Sunday, June 5, 2022

परिवर्तनकाव्यम् _ परिवर्तन का दस्तावेज

कृति - परिवर्तनकाव्यम्

लेखक - डॉ. हेमचन्द्र बेलवाल हिमांशु

विधा - शतककाव्य

प्रकाशक - भूमिका प्रकाशन, अल्मोडा, उत्तराखण्ड

प्रकाशन वर्ष - 2015

पृष्ठ संख्या - 83

अंकित मूल्य - 50/-



       संस्कृत कविता में वर्तमान में दो धाराएं चल रही हैं। एक धारा में जहां पारम्परिक विषयों पर कविता लिखी जा रही है वहीं दूसरी धारा में कवि अपने आस-पास के वातावरण में घटित घटनाओं को केन्द्र में रखकर उन्हें अपनी कविता का विषय बना रहा है। संस्कृत युवा कवि डॉ. हेमचन्द्र बेलवाल अपने परिवर्तनकाव्य से दूसरी धारा के कवि प्रतीत होते हैं। सम्प्रति डॉ. बेलवाल उत्तराखण्ड के दुर्गम क्षेत्र में निवास करते हुए विद्यालय में संस्कृत अध्यापक के रूप में अपनी सेवाएं दे रहे हैं। डॉ. बेलवाल के दो काव्यसंग्रह प्रकाशित हुए हैं- देवभूमिग्रामशतकम् एवं परिवर्तनकाव्यम्। देवभूमिग्रामशतकम् में जहां कवि ने अपने समय के गांवों का चित्रण किया है वहीं परिवर्तनशतक काव्यसंग्रह में संकलित तीन शतकों के द्वारा अपने समय को व्यंग्यात्मक शैली के पुट के साथ प्रस्तुत कर रहे हैं। इन तीन शतकों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-



परिवर्तनशतकम् - इस शतक में 100 श्लोक हैं, जो वसन्ततिलका छन्द में निबद्ध हैं। परिवर्तन संसार का नियम बताया गया है किन्तु यह परिवर्तन जब परिवार, समाज व देश में नकारात्मक रूप से दृष्टिगोचर होता है तो कवि आहत होकर उसे अपने काव्य में अभिव्यक्त करता है। कवि की दृष्टि कभी टीवी के द्वारा फैल रहे सांस्कृतिक प्रदूषण पर जाती है तो कभी वह स्त्रियों द्वारा अपनाई जा रही फूहडता पर भी चिन्ता व्यक्त करता है-

आच्छादिता समुचितैर्वसनैः कुलीना

धिॾ्॰ निन्द्यते परिचितैरपि गेहलक्ष्मीः।

अंगप्रदर्शनरता बत काचिदन्या

सम्मानिता भवति भव्यसभासु हन्त।।


कवि पर्यावरण की विकृत स्थिति से चिंतित है| नगर हो या गांव सब जगह पर्यावरण प्रदूषण अपने पैर पसार रहा है_

वृद्धिं न यान्ति तरवो नगरस्थितास्ते 

ग्रामास्थिताश्च किमथाऽत्र निजस्वभावात्

सर्वं प्रदूषणमिदं करुते विनष्टं 

तद् भौतिकस्य भवतु प्रकृते स्तथा‌ंगम् 


कवि विद्यालय में शिक्षक के रूप में कार्यरत हैं। वे शिक्षानीति निर्धारकों को उलाहना देते हुए कहते हैं-

पाठ्यक्रमो विरचितो विबुधैरिदानीं

वैदेशिकीमनुकरोति स, पद्धतिं भोः।

देशे विदेशजनिता बत नीतिरेषा

तक्रादपीच्छति भृशं नवनीतमाप्तुम्।।

              संस्कृत लेखन के क्षेत्र में यह आवश्यक है कि विभिन्न क्षेत्रों के व्यक्ति अपने अनुभवों को अभिव्यक्त करें। प्राचीन संस्कृत साहित्य में हम ऐसे अनेक उदाहरण देख सकते हैं जिनमें शिक्षक से लेकर राजा, हलवाहा, जुलाहा इत्यादि भी अपनी अभिव्यक्ति कविता में कर रहे हैं। सुभाषितसंग्रहों एवं विविध मुक्तकों में इन्हें खोजा जा सकता है।

नवसृष्टिशतकम्- भुजंगप्रयात छन्द में निबद्ध इस शतक में कवि ने 100 श्लोक रचे हैं। यहां कवि वक्ता है जो विधाता को सम्बोधित करता हुआ मुख्य रूप से आतंकवाद से पीडित नवसृष्टि का चित्रण कर रहा है -

हता हा समे वै तदातंकनाम्ना

हता वे तदातंकवादप्रवृत्त्या।

हताश्चाद्य सर्वे वयं भारतीयाः

तदर्थं विधातः प्रपश्यैकवारम्।।

वानरराज्यशतकम् - 100 श्लोको के इस काव्य में कवि द्वारा उत्तराखण्ड के गांवों में बन्दरों के बढते हुए आतंक को विषय बनाया है। कृषक के साथ - साथ आम जन जीवन भी वानरों से त्रस्त है-

पलायिता ग्रामजना अनेके

ग्रामादिदानीं नगरं सुखाय।

सुखार्थिनामाढ्यनॄणां च तेषां

गेहेऽधुना वानरराज्यमस्ति।।

    प्रस्तुत काव्यसंग्रह पर कवि को साहित्य अकादेमी का युवापुरस्कार प्राप्त हुआ है। तीन शतकों के माध्यम से कवि ने अपने कालखण्ड में व्याप्त समस्याओं को तो उकेरा ही है साथ ही सबके मंगल की भी कामना की है। संग्रह में मूल संस्कृत के साथ उनका हिन्दी अनुवाद भी दिया गया है।




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