रचना – बुभुक्षित: काक:(संस्कृत बालकथा)
रचनाकार - डॉ.हर्षदेव माधव
प्रकाशक- संस्कृति प्रकाशन, अहमदाबाद
संस्करण- प्रथम, 2020 ई.
पृष्ठ संख्या – 198
अंकित मूल्य- 240 रू.
अर्वाचीन संस्कृत साहित्य में अपने नये प्रयोगों के लिए प्रसिद्ध लेखक कवि और नाटककार डॉ.हर्षदेव माधव का नाम संस्कृतज्ञों के लिए अनजान नहीं है । गुजरात (अहमदाबाद) निवासी डॉ.हर्षदेव माधव एच.के. आर्ट्सष कालेज में प्रोफेसर हैं । बुभुक्षित: काक: भी इन्हीं नवीन प्रयोगों की श्रृंखला में एक बाल कथासंग्रह है । जिसमें कुल 13 कहानियाँ हैं । इसमें पशु-पक्षियों आदि के माध्यम से लेखक ने जीवनोपयोगी शिक्षा दी है ।
‘त्रिस: पिपीलिका:’ कहानी सरला, कमला, विमला नामक तीन चीटियों की कथा है जो आम खाने के लिए तब तक उद्यम करती हैं जब तक की उन्हें आम प्राप्त नहीं हो जाता । यह कहानी बच्चों को यह शिक्षा देती है कि जब तक हमें हमारा लक्ष्य प्राप्त न हो जाए तब तक हमें निरन्ततर प्रयत्न करते रहना चाहिए ।
सर्वदा यत् वाञ्छितं तत् प्राप्तुं प्रयत्ना: कर्तव्या : ।
‘तपस: सिद्धि:’ कहानी के नायक सुतपा नामक ऋषि हैं । जो अपनी तपस्या के बल पर ईश्वर का साक्षात्कार करते हैं और ईश्वर द्वारा प्रदान की गयी समस्त वस्तु (वरदान) जन कल्याण में लगा देते हैं । डॉ.हर्षदेव माधव लिखते हैं कि जितेन्द्रिय व्यक्ति को कभी भी भौतिक वस्तुओं की अभिलाषा नहीं होती ।
‘बुभुक्षित: काक’ का चतुर कौआ रोटी प्राप्त करने के लिए कितना परिश्रम करता है ।
‘प्राणिनां तीर्थस्य यात्रा’ कहानी के पात्र नीरव(चूह), धवला(बिल्ली), गजराज(कुत्ता), नीलेश(हाथी), वनराज(सिंह) आदि हिंसा छोड़कर अहिंसा का मार्ग अपना लेते हैं । अपने पाप का प्रायश्चित करने के लिए वे सब काशी गंगा स्नान के लिए जाते हैं । ऋषि जाबाल की कृपा से उन सबका मार्ग सुगम हो जाता है । । इस कहानी में बताया गया है कि जब हम कोई नेक कार्य करेंगे तो ईश्वर किसी-न-किसी रुप में हमारी मदद अवश्य करेंगे । ‘मन्त्राणां शक्ति:’ शिवशर्मा नामक एक ब्राह्मण की कहानी है जो अग्निदेव द्वारा प्रदान की गयी एक अद्भुत पुस्तक से ऐसे-ऐसे चमत्कार उत्पन्न करते हैं कि राजपुरुषों को उनसे ईर्ष्या होने लगती है । फलस्वरुप वे वह ग्रन्थे पुन: अग्निदेव को सौंप देते हैं तथा पुन: कभी भी राजदरबार में न आने का प्रण करते हैं । वे कहते हैं-
अहिंसार्थम् अहं मन्त्रकदेवताम् आह्वयामि ।
शिवपण्डित: अवदत् ‘महाराज! अहं तव ग्रामाणां शतं वा सहस्रं वा न कामये । ब्राह्माणा: धनलोलुपा: न सन्तिर । ते राज्यं तृणं इव मन्य ते । मम मति: मन्त्रि णां सदृशी छलकपटमयी नास्ति । अद्यपर्यन्तं अहं मन्त्राजणां प्रयोगं कदापि स्वार्थाय न अकरवम् । विद्या एव मम धनं वर्तते ।
