कृति - जानन्तु ते
रचयिता - डॉ. हर्षदेव माधव
सम्पादक - डॉ. प्रवीण पण्ड्या
विधा - संस्कृत गजल
प्रकाशक - संस्कृति प्रकाशन, अहमदाबाद
संस्करण - प्रथम, 2003
पृष्ठ संख्या - 99
अंकित मूल्य - 100/-
साहित्य में गजलविधा खूब फली - फूली है। विभिन्न भाषाओं में अभिव्यक्ति को मुखर करती यह विधा पसन्द की जाती रही है। उर्दू और हिन्दी में तो गजल एवं गजलकारों को अच्छा -खासा मुकाम हासिल है। इधर केवल गजल के प्रशंसक ही नहीं अपितु नेता भी अपनी बात को दमदार तरीके से रखने के लिए गजल के शेरों का प्रयोग करते दिखलाई देते हैं। संस्कृत में जो विधाएं आयातित हैं, उनमें गजल सर्वाधिक पसन्द की जाती रही है। भट्ट मथुरानाथ शास्त्री, बच्चूलाल अवस्थी, जगन्नाथ पाठक, अभिराज राजेन्द्र मिश्र, राधावल्लभ त्रिपाठी, पुष्पा दीक्षित, हर्षदेव माधव, महराजदीन पाण्डेय, लक्ष्मीनारायण पाण्डेय जैसे वरिष्ठ गजलकारों ने जहां संस्कृत गजल की विकास यात्रा को नवीन आयाम दिए वहीं आज रामविनय सिंह, प्रवीण पण्ड्या, बलराम शुक्ल, कौशल तिवारी, राजकुमार मिश्र, ऋषिराज जानी आदि नई पीढी के गजलकार भी सक्रिय हैं।
भट्ट मथुरानाथ शास्त्री के पश्चात् यदि संस्कृत साहित्य में सर्वाधिक नवीन प्रयोग किसी ने किये हैं तो निःसन्देह वह डॉ. हर्षदेव माधव हैं। संस्कृत गजल को नवीन रूपों में ढालती उनकी कृति ‘जानन्तु ते’ हाल ही में प्रकाशित होकर आई है। कवि माधव कविता के साथ-साथ काव्यसंग्रहों के नामकरण में भी अपनी अद्भुत प्रतिभा दिखलाते हैं। प्रयोगधर्मी कवि भवभूति की काव्यपंक्तियों के अंशों के माध्यम से कई बार डॉ. हर्षदेव माधव ने अपने काव्यों का नामकरण किया है, जो इनके काव्यसंकलनों के मिजाज पर खरा उतरता है। भवभूति ‘‘जानन्तु ते किमपि तान् प्रति नैष यत्नः’’ के माध्यम से अपने उन समकालीनों पर कटाक्ष करते हैं जो उनकी कविता को उस समय समझ नहीं पा रहे थे तो कवि माधव भी अपने ऐसे ही समकालीनों को अपने काव्यसंकलन के माध्यम से उत्तर देते हुए संग्रह का नाम रखते हैं - जानन्तु ते।
यह कवि माधव की प्रत्यग्र 55 संस्कृत गजलों का संकलन है। सभी गजलें अपने आप में अनूठी हैं। वे गजल का संविधानक तो अपनाते हैं लेकिन साथ ही अपने कथ्य को कहने के लिये संस्कृत के पारम्परिक छंदों का भी आश्रय लेते हैं। आपकी गजलें वसन्ततिलका, उपजाति, अनुष्टुप्, स्रग्धरा, वंशस्थ, शार्दूलविक्रीडित, द्रुतविलंबित, मालिनी, शिखरिणी,मन्दाक्रान्ता जैसे लोकप्रिय संस्कृत छन्दों में तो उतरती ही हैं, साथ ही विद्युन्माला, मणिमाला, पंक्ति, प्रहर्षिणी, भ्रमरविलसिता, प्रबोधिका मदलेखा, मत्तमयूर जैसे अल्प प्रचलित छन्दों के प्रवाह में भी गजल डुबकी लगा लेती हैं। यहां छोटी बहर की तो गजल हैं ही जैसे कि शशिवदना छन्द के अनुसरण में यह गजल -
