Tuesday, January 3, 2023

रूपक साहित्य में युगबोध का उत्तम निदर्शन : उज्जयिनीवीरम्

कृति - उज्जयिनीवीरम्

कृतिकार - डॉ. प्रवीण पण्ड्या

संपादक _ dr नौनिहाल गौतम

विधा - संस्कृतरूपकसंग्रह

प्रकाशक -रचना प्रकाशन, जयपुर

प्रकाशन वर्ष - 2022

संस्करण - प्रथम

पृष्ठ संख्या - 64

अंकित मूल्य - 100/-

              संस्कृत में गद्य, पद्य के साथ दृश्यकाव्य प्रारम्भ से लिखे जाते रहे हैं। समय-समय पर दृश्यकाव्य में शैली, विधा आदि की दृष्टि से कई प्रयोग किये गये। अर्वाचीन संस्कृत साहित्य में लिखे जा रहे दृश्यकाव्यों में भी नैक परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं। इधर एकांकी नाटकों के लेखन में वृद्धि हुई है। नाट्य की शैली भी बदली है। एक ओर जहां पारसी थियेटर के आगमन से भारतीय नाटकों के प्रस्तुतिकरण में बदलाव आया वहीं अन्य भाषा के नाटकों के प्रभाव से भी भारतीय नाटक अछूते नहीं रहे। यह आदान-प्रदान की प्रक्रिया ही किसी भाषा के साहित्य को जीवन्त व लोकप्रिय बनाये रखती है।

                 अर्वाचीन संस्कृत नाट्य साहित्य में डॉ. प्रवीण पण्ड्या का प्रवेश सुखद कहा जा सकता है। इसके पूर्व डॉ. पण्ड्या संस्कृत कविता, अनुवाद एवं समीक्षा के क्षेत्र में अपनी प्रतिभा प्रदर्शित कर चुके हैं। डॉ. पण्ड्या कृत उज्जयिनीवीरम् तीन रूपकों का संकलन है, जिनके शीर्षक इस प्रकार हैं- बलिदानम्, का ममाभिज्ञा का च तव सत्ता तथा उज्जयिनीवीरम्। ये तीनों रूपक एकांकी विधा में लिखे गये हैं।


बलिदानम् -

     राजा बलि और वामन अवतार की कथा पर आधृत यह एकांकी रूपक हमें दान की महत्ता की शिक्षा तो देता ही है, साथ ही  अहंकार की सारहीनता भी बतलाता है। इसे 9 दृश्यों में समेटा गया है।। मंगलाचरण के पश्चात् एकांकी का प्रारम्भ सूत्रधार  एवं नटी के वार्तालाप से होता है। प्रस्तावना के श्लोक से भावी कथानक की सूचना भी प्राप्त हो जाती है -


साक्षाद्विष्णुर्गृहद्वारे जगत्पतिश्च याचकः।

विजयते बलिर्विश्वे सुदानवीरपुंगवः।।


संसार के स्वामी विष्णु स्वयं

खडे हैं याचक बन

जिनके द्वार,

दानवीरों में श्रेष्ठ वे

बलि हो रहे हैं विजयी।।


              प्रस्तावना के पश्चात् दैत्यराज विरोचन और शुक्राचार्य के वार्तालाप से ज्ञात होता है कि विरोचन के यहां बलि ने जन्म लिया है। रूपक में बलि की बाल्यावस्था का सुन्दर चित्रण किया गया है। बाल सुलभ उच्चारण के कारण र् वर्ण का लत्व किया गया है, यथा-


कियत् सुन्दलं गीतमिदम्

मनोहलं खलु


    बलि की दानशलता के लक्षण बचपन से ही दिखाई देने लगते हैं। कालानुसार बलि राजा बन जाते हैं। यज्ञ के दौरान विष्णु वामन अवतार लेकर आते हैं और बलि से तीन पैर भूमि मांगते हैं। दानशील बलि शुक्राचार्य के द्वारा रोकने पर भी दान देने को उद्यत होते हैं। वे वामन अवतार विष्णु से कहते हैं कि एक पग में स्वर्गलोक तथा दूसरे में सम्पूर्ण मृत्युलोक ले लेवें तथा तीसरा पग स्वयं उसके ऊपर अर्थात बलि के सर पर रखें क्योंकि उसी के द्वारा अहंकार रूपी अपराध किया गया था-

