Thursday, June 27, 2024

संस्कृत साहित्य की आधुनिक प्रवृत्तियां

कृति _ संस्कृत साहित्य की आधुनिक प्रवृत्तियां 



संपादिका - प्रो कुसुम भूरिया दत्ता

विधा _ समीक्षा

प्रकाशक_ सत्यम् पब्लिशिंग हाउस,‌ नई दिल्ली

संस्करण_ 2015 प्रथम

पृष्ठ संख्या _ 348

अंकित मूल्य_ 900



             आधुनिक संस्कृत साहित्य का जगत विविधताओं से भरपूर है| इसमें जहां एक और परंपरागत विधाओं में रचनाएं लिखी जा रही हैं, वहीं संस्कृतेतर भारतीय भाषाओं और विदेशी भाषाओं के साहित्य से प्रभावित होकर भी नई विधाओं में रचनाएं सामने आ रही हैं| रचनाओं के विषय भी बदले हैं तो शैली भी परिवर्तित हुई है| संस्कृत के कई ऐसे विभाग, संस्थाएं हैं जहां आधुनिक संस्कृत साहित्य पर विचार गोष्ठियां, सेमिनार , रिफ्रेशर कोर्स आदि आयोजित होते आए हैं| डाॅ हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय का संस्कृत विभाग अपनी उत्कृष्ट संगोष्ठियों के लिए भी जाना जाता है| 2021 में यहां संस्कृत साहित्य की आधुनिक प्रवृत्तियां विषय पर आयोजित संगोष्ठी में जो महत्त्वपूर्ण शोध पत्र पढ़े गए थे, उनका संकलन करके पुस्तकाकार में प्रकाशित करवाया गया है| 



            पुस्तक में 42 आलेखों का संकलन है जो इस विषय पर पर्याप्त सामग्री उपलब्ध करवाते हैं| 



 प्रथम लेख नई सहस्राब्दी में संस्कृत विषय पर प्रो अभिराज राजेंद्र मिश्र का है| लेखक ने राष्ट्रीय परिवेश में चिंतन, अधुनातन विषयों का आदान, भाव सौंदर्य का अभिनव मानदंड आदि बिंदुओं के माध्यम से अपने कथन को प्रस्तुत किया है| वैदेशिक छंदों और मिथकों के आदान पर बात करते हुए प्रो मिश्र कहते हैं कि तांका, हाइकु, सीजो, सानेट आदि छंदों को संस्कृत में अपनाने से प्रायोगिक साहस मात्र की पुष्टि होती है, संस्कृत कविता में इस से कोई विलक्षण परिवर्तन नहीं हो सका है| किंतु प्रो मिश्र का यह कथन सही नहीं है क्यूंकि हाइकु आदि छंद के माध्यम से संस्कृत कविता में अद्भुत ताजगी आई है| इन वैदेशिक छंदों का अपना महत्त्व है| इसी तरह प्रो मिश्र हर्षदेव माधव द्वारा अपनी कविता में विदेशी पुराकथाओं के संकेतों को लेना सही नहीं मानते और कहते हैं कि यह तो आप ही प्रयोग करें और आप ही समझे वाली स्थिति है| प्रो मिश्र का यह कथन भी पूर्ण रूप से सही नहीं है क्योंकि आज का पाठक केवल संस्कृत की पुराकथाओं या अन्य भारतीय पुराकथाओं को ही नहीं पढ़ता अपितु वह विदेशी साहित्य का भी अध्ययन करता है| तकनीकी युग में तो विश्व को एक मंच पर लाकर खड़ा कर दिया है| ऐसे में कवि माधव के प्रयोग संस्कृत कविता को विश्व स्तरीय पहिचान दिलाते हैं| 



         डाॅ हर्षदेव माधव अपने आलेख के माध्यम से आधुनिक संस्कृत कविता में वैश्विक वेदनाओं और संवेदनाओं का साक्षात्कार करवाते हैं| डाॅ बालकृष्ण शर्मा ने अपने आलेख में 14 बिंदुओं के माध्यम से संस्कृत साहित्य की आधुनिक प्रवृत्तियों को प्रस्तुत किया है, यथा _ सामयिक समस्या निवारण की प्रवृत्ति, विश्वबंधुत्ववाद, दलित उद्धार, नारी जागरण, सामयिक घटनाओं का चित्रण आदि|



          डाॅ नारायण दाश का आधुनिक संस्कृत गद्य साहित्य में महत्त्वपूर्ण योगदान है| डाॅ दाश ने अपने आलेख में 2001 से 2010 के मध्य प्रकाशित संस्कृत लघु कथा साहित्य का परिचय दिया है| युवा समीक्षक डाॅ नौनिहाल गौतम ने आधुनिक संस्कृत काव्यों में पात्रों की युगानुरूपता पर प्रकाश डाला है| कौशल तिवारी ने आधुनिक संस्कृत आलोचना में प्रतीक, बिम्ब और मिथकों के प्रयोग को बतलाया है और इन्हें उदाहरणों के साथ स्पष्ट किया है| 



        आचार्य गंगाधर शास्त्री रचित अलिविलासिसंलाप नामक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ का परिचय देते हुए उसे महाकाव्य रचना का अभिनव मानदंड बतलाया है| डाॅ पुष्पा झा ने अपने आलेख में संस्कृत साहित्य में लोकगीत रचना की प्रवृत्ति को प्रस्तुत किया है| पंडित प्रेमनारायण द्विवेदी कृत अनूदित साहित्य का विपुल संसार है| पंडित द्विवेदी जी ने रामचरितमानस, विनय पत्रिका सहित हजारों पद्यों का संस्कृत में अनुवाद किया है| डाॅ ऋषभ भारद्वाज ने इनके संपूर्ण अनूदित साहित्य का परिचय अपने आलेख में दिया है| 



        इन आलेखों के अतिरिक्त आधुनिक संस्कृत कवियों की कृतियों के परिप्रेक्ष्य में भी समीक्षकों ने अपने अपने आलेखों में आधुनिक संस्कृत की प्रवृत्तियों का वर्णन किया है, यथा डाॅ हर्षदेव माधव की कालो ऽस्मि ग्रंथ पर डाॅ इला घोष का आलेख, कवि हर्षदेव माधव द्वारा ही रचित व्रणोरूढग्रंथि पर डाॅ मंजुलता शर्मा का आलेख, आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी रचित विक्रमचरित पर डाॅ भागीरथी नन्द का आलेख, अभिराज राजेंद्र मिश्र कृत विमानयात्राशतक पर डाॅ मोहनलाल का लेख | अभिराज रचित इक्षुगंधा की कथा जिजीविषा पर डाॅ रामहेत गौतम ने पृथक से आलेख लिखा है|  



