कृति – ऋषेः क्षुब्धे चेतसि
विधा – आधुनिक संस्कृत हाइकु, तान्का तथा सिजो कविता संग्रह
विधा – आधुनिक संस्कृत हाइकु, तान्का तथा सिजो कविता संग्रह
कवि – डा. हर्षदेव माधव
संपादक – प्रीतेश शुक्ल
प्रकाशल्क्– श्रीवाणी अकादमी, A – 12, हीरामोती टेनामेन्टस्, सिद्धि कोम्पेक्स समीप, गुलाब-सोप फेक्टरी निकट, चांदखेडा, गान्धीनगर, गुजरात
प्रकाशन समय – जनवरी 2004
पृ. सं. – vi + 110,
मूल्य – 80/-
कवि डा. हर्षदेव माधव संस्कृत जगत् में अपने काव्य विधाओं के लिए प्रख्यात यशस्क है । समकालिक संस्कृत जगत् में कवि माधव एक चेतना है जो चाहे काव्य शैली की दृष्टि से हो या फिर विषय वस्तु की दृष्टि से हो, वे आधुनिकता को साव्यस्त करते है । संस्कृत केवल ब्राह्मणों की पूजा पाठ की भाषा या फिर राज सभाओं में सम्वर्धित राजकवियों के विरुद या राजा के गुणगान के लिए नहीं हैं, अपितु संस्कृत भाषा विज्ञान को भी कहती है, सामान्य जनता के दुःख को परिभाषित करती हैं, जनजातियों की संस्कृति को भी बोलती है, विश्व समस्याओं को उठाती है, प्रकृति को पात्र बना कर कहीं उसके सौन्दर्य में खो जाती हैं तो कहीं उसके आसुँओं में अपनी लेखनी भिगोती है ।
संस्कृत में अभिनव काव्य विधाओं का प्रयोग और प्रतिष्ठा का श्रेय कवि डा. माधव को है । छन्दों की बात करे तो प्राग् गायत्री छन्द ‘मा’ (चार अक्षर), ‘प्रमा’ (आठ अक्षर), ‘प्रतिमा’ (बारह अक्षर), ‘उपमा’ (षोलह अक्षर), ‘संमा’ (विश अक्षर) इन पाञ्चों से वैदिक छन्द प्रारम्भ होते हैं । वैदिक छन्द अक्षराश्रय होते हैं भले ही लौकिक संस्कृत में वही छन्द कुछ परिपाटी के साथ मात्राश्रय क्यों न बन जाये । जैसे की गायत्री को उपजीव्य करके तनुमध्या (पिपीलिकामध्या एक वैदिक छन्द भी है जो विराट् छन्दों का प्रसङ्ग में कहा गया है), शशिवदना, विद्युल्लेखा, वसुमती आदि छन्द हुआ करते हैं । उसी प्रकार उष्णिक् को आधार करके मदलेखा; अनुष्टुप् को आधार करके चित्रपदा, विद्युन्माला, माणवक, हंसरुत, समानिका, प्रमाणिका, बृहती को आधार बनाकर हलमुखी, भुजगशिशुभृता आदि 26 वैदिक छन्दों के आधार पर 110 लौकिक छन्दों को कविओं की लेखनी छन्दायित करती हैं । उसके अतिरिक्त मुक्तक, गजल, सॉनेट्, गीति कविता, लोक गीतों के स्वर और वैदेशिक छन्दों में भी आधुनिक संस्कृत काव्य गतिमान है । संस्कृत भाषा की आधुनिकता प्रतिपादन करने के लिए अब उत्तरपक्ष की आवश्यकता नहीं है जब से संस्कृत इन सारी विधाओं में अनुरञ्जित हुई है ।