    येन शिरसाऽहंकारभूतेन कृतोऽपराधः, तदुपरि तृतीयः पादः स्थाप्यताम्।



          रूपककार ने कहीं पात्रों के माध्यम से भारतभूमि की महत्ता का गान किया है- ‘‘अस्यां भूम्यां त्यागसुरभेः परागकणा विकीर्णा वर्तन्ते। धूलिकणेष्वपि दानभावना वर्ततेऽत्र। ’’ तो कहीं दान के अहंकार को निकृष्ट बताते हुए (दानस्यापि निकृष्टोऽहंकारः) कहा गया है कि अहंकार होता तो सूक्ष्म है किन्तु गड्ढे में गिरा देता है- ‘‘सूक्ष्मोऽप्यहंकारो गर्ते पातयति’’। यहां लोकरंजन को शासन का मूल माना है-


नश्यन्तु केवलं दुष्टाः, जना जीवन्तु निर्भयाः।

चिन्ता राजजनानां न यद्भाव्यं तद्भवेत्खलु।।


               एक स्थान पर शुक्राचार्य के कथन में ‘‘श्रुतं स्यात् - स्वतः प्रमाणं परतः प्रमाणं, किरांगना यत्र गिरो गिरन्ति’’ यह उक्ति खटकती है क्योंकि यह उक्ति आदि शंकराचार्य और मण्डनमिश्र विवाद से जुडी हुई है जो बहुत काल बाद के हैं। साथ ही एक पात्र महामात्य के कथन में ‘‘हा राम!’’, यह प्रयोग भी अटपटा लगता है क्योंकि एक तो वामन अवतार सम्भवतः राम अवतार के पूर्व के हैं, दूसरा यह कि दैत्य होकर महामात्य राम का नाम क्यों लेंगे?


का ममाभिज्ञा का च तव सत्ता -

                यह एकांकी रूपक पाश्चात्य मोनो एक्टिंग नाटक की शैली में है। प्राचीन रूपक भेद भाण से भी इसका कुछ-कुछ साम्य कहा जा सकता है। इसमें केवल एक पात्र ही दर्शकों के समक्ष आकर सम्पूर्ण नाट्य का अभिनय करता है। यह पात्र ग्रामीण और शहरी वेषभूषा के मिश्रित रूप को धारण कर चश्मा लगाकर आता है।


                  इस पात्र के कथनों के माध्यम से रूपक आगे बढता है। यह एकांकी मुख्य रूप से मतदान और उससे जुडी विडम्बनाओं को व्यंग्यात्मक शैली में हमारे समक्ष प्रस्तुत करता है। मतदान के समय किस तरह शराब आदि के द्वारा मतदाताओं को खरीदा जाता है, इसकी खबर लेता हुआ पात्र कहता है-

‘‘सुरायाः  कूपिका आगमिष्यन्ति। यतिष्यन्ते (शनैः) युष्मान् क्रेतुम्। एका कूपिका एको वोटः। दीव्यन्ति भासमानानि गान्धिमुद्रांकितानि नाणकानि आगमिष्यन्ति। (शनैः) वोटं च क्रेष्यन्ति।’’



           आगे पात्र प्रश्न उठाता है कि मत किसे दें, जाति को या नीति को-

दानम् आहोस्विद् विक्रयणं विधेयं मतस्य? जातये मतं देयम् उताहो नीतये? मतं मूकेभ्यो देयं किंवा त्वद्धिताय मुखरेभ्यः ?

