन के रूप में दर्शन होता है । आषाढ के शुक्ल द्वितीय दिवस में रथयात्रा होती है, जो वर्षण की प्रारम्भ बेला को सूचित करती है । वृष्टि से पृथ्वी सस्यश्यामला होगी और श्री से या लक्ष्मी से भर जायेगी – यह भी सूचित होता है । पर समय में वृष्टि नहीं होती है ।

श्रीदेवी संतापिता तापितापि भूदेवी
तापेनात्र जगन्नाथः पक्षं ज्वरायते
वर्षायां नवयौवने कदम्बकदम्बायिते
नीलाचले निश्चिन्तः शेषशय्यामध्यास्ते ।। 
(सम्बिधानम्, 4, पृ. सं. 49)

आकुले प्रार्थ्यते जलं जलमिति
मेघाडम्बरे सर्वं विलीनम् ।
व्यर्थं यत्र मयूरस्य नृत्यं
व्यर्थं सर्वं संविधानकम् ।।
 (सम्बिधानम्, 7, पृ. सं. 50)


ऋण लेना और किसी का ऋणी होने की वेदना को कवि ने दर्शाया है । अधमर्ण भाव आत्मसम्मान को संतापित करता है -

कियन्ती व्यथा
कस्यचिदधमर्णस्य
कन्यायाः विवाहार्थं
औषध्यर्थं पुत्रस्य दारस्य
वा पितुरामये ।। 
कियन्ती व्यथा
एतस्मिन् लोके
कश्चिद् यदि जातोऽधमर्णः ।।
 (अधमर्णः, 1-2, पृ. सं. 57)

हृदय  की अव्यक्त व्यथायें काव्य बनती हैं । व्यथा की स्पन्दन काव्य में होता है जैसे ब्रह्म का स्पन्दन दारु देवता की नाभि में है । इस उपलक्षण से मनुष्य जीवन में कवित्व का महत्त्व ‘ब्रह्मनाभिः’ काव्यसंग्रह में मुखरित है । नामधातुओं का विपुल प्रयोग इस काव्य में देखने को मिलता है ।

    डॉ. पराम्बा श्रीयोगमाया


सहायक आचार्य, स्नातकोत्तर वेद विभाग, श्रीजगन्नाथ संस्कृत   विश्वविद्यालय, श्रीविहार, पुरी 752003, ओडिशा 
सम्पर्क सूत्र - 8917554392

Tuesday, July 14, 2020

हृदय की संसिसृक्षा है कविता - शतपत्रम्

कृति - शतपत्रम् 

लेखक - रेवाप्रसाद द्विवेदी
विधा - मुक्तककाव्य
प्रकाशक - कालिदास संस्थान, वाराणसी
संस्करण -प्रथम, 1987
पृष्ठ संख्या - 42
अंकित मूल्य - 30 रू.

आचार्य रेवाप्रसाद द्विवेदी अर्वाचीन संस्कृत साहित्य में अपनी बहुमुखी रचनाधर्मिता के लिए प्रसिद्ध हैं। आचार्य द्विवेदी ने 1985 में दिल्ली में आयोजित वाल्मीकि समारोह नामक विश्व कवि सम्मेलन में जिस काव्य को सुनाया था, उसी को संकलित करके शतपत्र नाम से प्रकाशित किया गया है। इस मुक्तक काव्य में 115 पद्य निबद्ध हैं, जो कविता को केन्द्र में रखकर रचे गये हैं। आचार्य के पुत्र सदाशिव द्विवेदी कहते हैं कि यहां दर्शन, ऐतिह्य और उक्ति तीनों की समरसता है।

   कविता को परिभाषित करते हुए कवि कहते हैं कि कविता तो एकान्त मेें जाग उठने वाली संसिसृक्षा है, अगर वाग्देवी उसका प्रतिबिम्ब पा जाती है तो वह नृत्य कर उठती है-

कविता हृदयस्य संसिसृक्षा
प्रतिबुद्धस्य रहः कुतोऽपि हेतोः।
वचसामधिदेवता यदीयं
प्रतिबिम्बं परिरभ्य नर्नृतीति।।