      ग्रंथ के सारे आलेख अपने अपने विषयों से न्याय करते हैं| यह ग्रंथ जिज्ञासुओं, शोध कर्ताओं के लिए महत्त्वपूर्ण सिद्ध होगा, ऐसी आशा है| 

Wednesday, June 26, 2024

भारतीय भाषाओं के अनुवाद का संकलन _ छायानिर्झरिणी

कृति _ छायानिर्झरिणी

संपादिका -  डाॅ शकुंतला गावडे 

विधा _ अनुवाद संग्रह

प्रकाशक_ न्यू भारतीय बुक कार्पोरेशन, नई दिल्ली

संस्करण_  2024 प्रथम

पृष्ठ संख्या _ 120

अंकित मूल्य_ 350



            अनुवाद एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके माध्यम से हम अन्य भाषा की रचना का आस्वादन हमारी भाषा में कर सकते हैं| संस्कृत में अन्य भाषाओं से समय समय पर अच्छे अनुवाद होते आए हैं| हाल ही में विविध भारतीय भाषाओं से कुछ अनुवाद कार्यों का संपादन करके डाॅ शकुंतला गावडे ने इन्हे प्रकाशित करवाया है| इस संग्रह के दो भाग हैं_ काव्यगीतसंग्रह और कथालेखसंग्रह| इस तरह इसे पद्य और गद्य इन दो भागों में विभक्त किया गया है| 


1 काव्यगीतसंग्रह: _ इस भाग में 32 अनूदित मुक्तछंदोबद्ध कविताएं और 15 गीत संकलित हैं| कश्मीरी कवि सतीश विमल की तीन कविताओं का अनुवाद आधुनिक संस्कृत के प्रसिद्ध कवि डाॅ हर्षदेव माधव ने किया है| अहम् एकः क्षणः कविता वर्तमान  अस्तित्व की ही बात करती है_


अहमस्मि एकः क्षणः 

केवलम् एकः क्षणः ।

इदानीमस्ति 

इदानीं नास्ति ।

अहं नास्मि कल्पना 

नैव स्मृतिः 

एकमस्मि पाटलपुष्पं 

केवलमद्य पूजायाः 

श्वस्तनस्य होमो नास्ति मे धर्मः ।


          मूल्यम् कविता का कथ्य यह है कि यहां बिना मूल्य के कुछ नहीं है, ईश्वर   भी नहीं| श्मशानम् कविता जय और पराजय का सही अर्थ बतलाती है| डाॅ हर्षदेव माधव द्वारा गुजराती से अनूदित हर्ष ब्रह्म भट्ट लिखित एक कविता भी संकलित है _ मरुस्थलम् | मराठी भाषा का साहित्य अत्यंत समृद्ध है| मराठी साहित्य में विविध विमर्श पर उत्कृष्ट रचनाएं लिखी गई हैं| कौशल तिवारी द्वारा मराठी भाषा से संस्कृत में  अनूदित 6 कविताएं स्त्री विमर्श को सही अर्थ में प्रकट करती हैं| प्रसिद्ध मराठी महिला कवि  प्रज्ञा देवी पंवार, सारिका उबाले और कविता महाजन की दो_ दो कविताओ का यहां अनुवाद किया गया है|  आम तौर पर पत्नी की परिभाषा पति के लिए क्या होती है, वह पत्नी को किस रूप में देखना चाहता है, इस पर कवि प्रज्ञा देवी पंवार कहती हैं_


'पत्नी' ति कथयति स ताम् 

किन्तु आवश्यकता भवति

 प्रात:काले 

तस्याः अन्तरस्य श्रमिकायाः 

सायंकाले च तस्या अन्तरस्य 

अभिसारिकायाः ।

 

एक पति सुबह सुबह उसे नौकरानी के रूप में देखना चाहता है तो शाम के समय वह चाहता है कि पत्नी अभिसारिका बन कर उसकी देह क्षुधा को शांत करे| 

         जगदीश परमार ने गुजराती भाषा से चार कविताओं का संस्कृत में अनुवाद किया है| चारों कविताओं के कवि भिन्न भिन्न हैं| जयंत परमार दलित विमर्श के प्रसिद्ध कवि हैं| उर्दू और गुजराती भाषा में आपका साहित्य है|  अनुवादक ने कवि की गुजराती कविता का संस्कृत अनुवाद किया है  जिसमें दलित कवि के अंतिम इच्छा पत्र (वसीयत) के  बारे में बताया गया है_


दलितकविः स्वकीयस्य पृष्ठतः 

किं किं विमुच्य गच्छति_

 रक्तेन दिग्धं पत्रम्, 

रात्र्याः मस्तके कृष्णसूर्यः, 

कलमस्य अण्याम् अग्निसमुद्रः,

 पूर्वजैः रक्तेन ज्वालित-विस्फुलिङ्गः, 

स न करोति युष्मासु आक्रमणम्, 

रूपकाणाम् उपमानाञ्च व्यक्तित्वस्य 

गर्दभस्य पृष्ठभारः सः 

स्वयमेव वर्तते, अभिहता प्रतिच्छाया।

 किमपि अस्तित्वं नास्ति तस्य 

कोऽपि भेदो नास्ति भग्नचषके च तस्मिन् ।


     दलित कवि अपने पीछे रक्त से सना कागज छोड़ के जाता है क्यूंकि उसने जो खून का इतिहास भोगा है उसे ही वह कागजों पर उकेर कर जाता है| किसी के लिए होता होगा चंद्रमा शीतलकारी, दलित कवि के लिए तो वह रात के माथे पर काला सूरज ही है| उसके पास एक लालटेन है जो मिट्टी के तेल से नहीं अपितु उसके पुरखों के रक्त से जलती है| उसके जीवन में जो भी उजाला आया है उसके पुरखों के रक्त से लथपथ बलिदान से ही मिला है| दलित कवि कभी भी अन्य कवियों की तरह रूपकों, उपमानों आदि से आप पर आक्रमण नहीं करता|



