कृति - अन्तरिक्षयोधाः
लेखक - डॉ. ऋषिराज जानी
सम्पादक - प्रो. डॉ. गिरीशचन्द्र पन्त
विधा - विज्ञानकथा
प्रकाशक - परिमल पब्लिकेशंस, दिल्ली
प्रकाशन वर्ष - 2022
पृष्ठ संख्या - 255
अंकित मूल्य - 400/-
विज्ञानकथा काल्पनिक साहित्य की वह विधा है जिसमें कथाकार विज्ञान के द्वारा मानवीय जीवन में हो रहे वर्तमान परिवर्तनों को देखकर एवं भविष्य के सम्भावित परिवर्तनों की कल्पना करके मानवजीवन पर पडने वाले उनके प्रभावों को अपनी कथा में चित्रित करता है। कथाकार साहित्य के करघे पर विज्ञान व कथा का ताना-बाना बुनता है। जिस तरह शास्त्रकाव्यों में काव्यत्व के साथ-साथ शास्त्रों के सिद्धान्त गूंथे हुए होते हैं वैसे ही विज्ञानकथा में कथा-तत्त्व के साथ-साथ विज्ञान के सिद्धान्त निहित होते हैं। मेरी शेली की रचना ‘द फ्रन्केनस्टआईन’ (1818) प्रथम विज्ञानकथा मानी जाती है। हिन्दी मे अम्बिकादत्त व्यास रचित आश्चर्यवृतान्त (1884) को हिन्दी का प्रथम विज्ञान गल्प कहा गया है किन्तु कुछ आलोचक केशव प्रसाद सिंह की ‘चन्द्रलोक की यात्रा’ (1900) को प्रथम विज्ञानकथा के रूप में देखते हैं।
संस्कृत में विज्ञानकथा की अवतारणा का श्रेय डॉ. ऋषिराज जानी को जाता है जिन्होंने अन्तरिक्षयोधाः नामक उपन्यास के द्वारा संस्कृत भाषा में प्रभावकारी विज्ञानकथा की रचना की है। यद्यपि इससे पूर्व संस्कृत में दो रचनाएं मिलती हैं जो विज्ञानकथा पर ही आधारित है किन्तु वे दोनों ही कृतियां अन्य भाषाओं से संस्कृत में अनूदित हैं। एकविंशति शताब्दी-द्वाविंशति शताब्दी रूपक है जो हिन्दी मूल में भगवान दास फडिया की रचना है और इसका संस्कृत में अनुवाद प्रेमशंकर शास्त्री ने किया है। इसमें 2060 काल के भविष्य की कथा है जिसमें मनुष्य शुक्र ग्रह पर पहुंच जाता है। एक पात्र को बाद में पता चलता है कि जिससे वह प्रेम कर बैठा था दर असल वह स्त्री न होकर एक रोबॉट है। मृत्युः चन्द्रमसः आडियामूल में डॉ. गोकुलानन्द महापात्र की रचना है जिसका डॉ. पराम्बा श्रीयोगमाया ने संस्कृत में अनुवाद किया है। अतः मौलिक रचना के आधार पर अन्तरिक्षयोधाः को ही संस्कृत की प्रथम विज्ञानकथा कहा जायेगा।
उपन्यासकार डॉ. ऋषिराज जानी ने प्रास्ताविक में विज्ञानकथा का स्वरूप भी विस्तार से स्पष्ट किया है। उनके अनुसार विज्ञानकथा science fiction ऐसी कथा है जिसमें वैज्ञानिक सिद्धान्तों एवं शोधरहस्यों का निरूपण कथारस के साथ निरूपित किया जाता है। डॉ. जानी ने विज्ञानकथा के दो रूप बतलाये हैं- दृढविज्ञानकथा एवं शिथिलविज्ञानकथा। दृढविज्ञानकथा में कथाकार विज्ञान के सिद्धान्तों के साथ छेड-छाड नहीं करता अपितु वह यह प्रयास करता है कि उसकी अपनी कल्पनाओं से विज्ञान के सिद्धान्त दूषित न हों। शिथिलविज्ञानकथा में कथाकार विज्ञान का आश्रय केवल मनोरंजन के लिये लेता है अतः वह अपनी कल्पनाओं द्वारा विज्ञान के सिद्धान्तों में परिवर्तन कर लेता है। इस दृष्टि से डॉ. ऋषिराज जानी की यह कृति दृढविज्ञानकथा के अन्तर्गत आती है। डॉ.