‘क्रोधालु: ऋषि:’ सुदर्शन नामक एक ऋषि की कहानी है । जिन्हें लोग उनके क्रोध के कारण क्रोधदर्शन कहने लगे थे । कहानी के अंत में भगवान उनसे कहते हैं कि हमें किसी भी प्राणी पर हिंसा, क्रोध आदि नहीं करना चाहिए क्योंकि प्रत्येक जीव-जन्तु में ईश्वर विद्यमान है ।
इयं सृष्टि:मम रचना अस्ति । एते सर्वे प्राणिन:, पक्षिण:, मनुष्या:, जलचरा:, सर्वे वृक्षा:, पर्वता: मया रचिता: सन्ति ।
‘दुर्ललित: शक्तिसिंह:’ कहानी में लेखक कहता है कि हमें सदैव अपने बड़ो की आज्ञा का पालन करना चाहिए । नहीं तो इस कथा के शक्तिसिंह की तरफ बाद में पछताना पड़ता है ।
गुरु: प्रवचने अवदत्, ‘तिस्र: देवता वर्तन्ते , माता, पिता गुरुश्च । अत: तेषाम् आज्ञा सदैव शिरोधार्या कर्तव्या । सदैव तेषां वचनानि श्रोतव्यानि । जीवने सदैव कल्याणं भविष्यति युष्माकम् । ’
‘दयावान् राक्षस:’ कहानी में डॉ.हर्षदेव माधव कहते हैं कि व्यक्ति अपने कर्मों से देवता की पदवी को भी प्राप्त कर लेता है । दयाराम नामक राक्षस के जैसे ।
पुत्रक दयाराम ! उतिष्ठ । त्वम् अनेकानि शुभकार्याणि अकरो: । अत: अधुना त्वं राक्षस: न असि । अहं तुभ्यं देवत्वं ददामि ।
लोगों को हराम का नहीं हलाल का खाना चाहिए यह लेखक ने ‘बुद्धिमान गोपाल:’ कहानी में दिया है ।
‘गोकुल: मृत्युमुखात् प्रत्यागच्छति’ इस कहानी में लेखक कहता है कि सभी मनुष्यों को अपनी सामर्थ्य के अनुसार एक-दूसरे की मदद करनी चाहिए । उसका प्रत्यक्ष नहीं अपितु परोक्ष लाभ मिलता है । अपने सत्कर्मों के कारण ही गोकुल नामक युवक मृत्यु के मुख से बच जाता है ।
वत्स! स्मर, त्वं धर्मरहस्यम् । तृषार्तेभ्य: जलम्, बुभुक्षितेभ्य: अन्न म्, पित्रो: शुश्रूषा, अतिथिनां स्वागतं, जीवनस्य औदार्यम्-एतत् सर्वं महते पुण्याय कल्पते । मनुष्य: सुकृतै: मृत्यो: मुखात् अपि स्वात्मानं रक्षितुं क्षम:-इति धर्मस्य रहस्यम् अस्ति । त्वं न कमपि प्रमादं कृतवान् । किन्तु भगवत: प्रसादेन सर्वमपि भवति-न भवति अन्यथा वा भवति । गच्छ, तव कर्त्तव्यं कुरु ।
इसी प्रकार ‘रात्रिदिवसौ कथम् अभवताम्’, ‘भूतस्य शिखा’, ‘केशव: धीवर: राजकुमार: अभवत्’ आदि कहानियों में लेखक ने बच्चों (पाठकों) कुछ-न-कुछ नैतिक शिक्षा प्रदान की है ।
प्रसाद गुण युक्त इस कथासंग्रह की भाषा इतनी सरल और सहज है कि बच्चे इसे आसनी से समझ जायेंगे । यह कथासंग्रह गुजराती भाषा में अनुवाद के साथ प्रकाशित हुआ है । इसका गुजराती अनुवाद डॉ.श्रद्धा त्रिवेदी ने किया है । पुस्तक की छपाई, कलेवर और प्रस्तुतिकरण सुरुचिपूर्ण है