           अविनाश तळेगांवकर ने अंग्रेजी भाषा से 4 विभिन्न कवियों रॉस गे, ऑस्कर  विल्ड, जॉन कीट्स और मेरी एलिजाबेथ लायर की एक_ एक कविता का अनुवाद किया है| अंग्रेजी भाषा से ही रॉबर्ट फ्रॉस्ट'की दस कविताओं का अनुवाद डॉ. माधवी नरसाळे ने किया है| Fire and Ice कविता दुनिया के संभावित विनाश की बात करती है| कवि दुनिया के विनाश के दो मुख्य संभावित कारणों आग और बर्फ पर विचार करता है, यहां विरोधाभास  प्रकट  होता है|  आग मनुष्य की अंतहीन इच्छाओं की प्रतीक है तो बर्फ उसकी नफरत की प्रतीक है_


ब्रुवन्ति केचित् जगतः नाशः 

अहोस्वित् हुताशने हिमे 

कामस्य आस्वादने चिनोमि हुतभुजम्

 वारद्वयं नाशो भवेत्

 मत्सरे परिपूतं जगदिदं 

नाशे हिमे भवति तदपि समीचीनं पर्याप्तमिदम् ।

      

        मृणालिनी नेवाळकर-गोसावी नेरोज मिलिगन' विरचित आ‌ङ्ग्लकविता 'डस्ट इफ यु मस्ट का,  रेणुका पांचाळ ने इन्दिरा संतकृता रचित मराठीकविता 'शेला' का,  डॉ. लीना दोशीने कल्पना नीला कृष्णा पांडव  विरचित मराठीकविता का तथा  डॉ. सुचित्रा ताजणे ने कुसुमाग्रज की मराठीकविता 'अखेर कमाई' का संस्कृत अनुवाद किया है| अखेर कमाई कविता में पांच महापुरुषों की प्रतिमाओं के संवाद के व्याज से हमारे समाज में व्याप्त जातिवाद/प्रदेशवाद का वर्णन किया गया है कि हम महापुरुषों की मृत्यु के पश्चात् उन्हे सारे देश का न मानकर वर्ग विशेष में बांट देते हैं _


अर्धरात्रेः अनन्तरम् 

नगरे पञ्चप्रतिमाः

 एकस्मिन् चतुष्कोणे उपविश्य

 मनोवाचं प्रवाहयितुम् आरब्धा 

ज्योतिबा अवदत्,

 अन्ते अहम् अस्मि केवलं 'माळी' समाजस्य एव

राजा शिवाजिः उवाच -

 अहं तु केवलं मराठानाम् । 

आम्बेडकरः अवदत्, . अहं तु केवलं बौद्धानाम् । 

तिलकः उद्घोषितवान्, अहं तु केवलं चित्पावनब्राह्मणानाम्,

 गान्धी रूद्धकण्ठः अवदत् - भाग्यशालिनः भवन्तः तथापि ।

न्यूनातिन्यूना एकैका जातिः भवतः पार्श्वे अस्ति ।

 मम पार्श्वे तु केवलं भित्तयः एव 

ताः अपि सर्वकारीयकार्यालयानाम्...... खलु !

 

इस भाग में संकलित 15 अनूदित गीतों में  डॉ. श्रीहरि गोकर्णकर द्वारा अनूदित एक तमिल गीत  तथा  कु. श्रुति कानिटकर अनूदित  एक मराठी और एक हिंदी गीत संकलित है | राजेंद्र दातार ने दस मराठी गीतों और दो हिन्दी  गीतों का बेहतरीन अनुवाद किया है| 



2 कथालेखसंग्रह: _ 

                              इस भाग में अनूदित कथा, बालसाहित्य और लेख संकलित हैं| डाॅ हर्षदेव माधव ने विनोद भट्ट की गुजराती कथा का अनुवाद किया है जो विक्रम वैताल की प्राचीन कथा शैली का नया रूप है|  डॉ. शकुंतला गावडे ने दो मराठी कथाओं का सुंदर अनुवाद प्रस्तुत किया है|  डॉ. निशा पाटील ने छह बाल कथाओं का अनुवाद किया है जो मूल रूप से मराठी भाषा में हैं| संग्रह के अंत में मराठी भाषा में निबद्ध छह लेखों का संस्कृत अनुवाद भी दिया गया है, जो विविध ग्रंथों से लिए गए हैं| 

              यहां कश्मीरी, गुजराती, अंग्रजी, हिंदी और मराठी भाषाओं के साहित्य का अनुवाद है| अन्य भारतीय भाषाओं के उत्कृष्ट साहित्य का भी अनुवाद और किया जाना चाहिए| मुंबई विद्यापीठ संस्था  द्वारा इसके प्रकाशन हेतु अनुदान दिया गया है एतदर्थ वह साधुवाद की पात्र हैं| 

Friday, June 21, 2024

आधुनिक संस्कृत कविताओं का उत्कृष्ट संग्रह _ समष्टि:

कृति _ समष्टि:



कृतिकार - आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी

विधा _ मुक्तक काव्य

प्रकाशक_ देववाणी परिषद् दिल्ली

संस्करण_ 2014 प्रथम

पृष्ठ संख्या _ 110

अंकित मूल्य_ 200



         आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी का सारस्वत कार्य बहुमुखी है| साहित्य की प्रायः प्रत्येक विधा में आपकी रचनाएं हैं ही, साथ ही शास्त्रों में भी आपकी समान गति है| संस्कृत साहित्य के समग्र इतिहास के द्वारा आपने हाल ही में वैदिक युग से लेकर 21 वीं सदी के प्रारंभ तक के संस्कृत साहित्य के इतिहास को ग्रंथबद्ध किया है| समष्टि: नाम से आचार्य त्रिपाठी जी का छठा काव्य संग्रह प्रकाशित है, जिसमें 30 कविताएं हैं| प्रायः ये कविताएं मुक्तछंदोबद्ध हैं, किंतु कुछ कविताएं पारंपरिक छंदों में भी हैं| 

      


    संग्रह का नामकरण प्रथम कविता समष्टि: के आधार पर किया गया है| लहरों, भंवरों, विवर्तों की समष्टि में कभी कभी एक बुलबुला बन जाता है| बुलबुले के आत्मकथन के माध्यम से कवि कहते हैं_