जानी ने कथानक के परिप्रेक्ष्य में अन्य दृष्टि से विज्ञानकथा के आठ भेद और बतलाये हैं- अन्तरिक्षनाट्यकथा, अतिप्राकृतकथा इत्यादि। अन्तरिक्षयोधाः अन्तरिक्षनाट्यकथा है क्योंकि इसमें सुदूर अन्तरिक्ष की यात्रा, ग्रहों पर आवागमन, अज्ञातसंकट, उनका प्रतिकार आदि वर्णित किये गये हैं।
अन्तरिक्षयोधाः उपन्यास को सात खण्डों में विभक्त किया गया है-
प्रथम खण्ड- (अशक्यमभियानम्)
इसमें वर्णित कथा भविष्य के किसी कालखण्ड की है जो 2250 ई. से 2475 ई. के मध्य का है। कथा भारतीय अनुसंधान संस्थान के मुख्यालय से प्रारम्भ होती है, जहां संस्थान के मुख्यालय अध्यक्ष डॉ. विक्रम से ज्ञात होता है कि हमारे सौरमण्डल के सुदूर ग्रह यम Pluto की कक्षा में स्थापित कृत्रिम उपग्रह की प्रयोगशाला में स्थित प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. श्रीनिवास व उनकी टीम के सदस्य कहीं लापता हो गये हैं। उनकी सुरक्षा के लिये एक खोजी दल अन्तरिक्ष में भेजा जाता है, जिसमें अपने-अपने क्षेत्र में अनुभवी चार सदस्य हैं। दल का नेतृत्व राकेश करता है, साथ ही टीम में सुनीता, रवीश और कल्पना है। इन सब के नाम आपको हमारे अन्तरिक्ष यात्रियों का स्मरण करवाते हैं। टीम में एक अन्य अनोखा साथी है बोधायन, जो कि एक रोबॉट है। बोधायन प्राचीन भारतवर्ष के प्रसिद्ध रेखागणितज्ञ रहे हैं। उपन्यासकार ने उनके यान का नाम रखा है भरद्वाजयान, जो कि अनेकों वर्षों पूर्व विमानशास्त्र पर लिखे गये यन्त्रसर्वस्वम् नामक ग्रन्थ के रचयिता हैं। ग्रन्थकार ने इन सब के नामों से सम्बद्ध व्यक्तित्वों का परिचय भी दिया है, जो पाठकों की जानकारी में वृद्धि करता है। ये सब अपने अभियान के लिये प्रस्थान करते हैं।
द्वितीय खण्ड- (सूर्यस्य महाताण्डवम्)
अन्तरिक्ष यात्रा के दौरान टीम के सदस्य आने वाले ग्रहों यथा बुध, शुक्र, मंगल आदि के बारे में रोचक जानकारियां देते हैं। सूरज पर आने वाली आंधी से उनका अभियान बाधित भी होता है। वह किस तरह इससे बच कर निकलते हैं, यह पठनीय है।
तृतीय खण्ड- (महामृत्योर्मुखे)
इस खण्ड बृहस्पति ग्रह के 79 चन्द्रमाओं की जानकारी दी गई है। साथ ही नये तारे कैसे जन्म लेते हैं, यह जानकारी लेखक के वैज्ञानिक ज्ञान का परिचय देती है। अभियान की टीम को ज्ञात होता है कि लापता वैज्ञानिकों के दल का किसी ने अपहरण किया है और सम्भवतः वे परग्रहनिवासी एलियन्स भी हो सकते हैं। यहां उल्कापात से आये संकट से टीम का सामना होता है।
चतुर्थ खण्ड - (सप्तर्षिसंस्थानम्)
इस खण्ड में शनि ग्रह के उपग्रह टाइटन पर स्थापित सप्तर्षिसंस्थान नामक प्रयोगशाला का वर्णन है जहां सात रोबॉट इस प्रयोगशाला को संचालित कर रहे हैं। सप्तर्षि हमारी भारतीय परम्परा में बहुत महत्त्व रखते हैं। रोबॉट के नाम प्राचीन भारतीय वैज्ञानिकों के नाम पर रखे गये हैं, यथा- आर्यभट, ब्रह्मगुप्त, चरक, सुश्रुत आदि। आर्यभट्ट आदि यन्त्रमानवों तथा प्राचीन वैज्ञानिकों का परिचय भी ग्रन्थकार कथा के साथ-साथ करवाते चलते हैं।