         फिर इसका उत्तर इस प्रकार देता है-

‘‘यस्त्वां मतं याचते, परं न हि त्वां पाययति मैरेयं, तस्मै मतं देयम्। यस्त्वां मतं याचते, परं न हि त्वां यवागूं खादयति, तस्मै मतं देयम्। यस्त्वां मतं याचते, परं न हि तुभ्यं धनं दत्तो, तस्मै मतं देयम्।’’

          जब मत का केवल दान होगा, उसको बेचा नहीं जायेगा तभी तो सहीं अर्थों में चुनाव होगा-

‘‘दानं करिष्यति चेद् विजेष्यति। विक्रयं विधास्यति चेत्त्वं पराजयं प्राप्स्यति, ते जयं लप्स्यन्ते।’’

     यह एकांकी इस संकलन का श्रेष्ठ रूपक है, जो समसामयिक तो है ही, साथ ही न केवल वर्तमान समाज की समस्याओं को प्रस्तुत करता है अपितु उनका समाधान भी खोजता है। इस रूपक में अर्वाचीन संस्कृत कवि यथा- पं. श्रीराम दवे, अभिराज राजेन्द्र मिश्र, और हिन्दी कवि रघुवीर सहाय आदि की कविताओं का भी प्रयोग किया गया है|

उज्जयिनीवीरम्-



               यह एकांकी नई शैली में लिखा गया है। परिवर्तित होते दृश्यों के साथ यह एकांकी जीवन से जुडे नये-नये प्रश्न उठाता है और उनके समाधान खोजने का प्रयत्न भी करता है। नाट्य की प्रस्तावना में नटी कवि प्रवीण पण्ड्या  के लिये सच कहती है- ‘‘अहो, महान् प्रपंची कविरयम्। तन्नाट्यकृतित्वे मनो यावद् रमते, भूयस्ततो बिभेति’’। नाट्य का प्रारम्भ वीरम और धरम नामक दो मित्रों के अभिनय से होता है। वीरम की  देह में उज्जयिनी के वीर आते हैं। जो भारतीय ग्रामीण संस्कृतियों से जुडे हुए हैं, वे इस तथ्य को समझ सकते हैं कि किस तरह देवताओं के थानकों (देवताओं के स्थान) पर  देव भोपा आदि के शरीर में आते हैं और श्रद्धालुओं की समस्याएं सुनते हैं, उनका समाधान करते हैं। वीरम और धरम की कथा सुनाने वाला पात्र स्वयं इसकी कथा से कैसे जुड जाता है, यह देखने योग्य होता है। यह एकांकी वर्तमान भौतिकता प्रधान युग की विसंगतियों, विडम्बनाओं का मुक्त चित्रण तो करता ही है, साथ ही यह भगवद्गीता के माध्यम से उनका समाधान भी तलाशता है।

               हमारे आस-पास  के लोगों में किस किस तरह से हिंसा की भावना छुपी हुई हो सकती है, उसके लिये कहते हैं- ‘‘अरण्यस्य हिंस्रजीवनां हिंस्रता न न गुप्ता, परमत्र तु सा कतिभिः कतिभिरावरणैरावृता केनापि ऊहितमपि न शक्या।’’ कामभावना पर विचार करते हुए कहा गया है- ‘‘कामस्तावदयं कः पदार्थः कामः स्यात्, परं पशुतामप्यतिशयानः स मानवस्य मानवताख्यं स्वरूपमपि हन्ति। व्यभिचारः क्षम्यः, परं बलात्कारस्य पशुता?.........कामाग्निर्देहस्य सत्यमस्ति, परं जीवनस्य नैकान्तिकं प्राप्तव्यमस्ति।’’  


     इस संग्रह का संपादन dr नौनिहाल गौतम ने किया है| dr सरोज कौशल ने विस्तृत पुरोवाक में आधुनिक संस्कृत नाट्य परंपरा पर महत्त्वपूर्ण जानकारी दी है|  रूपक संग्रह में दिए गए नाट्य निर्देश Dr पंड्या को एक सफल नाटककार बनाते हैं| यह रूपक संग्रह स्वागत योग्य है और भविष्य के प्रति आश्वस्त करता है|