बुद्बुदस्य जीवनमेव कियत् 

वीचीनामावर्तानां विवर्तानां समष्टौ 

बुद्बुदो बुभूषति 

परन्तु भवति वा न भवति वा 

भवत्यपि यदि, क्षणाय तिष्ठति 

तिष्ठति च एतैः सर्वैः धारितः 

अथ स्फुटति लीयते च । 

कदाचित् क्वचित् एवमपि भवति यत् 

एकस्मै क्षणाय स्थिते बुद्बुदे 

निमेषमात्रं स्वकरैः स्पर्शच्छरणं विधत्ते रविः 

तेन क्षणार्धं विरच्यते बुद्ध्दान्तः 

सप्तवर्णच्छवि इन्द्रधनुः ।


बुलबुले का जीवन ही कितना 

लहर से लहर 

आवर्त से आवर्त 

विवर्त से विवर्त

 इन सबके मिलने से 

वह बन सकता है, 

नहीं भी बन सकता है 

बन भी जाये तो एक क्षण ठहरता है बस

 इन सब के बीच 

फिर फूट कर विलीन हो जाता है। 

कदाचित् कभी ऐसा भी हो जाता है 

कि एक क्षण के लिये टिक गये बुलबुले को 

पलक की झपक के बराबर समय के लिये 

सूरज अपनी किरणों से छू भर देता है 

तब आधे क्षण के लिये बुलबुले के भीतर रच जाता है

 सतरंगी आभा वाला इंद्रधनुष। (कविताओं का अनुवाद स्वयं कवि द्वारा)


              मनुष्य जीवन भी तो बुलबुले के समान ही है, क्षणभंगुर है| लेकिन कभी कभी किसी मनुष्य को एक क्षण के लिए उस परम शक्ति का स्पर्श मिल जाता है और उसका पूरा अस्तित्व बुद्ध के समान खिल उठता है| शब्दालंकार: कविता में शब्दों के लिए कहा गया है कि वे देहली दीप न्याय से कार्य करते हुए अंदर और बाहर दोनों तरफ उजाला करते हैं| बीजानि कविता एक तरफ तो बीजों की अवस्था का चित्रण करती है तो दूसरी तरफ वह मानवों का भी प्रकारान्तर‌ से वर्णन करती दिखती है| मानव भी तो बीजों की जी भांति होता है, हर मानव अपना पूरा विकास चाहता है किंतु कुछ मानवों को प्रतिभा अनुकूल वातावरण के अभाव में विकसित नही होती तो कुछ की प्रतिभा बचपन से ही बलात दबा दी जाती है तो कुछ की प्रतिभा जैसे ही निखरने लगती है वैसे ही उसे दमित कर दिया जाता है_


कानिचिद् बीजानि 

कुशूलकोणे शिष्टानि 

उत्कायन्ते स्म - 

किमर्थं न वयं क्षिप्ताः कस्मिश्चित् केदारे 

कश्चिदस्मान् स्वहस्ते उत्थापयेद् 

अस्मानपि उच्छाल्य उच्छाल्य वपेत् क्षेत्रे

 वयमपि अङ्कुरायामहे, पल्लवायामहे, पत्रायामहे, 

वयमपि शस्यनिवहे आत्मानं विकिरामः

 भवामश्च पुनरपि बीजमेव।

 तेषां स्वप्नाः दिवास्वप्नायिताः।


कुछ ऐसे बीज थे जो गोदाम में पडे पड़े 

अकुलाते रह गये कि

 हमें भी डाल दिया होता किमी क्यारी में 

कोई हमें हाथ में उठाता 

और खेत में उछाल कर फैंकता, 

हम भी अँकुरा लेते 

हम में होते नये पात 

हम अपने आप को फसलों में बिखेर पाते 

और हम फिर से बीज हो जाते।

 उनके सपने दिवा स्वप्न बन कर रह गये।

       


      

शनै: शनै: कविता ग़ज़ल गीत की शैली में रची गई है| वार्धक्यम् कविता एक दीर्घ कविता है जिसमें कवि बुढ़ापे की स्थिति का एक अलग ही तरह का वर्णन करते हुए कहते हैं कि बुढ़ापा अभिशाप नहीं है| वे देवताओं को अभागा मानते हैं क्योंकि वे चिर युवा होने से बुड्ढे नही हो सकते हैं_


यक्षाणाम् अलकाया 

अतिशेरते 

अस्माकम् इयं पृथिवी 

यस्यां वार्धक्यभावापत्तिः 

अद्यापि सम्भावना वर्तते।


अपक्वानि फलानि पच्यन्ते 

त्यजन्ति वृन्तं स्वं 

यौवनवृन्तं त्यक्त्वा 

मधुरतरं जायते जीवनफलं

 वार्धक्ये स्वीये पर्यवसाने।


यक्षों की अलका से 

कितनी अच्छी है यह धरा हमारी 

जिसमें बूढा हो पाना 

अभी भी संभावना है 

कच्चे फल पक कर 

छोड़ देते हैं 

अपना वृंत 

यौवन का वृंत छोड़ कर 

और मधुर होता जाता है 

जीवन का फल 

बुढापे के पकाव में


 मालवी शीर्षक वाली कविता में कवि इस बात से हैरान हो जाते हैं कि पत्नी से बात करते हुए उनके मुंह से अचानक उनकी मातृभाषा मालवी (जो मध्यप्रदेश के मालव अंचल में बोली जाती है) के कुछ एक वाक्य कैसे फूट पड़ते हैं? भवनस्य छदौ वाटिका कविता में महानगरों में स्थान की कमी के कारण घर की छतों पर बनाए जाने वाले बगीचों का वर्णन है तो प्रस्तरस्थले नगरे कविता पत्थर हो चुकी सभ्यता में पत्थरों के नगरों की विडंबना से भरी दशा का चित्रण करती है_


 प्रस्तरस्य उद्यानानि 

प्रस्तरस्य प्रासादाः 

प्रस्तरशरीराणि 

प्रस्तरस्य मनांसि


प्रस्तर इव अहङ्कारः 

यत्र गम्यते तत्र प्रस्तराः 

प्रतिमानिर्माणाय स्थापिताः 

प्रस्तराणां निचयाः 

प्रस्तराणां प्रतिमाः 

प्रस्तराणां समाधयः 

प्रस्तरायितानि मनांसि 

प्रस्तरायिता बुद्धिः

प्रस्तरनिचये

क्रन्दन्ती पृथिवी।


पत्थरों के उद्यान

 पत्थरों के मकान

 पत्थरों के शरीर 

पत्थरों के मन

 जहाँ देखो पत्थर

 पड़े हुए बुद्धि पर, मन पर

 पत्थरों की प्रतिमाएँ 

पत्थरों की समाधियाँ 

बुत बनाने के लिये पत्थरों के ढेर

पत्थरों के भार तले 

कराहती धरती


       देहल्यां मेट्रोयाने – दृश्यचतुष्टयी कविता में चार दृश्य हैं| दिल्ली में मेट्रो के सफ़र के माध्यम से कवि वर्तमान के किसी बिंदु पर खड़े हुए भूतकाल और भविष्य दोनों का चित्रण करते हैं शायद कवि इसलिए ही क्रांतदर्शी कहे गए हैं| यहां संवेदना शून्य हो चुके हमारे समाज का यथार्थ वर्णन है|