              कविता को अगर समझाना पडे कि कविता क्या है, वह कैसा व्यवहार करती है तो कवि कहता है कि कविता तो नई दुल्हन की तरह हृदय की एक ऐसी भाषा है , जो मुखर भी रहती है और मौन भी। यहां सम्पूर्ण अर्पण का एकमात्र उपाय प्रतिपत्ति ही बन पाती है, न तो शक्ति और न भक्ति। इस प्रतिपत्ति में गौरव, प्राप्ति, प्रवृत्ति, प्रगल्भता तथा बोध सम्मिलित है-

कविता हृदयस्य कापि भाषा
मुखरा मौनमयी वधूर्नवेव।
न हि शक्तिरथो न तत्र भक्तिः
प्रतिपत्तिस्तु समर्पणाय मार्गः।।


               कवि कविता को परिभाषित करने के लिये हमारे साहित्य व इतिहास का भी उपयोग करते चलते हैं। कालिदास कृत विक्रमोवर्शीय में कार्तिकेय के अप्रवेश्य गन्धमादन पर्वत तथा संगमनीय मणि की कथा की पृष्ठभूमि में कहते हैं कि कविता तो कौमारव्रती कार्तिकेय के अप्रवेश्य धाम में उनकी माता पार्वती के चरणों से अलते से बनी संगमनीय मणि है, जो आकस्मिक योग में अत्यन्त निपुण है-

कविता व्रतिनो गुहस्य धाम्नि
प्रतिषिद्धे गिरिजांघ्रियावकात्मा।
स हि संगमनीय इत्यभिख्यो 
मणिराकस्मिकयोग-संपटिष्ठः।।

               कविता यहां कहीं त्रिपुरारि का भस्मलेप है, जिसमें मृत्यु अमृतत्व से जुडी है तो कहीं वह पराम्पर शिशु गोपाल की त्रिलोकवन्द्य मुरली है। कविता यहां वाग्देवी के करकमलों में विराजमान शुकशावक है, भोलीभाली शकुन्तला का प्रेमपत्र है, शिव की तीसरी आंख है, विष्णु के वक्ष पर विराजमान कौस्तुभ मणि है।
    कवि साथ ही यह भी बतलाते हैं कि कविता क्या नहीं है। वे कहते हैं कि न तो देश के साथ किया गया घात कविता है  और  न ही धनलिप्सा।  कविता पलायन का मन्त्र भी नहीं है ओर न ही पदलिप्सा में किया गया कथन कविता है-

कविता न मुमूर्षता गुरूणां 
पदलाभेन कृतार्थभावभाजाम्।
कविता न च राजनीतियात्रा 
गुरुगेहेऽध्ययनाय दीक्षितानाम्।।

           कविता यदि विवाहितों के कोहवर का गीत है तो युद्धभूमि की उद्घोषणाएं भी कविता ही है। पांचाली का खुला केशपाश कविता है और चाणक्य की खुली शिखा भी कविता ही है। कवि कहते हैं कि सब कुछ कह देने के बाद भी जो अकथित बचा रह जाता हैं, हृदय का वह वाक्यशेष कविताहै। कविता जितनी पुरानी है उतनी ही नई भी है किन्तु उसे न तो पुरानी कहा सकता है और न ही नई-

कविता हृदयस्य वाक्यशेषः
कथितेऽनुक्ततया प्रकाशमानः।
कविता कथिता कथा पुराणी
न पुराणी न नवा, सुरांगना सा।।

Saturday, July 11, 2020

सिनीवाली

कृति - सिनीवाली

विधा - मुक्तछन्दोबद्धकाव्य
लेखक - प्रो. देवदत्त भट्टि
प्रकाशक - शब्दश्री प्रकाशन आगरा
प्रकाशक - प्रथम, 1986
पृष्ठ संख्या - 128

संस्कृत में प्रयोगशील शैली की कविताओं का  संकलन है सिनीवाली । सिनीवाली शीर्षक से ही डॉ. रामकरण शर्मा का भी एक काव्यसंग्रह प्रकाशित है। प्रो. देवदत्त भट्टि रचित ‘इरा’ और ‘सिनीवाली’ काव्य आधुनिक शैली में निबद्ध कविताओं के लिए चर्चित रहे हैं। सिनीवाली मुक्तछन्द में 115 कविताओं का संकलन है। ये सभी कविताएं प्रायः यथार्थवादी दविचारधारा की हैं। कवि कहता है कि मेरे देश में व्यक्तियों का समाज नहीं है अपितु व्यक्तियों की भीड मात्र है-