अचलशिवोऽहम्
चपलशिवोऽहम्।।
पुनरथ माया-
शबलशिवोऽहम्।।
तो सवैया छन्द की लय में बडी बहर की गजलें भी यहां मिलती हैं। कवि माधव हर बार अपनी नई राह पकडते हैं। वे तयशुदा रास्तों पर कभी नहीं चलते। शववाहकों पर उनकी शान्त रस से सिक्त मार्मिक गजल कवि के जीवनदर्शन को अभिव्यक्ति देती है-
रिक्ता कृत्वा गृहं सर्वं गच्छन्ति शववाहकाः।
रामनाम्नः कदम्बेन चलन्ति शववाहकाः।।
गृहस्वामी गतो दूरं विहाय धनसम्पदः,
मृत्तिकां तु शरीरस्य वहन्ति शववाहकाः।।
कवि अपनी गजलों में समसामयिक समाज को परखता है, उसका बखान करता है, पुराने समय से आज के समय की तुलना भी वह करता है-
क्व नु सुरमुनिसेव्या सा पवित्रा धरित्री
क्व च मलिनतरेयं रंकदीना धरित्री ।।
क्व नु पुलकितगात्री शस्यरम्या धरित्री
क्व च मनुजबुभुक्षा-खिन्नचित्ता धरित्री ।।
आध्यात्मिक गजल - कवि माधव संस्कृत में आध्यात्मिक गजल लिखने वाले प्रथम गजलकार हैं। संकलन की कतिपय गजल इस श्रेणी में आती हैं। दर्शन में हंस प्रतीक है आत्मा का, उस प्रतीक को लेकर कवि माधव ने आध्यात्मिक गजल का ताना-बाना बुना है-
स्वान्तः क्लेशैर्दूयते नैव हंसः।
भावाभावैर्दूष्यते नैव हंसः।।
मुक्ताकाशे स्वैरयात्राऽस्ति मुक्त्यै
कारागारै रुध्यते नैव हंसः।।
सामने आकाश मुक्त है और यात्रा मुक्ति की है लेकिन वह यात्रा स्वैच्छिक है और जब यात्रा स्वैच्छिक हो तो भला गहन समुद्र में डूबने का भय किसे होगा, सुविधाजनक यात्रा पर चलने वाले मंजिल पर पहुंचने का आस्वादन नहीं ले पाते या कि सच्चा आनन्द यात्रा का ही है, गन्तव्य का नहीं -
अब्धौ भीतिर्मज्जनस्यापि नास्ति,
नौकार्भिवा नीयते नैव हंसः।।
आत्मन्!, दीपः, घटः, वृन्दावनम् आदि शीर्षकों से युक्त गजलें भी आध्यात्मिक गजलों की श्रेणी में आती हैं।
मर्शिया गजल- मर्सिया मूल रूप से एक अरबी शब्द है जो रिसा से बना है। मर्सिया काव्य में किसी के अभाव में विलाप किया जाता है। संस्कृत गजल के क्षेत्र में कवि हर्षदेव माधव प्रथम ऐसे गजलकार हो गये हैं, जिन्होंने मर्सिया शैली का प्रयोग गजल में किया है। मर्शियागझलगीतिः में कवि किसी व्यक्ति विशेष के अभाव में मर्सिया नहीं लिख रहा है अपितु वह स्वप्न, उत्सव आदि के अभाव में मर्सिया लिखता है-
अद्य मे सूर्यो गतश्चन्द्रो गतः।
अद्य मे रात्रिर्गता स्वप्नो गतः।।
जीवितं जीर्णं वनं मे संवृतम्,
उत्सवो यातो निजानन्दो गतः।।