     

 संस्कृत को कवि एक अगाध सरोवर की भांति मानते हैं जिसमें वे स्वयं एक छोटी सी मछली जैसे हैं जो कभी कभी अपनी मुंडी बाहर निकाल कर उन्मुक्त आकाश को देख लेते हैं| किंतु कितने है ऐसे? संस्कृतस्य अगाधे सरसि कविता में इसी का वर्णन करते हुए कवि ठहरे हुए प्रवाह वाले संस्कृत सरोवर के लिए बेबाकी से जो कहते हैं शायद वह तथाकथित पंडितों को पसंद नहीं आए पर कवि तो निरंकुश कहे गए हैं_


संस्कृतस्य अगाधे सरसि 

अवरुद्धः प्रवाहः

 क्वचिद् उत्तिष्ठते शीर्णो दुर्गन्धः 

केचन अस्य सरोवरस्य तटे 

स्थिताः 

गणयन्ति शास्त्रविवर्तान् 

केचन मापयन्ति अस्य गहनताम् 

केचन उत्तानं मुखं कृत्वा

अनवलोक्य सरोवरं

सरोवरविषये कुर्वन्ति प्रवचनम्।

अपरे लग्नाः 

मुहूर्तगवेषणे 

श्रीसत्यनारायणकथावाचने 

तानसौ दुर्गन्धो न प्रतिभाति।


संस्कृत के अगाध इस सरोवर में 

ठहरा हुआ प्रवाह

 फूटती है सड़ी दुर्गंध 

कुछ लोग इसके किनारे खड़े 

शास्त्रों के विवर्त गिन रहे हैं 

कुछ माप रहे हैं इसकी गहराई

 कुछ इसे देखे बिना 

ऊपर मुख किये 

कर रहे हैं प्रवचन

 देख रहे हैं मुहूर्त

 या बाँच रहे हैं श्रीसत्यनारायणकथा

 उन्हें यह दुर्गंध नहीं आती।


    कवि ने परंपरा और समसामयिकता को अपने काव्यों में इस तरह गूंथा है कि वे आधुनिकता की प्रतिनिधि कविताएं बन जाती हैं| कवि कृत हिन्दी अनुवाद भी इसमें साथ में प्रकाशित किया गया है| इस काव्य का प्रकाशन देववाणी परिषद की पत्रिका अर्वाचीनसंस्कृतम् में भी भी किया गया है


Thursday, June 20, 2024

माटी के पुतले की कहानी _ मृत्कूटम्

कृति _ मृत्कूटम् 

कृतिकार -डाॅ भास्कराचार्य त्रिपाठी

विधा _ खण्डकाव्य 

प्रकाशक_गंगानथ झा केन्द्रीय विद्यापीठ, इलाहाबाद 

संस्करण_ 1992 प्रथम

पृष्ठ संख्या _ 50 (+भूमिका और चित्र)

अंकित मूल्य_ मूल्य  अंकित नहीं




         डाॅ भास्कराचार्य त्रिपाठी अर्वाचीन संस्कृत  साहित्य जगत के प्रसिद्ध हस्ताक्षर हैं| दूर्वा के संपादन के साथ साथ आपके लघु रघु, अजाशती, स्नेहसौवीरम्‌ जैसे काव्यों की रचना से आपने महती ख्याति अर्जित की | मृत्कूटम् आपके काव्यों में मुख्य है| यह एक शतक काव्य है, जिसमें 100 श्लोक निबद्ध हैं| इसका अपर नाम मानवशतक भी है| कवि ने इसमें मानव जीवन की भ्रूण अवस्था से लेकर उसके मृत्यु के द्वार तक पहुंचने की यात्रा को दस भागों में बांटकर श्लोकों की रचना की है| प्रत्येक भाग में दस श्लोक हैं_ भ्रूण,  शिशु, किशोर, तरुण, गृहस्थ, प्रवासी, भृतक, प्रौढ़, जरठ,‌मुमूर्षु


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           जब जीवात्मा इस संसार में आती है तब उसे एक शरीर की आवश्यकता होती है| इस हेतु वह भ्रूण के रूप को ग्रहण कर मां के गर्भ में अवस्थित हो जाती है| कवि ने गर्भ में भ्रूण की स्थिति का वर्णन करते हुए अदभुत कल्पना की है कि वह मां के गर्भ में रहता हुआ मानों दस अवतारों को ही ग्रहण कर लेता है_


मीनो नीरप्रचारी निचुलितकमठः कम्रघोणो वराहः 

कालेनाविद्धरोमा नरहरिरपरो विग्रही वामनश्च, 

मातुः पीडाप्रदायी परशुनखधरः प्रीणनो रामभद्रः 

कृष्णो दामोदरश्रीरयमिह सुगतः कल्किरेको विभाति ।

        यह अकेला ही दस अवतारों का बाना अपनाता है-पानी में तिरता मीन, खोल में दुबका कछुआ, भड़कीली नासिका वाला शूकर, रोम-राजियों से युक्त नरसिंह, एक बौना आदमी, उपजते नाखूनों से माँ के लिए कष्टदायी परशुराम, उसके अन्तर्मन में हुलास भरने वाला राम, पेट में रस्सियों से जकड़ा बढ़ता आ रहा कृष्ण, सर्वज्ञ बुद्ध और (शस्त्रपाणि) साक्षात् कल्कि । (अनुवाद स्वयं कवि कृत)

              यहां कवि ने भ्रूण को सात परत के गर्भजाल में बंधने। वाला कहा है_ कामं सप्तच्छदान्तः प्रवलितगुरुणा गर्भजालेन बद्ध:| 

            भ्रूण  रूप से जब मानव इस पृथ्वी पर जन्म लेकर आता है तब शिशु  रूप में वह सब का मन मोह लेता है| वह सब का दुलारा बन जाता है किंतु  उसके लिए पूरा विश्व ही मां के रूप में सिमट आता है_



मात्रा वाङ्नेत्रमैत्री सहजपरिचितो मातृवात्सल्यगन्धः

 संलापो मातृभाषा-प्रचलितवचनच्छायया कम्रकाकुः, 

मात्रङ्के स्तन्यपानं कपिकुलकलया सर्पणं मातृभूमौ

 विश्वं मातुः स्वरूपे भवति परिणतं गर्भरूपाय तस्मै ।


        माँ से बतियाने और टुकुर टुकुर निहारने की लगन, अपने आप चोन्ही गई उसकी दुलार-सुगन्ध, बोलने में मातृभाषा के ही आरोह-अवरोह, माँ की गोद में दूध पीना और मातृभूमि पर बंदर की तरह सरकना... नन्हें बालक के लिए सारा विश्व ही माँ के स्वरूप में सिमट आता है। 

