कृति - कोरोनाकोपशतकम्
प्रणेता- डॉ. बालकृष्णशर्मा
प्रकाशक- अमन प्रकाशन, सागर (म.प्र.)
आईएसबीएन- 978-93-80296-64-7
पृष्ठ संख्या- 128
अंकित मूल्य- 180रू.
संस्करण- प्रथम, 2020
कवि सम्पर्क- मो.- 09329682142, ईमेल- b.k.041973@gmail.com
कवि परिचय-
भारतवर्ष की पवित्र भूमि ने अनेक कवियों, मनीषियों को जन्म दिया है। महर्षि वाल्मीकि से प्रारम्भ हुई कवियों की उज्ज्वल परम्परा सतत विकासमान है। इसी परम्परा के सातत्य में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं- कवि डॉ. बालकृष्ण शर्मा। डॉ. शर्मा का जन्म 01.04.1962 को उ.प्र. के बस्ती जिले के गौरा पाण्डेय नामक ग्राम में हुआ। उन्होंने आचार्य नरेन्द्रदेव किसान स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बभनान जिला गोण्डा (उ.प्र.) से बी.ए., एम.ए. (संस्कृत) परीक्षाएं उत्तीर्ण कीं। तत्पश्चात् श्रीराजगोपाल संस्कृत महाविद्यालय, अयोध्या से 1985 में साहित्याचार्य तथा सम्पूर्णानन्द संस्कृत महाविद्यालय, वाराणसी से 1996 में पं. वायुनन्दन पाण्डेय जी के निर्देशन में ‘ध्वनिसिद्धान्तालोके संस्कृतमुक्तककाव्यदर्शनम्’ विषय पर पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की हैं। काशी में किये शास्त्रीय अध्ययन से प्राप्त वैदूष्य उनके अध्यापन में एवं काव्य रचनाओं में उभरकर सामने आता है। उन्होंने विभिन्न शास्त्रों का अध्ययन पारंगत आचार्यों की सन्निधि में प्राप्त किया है। कवि डॉ. बालकृष्ण शर्मा वर्तमान में शासकीय संस्कृत महाविद्यालय लश्कर, ग्वालियर में सह प्राध्यापक हैं। उन्हें प्राप्त प्रमुख सम्मानों में महामहिम राज्यपाल द्वारा प्रदत्त म.प्र. संस्कृत बोर्ड का ’वागर्थ सम्मान’ (2007) प्रमुख है। मौलिक संस्कृत काव्य रचनाओं के अतिरिक्त उनके द्वारा सम्पादित, सहसंपादित और संशोधित ग्रन्थ एवं पाठ्य पुस्तकें प्रकाशित हैं। उनका शोधकार्य गुणवत्तापूर्ण एवं उच्चस्तरीय है। 50 से अधिक शोधपत्र सागरिका, नाट्यम् आदि प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। उन पर कविभारती की कृपा छात्र जीवन में ही हो गयी थी फलस्वरूप उन्होंने स्फुट पद्य रचनाएं करना आरम्भ कर दिया था। शनैः शनैः प्रवर्धमान वाणी की साधना के फलस्वरूप उन्होंने मातृभूमि के प्रति प्रेमभावना से ओतप्रोत अपनी पहली पूर्ण काव्यकृति भारताभिज्ञानशतकम् के रूप में संस्कृत जगत् को समर्पित की। प्रकाशित मुक्तकाव्य/गीतिकाव्य/खण्डकाव्य- भावपञ्चासिकाकाव्यम् (तूणकछन्द, दूर्वा पत्रिका, उज्जैन, जनवरी-मार्च 2007 में प्रकाशित), गिराभरणकाव्यम् (शिखरिणी छन्द, पद्यबन्धा पत्रिका स्पन्द-9, अप्रैल 2016), वामाभरणकाव्यम्/ नारीवैभवम् (वसन्ततिलका छन्द) और कोरोनाकोपशतकम् (शार्दूलविक्रीडित छन्द, शतककाव्य, कोरोनामहाव्याधि पर) हैं। डॉ. बालकृष्ण शर्मा की स्फुट रचनाएं प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में समय-समय पर प्रकाशित होकर सहृदयों द्वारा सराही गयी हैं। निरन्तर प्रकाशित हो रहीं इन रचनाओं ने कवि को कविगोष्ठियों में सम्मान प्राप्त कराया है। अब तक ये कई बार बड़े मंचों पर संस्कृत काव्यपाठ कर चुके हैं। इनकी 50 से अधिक मौलिक संस्कृत कविताएं हैं जो राष्ट्रभक्ति, महाकवि कालिदास, भवभूति, प्रकृति, प्रशस्ति इत्यादि विषयों पर केन्द्रित हैं।
पुस्तक परिचय-