इस क्रम में जापान देशीय काव्य विधा हाइकु और तान्का तथा कोरिआ देशीय काव्य विधा सिजो को संस्कृत काव्य विधा के रूप में प्रतिष्ठित और प्रसिद्ध कराने का श्रेय कवि हर्षदेव माधव को जाता है । 567 हाइकु, 83 तान्का और 50 सीजो कवितायों का संग्रह है ‘ऋषेः क्षुब्धे चेतसि’ । इसके साथ साथ संपादक का प्राक्कथन ‘विश्वविक्रेता की ओर संस्कृत कविता’, कविताओं के क्रम के वाद संस्कृत हिन्दी अनुवाद के साथ चार आलेख – (i)डा. रश्मिकान्त ध्रुव द्वारा लिखित और प्रो. गोवर्धन बंजरा द्वारा अनूदित ‘हाइकु एवं तान्का काव्य’ (ii) डा. इलाघोष द्वारा लिखित ‘संस्कृत साहित्यस्य नवरूपं हाईकुकाव्यम्’ (iii) डा. जशवन्ती दवे द्वारा लिखित और प्रो. गोवर्धन बंजारा द्वारा अनूदित ‘सिजो काव्य’ एवं (iv) डा. रश्मिकान्त ध्रुव द्वारा लिखित और प्रो. गोवर्धन बंजारा द्वारा अनूदित ‘सीजो (सिजो) काव्य’ काव्यविधायों की पृष्ठभूमि प्रस्तुत करते हैं ।
हाइकु विधा में चार स्तबक हैं । काव्य संग्रह का नामकरण चतुर्थ स्तबक में वर्णित हाइकु संख्या 562 की मध्यम पंक्ति है । प्रथम स्तबक (1970-1974 की कवितायें) ‘लावारसदिग्धाः स्वप्नमयाः पर्वताः’ शीर्षक 1996 में प्रकाशित काव्य का संशोधित पाठ है । कवि ने अपना प्रथम स्तबक को अपनी पत्नी श्रुति हर्षदेव को समर्पित किया है । इस स्तबक में 1 – 202 हाइकु विविध विषयों पर है । हाइकु विधा 5 – 7 – 5 अक्षरों का (समुदाय 17 अक्षरों का) होता है । इस को नामान्तर में क्या हम प्रजापति छन्द कह सकते हैं ? क्यों की प्रजापति के लिए जो पाञ्च व्याहृतिआँ होती है उनमें कुल 17 अक्षर होते हैं । इसलिए ‘सप्तदशो वै प्रजापतिः...(श. ब्रा. 1. 4. 3. 17)’ कहा गया है । और क्या हम इस छन्द को पाञ्च पादों में व्याहृतिओं की तरह उपस्थापित कर सकते है और अलग नाम दे सकते हैं ? प्रवृद्ध पाठक और कवि गण इस पर समाधान रखेङ्गे यह विनती है । तो त्रिपाद गति युक्त हाइकु कविता त्रिलोचन की स्तुति और त्रिशाखी बिल्व पत्र के उपमा के साथ प्रारम्भ हुआ है । यथा –
हे त्रिलोचन !