           जब मनुष्य युवा होता है तब वह अपने यौवन के मद्य में मस्त रहता है | उसे संसार की अन्य वस्तुओं को अपेक्षा नहीं रहती| वह एक मदमत्त गज के समान अपनी गर्वयुक्त चाल से दूसरों की उपेक्षा करते हुए  चलता है| मानव की तरुण अवस्था का चित्रण करते हुए कवि कहते हैं कि यदि कुबेर यौवन और धन में से एक का चयन करने के लिए कहे तो वह निश्चित ही यौवन का वरण करेगा| _



साक्षादग्रेऽवतीर्णो यदि नवयुवकं राजराजोऽनुयुङ्‌क्ते

 किन्ते प्रेयो नितान्तं वद भयरहितो यौवनं वा धनं वा, 

तत्तूर्णं सोऽभिदध्यात् प्रथमचयनिका रोचते देव मह्यं

 यत्ते वस्तु द्वितीयं तदु निजवसतौ किन्नरेभ्यः प्रदेयाः ।


            यदि कभी कुबेर सामने आकर नवयुवक से पूछे कि निर्भय होकर बताना - तुम्हें क्या अधिक प्रिय है, यौवन या धन ? तो बह शीघ्र ही कह देगा-देव मुझे पहले का चयन अच्छा लगता है, जो आपकी दूसरी बस्तु है- उसे अपनी बस्ती में किन्नरों को बाँट दीजिए ।

‌‌                     किंतु यही तरुण जब गृहस्थ बन जाता है तो वह एक तरह से अपनी नववधू के समक्ष आत्म समर्पण ही कर देता है_


एकाकिन्या भ्रुवाऽयं वरयति तरुणो भाविनीमंकलक्ष्मी- 

मेकस्मात् कम्प्रशब्दाद् भवति च विजितो निष्प्रतीकार एव, 

एकान्तस्वप्नशीलः प्रथमयुगलिका-कौतुकाकृष्टचेता 

एकस्मिन् ग्राम्यगीते गतिमयचरणो जायतेऽसौ गृहस्थः ।


         एकान्त-स्वप्नदर्शी तरुण एक भौंह के इशारे से भावी अंकलक्ष्मी का वरण करता है, एक लरजते शब्द से बेबस आत्म-समर्पण कर देता है और (आदि मानव के) युगलकौतूहल से आकर्षित एक देसी धुन पर पैर चलाता हुआ गृहस्थ बन जाता है।



         क्रमशः जीवित रहता हुआ मनुष्य जब वृद्धावस्था  से जब मुमूर्षु अवस्था में पहुंचता है तब उसका प्रभाव पूरे शरीर पर पड़ने लगता है| एक श्लोक में कवि ने शरीर को वेदनाओं का छंद शास्त्र कहते हुए वंशस्थ , मंदाक्रांता भुजंगप्रयात आदि छंदों का नाम श्लेष के माध्यम से लिया है| तो एक स्थान पर कवि ने मुमूर्षु अवस्था को सर्वाहारी लोप वाले क्विप प्रत्यय के समान बताया है क्योंकि इसके एक एक करके सब साथ छोड़ने लगते हैं_

ज्ञानं प्राज्याभिमानं भजति भिदुरतां सन्धिभिः कीकसानां 

कोषस्थं स्वापतेयं व्रजति ननु समं श्लेष्मभिर्नालिकासु, 

सम्पन्ना मित्रमाला त्यजति परिचयं कृच्छ्रनिःश्वासकम्पैः

 कालोऽयं क्विप्चरित्रो यजति न किमरे विश्वजित् सत्रमेव ।



        अस्थि-सन्धियाँ और अभिमान भरे ज्ञान एक साथ दरक रहे हैं, कोष- संचित धन और कफ आदि विकार नालियों में बह रहे हैं, मित्र मण्डली और बीवा भरी साँसें संग-संग पहचान छोड़ रही हैं। (सर्वापहारी लोप वाले) निवषु प्रत्यय की तरह, लगता है, यह अवस्था (नशेष दान का) विश्वजित् यज्ञ कर डालेगी ।

‌ ‌ ‌ ‌                     आखिर में माटी का पुतला माटी में में ही मिल जाता है_

मृत्स्नायाः संप्रजातः सुचिरमवकलन्मृत्तिकाभिर्विनोदं 

मृत्सार्थं सस्पृहोऽभूदुचितमनुचितं सर्वमर्थं व्यतार्षीत्, 

सम्प्रत्येवंच लोष्टैरपिहितविवरे चत्वरेऽसौ मृदायाः 

शेते विश्रान्तबोधो निपतति नियतं मृत्तिकायां मृदंशः ।


माटी से उपजा, माटी के खेल खेले। एक चिकनी मिट्टी पर ललचाया । अपनी-पराई धन-संपदाएँ लुटा दीं। अब तो ढेलों से ढंकी गई खाई पर बने माटी के ही चबूतरे में यह संज्ञाहीन होकर लेट गया है। मिट्टी का प्रत्येक आकल्पन मिट्टी में मिलने को बाध्य होता है।



       माटी के पुतले की यह कथा कवि के कथ्य में आकर कविता का रूप ले लेती है| यह ही मानव जीवन की विभिन्न दशाओं का सत्य है, जिसे कवि ने बखूबी अपने काव्य में प्रकट किया है| 



   

Wednesday, June 19, 2024

जीवन दृष्टि से युक्त मुक्तककाव्य _ जीवनमुक्तकम्

कृति _ जीवनमुक्तकम्

कृतिकार - शंकर देव अवतरे 

विधा _ मुक्तक काव्य 

प्रकाशक_साहित्य सहकार , दिल्ली

संस्करण_ 1990 प्रथम

पृष्ठ संख्या _ 303

अंकित मूल्य_ 120 रुपए 





       संस्कृत साहित्य में मुक्तककाव्य विधा में अनेक काव्य रचे गए हैं| इनके विषय प्रायः सूक्ति, स्तुति, प्रशस्ति, शृंगार आदि पर आधारित होते हैं| किंतु कवि अब इन काव्यों में समसामयिक विषयों पर भी कविताएं लिख रहा है| शंकर देव अवतरे की रचनाएं हिन्दी और संस्कृत दोनों में ही प्राप्त होती है| नारीगीतम् नाम से इनका एक काव्य अत्यंत प्रसिद्ध रहा है| जीवनमुक्तकम् काव्य संग्रह में कवि ने जीवन संबंधी स्फुट पद्य लिखे हैं, जो परस्पर निरपेक्ष हैं| इस संग्रह में पारंपरिक छंदों में लिखे गए 375 पद्य निबद्ध हैं| संग्रह के प्रारंभिक पद्यों में भक्ति भावना से युक्त श्लोक हैं, कवि कहता है कि  भाषा के रूप में जब सरस्वती ज्ञान विज्ञान के बोझ से थक जाती है तो भक्ति रूपी गंगा के प्रवाह में स्नान करके ही उसे शांति प्राप्त होती है_