चीन देश के वुहान नगर में वर्ष 2019 के अन्त में कोरोना नामक कीटाणु का प्रकोप प्रारंभ हुआ। यह कीटाणु अल्प समय में ही पूरे विश्व में फैल गया। यह इतना घातक था कि इसे विश्व स्वास्थ्य संगठन ने वैश्विक महामारी घोषित कर दिया। भारत में भी इसके दुष्प्रभाव को देखते हुए सरकारी और निजी स्तर पर कई उपाय अपनाये गये। प्रधानमंत्री ने मार्च 2020 में देशव्यापी लॉकडाउन घोषित कर दिया। यह लॉकडाउन क्रमशः कई चरणों में मई तक बढ़ता गया। इस भीषण महामारी में लॉकडाउन के चरण तीन तक के परिदृश्य का कवि डॉ. बालकृष्णशर्मा ने कवि दृष्टि से जो साक्षात्कार किया उसे ‘कोरोनाकोपशतकम्’ में निबद्ध किया है। कोरोनामहाव्याधि पर केन्द्रित इस शतककाव्य में 102 पद्य शार्दूलविक्रीडित छन्द में निबद्ध हैं। अन्तिम दो पद्यों में कवि का परिचय है। संस्कृत की परम्परागत पृष्ठभूमि पर समकालीन विषयों या समस्याओं को बेहतर तरीके से प्रस्तुत किया जा सकता है और उनके समाधान की दुष्प्रभाव रहित तथा प्रकृतिहितैषी विधियाँ बतायी जा सकती हैं। इसी की एक प्रतिनिधि रचना है- ‘कोरोनाकोपशतकम्’। कोरोना जैसी आधुनिक महामारी की प्रभावशाली प्रस्तुति कवि के कौशल की और संस्कृत भाषा के अभिव्यक्ति सामर्थ्य की परिचायक है (द्रष्टव्य पद्य क्र. 64)। एक करुण दृश्य द्रष्टव्य है-
तातः पश्यति निर्निमेषनयनः कश्चिज्जराजर्जरः
कोरोनोपरतं विदीर्णहृदयः सन्तानमेकाकिनम्।
काष्ठीभूतवपुर्विवर्णवदनो निद्रादरिद्रीकृतः
आक्रोशन् च विधिं पुनः पुनरयं शोकाकुलो व्याकुलः।।
(पद्य 40)
अर्थात् यह वृद्धावस्था ग्रस्त, टूटे हृदय वाला, चेष्टा रहित शरीर वाला, सूखे मुख वाला, उड़ी नींद वाला, परेशान एवं शोकमग्न, निरन्तर जागरण करता हुआ कोई पिता बार-बार अपने भाग्य को कोसता हुआ कोराना विषाणु के संक्रमण से मरे हुए इकलौते पुत्र को ठगा सा देख रहा है।
इस काव्य में पद्य के साथ उसका अन्वय, संस्कृत टीका, हिन्दी अनुवाद और काव्यसौन्दर्य भी स्वयं कवि ने दिया है। इससे हिन्दी जगत् के लिए भी यह कृति उपकारी हो गयी है। प्रत्येक पद्य मुक्तक भी है और सभी पद्य एक निश्चित विषय ‘कोरोना’ पर केन्द्रित होने से सामूहिकता में भी हैं। प्रत्येक पद्य की अपनी अद्वितीय विशेषता है। रुचिकर अर्थालंकारों और प्रवाह में आये हुए शब्दालंकारों से अलंकृत यह काव्य साहित्य के पारखियों को आकृष्ट करने में समर्थ है। इसमें पौराणिक सन्दर्भों का भरपूर प्रयोग किया गया है और वे पौराणिक सन्दर्भ विषय की अभिव्यक्ति में सटीक बैठे हैं। ‘कोरोना’ के लिए ‘रक्तबीज’ की उपमा अनुपम है। कोरोना के निवारण हेतु विभिन्न देवों से प्रार्थना करना, जैन आचार ‘एकान्तवास’ की संस्तुति करना कवि के लोकोपकारी भाव तथा धार्मिक उदारता को प्रकट करता है। कोरोना के कारण उपजे विभिन्न भयावह दृश्यों, परिस्थितियों और विसंगतियों के बावजूद कवि में आशावाद की ज्योति निरन्तर जलती दिखायी पड़ती है। कोरोना से भी गतिशीलता की सीख का निरूपण अदम्य जीवटता का दर्शन है। कोरोना की उत्पत्ति, फैलने के कारण, बचाव के उपायों को भी भलीभाँति निरूपित किया गया है। आयुर्वेद, ज्योतिष आदि शास्त्रों के उल्लेख भी प्रसंगवशात् आये हैं। कवि भारतीय शास्त्रीय सिद्धांतों पर अडिग हैं। उन्होंने भारतीयता के आधार पर सुस्थिर होकर वैश्विक परिप्रेक्ष्य को देखा है। कई भारतीय मान्यताओं को कोरोना से बचाव में उपयोग में लाया जा रहा है। कवि उनको रेखांकित करते समय उन भारतीय मान्यताओं की प्रशंसा करना नहीं भूले हैं। कोरोना काल में दूरदर्शन पर प्रसारित किये गये धारावाहिकों रामायण, महाभारत, श्रीकृष्णा आदि का उल्लेख कवि ने किया है। साथ ही सोशल मीडिया फेसबुक आदि संचार माध्यमों की जनजागृति लाने के लिए प्रशंसा की है। संस्कृत कवि सुधारवादी आधुनिकता के समर्थक हैं। कहीं कवि प्रसिद्ध कवियों के अध्ययनजन्य संस्कारों से प्रभावित प्रतीत होते हैं। जैसे- ‘रम्ये सैकतलीनहंसमिथुने पुण्ये नदीसंगमे . . .’ (पद्य 57) पर महाकवि कालिदास के ‘कार्या सैकतलीनहंसमिथुना स्रोतोवहा मालिनी’(अभिज्ञानशाकुन्तलम् 6.17) की छाया है। ‘धर्मो रक्षति रक्षितः’ जैसी प्रचलित सूक्तियों का प्रयोग विषय को स्पष्ट करने के लिए किया गया है (पद्य 30)।
एक ओर कवि कोरोना निवारण योद्धाओं चिकित्सक आदि को महिमामण्डित करते हैं वहीं दूसरी ओर कोरोना निवारण में असहयोग करने वाले, कोरोना फैलाने वाले असामाजिक तत्त्वों की कड़े शब्दों में निन्दा करते हुए उन्हें राक्षस तक कह देते हैं। कवि ने उनके लिए संस्कृत में प्रचलित गाली ‘दासीपुत्र’ का प्रयोग किया है। नये शब्दों का निर्माण कर सकने की संस्कृत की सामर्थ्य का कवि ने उपयोग किया है। जैसे- लॉकडाउन के लिए संरोध/निरोध शब्द का प्रयोग। कोरोना काल में मानव मन में उठे झंझावातों को काव्य में महसूस किया जा सकता है। कवि कहीं कोरोना को शेषनाग के विष का अंश कहते हैं, कहीं तो कहीं दुर्वासा का शाप तो कहीं ज्ञानी, यायावर, सामाजिक और साम्यवादी कहते हैं। कोरोना से मृत्यु के समय निर्मित होने वाली विवशता का वर्णन पाठक व श्रोता की आँखों को नम कर देने वाला है। मृतकों की अधिकता बताने के लिए कवि महाभारत के युद्ध का उदाहरण देते हैं जहाँ चहुँ ओर शव थे। यह कवि की क्रान्तदर्शिता ही है कि कवि द्वारा संकेतित भाव ‘कोरोना से बचते हुए जीना सीखना होगा’ (पद्य 99) को काव्यरचना के बहुत दिनों बाद अनलॉक की प्रक्रिया में प्रधानमंत्री ने व्यक्त किया था। काव्य का सौ वाँ पद्य संस्कृत नाटकों के भरतवाक्य की तरह लोकमंगल की भावना से ओतप्रोत है।
कवि डॉ. बालकृष्ण शर्मा सनातन धर्म में सुदृढ़ आस्था रखने वाले आस्तिक जन हैं। उनमें परम्परा के संस्कार गहरे समाये हुए हैं। परम्परा पर सुदृढ स्थिर रहकर भी आधुनिकता को देखा, परखा, समझा और व्यक्त किया जा सकता है, इसका निदर्शन है यह काव्य- कोरोनाकोपशतकम्। संस्कृत शास्त्रों के गंभीर अध्येता होने पर भी भाषा कहीं बोझिल नहीं हुई है। काव्य में प्रायः असमस्तपदा पदावली का प्रयोग हुआ है। प्रसाद गुण है। इस काव्य में मुख्य रूप से करुण रस है। यह काव्य संस्कृत की प्राचीन परंपरा का वर्तमान प्रतिनिधि है।
संस्कृत की परंपरागतशैली में आधुनिक विषय पर रचित यह काव्य ‘कोरोना काल’ का काव्यमय दस्तावेज है। ‘उदयनकथा’ की तरह वर्षों बाद भी लोग इस भयावह काल का सजीव प्रत्यक्ष कर सकेंगे। यह काव्य की विलक्षणता ही है कि महामारी का वर्णन भी सहृदयों को रुचिकर लगेगा। यह ‘कोरोनाकोपशतकम्’ काव्य आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी के ‘अभिमतम्’, प्रो. मनुलता शर्मा के ‘मङ्गलाशंसन’, प्रो. आनन्द प्रकाश त्रिपाठी के ‘मेरी दृष्टि में’, डॉ. नौनिहाल गौतम की ‘भूमिका’ और स्वयं कवि के ‘आत्मनिवेदन’ की पूर्वपीठिका के साथ ही काव्य की विषयवस्तु को अभिव्यक्त करने वाले कवर-पृष्ठ से सुसज्जित है। यह संस्कृत में कोरोना पर रचित काव्यों में सर्वप्रथम प्रकाशित होने वाला ग्रन्थ है।।
-डॉ. नौनिहाल गौतम संस्कृत विभाग डॉ. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर
98261 51335