शमय त्रिँस्तापान्
त्रिजन्मनां मे ।। (पृ. सं. 2, हाइकु 1)
और
बिल्ब-पत्राणि
त्रिपङ्कितपल्लवानि
गृहाणेमानि ।। (पृ. सं. हाइकु 3)
मनुष्य मन की आस्था और अनास्था के उपर ईश्वर की स्थिति होती है । इस तथ्य को कवि ने कहा है कि-
पाषाण एव
ईश्वरः । ईश्वरस्तु
पाषाण एव । (पृ. सं. 5, हाइकु 37)
ईश्वरः । ईश्वरस्तु
पाषाण एव । (पृ. सं. 5, हाइकु 37)
कार्यव्यस्त मनुष्य का दिन प्रतिदिन की जीवनचर्या को गाणितीक चिह्नों के माध्यम से व्यंग्य के साथ कवि ने संकेतित किया है की क्या विभाजित होता है क्या गुणित होता है और क्या संयुक्त होता है -
आँफिस – चिन्ता
X गृहिणी + उपनेत्रं
÷ क्षयः = जीवितम् (पृ. सं. 6, हाइकु 49)
कहीं पर प्रकृति का सम्मोह संसार बन्ध के रूप में कवि को आमोदित करता है तो कहीं जीवन्मुक्ति का मार्ग अन्वेषण करती हैं कविता की ये पंक्तियां –
को मां गमनात्
बलात् कर्षति ? गन्धः
शेफालीकानाम् ।। (पृ. सं. 10, हाइकु 96)
और
उद्घाटिते वा
बद्धे द्वारे । मुक्तोऽहं
गमनागमनात् ।। (पृ. सं. 11, हाइकु 112)
प्रकृति को पात्र बनाकर उनसे अपनी संवेदनाओं को उकेरता हैं कवि, कविता पंक्ति में प्रणय राग में –
आषाढस्पर्शः
पृथिव्यास्तन्व्याः शरीरे
तृणरोमाञ्चः ।। (पृ. सं. 14, हाइकु 149)
फिर कवि ने काश्मीर को पृथिवी नायिका को हृदय रूप में अङ्कित किया हैं -
काश्मीरे ! पृथ्व्याः
कञ्चुलिकायां हृदः
स्पन्दनं त्वं हि ।। (पृ. सं. 17, हाइकु 178)
द्वितीय स्तबक 1992-1999 के बीच लिखित हाइकु है । यह स्तबक कवि नारायण दाश को कवि ने समर्पित किया है । हाइकु 203 से 285 तक इस स्तबक में सज्जित है । शास्त्र पठन से अन्तःकरणों की शुद्धि होती है यह बात कवि हाइकु में इस प्रकार है –
प्राचीनग्रन्थे
हृदयमवगाह्य
भवति शुद्धम् ।। (पृ. सं. 22, हाइकु 206)
छायावाद के विप्रलम्भ को कवि ने झरोखों के सूनेपन, इन्तजार में श्रान्त होना और सपनों के मुरझा जाने के द्वारा अङ्कित किया है -
रिक्तो गवाक्षः
श्रान्ता प्रतीक्षा । म्लानः
हृदये स्वप्नः ।। (पृ. सं. 23, हाइकु 216)
रहस्यवाद का संस्कृत कवि वर्णन न करे यह नहीं हो सकता । इसकी कुछ छटाएँ -
मन्त्रः । मे घटः
उच्छलति रिक्तोऽपि
चिच्चन्द्रिकया ।। (पृ. सं. 26, हाइकु 264)
ऋषिओं के अरण्य ध्यान के माध्यम से कवि ने उस रहस्य की ओर संकेत किया है –
निबिडारण्यम् ।
शृणोमि मौनम् । प्रेक्षे
रहस्यरूपम् ।। (पृ. सं. 27, हाइकु 273)
कवि ने इस संग्रह के तृतीय स्तबक को कवि अजय कुमार मिश्र को अर्पण किया है । इसमें सन्निवेशित हाइकु 2000 से 2002 के बीच में लिखे हुये हैं । 286 – 402 तक हाइकु इस स्तबक के अन्तर्गत है । कवि का स्वप्न आखों में वैसे ही आमोदित होता हैं जैसे वृक्ष की शाखाओं में पत्र-
पर्णनर्तनं
शाख्यायाम् । नेत्रयोः