ज्ञानविज्ञानभारेण परिश्रान्ता सरस्वती 

भक्तिगंगाप्रवाहेण क्षालिता शान्तिमृच्छति ||

 



         कविता मात्र शब्दों का जोड़ तोड़ नहीं है अपितु वह तो कवि की संवेदनाओं में सिक्त होकर ही अपनी अर्थवत्ता प्रकट करती है_



न वसुधा वसुधान्यवती न या 

न रजनी रजनीश्वरवञ्चिता 

न दयिता दयितासुरसा न चेत्

न कविता कवितापविवर्जिता ||


       अर्थात्  वह भूमि बेकार है जिसमें धन-धान्य उत्पन्न करने की क्षमता नहीं है। वह रात्रि अच्छी नहीं लगती जिसमें चन्द्रमा का प्रकाश नहीं है। वह प्रिया नहीं है जो अपने प्रिय को प्राणों (जीवन) का रस नहीं दे सकती  और वह कविता भी नहीं के बराबर है जो कवि की हार्दिक वेदना या संवेदना से अछूती होती है| यहां यमक अलंकार का भी सुंदर प्रयोग किया गया है, जो द्रुतविलंबित छंद में निबद्ध है| 

             वर्तमान समय में सहिष्णुता प्रायः विलुप्त हो चुकी है| लगता है हम अपनी धर्म निरपेक्षता को कहीं ताक पर रख कर भूल गए हैं| ऐसी स्थिति में कवि का कर्तव्य बनता है कि वह अपने पाठकों, श्रोताओं को उसका स्मरण कराता रहे_


 कस्यापि धर्मस्य मतावलम्बिना

 परस्य धर्मो न कदापि गर्ह्यताम्

 विश्वासमन्यस्य सदैव विश्वसे - 

दियं समाजस्श्रितिरौपपत्तिकी ||

                      अर्थात्  किसी भी धार्मिक सिद्धान्त को मानने वाले व्यक्ति को चाहिए कि वह किसी दूसरे के धर्म की निन्दा न करे। क्योंकि धर्म तात्त्विक रूप में विश्वास का ही पर्याय है इसलिए एक दूसरे के विश्वास पर विश्वास करना ही चाहिए तभी एक-दूसरे के धर्म का सन्मान हो सकता है। सामाजिक मर्यादा का यही तकाजा है, अन्यथा समाज तितर-बितर हो जाएगा। 

        कवि ने वर्तमान राजनीति की दशा पर भी चिंता प्रकट की है| प्रजातन्त्र मे जनशक्ति, धनशक्ति  और पदशक्ति से प्रभावित होकर वोट दिया जाता है, उसी का परिणाम यह होता है कि नेता नाट्यशास्त्र के धृष्ट नायक के समान प्रजातंत्र का गला घोंट देता है_


जनस्य शक्तिश्च धनस्य शक्तिः

 पदस्य शक्तिश्च मतग्रहेषु 

व्यक्तेः प्रमाणीक्रियते न वृत्तम्

कृता प्रजातन्त्रविडम्बनेयम्  ||


प्रार्थयन् यो मतात् पूर्वं पश्चाल्लोकं कदर्थयन् 

धृष्टनायकवन्नेता स प्रजातन्त्रघातकः ||


एक श्लोक में मनुष्य जाति पर व्यंग्य किया गया है जो पहले महापुरुषों को मारकर  उनकी समाधि बनाती है फिर उन पर रोती  है_


पूर्व स्वेनैव हत्त्वा निजयुगपुरुषान् निघृणा मर्त्यजातिः

 पश्चात् तेषां समाधिं रचयति रचयन्त्यश्रुधारां मुखाग्रे

 पुंश्चल्या वृत्तमेतद् रहसि निजपतिं यत् स्वयं मारयित्त्वा

 पश्चात् पिण्डेन सार्धं समुचितविधिना सा सतीत्त्वं प्रयाति ||


अर्थात् यह नृशंस मानव जाति पहले तो अपने युगपुरुषों को अपने हाथ से मार देती है और पीछे मुंह पर आंसू बहाती हुई उन्हीं महापुरुषों की समाधि  बनवाया करती है। यह कुछ-कुछ उस कुलटा स्त्री के समान है जो पहले तो एकान्त में अपने पति की हत्या करती है परन्तु पीछे उसकी ल्हाश के साथ विधिपूर्वक सती होने का ढोंग करती है।



   कवि ने नारी विषयक अच्छे श्लोकों की रचना की है, जिनमें दांपत्य का भी सुंदर चित्रण किया गया है| कुछ श्लोक प्राचीन श्लोकों की भांति सूक्तिपरक हैं| श्लोकों के साथ उनका हिन्दी और अंग्रेजी भाषा में अनुवाद भी दिया गया है| 




Tuesday, June 18, 2024

ऐतिहासिक खंडकाव्य _श्रीमदूधमसिंहचरितम्

कृति _ श्रीमदूधमसिंहचरितम्



कृतिकार _ ऋषिराज पाठक

विधा _ खंडकाव्य 

प्रकाशक_देववाणी-परिषद्, दिल्ली आर-६, वाणीविहारः, नवदिल्ली-११००५९ (भारतम्) ०११-२८५६१८४६

संस्करण_ 2019 प्रथम

पृष्ठ संख्या _ 76

अंकित मूल्य_ 300 रुपए 



संस्कृत साहित्य में खंडकाव्य की सुदीर्घ परंपरा रही है| विविध विषयों पर अर्वाचीन साहित्य में भी अनेक खंडकाव्य रचे जा रहे हैं| युवा कवि ऋषिराज पाठक गीत, संगीत और साहित्य रचना में सतत संलग्न रहते हैं| युवा कवि का प्रथम काव्य संग्रह खंडकाव्य विधा में प्रकाशित हुआ है| यह एक ऐतिहासिक खंडकाव्य है| स्वतंत्रता सेनानियों में प्रमुख ऊधम सिंह के जीवन और उनके स्वतंत्रता आंदोलन में किए गए योगदान से परिचित करवाने के लिए यह काव्य रचा गया है| 