पंचम खण्ड - (ग्रेमूला- एका विचित्रा सृष्टिः)
अभियान दल लापता वैज्ञानिकों को खाजता हुआ, विविध संकटों का समना करता हुआ अज्ञात ग्रह ग्रेमूला पर पहुंच जाते हैं। वहां उनकी मुलाकात परग्रह वासियों से भी होती है, जो हरी चमडी वाले हैं। यहां वे पृथ्वी से लुप्त प्राचीन जातियों के प्राणियों को देखते हैं। किन्तु तब उनके आश्चर्य की कोई सीमा नहीं होती जब उन्हें पता चलता है कि वे परग्रहवासी जिस भाषा को बोल रहे है वह उनकी पहचानी हुई भाषा है। ग्रेमूला ग्रह की स्वामिनी धु्रवस्वामिनी इन्हें ग्रेमूलाग्रह का इतिहास बतलाती है साथ ही यह भी कि उन्होंने उन वैज्ञानिकों का अपहरण क्यों किया।
षष्ठ खण्ड - (नालन्दायाः प्रभ्रष्टानि चिह्नानि)
उपन्यास की कथा ग्रेमूला ग्रह से चलती हुई प्राचीन भारतीय इतिहास से जुड जाती है, जहां नालन्दा के जीर्ण-शर्ण किन्तु भव्य पन्ने बिखरे पडे हैं।
विभूतिपाद एवं अविमुक्तपाद नामक दो नवीन पात्र कथा में और उत्सुकता जाग्रत कर देते हैं। यहां भरद्वाज मुनि द्वारा अपने ग्रन्थ में बताये हुए रुक्मविमान, शकुन्तविमान, त्रिपुरयान आदि का भी परिचय दिया गया है।
सप्तम खण्ड - (ब्रह्माण्डस्य पर्यन्तः अर्थात् गृहम्)
इस खण्ड में ग्रेमूला ग्रह पर आयोजित कौमुदीमहोत्सव पाठकों का मन मोह लेता है। अन्तरिक्ष से पृथिवी को देखते हुए पात्रों के द्वारा अथर्ववेद के विभिन्न मंत्र बोले जाते हैं। अभियान दल किस तरह वैज्ञानिकों को बचाता है, ग्रेमूला वासियों का क्या होता है, उनका भारत से क्या नाता है, यह सब देखना रोमांचकारी है।
उपन्यास में विभिन्न भाषाओं के नवीन शब्दों के लिये नये संस्कृत शब्द भी प्रयुक्त किये गये हैं ,यथा-
योधविमानचालकः - Fighter-Pilot
यन्त्रमानवः - Robot
नियन्त्रणयन्त्रप्रणाली - Control Panel
दूरेक्षकयन्त्रम् - Telescope
पारशब्दः - Password
डयनसरणी - Flying mode
वस्तुतः यह विज्ञानकथा हमें ऐसी भावभूमि पर ले जाती है जहां हमें प्रतीत होता है कि हम समय के एक ऐसे पुल पर वर्तमान में खडे हैं जहां हमारा भव्य अतीत हमसे पीछे छूट चुका है और अज्ञात भविष्य सामने है, किन्तु समय का पुल भूतकाल को भविष्य से जोड रहा है। हमारे आचार्यों ने जो कहा है कि लेखक का एक कदम परम्परा पर हो तो दूसरा आधुनिकता पर, वह कथन इस उपन्यास में खरा उतरता दिखलाई देता है। इस उपन्यास का हिन्दी अनुवाद प्रो. डॉ. गिरीशचन्द्र पन्त ने किया है, जिसे मूलकथा के साथ ही प्रस्तुत किया गया है। संस्कृत में विज्ञानकथा का यह अवतरण स्वागतयोग्य है और यह आधुनिक संस्कृत के भविष्य का शुभ संकेत है।
https://www.ibpbooks.com/antariksahyodhah-sanskrit-upanyas/p/54524