पादपे छिन्ने कथं जीवेल्ल्ता,
जीवनाधारो हि मे श्वासो गतः।।
निरोष्ठ्यवर्णा गजलगीति - शिवविभूतियोग शीर्षक से युक्त गजल में कवि माधव ने दण्डी कवि के समान ओष्ठ्य वर्णों का प्रयोग नहीं किया है। दण्डी रचित दशकुमारचरित में प्रिया के द्वारा किये गये दन्तक्षत के कारण मन्त्रगुप्त ओष्ठ्य वर्णों का प्रयोग नहीं कर पाता । स्रग्विणी छन्द में प्रस्तुत गजल भी निरोष्ठ्य वर्णों से युक्त है-
श्रीधरे शंकरः।
शंकरे शंकरः।।
अष्टधा दर्शने,
सुन्दरे शंकरः।।
खेचरे केचरे
गोचरे शंकरः।।
शकारस्य गजलगीति - शूद्रक रचित मृच्छकटिकम् में शकार नामक पात्र विचित्र प्रकार का प्रतिनायक है। वह अपने कथनों में स वर्ण के स्थान पर श वर्ण का प्रयोग करता है अतः उसका नाम ही शकार रख दिया गया है। प्रयोगधर्मी कवि हर्षदेव माधव शकार की उक्तियों को लेकर गजल तो रचते ही हैं, साथ ही सम्पूर्ण गजल में स वर्ण के स्थान पर श वर्ण का ही प्रयोग करते हैं-
धावशि याशि च शभयं श्वशिषि च कुत्र. गमिष्यशि वशन्तशेणे!।
मुक्तमयूरी त्वं यमराजं श्वयं वरिष्यशि वशन्तशेणे!।।
श्वा इव हरिणीं त्वां च कपोतीं बिडाल इव गृह्णामि शवेगम्,
अबले! हरामि शीघ्रमवशिके किं नु करिष्यशि वशन्तशेणे!।।
शकार पात्र की एक और विशेषता है कि वह प्राचीन कथाओं के पात्रों को असंगत रूप से जोड देता है। कवि ने अपनी गजल में इसका भी बखूबी प्रयोग किया है-
अश्निह्यत् कुन्त्यां कंशो वा रामो द्रौपद्यामश्निह्यत्,
श्निह्याम्येवं मधुरान् शब्दान् त्वमपि वदिष्यशि वसन्तशेणे!।।
स्त्रीपुरुषोक्तिगजल (दीर्घगजल) - कवि माधव ने गजलसंग्रह के अन्त में एक दीर्घ गजल को प्रस्तुत किया है। इस दीर्घ गजल में 33 शेर माधव जी द्वारा रचे गये हैं। इस गजल की दीर्घता तब और बढ जाती है, जब इसमें 7 कवि उसी शैली में अपने द्वारा रचे गये शेरों को जोडते हैं। यह संस्कृत गजल के क्षेत्र के साथ-साथ साहित्य में भी अभिनव प्रयोग है। इस गजल की एक और विशेषता यह है कि इसमें स्त्री और पुरुष दोनों की उक्तियों को परिवर्तनशील रदीफ-काफिए के साथ प्रयुक्त किया गया है, इस तरह यह स्त्री और पुरुष दोनों पर समान रूप से घटित होती है। भुजंगप्रयात छन्द में लिखी गई यह गजल कई मायनों में अद्भुत बन पडी है-
मृजामो वयं किं लिखन्तः/लिखन्त्यः।
सदा विस्मरामस्स्मरन्तः/स्मरन्त्यः।।
गृहं नास्ति, गन्तव्यदेशः सुदूरे,
स्वयात्रां त्यजामश्चलन्तः/चलन्त्यः।।
प्रस्तुत संकलन में कई अप्रचलित या अल्पप्रचलित धातुओं का भी प्रयोग किया गया है। प्रयोगशील इस गजल संकलन का आधुनिक संस्कृत साहित्य में सर्वथा स्वागत किया जाना चाहिए।