                 13 अप्रैल 1919 को हुआ जलियांवाला बाग हत्याकांड इतिहास के घोर नृशंस हत्याकांडों में से एक है| प्रस्तुत खंडकाव्य में इस हत्याकांड के समय ऊधम सिंह द्वारा की गई प्रतिज्ञा और उसकी पूर्ति को केंद्र में रखा गया है| खंडकाव्य में 60 श्लोक हैं जो अनुष्टुप छंद में हैं| 

                                  कवि भारतभूमि को नमन करता हुआ कहता है कि वह राष्ट्र के जनमानस में क्रांति का संचार करने वाले चरित का वर्णन कर रहा है_


देशभक्तिरसस्नातान् 

मातृभूमिसुतान् भटान्। 

वीरान् नत्वा तथा कुर्वे 

चरितं वीरतामयम्॥


श्रीमदूधमसिंहस्य 

राष्ट्रभक्तिप्लुतं महद्। 

वन्द्यं संक्रान्तिसंचारं

 राष्ट्रमानाभिवर्धकम् ॥

  


कवि आगे वर्णन करता है कि 1899 में पंजाब प्रांत में पटियाला भूमि के सुनाम नामक गांव में सिक्ख परिवार में ऊधम सिंह का जन्म हुआ| इनके बचपन का नाम शेरसिंह था_


शेरसिंहाभिधानोऽयम् 

ऊधमोऽपि प्रकीर्तितः। 

आदरः सरदाराणाम् 

उदारः शत्रुदारणः ॥


यहां अनुप्रास अलंकार का सुंदर प्रयोग किया गया है| माता और पिता की जल्द ही मृत्यु हो जाने से ये एक अनाथालय में रहे और वहीं सिक्ख धर्म की शिक्षा ग्रहण की| जलियांवाला बाग हत्याकांड के समय इनकी आयु महज 20 वर्ष थी| ऊधम सिंह उस हत्याकांड के समय वहीं उपस्थित थे| जनसमूह रोलेक्ट एक्ट का विरोध करने के लिए वहां एकत्रित हुआ था| कर्नल डायर के आदेश से सैनिकों ने बर्बरता पूर्वक जनसमूह का संहार किया_


यदाङ्ग्लो डायरो दुष्टो

विद्रोहं ज्ञातवानिमम्। 

तदादिशद् विघाताय 

निःशस्त्राणां सभामहे ॥


डायरादेशतस्तत्र 

सेनया प्रहृतं ततः। 

चक्ररूपभुशुण्डीभिर् 

अग्निगोलकवृष्टिभिः॥



लोगों के भागने के लिए एक दरवाजा था इस भी बंद कर दिया गया और प्राण बचाने के लिए कुंए में कूद गए और मारे गए_


अनेके कूर्दिताः कूपे 

प्राणरक्षाकृते जनाः। 

शवानां पर्वतस्तत्र 

क्षणे कूपे स्थितः परम्॥


इस नरसंहार से आहत होकर ऊधम सिंह ने डायर को मारने की प्रतिज्ञा की_


नरसंहारसंभारं 

दृष्ट्वा भीष्मप्रतिज्ञया। 

ऊधमसिंहवीरोऽसौ 

संकल्पं कृतवान् दृढम्॥


डायरं मारयिष्यामि 

नूनमेष दृढव्रतः। 

एतदेवास्ति लक्ष्यं मे 

चिन्तयामास तद्गतः॥

       

            

                        ऊधम सिंह ने इस दौरान हथियार जुटाने के लिए भी परिश्रम किया | इस वजह से उन्हें जेल भी जाना पड़ा| अंततः कई मुसीबतों को झेलते हुए, विदेशी यात्राएं करते हुए 13 मार्च 1940 को अर्थात हत्याकांड के लगभग 21 वर्ष बाद लंदन के किंगस्टन शहर में डायर को मौत के घाट उतार दिया और अपनी प्रतिज्ञा पूरी की_


समारोहस्य तस्यान्ते

 तूर्णं स्वीयासनादसौ। 

उत्थाय डायरे तिस्रो 

गोलिकाः प्रजहार ह॥


डायरान्ते जगादोऽसौ 

वाक्यमेतत्प्रहर्षितः । 

प्रतिज्ञातो मया पूर्वः 

संकल्पः पूरितोऽधुना ॥



लंदन में ही 31 जुलाई को वीर शहीद को फांसी दे दी गई| 

        यहां गौरतलब है कि रेजिनल्ड् एडवई हैरी डायर और माइकल ओ डायर, दोनों भिन्न-भिन्न थे। रेजिनल्ड् एडवर्ड हैरी डायर जलियाँवाला बाग की क्रूर हिंसा का मुख्य अपराधी था, जबकि माइकल ओ डायर, जिसने इस हत्याकाण्ड की प्रशंसा की थी, मुख्य सैन्याध्यक्ष था। रेजिनल्ड् एडवर्ड हैरी डायर २४ जुलाई १९२७ को मस्तिष्क आघात से मृत्यु को प्राप्त हो गया तथा श्री ऊधमसिंह जी ने १३ जुलाई १९४० ई. को लन्दन में जाकर माइकल ओ डायर का वध कर दिया। इस काव्य में इन दोनों के पार्थक्य का उल्लेख न करते हुए दोनों के लिए मात्र एक ही 'डायर' शब्द का प्रयोग किया गया है। इसका संकेत स्वयं कवि ने काव्य के प्रारंभ में प्राग्वाचिकम् में किया है किंतु काव्य के श्लोकों में कहीं भी इसका संकेत नहीं है| इसको स्पष्ट करते हुए कथा को और आकार दिया जाना चाहिए था| 



          खंडकाव्य को मूल संस्कृत के साथ हिंदी, अंग्रेजी और पंजाबी अनुवाद के साथ प्रकाशित किया गाय है| हिंदी अनुवाद मुनिराज पाठक ने, अंग्रेजी अनुवाद सत्यार्थ ग्रोवर ने और पंजाबी अनुवाद गुरदीप कौर ने किया है| परिशिष्ट में काव्य की कथा से संबंधित चित्र भी दिए गए हैं| सत्य घटना पर आधारित यह ऐतिहासिक खंडकाव्य स्वागतयोग्य है|