मम देशे 
जनानां समाजो नास्ति,
जनसंमर्दोऽस्ति।
मद्देशनागरिकाः
मिथः सहानुभूतिं न कुर्वन्ति,
न चापि तेषु सामाजिकता। 
ते तु 
एकस्य जनसंमर्दस्य 
व्यस्ततां कोलाहलं च 
वर्धमानाः 
मिथोऽसंयुक्ताः
तरसा धावन्तः 
जनाः सन्ति
येषां न किंचित् 
सामान्यम्, युक्तं वा।

 
    आधुनिक संस्कृत कवि एक मनुष्य के रूप में  यह स्वीकारता है कि अभी भी उस में पशुता का अंश शेष है ,जो अवसर पाकर यदा कदा बाहर निकल आता है। जब वह किसी असहाय सुन्दरी को देखता है या किसी निर्बल को सहायता के लिए विवश होते देखता है तो आदि युग में लुप्त उस की पूंछ निकल आती है, सींग पुनः उग आते हैं और वह अपने में केवल पशुता को देखता है, जिसे दूर करने में वह चाह कर भी समर्थ नहीं हो पाता-

अहञ्च 
केवलां पशुतामेव 
मयि पश्यामि।
प्रयतमानोऽपि 
अपगच्छन्तीं मानवताम् 
उपसंहर्तुं न पारयामि। 
रहसा मयि 
प्रविशन्तीं पशुताम् 
अपाकर्तुं नालम्,
खिद्ये चात्मवैवश्ये। 

       कवि कहीं सत्य को समझने की चेष्टा करता है (सत्यम्) तो कहीं धर्म के तथाकथित कर्णधारों को धर्म समझाता है (धर्मः)। कहीं वह इस युग की विडम्बनाओं को प्रकट करता है (कोऽयं युगः) तो कहीं व्यंग्य के माध्यम से वर्तमान राजनीति की परतें उघाडता है (साप्तपदी)। प्रो. भट्टि की बिम्ब योजना अनूठी है। कवि कहता है कि हम तो तुष मात्र शेष धान हैं, जिनमें चावल नहीं बचे या कि हम छिलकों के रूप में बचे हुए फल हैं, जिनके सार को कीडों ने खा लिया है-

तुषमात्रावशेषाः 
शालयः स्मो वयम्,
येषु तण्डुला न सन्ति।
वल्कलावशिष्टानि 
(त्वङ्मात्रावशेषाणि)
फलानि स्मो वयम्,
येषु सारभूतोऽष्ठीलांशः
कीटैर्भक्षितः।।


        प्रेम के विषय में कवि कहते हैं कि प्रेम न तो स्वर है , न शब्द, न प्रतीक्षा है, न देह की भूख। प्रेम तो अनन्त काल से चली आ रही आत्मा की शाश्वत अनुभूति है, आत्म सौन्दर्य का उत्स है, मन की भाषा का मधुर अनुवाद है प्रेम-

प्रेम तु-
अनन्तकालादागताऽऽत्मनः 
अनुभूतिः शाश्वती,
आत्मबोधस्यात्मसौन्दर्यस्य
चोत्सः
मनसो भाषायाः
मध्वनुवादः।।

Thursday, July 9, 2020

कवि की भाव तरंगों का व्यक्तिकरण - लहरीदशकम्

कृति - लहरीदशकम्

विधा - लहरीकाव्य
लेखक - राधावल्लभ त्रिपाठी
प्रकाशक - प्रतिभा प्रकाशन, दिल्ली
संस्करण - प्रथम-1986, द्वितीय-2003
पृष्ठ संख्या -156
अंकित मूल्य - 300 