स्वप्न-स्पन्दनम् ।। (पृ. सं. 30, हाइकु 297)
कार्यक्षेत्र में ईमानदारी से काम न करने वालों के कारण देश की प्रगति नहीं हो पाती है । इस तथ्य को कवि ने कहा है –
आसन्दी रिक्ता
कार्यालये । शरीरं
रुग्णं राष्ट्रस्य ।। (पृ. सं. 32, हाइकु 313)
सब ऋतु और आमोद का हर सम्भावना होते हुए भी बालक अपना शैशव या कैशोर नहीं जान पाता । इस बाल श्रमिक प्रथा का विरोध करते हुए कवि ने कहा है कि –
बालश्रमिकः ।
ऋतुत्यक्तं कुसुमं
जडो निर्झरः ।। (पृ. सं. 34, हाइकु 340)
माँ का हृदय किसी भी तीर्थ या क्षेत्र से अधिक पुण्यप्रद होता है -
मातृ-हृदयम्
कारुण्य-गङ्गोद्भेदः ।
वात्सल्य-काशी ।। (पृ. सं. 35, हाइकु 349)
हाइकु का अन्तिम स्तबक चतुर्थ स्तबक कवि राधावल्लभ त्रिपाठी को समर्पित है । कवि इस स्तबक में भग्न मूर्तियों, चिकित्सालय आदि का वर्णन किया है । हाइकु 403 – 567 तक जो की 2003 की रचनायें हैं, इस में सम्मिलित है । पातिव्रत्य के महत्त्व को भारतीय नारियों के नित्यकर्मवर्णन में कवि उकेरते हैं-
तुलसी-तले
दीपः पातिव्रत्यस्य
सुरभिर्गृहे ।। (पृ. सं. 43, हाइकु 422)
गुरु की तितिक्षा ग्रीष्म में वृक्ष छाया जैसी और विद्यादान अन्धकार में सिक्थ वर्त्तिका जैसा है – इन बिम्बों के साथ कवि वर्णन करते हैं-
गुरुः । तमसि
सिक्थवर्तिः, आतपे
वृक्षस्य छाया ।। (पृ. सं. 44, हाइकु 446)
ज्ञानधनी और मुक्तिकामी उभय गण से दूर रहना पसन्द करते है । कवि की भाषा में –
जनसम्मर्दात्
मुक्तिः । मयाऽपि प्राप्तं
बुद्धत्वं मम ।। (पृ. सं. 5, हाइकु 37)
इस स्तबक की निम्न पंक्तियों से काव्य संग्रह का नामकरण हुआ है । वस्तु अपनी स्थिति को खोने में जो विक्षिप्त होता है फिर क्षुभित होता हैं और अपनी पूर्वावस्था को प्राप्त करता है, इस बिम्ब के माध्यम से कवि समाज को देखना चाहता है -
अब्धौ कौमुदी ।
ऋषेः क्षब्धे चेतसि
मेनकाछविः ।। (पृ. सं. 55, हाइकु 562)
इस चार स्तबकों के हाइकु के बाद कवि ने काव्य वीणा में तान्का कवितायों का तार संजोया है । 1980 से 1985 के बीच लिखी गये इन तान्काओं को कवि ने डा. इला घोष को समर्पित किया है । तान्का 5 – 7- 5 – 7 – 7 की पंक्ति का एक जापानीय छन्द है । हाइकु इस तान्का से उतरा हुआ एक छन्द है । छोटे छोटे छन्द बिम्बों के माध्यम से, व्यञ्जना से और संकेत से जो मार्मिकता हृदय में भरते हैं कभी कभी इससे चार गुणा अक्षरवाले बडे छन्द नहीं भर पाते हैं । शून्यता में जब आशा की ज्योति होती है तब कवि, कालिदास की आशा पोषण के स्थल रामगिरि से और आशा के स्वप्न स्थल अलका से भी आगे निकल कर सर्वत्र अलकनन्दा का पुण्य प्रवाह देखता है –
पुनः शून्ये मे
कक्षे प्रणयपत्रं
रोमाञ्चो गात्रे ।
न रामगिरिः । नालका ।
सर्वत्रालकानन्दा ।। (पृ. सं. 61, तान्का 32)
