Sunday, October 22, 2023

संस्कृत में नवीन ग़ज़ल संग्रह प्रतिप्रवाहम्

कृति - प्रतिप्रवाहम्



कृतिकार - महराजदीन पाण्डेय ‘विभाष’

विधा - गजल संग्रह

संस्करण - प्रथम संस्करण 2022

प्रकाशक - रचनाकार पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली

पृष्ठ संख्या - 112

अंकित मूल्य - 300/-

    अर्वाचीन संस्कृत साहित्य में जो विधा इधर खूब फली - फूली है, वह है ग़ज़लविधा। उर्दू-फारसी की परम्परा से निकली यह विधा हिन्दी आदि भारतीय भाषाओं के साथ संस्कृृत में भी अत्यन्त लोकप्रिय हुई है। महराजदीन पाण्डेय ‘विभाष’ आधुनिक संस्कृत साहित्य में अपनी रचनाओं से सर्वादृत हैं। ‘मौनवेधः’ और ‘काक्षेण वीक्षितम्’ इन दो संस्कृत ग़ज़ल संग्रह के उपरान्त प्रतिप्रवाहम् नाम से कवि विभाष का तृतीय ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत संग्रह को चार भागों में बांटा गया है।

1. ग़ज़लम् - इस भाग में कवि विभाष रचित 16 संस्कृत ग़ज़ल हिन्दी अनुवाद के साथ संकलित की गई हैं। इन ग़ज़लों  का छन्दशास्त्रीय परिचय  स्वयं ग़ज़लकार ने संग्रह के अन्त में दे दिया है। कवि विभाष अपनी ग़ज़लों में विभिन्न भावबोधों के समावेश के लिए जाने जाते हैं। व्यंग्यार्थ का पुट इन ग़ज़लों की सम्प्रेषणीयता को बढ़ा देता है। साथ ही समकालीन बोध भी इनकी ग़ज़लों में देखने को मिलता है। चुनाव के मौसम का बखूबी वर्णन करते हुए महराजदीन पाण्डेय कहते हैं-

                निर्वाचनस्य रंगे नटितेन तेन मुषितम्।

                कस्यापि तेन रुदितं कस्यापि तेन हसितम्।।

       निर्वाचन के रंगमंच पर उसने अपने अभिनय से किसी की हंसी चुरा ली  तो किसी का रोना। नेता को चुनावी रंगमंच का अभिनेता बताकर ग़ज़लकार ने चुनावी वायदों की हकीकत बयान कर दी है। 

        संस्कृत में एक सुभाषितांश प्रचलित है- गतस्य शोचनं नास्ति, जिसे हिन्दी में कहते हैं - बीती ताहि बिसार दे। इसी भाव को गतं गतं तत (गया सो गया) इस रदीफ के माध्यम से नवीन कथ्य के साथ प्रस्तुत किया गया है-

               हृदये हृते न बन्धो विलपेद् गतं गतं तत्।

               वंशो न को नु वंशीं ध्वनयेद् गतं गतं तत्।।

               जीवेन महार्घेण क्रीणीत को नु मोक्षम्

               आक्रीय तं न भूयो कृश्येद् गतं गतं तत्।।

   मन की चोरी हो जाने पर रोना नहीं, गया सो गया

   बांस नही तो बांसुरी कौन बजाये,  गया सो गया

   मंहगे जीवन के बदले कौन ले मोक्ष भला

   पर जब सौदा कर ही लिया तो गया सो गया



        कोराना काल की विभिषिका को कई कवियों ने  अपने काव्यों में अभिव्यक्ति दी है। विभाष अपनी एक ग़ज़ल में कोराना के भय से पीडित होते हुए सब को अपनी रक्षा करने का आह्वान कर रहे हैं ताकि हम स्मृति शेष न रह जाएं-

                 स्वं रक्ष रक्षणीयास्त्वामाश्रिताः कियन्तः।

                 नेचेदरुन्तुदाः स्युर्दिवसाः स्मृताः कियन्तः।।

वे उस समय की सोशल डिस्टेंसिंग सामाजिक दूरी से भी आहत हैं-

                 एकत इहावमर्शे नहि गुण्ठनेऽस्ति मानः,

                 परतो मुखा इहापदि पटमुद्रिताः कियन्तः।।

                 विरहोऽसहो यदीयस्तद् दूरताऽद्य पथ्यम्,

                 धातस्त्वयापि कीला हृदि कीलिताः कियन्तः।।

      यहां पटमुद्रित शब्द का प्रयोग मास्क के अर्थ में किया गया है। 

                   विभाष की ग़ज़लों में कई बार भाव उसी भूमि पर आ जाते हैं, जहां से उर्दू फारसी की रूमानीयत भरी ग़ज़लें प्रस्फुटित होती रहती हैं -

          अभिभाषितुं किमपीहितं मुखतोऽन्यदेव तु निःसृतम्।

          प्रतिवारमेवमभूद् यदपि पूर्वं न किन्नु सुनिश्चितम्।।

          स उपैति चेत् किमुपालभेऽहमितिस्थितो विमृशन् चिरम्

          तदुपागमे स्मरितुं क्षमे न किमावयोः समुदीरितम्।।

          प्रेमी के सामने आने पर जो सोचा गया था, वह बोला न जा सका, यही भाव इन दो शेरों में प्रकट हुआ है। किन्तु कवि विभाष के कथ्य में पुनः पुनः साम्प्रतिक राजनीति को उलाहना, दबे-कुचले लोगों की दशा, किसानों की व्यथा आदि प्रवेश कर ही जाते हैं, यथा-