     अर्वाचीन संस्कृत साहित्य में प्राचीन काव्यविधाओं के साथ-साथ नवीन काव्यविधाओं में भी रचनाएं लिखी जा रही हैं। अर्वाचीन संस्कृत साहित्यकारों ने कुछ प्राचीन काव्यविधाओं को नवीन रूप में भी प्रस्तुत किया हैं। ऐसी ही एक काव्यविधा है-लहरीकाव्यविधा। प्राचीन संस्कृत साहित्य में ऐसे खण्डकाव्य उपलब्ध होते हैं जिनमें ‘लहरी’ शब्द का प्रयोग किया गया है, जैसे शंकराचार्य कृत सौन्दर्यलहरी और आनन्दलहरी, पण्डितराज जगन्नाथ कृत अमृतलहरी, करुणालहरी, सुधालहरी, गंगालहरी आदि। ये लहरीकाव्य प्रायः देवभक्ति पर ही आधरित हैं, जैसे सौन्दर्यलहरी में भगवती त्रिपुरसुन्दरी की, अमृतलहरी में यमुना की, करुणालहरी में विष्णु की तथा सुधालहरी में भगवान् भास्कर की स्तुति है। यही कारण रहा  की संस्कृत साहित्य के इतिहासकारों ने इन काव्यों की गणना स्तोत्र- साहित्य के अन्तर्गत ही की।


                   अर्वाचीन संस्कृत साहित्य में लहरीकाव्यविधा ने अपना एक पृथक् स्थान बना लिया है। यहां ध्यातव्य है कि अर्वाचीन लहरीकाव्यों में मात्र देवभक्ति ही नहीं की गई है अपितु कवि अनेक विषयों को आधार बनाकर इन लहरीकाव्यों की रचना कर रहा है, जैसे अभिराज राजेन्द्र मिश्र रचित विस्मयलहरी, वेलणकर रचित विरहलहरी, भास्कर पिल्लै रचित प्रेमलहरी, श्रीभाष्यम् विजय सारथी रचित विषादलहरी, श्रीधर भास्कर वर्णेकर रचित मातृभूलहरी आदि। युगानुरुप इस काव्यविधा का लक्षण देने का प्रयास भी आधुनिकसंस्कृत-काव्यशास्त्रियों ने किया है। प्रो. रहसबिहारी द्विवेदी ने लहरीकाव्यविधा का लक्षण प्रस्तुत करते हुए कहा है-

देवे देशे निसर्गे वा प्रिये वस्तुनि भक्तिमान्।
कविर्यत्कुरुते काव्यं लहरीत्यभिधियते।।
स्वतोऽपि पूर्णपद्यानि चैकस्मिन् विषयेऽन्वितिम्।
दधते तानि काव्येऽस्मिन् कल्लोला इव वारिधौ।।
(दूर्वा पत्रिका, अंक-अपैल-जून 2005,पृष्ठ-94)

         प्रो. अभिराज राजेन्द्र मिश्र  ने खण्डकाव्य का ही एक भेद लहरीकाव्य को मानते हुए कहा है कि जैसे सागर में लहरियां एक दूसरे के साथ जुडी रहती हैं तथा नाना प्रकार की भंगियों को उत्पन्न करती हुई परस्पर अभिन्न रहती हैं, उसी प्रकार भक्ति एवं शृंगार के सन्दर्भ अथवा अन्यान्य प्रवृत्तियां जब परस्पर भिन्न होती हुई भी मूलभाव को समपुष्ट करती हैं तो उसे लहरीकाव्य कहते हैं-

लहरीकाव्यमप्येतत्  खण्डकाव्यं समुच्यते।
प्रतिपाद्यं यदा काव्ये लहरीसन्निभं भवेत्।।
परस्परं समासक्ता लहर्यो जलधौ यथा।
भंगिव्रगजं जनयन्त्यो यान्त्यद्वैतस्वरूपताम्।।
भक्तिशृंगारसन्दर्भाः काव्येऽन्येऽपि तथा यदा।
भिन्ना: सन्तोऽपि पुष्णन्ति मूलभावं पुनः पुनः।।
लहरीसन्निभा भाषाविच्छितिं जनयन्ति च।
नयनाऽसेचनं भूरि वितन्वन्ति निरन्तरम्।।
(अभिराजयशोभूषणम्,पृष्ठ-224)

        आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी इस सन्दर्भ में कहते हैं कि चेतनारूप समुद्र में भावरूप तरंगे उठती हैं और परस्पर टकराती हैं, उनका व्यक्तीकरण ही लहरीकाव्य है-
 
पारावारे चेतसि उद्गच्छन्ति च मुहुः संघट्टन्ति ।
भावतरंगास्तेषां व्यक्तीकरणं भवेल्लहरी।।
(अभिनवकाव्यालंकारसूत्र,पृष्ठ-338;जगदीश संस्कृत पुस्तकालय, जयपुर)

         लहरीेकाव्य के उपर्युक्त नवीन लक्षणों से स्पष्ट ही है कि लहरीकाव्यों का विषय केवल देव-स्तुति ही न होकर कोई भी भाव हो सकता है., किन्तु यह भाव सम्पुष्ट होकर काव्य में उभरना चाहिए।
           आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी प्रणीत ’लहरीदशकम्‘ आधुनिक लहरीकाव्य-परम्परा में अन्यतम है। इसमें दस लहरीकाव्यों का संकलन किया गया है। कवि ने विषय-वस्तु के आधार पर ही इन लहरियों का नामकरण किया है, यथा-वसन्तलहरी, निदाघलहरी, रोटिकालहरी इत्यादि। कवि ने अपने चेतना समुद्र में उठ रहीं भावतरंगों के व्यक्तिकरण के लिए माध्यम चुनना था और लहरीकाव्य विधा से उत्तम माध्यम कोई और हो नहीं हो सकता था।

         वसन्तलहरी में वसन्त ऋतु का चित्रण परम्परागत संस्कृत कविता से भिन्न है। निरन्तर विनाश की और अग्रसर पर्यावरण एवं सतत् वृद्धि को प्राप्त प्रदूषण के मध्य वसन्त के अवतरण-काल में व्यथित कवि के मन में उठने वाले भाव सहसा यहां कविता का रूप लिए हुए दृष्टिगोचर होते हैं, यथा-

सायं त्ववाप्य समयं भ्रमणाय यातो
गच्छामि निर्जनपथे नतमस्तकोऽहम्।
द्वित्रान् स्थितान् निभृतमत्र विलोकयामि
वृक्षान् विषण्णहृदयानिव सज्जनांस्तान्।।

सायं के समय
निकलता हूँ
निर्जन पथ पर
सिर झुकाएं
घूमने के लिए,
पाता हूँ वहां
दो-तीन वृक्षों को
खडे हो जैसे
खिन्न-मन सज्जन।।

        कवि का भ्रमण के समय सिर झुकाएं निकलना, वहां मात्र दो-तीन वृ़क्षों का विद्यमान होना तथा उनकी उपमा खिन्न-मन सज्जनों से देना स्वयमेव प्रदूषण की सारी कथा प्रकट कर देता है। यहां समसामयिक समस्याएं भी वसन्त-वर्णन के व्याज से प्रस्तुत की गई हैं। ये कविताएं मात्र वसन्त ऋतु की मादकता का वर्णन करने के लिए नहीं लिखी गई हैं अपितु इनके माध्यम से कवि अपने पूरे युग को जी लेता है, यही सच्चे अर्थों में आधुनिकता है।
         कवि नेे एक स्थान पर मेघ की तुलना मंचस्थ नेता से की है जो गरजता तो है किन्तु काम नहीं करता। ऐसी स्थिति में यदि कवि मेघ को दूत बनाए तो कैसे बनाए-

  कुतो यक्षः कुतो मेघः सन्देशप्रापणः कुतः ।
  विच्छिन्नाभ्रविलायं तल्लयं याति मनोजगत् ।।
 
   यदि पर्यावरण की स्थिति ऐसी ही विकृत बनी रही तो सम्भवतः आगामी समय में गरजने के लिए भी मेघ उपलब्ध नहीं होगा।
       एक पद्य में कवि ने अभिनव कल्पना की है-

रोमांचकण्टकैर्जुष्टा तुष्टा वन्या वसुन्धरा ।
लब्ध्वा पर्जन्यसंस्पर्शं समुछ्वसिति कोरकैः।।

 
रोमांच के कांटों से भरी
वन्य-वसुन्धरा
पाकर मेघ का स्पर्श
श्वास ले रही है
पुष्पों की कलियों से।।