अन्त में कवि ने कोरिया देश के छन्द सिजो की 50 पंक्तियों में काव्य को सीमित किया है । कवि ने 1987 में ‘सुरभारती’ पत्रिका में प्रथम सिजो कविता लिखी थी । 1 – 50 तक सिजो 1985 से 1987 तक लिखी हुई कवितायें हैं । इस गुच्छ को कवि ने शिव कुमार मिश्र को अर्पित किया है । हर्षदेव के काव्य में 15 + 15 + 15 अक्षरों की तीन पंक्तिओं में कुल 45 अक्षर में सिजो दिखने को मिलता हैं जो वैदिक त्रिष्टुप् की याद दिलाता हैं । प्राय: स्वदेश में यह छन्द युद्ध वर्णन का छन्द होता है । संस्कृत कवि युद्ध की भयावहता के वर्णन के साथ अन्य चित्र को चित्रित करने में भी इसका प्रयोग करता है ।Bonglaishan नामक पहाड की चोटी पर सिद्ध ऋषियों का सङ्ग जन्मान्तर में मुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर सकता हैं यह भावना इस सिजो में इस प्रकार है -
बोंगलाइशान सानौ
प्राप्नुयाम् ... चेत् मे स्थानम् ।
ऋष्याश्रमेषु कुर्याम्
किमपि मन्त्राणां गानम् ।
जन्मान्तरे स्रोतोरूपं
आत्मनो भवेत् पानम् ।। (पृ. सं. 70, सिजो 1)
विश्व से उपनिवेशवाद का विलोप के लिए जो जो युद्ध विभीषिकायें हुई उनको याद करके कवि दक्षिण अफ्रिका दिवस पर लिखते हैं –
हिरोशिमायां दग्धोऽस्मि
नष्टोऽस्मि गोलिकया ।
वियेतनामे हतः, मे
शब्दः ‘Quit India’
जन्म ग्रहीष्यामि वक्तुं
स्वतन्त्रं ‘Namibia’।। (पृ. सं. 76, सिजो 50)
कवि के इस संग्रह में कविताओं का संयोजन समय को दृष्टि में रखते हुये किया गया है । हाइकु स्तबकों को लेकर कभी मन कहता है की प्रणय और विप्रलम्भ आदि एक स्तबक, मुक्ति और साधना एक स्तबक, प्रकृति के सौन्दर्य छटा का एक स्तबक एवं सामाजिक समस्या की ओर संकेत एक स्तबक होता तो एक ही भाव में कुछ समय पाठक का मन निमग्न रहता । हर हाइकु पर भाव भूमि बदलना नहीं पडता । हाइकु के मर्मज्ञ कवि हर्षदेव माधव का यह संग्रह संस्कृत काव्य प्रेमियों को जरूर एक नूतन आयाम की ओर ले चलेगा ।
प्रस्तुति – डा. पराम्बाश्रीयोगमाया
सहायक आचार्या, स्नातकोत्तर वेद विभाग,
श्रीजगन्नाथ संस्कृत विश्वविद्यालय, श्रीविहार, पुरी 752003, ओडिशा ।
सहायक आचार्या, स्नातकोत्तर वेद विभाग,
श्रीजगन्नाथ संस्कृत विश्वविद्यालय, श्रीविहार, पुरी 752003, ओडिशा ।
डा.पराम्बाश्रीयोगमाया द्वारा हाइकु सम्राट 'डॉ.हर्षदेव माधव' कृत 'ऋषेः क्षुब्धे चेतसि' कृति पर ब्लोग के रूप में की गई इस समीक्षा को पढा,बहुत-बहुत साधुवाद कवयित्री महोदया ।
ReplyDeleteइस उत्कृष्ट समीक्षा को पढकर सम्पूर्ण कृति का संक्षिप्त परिचय प्राप्त हुआ । साथ ही हाइकु, तान्का तथा सिजो छन्दों का सोदाहरण समीक्षात्मक परिचय भी मिलता है जो कि नवीन शोधार्थियों और इन वैदेशिक छन्दों से अपरिचित संस्कृत साधकों के लिए अत्यन्त उपयोगी है।
आभार
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