            जगतीयमग्रतोऽग्रे यातीति याति सततम्

            शंकेऽसि वासि नो वा कृष्टः कृषिश्रितस्त्वम्।।

       कवि किसान को पुकारता हुआ कह रहा है कि दुनिया बहुत आगे निकल चुकी है और खेती पर आश्रित तुम वहीं के वहीं रह गये हो। 

               विभाष उर्दू-फारसी ग़ज़ल परम्परा के अध्येता रहे हैं। वे उर्दू शायर निदा फाजली के एक शेर के आधार पर अपना शेर रचते हुए उनका स्मरण करते हैं-

        न देहि कर्णौ बुधोपदेशे कदापि मुग्धोऽपि भवे रसाय

        द्वयोर्द्वयोश्च न चत्वारि नाम वदामि सर्वत्र संचयः स्यात्।।

दो और दो जोड हमेशा चार कहां होता है

सोच समझ वालों को थोडी नादानी दे मौला।। (निदा फाजली)

ये गजले कहीं छोटी बहर में हैं तो कहीं बडी बहर में। तखल्लुस (उपनाम) ‘विभाष’ का प्रयोग कवि बहुत कुशलता के साथ करते हैं-

                        अत्र कुत्राप्यरिर्विभाषो मे

                        आह्वयन्ती पुनः श्रुतिः का वा।।

    महराजदीन पाण्डेय अपनी ग़ज़ल यात्रा में तीन बार तखल्लुस को बदल चुके हैं। वे पहले ‘महाराजो वात्स्यायनः’ नाम से लिखते रहे, फिर ‘ऐहिक’ उपनाम धरा और वर्तमान में ‘विभाष’ तखल्लुस से लिख रहे हैं। कवि ने इन ग़ज़लों का नामकरण नहीं किया है, जैसा कि प्रायः संस्कृत के ग़ज़लकार कर रहे हैं। इसका कारण बतलाते हुए वे लिखते हैं कि यह परम्परा विरुद्ध है। भिन्नाशयों के अनेक शेरों में से कोई आपकी दृष्टि से अधिक महत्त्व का हो सकता है तो दूसरे की दृृष्टि में कोई दूसरा शेर। इसलिए ग़ज़ल का कोई शीर्षक न देने का चलन है, जो माना ही जाना चाहिए।


2. गीतम् - इस भाग में चार संस्कृत गीत हिन्दी अनुवाद के साथ संकलित हैं।  कवि कहीं अर्थ को ही परम पुरूषार्थ मानते हुए चार्वाक मत का अनुसरण करते दिखते हैं तो कहीं आरक्षण की व्यवस्था पर सवाल खडा करते हैं। यहां किसी गीत में वे सहिष्णुता को कोस रहे हैं तो कहीं वे नंगी तलवार वाले मूर्तिभंजकों से हमें सावधान करते दिखते हैं-

                   इमे मूर्तिमर्दाःक्व नग्नासिहस्ताः

                   क्व मूर्त्तो जगत्प्राणिमोदोऽप्रमेयः।

                   यदैतस्तदैतोऽधुना नैति कश्चित्

                   स्वयं रक्षितुं कोऽपि यत्नो विधेयः।।

      यदि महराजदीन पाण्डेय की काव्ययात्रा को सिलसिलेवार ध्यान से पढा जाये तो आप पाएंगे कि इधर उनकी कविता का स्वर शनैः शनैः बदल रहा है।


3. मुक्तकम् - इस भाग में 37 मुक्तक संकलित हैं। कवि गांव के वातावरण के साथ जुडा हुआ है। उसका यह जुडाव गाहे बगाहे उनकी कविता में चला आता है-

                  अन्तेऽमू राजिकाराजयः पीताः

                  मध्ये चातसिबाह्वोश्चणकाः प्रीताः

                  पुरतः कलायलतिकास्पृड्भिर्वातैः

                  विद्मो न कुत्र वा वयं क्षणं नीताः।।

      सीमान्त पर राई (सरसों) की पंक्तियां, बीच में अलसी की बांहों में प्रसन्न चने और मटर की लताओं का स्पर्श करके बहने वाले वायु के साथ मैं नहीं समझ पाया कि क्षणभर के लिए कहां चला गया। इस भाग में से कुछ मुक्तक कितआ या कता में आते हैं, जो उर्दू शायरी में प्रसिद्ध है। 


4.वृत्तगन्धि वृत्तम् - इस भाग में तित्वरी जिजीविषा शीर्षक से 10 मुक्तछन्दोबद्ध कविताएं संकलित हैं। यथा-

प्रतिधारं दोर्भ्यां मनुष्यस्तरति 

द्वैधे क्षिपति जीवितम्

किंचैतस्य जिजीविषापि चित्रम्

विषमेऽपि नो नश्यति

अन्वाच्योत्थायोपविश्य सोढ्वा प्रतिघातमुद्वेजनम्

लोकस्यास्य विसंष्ठुलोपलतले

स्थातुं जुहोति स्वताम्।।



   महराजदीन पाण्डेय की कविताएं एक और रूमानियत से भरी हुई हैं तो दूसरी और वे कविता की लोकधर्मी परम्परा का निर्वाह भी करते चलते हैं। विधाओं की विविधता उनके काव्य का एक अन्य उज्ज्वल पक्ष है।