      प्रावृट् लहरी में प्रयुक्त श्यामनववधू, पूर्वरंग, परिघट्टना, प्रावेशिकी ध्रुवा, छलितनाट्य आदि शब्दों के प्रयोग से कवि का नाट्यशास्त्रीय ज्ञान भी प्रकट होता है।
         धरित्रीदर्शनलहरी में किसी पथिक द्वारा की गई भारत से जर्मनी तक की यात्रा का वर्णन किया गया है।  कवि ने अपनी हवाई-यात्रा के ही अनुभव यहां काव्य के रूप में प्रस्तुत किये हैं। कवि को कहीं आकाश के मध्य लटका विमान त्रिशंकु के समान लगता है तो कहीं पक्षीराज गरुड के समान। विमान से दिखती पृथिवी का भी हृदयावर्जक वर्णन उपलब्ध होता है। विषयानुरूप कई शब्दों का संस्कृतीकरण भी किया गया है, जैसे-पारपत्र(पासपोर्ट),प्रवेशाधिकार(वीसा),व्योमबाल  (एअरहोस्टेस),यानाध्यक्ष(केप्टन)। यहां मेघदूत की कुछ पंक्तियों का प्रयोग सुन्दर बन पडता है,यथा यात्री को विमान देखकर कवि को वैसा ही अनुभव होता है,जैसा अनुभव मेघ को देखकर यक्ष को हुआ था-

कृत्वा पूर्णं विहितविधिना तं च यात्रोपचारं
शालामन्तः प्रचुरविशदां स प्रविष्टो विशालाम्।
आसीनोऽत्र स्थितमधितलं सम्मुखीनं विमानं
वप्रक्रीडापरिगणितगजप्रेक्षणीयं ददर्श।।


     यहां ध्यातव्य है कि विमानयात्रा के अनुभवों को कविता के रूप में निबद्ध करने को ‘अभिराज’ राजेन्द्र मिश्र ने एक नवीन काव्य विधा मानकर उसका नामकरण ‘विमानकाव्य-विधा’ किया है, यथा प्रभाकर नारायण कवेठकर की कविता ‘भूलोकविलोकनम्’, हरिदत्त शर्मा की कविता ‘चल चल विमानराज रे’, ‘अभिराज’ राजेन्द्र मिश्र रचित ‘विमानयात्राशतकम्’ नामक खण्डकाव्य आदि।
         भारतीय जनता को केन्द्र रख कर कवि ने 50 पद्यों के माध्यम से जनतालहरी में भारतीय गणतन्त्र की वर्तमान स्थिति की भी खबर ली है। भारतीय जनता की स्तुति कवि क्यों कर रहा है, जबकि स्तुति-प्रशस्ति के विषय देवता, महापुरुष आदि अन्य प्राचीन विषय उपलब्ध हैं ही? इस जिज्ञासा का समाधान करते हुए कवि कहते हैं कि हमारे लिए तो भारतीय जनता ही सर्वोपरी है अतः हम उसी की स्तुति कर रहे हैं-

केचिद् भक्तिपरायणा भवभयादर्चन्ति देवांस्तवैः
केचिच्चाटुरताः खलांश्चलधियो नेतृन् प्रभूंछ्रीमतः।
अस्माकं तु निसर्गतः स्थितिलयाविर्भावहेतुः परं
योगक्षेमविधायिनीह जनता राष्ट्रस्य सा स्तूयते।।

         कवि का यह वक्तव्य उचित ही है क्योंकि आधुनिक संस्कृत कवि कोई ऐसा दरबारी कवि नहीं है जो किसी प्रलोभन या विवशता के चलते किसी नेता या तथाकथित महापुरुष की स्तुति करे, अपितु वह तो अपने देश की मिट्टी से जुडे व्यक्ति को ही अपने काव्य का नायक बनाना चाहता है।
            कवि ने यहां उच्चपदासीन नेताओं, अधिकारियों में फैले भ्रष्टाचार पर तीखे व्यंग्य किये हैं। दिल्ली में जाकर बैठ गये किन्तु अपने क्षेत्र की सुध न लेने वाले नेता की उपमा कवि ने दक्षिण दिशा में गये अगस्त्य मुनि के प्राचीन आख्यान से दी है और बेचारी जनता विन्घ्य के समान प्रतीक्षारत है। किन्तु कवि की आशावाहिनी दृष्टि लोकतन्त्र में अब भी बनी हुई है-

होतारो वयमृत्विगस्तु जनताशक्तेर्महासंगमः
सुप्रातः सुदिवाः सुसन्धिसमयः सुश्वा जनो जायताम्।
यज्ञेऽस्मिन् प्रविभज्यतां प्रतिजनं निर्वाचने शासनं
ह्यालोकः प्रसरीसरीतु सुभगश्चालोकतन्त्राध्वनः।।

         उपनिषद् साहित्य में एक स्थान पर अन्न को ही ब्रह्म कहा गया है-‘‘अन्नं वै ब्रह्म’’। यह एक आधिभौतिक सत्य का कथन है क्योंकि अन्न के बिना जीवन निर्वाह सम्भव नहीं हैं। इस के आलोक में ही कवि ने रोटिकालहरी लिखी है, जिसमें रोटी अन्न किंवा ब्रह्म की प्रतीक है-

यद् रसो  वै च सेति श्रुतौ प्रोच्यते
ब्रह्मरूपं तथाऽन्नं  च जेगीयते।
वर्तते सर्वमेतत् तु सर्वंकषं
गूहीतं विस्मृतं रोटिकागौरवम्।।


       प्रतिदिन के व्यवहार में हम भी देखते हैं कि जो भी व्यापार किया जा रहा है उस के मूल में रोटी ही है। अतः यदि रोटी को काव्य का विषय बनाया जाता है तो इसमें कोई दोष नहीं है। रोटी यहां नायिका का रूप ले लेती है, ऐसी नायिका जिसका आस्वाद कितनी भी बार क्यों न लिया जाए, फिर भी वह नये स्वाद वाली ही बनी रहती है(तुलनीय वैदिक पुराणी युवती उषा से)। शकुन्तला दुष्यन्त के लिए अखण्ड पुण्यों का फल हो सकती है किन्तु साधारण मनुष्यों के लिए तो रोटी ही अखण्ड पुण्यों का एकमात्र प्रकृष्ट फल है-

रोटिका राजते पूर्णमुक्ताकृतिः
स्वादिता चापि नित्यं नवास्वादिता।
मानवानामखण्डस्य पुण्यस्य सा
केवलं चैकमस्ति प्रकृष्टं फलम्।।

     कवि ने 55 पद्यों के माध्यम से नर्मदालहरी में नर्मदा नदी की देवी के रूप में स्तुति की गई है। एक स्थल पर ऋग्वेद के नासदीय सूक्त का प्रभाव स्पष्ट रूप से दृग्गोचर होता है, जहां कवि कहता है कि हे नर्मदे! जब सृष्टि समुल्लसित नहीं हुई थी तब भी तुम्हारे जल का पारावार श्वांस ले रहा था-

नो सद् बभूव न किल चापि बभूव वाऽसत्
सृष्टिर्यदा न च समुल्लसिता पुराऽऽसीत्।
निर्वात एव च समुच्छ्वसिति स्म चैकः
शून्यस्य गह्वरगतस्तव वारिराशिः।।



          कवि ने यहां नर्मदा नदी से सम्बन्धित आख्यानों, ऐतिहासिक वृत्तान्तों को भी उद्घाटित किया है, जैसे- बलि-आख्यान, सहस्रार्जुन-आख्यान, रावण का वृत्तान्त, पाण्डवों के वनवास का वृत्तान्त, मण्डन मिश्र का वृत्तान्त आदि। कवि की नर्मदा के प्रति जो भक्ति है वह सर्वत्र अपना प्रवाह बनाए रखती है और यह स्वाभाविक भी है क्योंकि कवि ने नर्मदा नदी की संस्कृति को जीया है।

          मानव कहीं भी रहे किन्तु उसमें उसके देश की मिट्टी की सौंधी महक सदैव महकती रहती है। मृत्तिकालहरी में वर्णित मिट्टी अपने देश, गांव की भूमि, जडों की प्रतीक है। प्रत्येक मनुष्य मिट्टी की गोद में पला बडा है। मिट्टी के घर बनाना, खेल-खेल में मिट्टी खा लेना आदि बाल्यकाल की घटनाएं किसके मन को आह्लादित नहीं कर देती हैं? यह लहरी आपको आपके बचपन में ले जाती है, कुछ खट्टी-मिठी यादों को ताजा कर देती है-

प्रधावितं च शैशवेऽत्रमृत्तिकाचितेऽंगणे।
विनिर्मितानि गेहकानि तानि सैकतानि वा।।
अलक्ष्यदन्तकुड्मलाः कुटुम्बिभिर्गवेषिताः।
अभक्षयाम मृत्तिकां तदा निलीय कोणके।।

       कवि ने यहां मिट्टी को अक्षुण्ण बताया है क्योंकि सभी वस्तुओं में निहित यह मिट्टी वस्तुओं के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होती, वस्तुओं के भिन्न होने पर भी अभिन्न रहती है। यहां मिट्टी शाश्वत सत्य के रूप में उभर कर सामने आती है। कवि मिट्टी को ब्रह्म के रूप में प्रतिष्ठित करते प्रतीत होते हैं।
            अद्यापिलहरी में जीवन के सातत्य व गत्यात्मकता का काव्यात्मक चित्रण किया गया है। यहां 50 पद्य हैं, जिनमें  प्रायः ‘अद्यापि’ पद की आवृत्ति होती है। कवि के अनुसार पद ‘अद्यापि’ की आवृत्ति इस बात की सूचक है कि सम्पूर्ण जटिलताओं के बीच अभी भी आशा व विश्वास बचे हुए हैं। यह लहरी काव्य तमाम विसंगतियों, विडम्बनाओं, निराशाओं के मध्य जीवन में आशा व आस्था की खोज करती है। यह मानव जीवनकी जिजीविषा की प्रतीक है। कवि उस संजीवनस्पर्श को अपने शब्दों से खोज रहा है, जो जीवन के जटिल, कण्टकित मार्गों पर कहीं खो गया है-

स्पर्शः पुरा परिचितो नियतं य आसीत्
संजीवनश्च मनसश्च रसायनं यत्।
लुप्तोऽधुना जटिलजीवनजीर्णमार्गेऽ-
द्यापीह गीर्भिरिह तंच गवेषयामि।।

                यहां कवि कहीें अपने आस-पास के वातावरण की सुध लेते दिखलायी देते हैं तो कहीं पर्यावरण के विनाश के प्रति अपनी चिन्ता व्यक्त करते हैं। कहीं मन्दिर-मस्जिद विवाद को व्यर्थ बताते हैं तो कहीं शाकुन्तल-कथा को वर्तमान सन्दर्भ में प्रस्तुत करते हैं। इन सब के बीच भी कवि की जिजीविषा समाप्त नहीं हुई है-

एते भवन्ति पलिता अधिमस्तकं मे
केशास्तथापि विरता न जिजीविषेयम्।
अद्यापि दक्षिणकरस्य दृढो ग्रहो मे
यावल्लिखामि कलमेन च कम्पहीनः।।

            संग्रह के अन्तिम लहरी काव्य प्रस्थानलहरी के 52 पद्यों में कवि ने प्रस्थान वेला का चित्रण किया है। जहां एक ओर कवि अज्ञात को सम्बोधित करते हुए प्रस्थान की वेला में धीरज धरने को कहते है, वहीं दूसरी ओर कवि स्वयं चिन्ताकुल दिखलायी देते हैं-

अग्रे पदं यावदितः प्रकुर्यां
कश्चित् पदं कर्षति मे तु पृष्ठात्।
सिन्धोः प्रवाहो गिरिणेव रुद्धो
नाग्रे प्रयातोऽस्मि न संस्थितोऽहम्।।

   कहीं यह प्रस्थान की वेला महाप्रस्थान के भाव को भी प्रकट करती दृष्टिगोचर होती है-

एषा जरोपैति यमस्य दूती
केशं गृहीत्वा पलितं स्वहस्ते।
शब्दापयन्ती किल कर्णमूले
प्रस्थानवेला नु समागतेति।।